शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

विद्यार्थियों के भीतर दहकता लावा

डॉ. महेश परिमल
कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। पर आज यदि इन भविष्य पर दृष्टि डाली जाए, तो हम पाएँगे कि आज हर बच्चे के भीतर एक दावानल दहक रहा है। 11 दिसम्बर को गुड़गाँव की एक स्कूल में दो विद्यार्थियों द्वारा अपने साथी की स्कूल में ही हत्या करने की स्याही अभी सूख भी नहीं पाई थी कि 3 जनवरी को सतना जिले के चोरबनी में घटी एक घटना ने यह साबित भी कर दिया है। यहाँ क्रिकेट के दौरान हुए विवाद के कारण दसवीं के एक छात्र ने आठवीं के छात्र की गोेली मारकर हत्या कर दी। भारत में एक महीने में ही अपने सहपाठी को गोली मारने की यह दूसरी घटना है। हमारे देश के शिक्षाविद् सभी के बारे में सोचते हैं, पर बच्चों पर क्या बीत रही है, इस पर कोई सोच नहीं रहा है। देश के इस भविष्य पर आज हम नहीं सोच पा रहे हैं, इसका आशय यही हुआ कि यह वगर्र् पूरी तरह से उपेक्षित है। वर्तमान में देश के भविष्य की चिंता नहीं होगी, तो फिर भविष्य किस तरह से सुरक्षित रहेगा। इस पर कोई सोच नहीं रहा है। सरकार की तमाम योजनाएँ केवल कुछ वर्र्गों तक के लिए ही सीमित होकर रह गई है।
आज आप किसी भी विद्यार्थी से थोड़ी सी बात करके देख लीजिए, वह किस तरह से खीझते हुए आपसे बातचीत करेगा। उसके व्यवहार से ऐसा लगेगा कि वह आपसे बात करके आप पर एहसान कर रहा है। कक्षा में बच्चों को इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि विषय पढ़ाते जाते हैं, पर किसी स्कूल में कभी संयम, धैर्य, नम्रता आदि का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। आज इन विषयों की भी उतनी आवश्यकता है, जितनी अन्य विषयों की ।
आज हमारे देश की शालाओं का वातावरण लगातार बिगड़ रहा है । महानगरों की शालाओं में पढ़ने वाले रईसजादॊं के बच्चों के कारण इसमें और तेजी आई है। अब तो स्कूलें अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन का मंच न होकर मसलपॉवर और मनीपॉवर के प्रशिक्षण केंद्र बनने लगे हैं। इन स्कूलों में विद्यार्थी छेड़छाड़ से लेकर धन के मामले में गैंगवार होने लगे हैं । आए दिनों इस तरह की घटनाएँ अखबारों में पढ़ने को मिलती रही हैं, अब तो ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ने लगी है। इन महानगरों में न जाने कितने विद्यार्थी स्कूलों में पढ़ाई के साथ-साथ हफ्ता वसूली के रैकेट चलाने लगे हैं। कई जगह तो शिक्षकों की मिलीभगत में ही छात्राओं को वेश्यावृत्ति के व्यवसाय में धकेलने की घटनाएँ भी सामने आने लगी हैं। इस प्रदूषण का मुख्य कारण यही है कि आज बच्चों में सदाचार और सद्विचार की भावना को पूरी तरह से पनपने का मौक ही नहीं दिया जाता । गुड़गाँव की घटना शिक्षा की सारी त्रुटियाँ सामने आ गईं हैं। संभव है इससे निजात पाने के लिए मंथन भी शुरू हो गया हो।
