शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

घर की खिड़की पर आती नहीं चिडि़या



यह आलेख दैनिक भास्‍कर के संपादकीय पृष्‍ठ पर 19 जनवरी के अंक में 13 राज्‍यों के 53 संस्‍करणों में एक साथ प्रकाशित हुआ है।

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

आत्महत्या का प्रयास अपराध माना जाए?


डॉ. महेश परिमल
ऐसा कौन-सा अपराध है, जिसमें सफल होने पर कुछ नहीं होता, किंतु विफल होने पर सजा होती है? आपने सही सोचा, जी हाँ वह अपराध है ‘आत्महत्या’। क्या आत्महत्या को अपराध माना जाए? इसमें विफल होने वाले व्यक्ति के लिए जीवन एक अभिशाप बनकर रह जाता है। आप ही सोचें, एक गरीब व्यक्ति, जिसके पास जीने का कोई सहारा नहीं है, बीमार है, भोजन के लिए कहीं कुछ भी नहीं है, भीख माँगने पर उसका स्वाभिमान आड़े आता है, ऐसी दशा में वह आवेश में आकर आत्महत्या करना चाहे, तो क्या गलत है? इस पर वह यदि किसी कारण से अपने प्रयास में विफल रहता है, तो वह अपराधी कैसे हो गया? इसके बाद उसका जीवन जेल में कटता है। वहाँ जाकर फिर वही घिसटती जिंदगी! कहाँ तो सचमुच का अपराध करने वाले अपराधी समाज में ही बेखौफ घूमते हैं और कहाँ अपने जीवन को बरबाद करने के चक्कर में विफल होने वाला साधारण व्यक्ति जेल की हवा खा रहा है। क्या यह न्यायसंगत है?
अपने इस तर्क के माध्यम से मैं आत्महत्या के लिए लोगों को विवश नहीं करना चाहता। ऐसा अब पूरे देश में सोचा जाने लगा है। आत्महत्या एक अपराध है, जब यह कानून बनाया जा रहा था, तब परिस्थितियाँ दूसरी थीं। आज हालात पूरी तरह से बदल गए हैं। जिस तरह से 50-75 साल पहले टीबी याने क्षय रोग को राजरोग कहा जाता था, उसके बाद कैंसर की बारी आई और आज एड्स का बोलबाला है। इस तरह से परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ उन दशाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता हो जाती है, जो उस समय नहीं थी। आत्महत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने कई उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। अभी-अभी ही माँ-संतान को जोड़ने वाली गर्भनाल में रहने वाले अरबों जनकोष (स्टेम सेल) से हर तरह के रोगों का उपचार करने की जानकारी प्राप्त हुई है। फिर भी मानव मन भटकता रहता है। वह कब क्या करेगा, यह कहा नहीं जा सकता। आत्महत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। 1995-96 में इंडियन पैनल कोड 309 की धारा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, किंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे बहाल रखा। वैसे तो कानूनविदो की 42 वीं वाषिर्क रिपोर्ट में आत्महत्या को कानूनन रूप देने की सिफारिश को स्वीकार कर सरकार ने राज्यसभा में भेजा गया था, पर लोकसभा में बहुमत न मिलने के कारण यह आवेदन काम नहीं आया। इस दलील को लेकर यह कहा जा रहा था कि इससे आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं। यह दलील झूठ भी साबित हो सकती है, क्योंकि श्रीलंका में चार वर्ष पहले आत्महत्या को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया, तब से वहाँ आत्महत्या के मामलों में कमी आई है।
