बुधवार, 30 जनवरी 2008

शहरी जंगलों में खोता बचपन


डॉ. महेश परिमल
छुट्टी के दिन बाजार जाना हुआ, रास्ते में देखा कि सड़क के बीचो-बीच कुछ पत्थर रखे हुए हैं। यह संकेत आम है कि ऐसा केवल उस समय किया जाता है, जब सड़क पर किसी तरह का काम चल रहा हो। लोग समझ जाते हैं और दूसरी तरफ से आगे निकल जाते हैं। पर उस दिन आश्चर्य हुआ कि इस तरह की शरारत बच्चों ने क्रिकेट खेलने के लिए की थी। सड़क पर तो किसी भी तरह का काम नहीं चल रहा था, बच्चों ने ही सड़क पर पत्थर रखकर क्रिकेट खेलने का जरिया बना लिया। लोग तो आगे बढ़ गए, पर शायद यह किसी ने नहीं सोचा कि आखिर बच्चे सड़क पर ही क्रिकेट क्यों खेलते हैं?
एक मोहल्ले की इमारतों की खिड़कियों पर यदि काँच नहीं है, तो यह समझ लेना आसान होता है कि इस मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट प्रेमी हैं। उनके ही बॉल से खिड़कियों के काँच ने अपना अस्तित्व खो दिया है। यह तो हुई खामोश खिड़कियों की बात, पर मुम्बई के उपनगर दइसर की उस घटना को क्या कहा जाए, जिसमें रात आठ बजे क्रिकेट खेलने वाले चार किशोरों को पुलिस पकड़कर ले गई। वजह केवल यही थी कि क्रिकेट खेलते हुए बॉल पास के एक फ्लैट की खिड़की की लोहे की जाली को छुकर निकल गई थी। बस उसके मालिक ने पुलिस को टेलीफोन से इसकी शिकायत कर दी। पुलिस ने उन चारों किशोरों को थाने पर काफी समय तक बिठा रखा। बाद में उन्हें अभिभावकों के विनय अनुनय के बाद समझाइश देते हुए छोड़ दिया गया।
बात फिर वहीं आ जाती है कि आखिर बच्चे खेलने के लिए जाएँ तो जाएँ कहाँ? वेसे भी देखा जाए तो आजकल के बच्चों के पास पढ़ाई, होमवर्क और टयूशन के बाद इतना भी वक्त नहीं है कि वह कुछ खेल भी सके। फिर भी बच्चे यदि इसके लिए समय निकाल लें, तो यह बड़ी बात है। चलो, उन्हें समय मिल गया, तो क्या खेलें? आजकल तो क्रिकेट ही राष्ट्रीय खेल बना हुआ है, क्योंकि इसमें अच्छा खेलने वाले को सम्मान ही नहीं, बल्कि काफी धन भी मिलता है। इसी सोच के चलते आज हर बच्चा क्रिकेट ही खेलना चाहता है। इस खेल के लिए थोड़ा मैदान तो चाहिए ही। पर आज महानगरों में फैलते कांक्रीट के जंगलों में भला मैदान कहाँ से मिलेगा। जो जगह थी, वह तो पार्किंग में निकल गई, जो थोड़ी-बहुत जगह थी, वहाँ पेड़-पौधे लगा दिए गए। बच्चों के लिए पार्क की व्यवस्था फ्लैट लेने के पहले थी, पर बाद में केवल कागजात में ही सिमट गई। बच्चों के लिए कोई जगह नहीं। ऐसे में बच्चे सड़क पर उतर जाएँ, तो दोशकिसे दिया जाए?
आज क्रिकेट ही क्यों, किसी भी खेल की बात कर लें, तो स्पष्ट होगा कि शहरों से निकलने वाले खिलाड़ियों से बेहतर तो गाँव के युवा खिलाड़ी ही सफल हो रहे हैं। इसकी वजह यही है कि आज महानगरों दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलोर, अहमदाबाद, सूरत, बड़ोदरा में जहाँ बच्चों को खेलने के लिए खुले विशाल और हवादार मैदानों की कमी हैं, वहीं गाँवों के बच्चे गाँव की सीमा के खेतों में, नदी के तट पर और खुले आसमान के