इस दिशा में बाल मनोविज्ञानी कहते हैं कि आज के बच्चों के भीतर एक दावानल दहक रहा है । एक तरफ मोबाइल, मोबाइक, आई-पॉड, मोटरकार आदि ऐश्वर्यशाली साधनों के कारण इन विद्यार्थियों के मन में असंतोष की आग भड़क उठी है, शालाओं में पढ़ने वाले अन्य बच्चे देखा-देखी का वायज बनने लगे हैं। ये बच्चे अपने पालकों से इन ऐश्चर्यशाली चीजों की माँग करते हैं, यदि ये माँगे पूरी नहीं हो पाती, तो इन बच्चों में असंतोष की भावना घर कर लेती है। इस स्थिति में जिनके पास ये चीों होती है, वे उसका प्रदर्शन करते हैं, जिससे उनके भीतर की आग और भड़क जाती है। यहीं जन्म होता हैर् ईष्या का। उसके बाद पूरी बात बिगड़ जाती है। दूसरी तरफ हमारी गलत शिक्षा पद्धति के कारण परीक्षाओं का बोझ इतना अधिक बढ़ गया है कि विद्यार्थी उसके नीचे बुरी तरह से दब गए हैं। एक तरह से इन बच्चों को कुचलकर रख दिया है आज की शिक्षा पद्धति ने। इस पर पालकों की अपेक्षाओं का बोझ तो सदैव उन पर रखा ही रहता है। पालकों के पास बच्चों की कई शंकाओं का समाधान के लिए समय नहीं है। यह विकट स्थिति है, जब उसे कहीं भी अपनापन नहीं मिलता। इस स्थिति में वह कुछ भी करने को तैयार हो जाता है, फिर वह यह नहीं देखता कि वह क्या कर रहा है। किसी से छोटी सी बात पर विवाद मारपीट में बदल जाता है। यह विषाद की स्थिति होती है। इस अवस्था में आकर वह कभी आत्महत्या का सहारा लेता है, तो कभी किसी पर अचानक हमला कर देता है। गुड़गाँव की घटना ने इस क्षेत्र के असंतुष्ट विद्यार्थियों के लिए फ्लड गेट खोल दिया है, अब इस तरह की घटनाएँ बार-बार हमारे सामने आए, तो हमें आश्चर्यचकित होने की आवश्यकता नहीं है।
आज कमोबेश सभी स्कूलों में रईसजादों के बच्चों की दादागिरी लगातार बढ़ रही है। वहीं मध्यम और साधारण तबके के विद्यार्थियों की सहनशक्ति लगभग खत्म हो गई है। उधर घर में पालकों के पास बच्चों के लिए समय का न होना, उस पर स्कूल में शिक्षकों में समर्पण भावना का अभाव, एक तरह से इनमें हीनभावना ला देता है। रईसजाद अपने बच्चों की परवरिश शहजादे की तरह करते हैं, उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होने देना चाहते, उनके लिए नौकर-चाकरों की पूरी फौज तैयार होती है। इनमें विनय और विवेक नाम की कोई चीज तो होती नहीं, अपनी तमाम आदतों से वे शाला का माहौल बिगाड़ देते हैं। शिक्षक भी इस संबंध में अधिक कुछ नहीं कर सकते। ऐसे एक नहीं अनेक किस्से हैं, जिसमें इन बच्चों में गैंगवार देखने को मिला है। जहाँ सहशिक्षा है, वहाँ का माहौल तो छेड़छाड़ के कारण और भी बिगड़ रहा है। कथित सुंदर छात्राओं पर ये रईसजादे अपना हक समझते हैं, यहीं से ही शुरू हो जाती है, प्रतिस्पर्धा की भावना। इसका असर उनके मनोमस्तिष्क पर पड़ता है।
पालकों की अनुपस्थिति में बच्चे घर पर ही इंटरनेट पर बैठकर ऐसे गेम खेलते हैं, जिसमें काफी मारधाड़ होती है। कुछ गेम ऐसे होते हैं, जिसमें उसके हाथ में कथित रूप से बंदूक होती है, उस बंदूक से वे जितने अधिक लोगों की हत्या करते हैं, उसके आधार पर उन्हें बोनस में गोलियाँ मिलती हैं, जिससे वे और अधिक व्यक्तियों की हत्या करते हैं। इस दौरान वे कथित रूप से हत्याएँ करते जाते हैं और खुश होते हैं। इस खेल को खेलकर वे यह मानते हैं कि किसी की हत्या करना गलत नहीं है। ऐसे बच्चों को जब भी अपनी जिंदगी में अवसर मिलता है, वे बंदूक उठाने से नहीं चूकते। गुड़गाँव की घटना इसी का परिणाम है। मेरा मानना है कि जिन पालकों के पास अपने बच्चों की भावनाओं को समझने का समय नहीं है, वे बच्चों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। बच्चे जो माँगते हैं, उन्हें दे देने से बच्चे की भूख शांत नहीं