बुधवार, 23 जनवरी 2008
दफ्तर से भी प्यार करना सीख्रें
डा. महेश परिमल
उस दिन मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरा सहकर्मी अपने मित्र से कह रहा था कि यार तुम मेरे दफ्तर ही आ जाना, वहीं सारी बातें कर लेंगे. फिर बाद में मुझे समय नहीं मिलेगा. मुझे लगा कि क्या दफ्तर इतनी बेकार जगह है, जहाँ किसी को लंबी बातचीत के लिए बुलाया जाए? क्या मेरे सहकर्मी को दफ्तर में कोई काम नहीं है?
कल्पना करें एक पुजारी को रोज की जाने वाली पूजा से बोरियत होती हो और उसकी मंदिर जाने की इच्छा ही न हो, तब क्या होगा? देखा जाए तो रोजमर्रा की पूजा और मंदिर जाना सचमुच कई बार बोरियत को जन्म देता है, पर इसे ही दूसरे नजरिए से देखा जाए, तो यह बात हमें नागवार गुजरेगी. आप ही बताएँ जिस स्थान पर हम अपने जीवन का एक तिहाई हिस्सा गुजारते हैं, जहाँ से हमें अपने परिश्रम का फल मिलता है, हमारी आर्थिक जरूरतें पूरी होती हैं, हमें अपना जीवन सँवारने का अवसर मिलता है. भला उस स्थान से कैसी नफरत?
लेकिन आज हो यही रहा है. लोग अपने दफ्तर को एक उबाऊ स्थान मानते हैं. वे वहाँ से चम्पत होने के फिराक में लगे रहते हैं. एक तरफ तो वे उसी दफ्तर को अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का साधन मानते हैं, दूसरी तरफ वे उसी स्थान को छोड़कर दूसरी जगहों पर अपना समय गुजारने में अधिक विश्वास करते हैं. आखिर यह दोहरी मानसिकता भला केसी?
यह सच है कि दफ्तर जाते ही वही चेहरे, वही फाइलें, वही टेबल-कुर्सी आदि सब जो ऑंखों में बस जाते हैं, वही बार-बार ऑंखों के सामने आती हैं, तो हमें वह सब एकरसता याने मोनोटोनस लगता है. जीवन में जिस प्रकार रोज एक ही तरह का भोजन हमें रुचता नहीं, ठीक उसी तरह एक ही तरह का वातावरण हमें नहीं रुचता. जीवन परिर्व(ानशील है. हर चीज आज बदलाव के दौर से गुंजर रही है. ऐसे में यदि दफ्तर के काम में बदलाव आज जाए, तो संभव है उसमें भी हमें रुचि आने लगे.
आज अधिकांश कार्यालयों में कंप्यूटर से काम होने लगे हैं. इसमें कई तरह की ज्ञान की बातों का समावेश है. यदि उसमें इंटरनेट है, तो समझो वह ज्ञान का खजाना है. आपको बस उसमें से काम की बातें निकालनी है. यदि यही काम हम दूसरों के लिए भी कर दें, तो संभव है हमारा वह साथी भी हमसे खुश रहे और कार्यालय में हमारा महत्व बढ़ जाए. यह हमेशा याद रखें कि दफ्तर एक उपासना स्थल है, यहाँ उपासना जितनी कठिन होगी, संतुष्टि उतनी अधिक प्राप्त होगी. इसमें अपनापन ढूँढ़ेंगे, तो अपनापन पाएँगे. यदि इसे बेगाना मानेंगे, तो वही दफ्तर हमें बोझ लगने लगेगा.
आजकल लोग अपने आराध्य स्थल को लोग बोझ मानने लगे हैं. वेसे भी आज हर इंसान के पास यदि अपना आस्मां है, तो अपना तनाव भी है. बच्चे भी अब तनावग्रस्त होने लगे हैं. हमसे ही प्राप्त कर रहे वे तनावभरी ंजिंदगी. विरासत में मिलने लगा है उन्हें तनाव. खुशी तो अब दुर्लभ वस्तु बनकर रह गई है. हर कदम पर समस्याओं का चौराहा हमारे सामने होता है. तब यदि बोझ बने दफ्तर का विचार लेकर घर आएँ, तब क्या हालत होगी घर और बच्चों की? कभी सोचा आपने और हमने?
पुजारी को पूजा से कभी बोरियत नहीं होती. वह उसमें रमने का बहाना ढूँढ़ ही लेता है. क्यों न हम भी अपने कार्यालय को मंदिर मानें और काम ही पूजा है, इस सूत्र वाक्य के साथ जुट जाएँ अपने काम में. कुछ समय तक आपको यह सब करना अटपटा लग सकता है, लेकिन कुछ ही दिनों बाद आप उसमें परिर्व?ान पाएँगे, आपको लगेगा कि ये क्या हो रहा है? आप खुश रहकर सबको खुश रखने का प्रयास करें, यही व्यवहार जब आपसे भी होने लगेगा, तब तो समझो आपने अपने आप पर ही फतह कर ली. बहुत बड़ी बात नहीं है यह, एक बार करके तो देखें, आपकी दुनिया ही बदल जाएगी. आपको बस अपने आराध्य स्थल को बेहतर बनाने के लिए केवल एक कदम बढ़ाने की आवश्यकता है, कुछ समय बाद आप स्वयं को दस कदम आगे पाएँगे.
डा. महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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