नीचे थककर चूर होने की हालत तक खेलते हैं और अपना पूरा बचपन जीते हैं, ऐसे में खेल प्रतिभा तो गाँव से ही निकलेगी। दूसरी ओर अँगरेजी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों ने कबड्डी, खो-खो, छुप्पन छुपैया, गिल्ली-डंडा जैसे नाम भी शायद ही सुने हों। उन्हें तो क्रिकेट, टेबल-टेनिस, बेस बॉल, फुटबॉल आदि खेलों की जानकारियाँ घर के एक कोने में रखे इडियट बॉक्स के द्वारा मिल ही जाती है, किंतु इन खेलों के लिए भी उन्हें खुला मैदान नसीब नहीं होता, सो वे कंप्यूटर या विडियो गेम से ही इन खेलों का लुत्फ उठा लेते हैं। सभी को तो पेशेवर खेल संस्थाओं की सुविधा तो नहीं मिल सकती।
कहने की बात यह है कि शहरी बच्चों का बचपन सीमेंट कांक्रीट के जंगलों के बीच खो गया है। उनकी छोटी सी नाजुक जिंदगी में खेलों के द्वारा उत्साह, उमंग, ताजगी, मित्रता, तंदुरुस्ती का सिंचन हो ही नहीं पा रहा है। ऐसे में कुछ बच्चे यदि छुट्टियों का मजा लेने अपने ननिहाल चलें जाएँ और वहाँ खुले आसमान के नीचे ताजा हवा के साथ नदी किनारे खेलने मिल जाए, तो फिर क्या कहना? वे इन पलों को खोना ही नहीं चाहते, खुलकर भरपूर जीते हैं। फिर शहर आकर बीते पलों की याद में ही जीने को विवश हो जाते हैं। तब उनकी हर बात पर गाँव के खुले मैदान की चर्चा होती है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो बच्चे अपने बचपन में भरपूर खेल नहीं खेल पाए, उन्हें बड़ी उम्र में मानसिक और शारीरिक समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। ऐसे बच्चे जिनका बचपन खेल से दूर होता है, वे आगे चलकर चिड़चिड़े स्वभाव के, स्वार्थी, शंकाशील और शरीर से दुबले-पतले होते हैं। उनकी रोग प्रतिकारक क्षमता कम होती है। उनमें एकता, मेलजोल, सद्व्यवहार जैसे कुदरती गुणों का भी विकास नहीं हो पाता।
महानगरों में फ्लेटधारी अक्सर यह शिकायत करते हुए पाए जाते हैं कि फ्लेट बनने के पहले उन्हें दिए गए नक्शे में बच्चों के लिए पार्क का स्थान था, जो बाद में गायब हो गया। इसके लिए वे बिल्डर को दोषी मानते हैं, किंतु बिल्डर का कहना होता है कि हम तो बच्चों के खेलने और वृध्दों के बैठने के लिए खुली जगह रखते ही हैं, पर सोसायटी वाले उसका उपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर देते हैं। शादी, रिसेप्शन और जन्मदिन की पार्टी के लिए इस जगह का भरपूर इस्तेमाल किया जाता है। यदि हम बगीचा बनाते हैं, तो इसकी ठीक तरह से देखभाल नहीं की जाती। ऐसे में हमारा क्या दोष?
कुछ भी कहिए, आज महानगरों में बिल्डर और हाउसिंग सोसायटी के बीच मासूमों का बचपन छिन रहा है। हम लाख अपने आपको समझा लें, पर यह सच है कि जिसका बचपन खिलखिलाता होगा, उसका पूरा जीवन ही हँसता-मुस्कराता होगा। बचपन की निर्दोष शरारतों का मजा जिसने नहीं लूटा, उसकी जिंदगी बिल्कुल कोरी है। आज के शहरी किशोर इन्हीं कोरी जिंदगियों के बीच अपना समय गुजार रहे हैं।
डॉ. महेश परिमल

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