होती, बल्कि उसकी अतृप्ति बढ़ जाती है। पालकों अपने बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं, इस तरह की वस्तुएँ देकर वे ये समझते हैं कि हम अपने बच्चों की भावनाओं को बेहतर समझ रहे हैं। लेकिन वे भूल जाते हैं कि बच्चों की आदत में शामिल हो गया है अपनी माँगें मनवाना, अब यदि इस पर अंकुश लगाया जाता है, तो वह हिंसक बन जाते हैं। कई बार घर में पालकों से हल्का सा विवाद हो जाता है, तो इसका असर स्कूल में दिखाई देता है, जब वह अपनी भड़ास अपने सहपाठियों पर निकालता है। बच्चों का इस तरह से आक
्रामक व्यवहार यह बताता है कि पालकों को अब चेत जाना चाहिए।
आज स्कूलों में अधिक से अधिक सुविधाएँ दी जाने लगी है, कहीं स्वीमिंग पूल तो कहीं घुड़सवारी, इसके अलावा कई विषयों की लेब भी होती है, पर किसी स्कूल में ध्यानकक्ष नहीं देखा गया, जहाँ बच्चा कुछ देर के लिए ही सही, अपने आप को ध्यानस्थ कर सके। गणित, विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि विषयों की बारीकियाँ बताई जाती हैं, पर अविनय, अविवेक, दुतकार, अहंकार,ईष्या आदि को दूर करने की बारीकियाँ नहीं बताई जातीं । ऐसे विद्यार्थियों से समाज बनता है, इसीलिए आज का समाज भी हिंसक दिखाई देने लगा है। आज की शिक्षा जिस दिन डिगýý्री, नौकरी के भेदभाव को मिटाकर संस्कारवान और स्वाभिमान का पाठ पढ़ाने वाली बनेगी, तभी विद्यार्थियों में बढ़ रही हिंसा की प्रवृत्ति को दूर किया जा सकता है।
गुड़गाँव और सतना जिले की घटना को आज के शिक्षाशास्त्री खतरे की घंटी मान लें, तो निकट भविष्य में इसका समाधान खोजा जा सकता है, अन्यथा कई मामलों में अमेरिका की नकल करके अपने आप को आधुनिक बताने वाले विद्यार्थी वहाँ की शालाओं में होने वाली हिंसा को अपना सकते हैं। मुझे आज लार्ड मैकाले की वह योजना याद आने लगी है, जिसकी कल्पना उन्होंने 1835 में की थी। भारत को जीतने के लिए 2 फरवरी 1835 को बि
्रटिश संसद में मैकाले द्वारा प्रस्तुत प्रारूप इस प्रकार है:-
''मैं भारत के कोने-कोने में घूमा हूँ और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो चोर हो, भिखारी हो। इस देश में मैंने इतनी धन-दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखें हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक उसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते, जो हैं आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत। .... और इसलिए मैं यह प्रस्ताव रखता हूँ कि हम उसकी पुरातन शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति को बदल डालें। यदि भारतीय यह सोचने लगे कि जो भी विदेशी और ऍंगरेजी में है, वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है, तो वे अपने आत्म गौरव और अपनी संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएँगे, जैसा हम चाहते हैं। एक पूरी तरह से दमित देश।''
देखा साथियो, आपने कितनी दूर की सोची मैकाले ने। आज वही सब कुछ हमारे देश में हो रहा है, जो वह चाहता था। हम सब कुछ अनुसरण कर रहे हैं, फैशन से लेकर शिक्षा पद्धति तक। ऐसे में वहाँ की अपसंस्कृति हमारे यहाँ पसरने लगे, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

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