आत्महत्या के मामले में हमारे साधु-संत दोहरी बातें करते हैं। एक तरफ उनका मानना है कि आत्महत्या करने से हमें अपने जीवन में जो भोगना होता है, वह नहीं भोग पाते, इसलिए हमें फिर जन्म लेना पड़ता है। दूसरी तरफ वे कहते हैं कि मानव जीवन दुर्लभ है, 84 लाख योनियों से गुजरने के बाद मानव जीवन प्राप्त होता है, इसे व्यर्थ न किया जाए। इन दोनों विचारों में सच क्या है? वैसे देखा जाए, तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रमण महषिर्, श्री रंग अवधूत आदि महानुभाव कैंसर की पीड़ा को हँसते-हँसते झेला। साधु-संतों और साधारण मानव की सहनशक्ति में अंतर होता है, इसलिए साधारण मनुष्य पीड़ाएँ नहीं झेल पाता। जस्टिज लक्ष्मण का कहना है कि असाध्य बीमारी या असाध्य पीड़ा से त्रस्त मनुष्य को जीने के लिए बाध्य करना अमानवीय और अनैतिक है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिस तरह से व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होना पड़ता है, उसी तरह अपनी जीवन लीला समाप्त करने का अधिकार भी व्यक्ति के पास होना चाहिए। कई देशों में अपने यहाँ मर्सिकिलिंग या यूथेनेसिया को कानूनी रूप दिया गया है। जो व्यक्ति पूरी तरह से किसी असाध्य रोग से पीड़ित है और उसके बचने की कोई संभावना नहीं है, उसे जीवित रखकर इंसान आखिर क्या हासिल करना चाहता है?
कानून विद् कहते हैं कि समाज के सभी वर्गाें को इस दिशा में आगे बढ़कर आत्महत्या को अपराध मानने के खिलाफ आंदोलन करना होगा,तभी बात बन सकती है। मौत की सजा को अमानवीय बताने वाले, उसे रद्द करने की माँग करने वाले मसिकिलिंग और यूथेनेसिया के मामले में खामोश क्यों रह जाते हैं। कोई व्यक्ति यदि घृणित अपराध करता है और उसे मौत की सजा होती है, तो लोग उसे मानवता का ध्वंस मानते हैं, ऐसे लोग असाध्य बीमारी से ग्रस्त लाचार और विवश व्यक्ति के प्रति सद्भाव क्यों नहीं रखते।
यह सच है कि आत्महत्या का विचार त्यागकर व्यक्ति नई ऊर्जा के साथ अपनी मंजिल को प्राप्त कर ले, ऐसे कम ही मिलेंगे। हर बार आत्महत्या का कारण वाजिब हो, यह भी जरूरी नहीं। सही समय पर व्यक्ति को यदि सही मार्गदर्शन मिल जाए, तो व्यक्ति आत्महत्या का विचार त्याग भी सकता है। यदि विचार आ जाए और इसके लिए वह प्रयास भी करे, उसमें विफल हो जाए, तो उसे अपराधी माना जाए? इस संबंध में कानून विदों एवं न्यायाधीशों के विचारों को गंभीरता से लेना होगा।
Êारा सोचें, आत्महत्या का विचार करने वाला व्यक्ति किन हालात से गुजर रहा है? आत्महत्या करने के लिए वह कैसे-कैसे तरीके अपनाता है। कभी कहीं से कूदकर, कभी जहर खाकर, कभी शरीर की नस काटकर, कभी गले में फाँसी लगाकर, आखिर यह सब करते हुए उसे पीड़ा की एक लम्बी सुरंग तो पार करनी ही होती है। जब ये प्रयास विफल हो जाते हैं, तो क्या वह अपराधी हो गया? दूसरी ओर जिसने इत्मीनान के साथ किसी की हत्या की हो, उसके बाद उस तनाव को दूर करने के लिए शराब की शरण में जाकर अपने को हल्का कर रहा हो, वह भी अपराधी? आखिर इन दोनों के अपराध में जमीन-आसमान का अंतर तो है ही। एक ने अपना जीवन होम करने की सोची और दूसरे ने किसी और का जीवन बड़े आराम से खत्म कर दिया। दोनों की प्रवृत्तियों में अंतर है। फिर हत्या करने वाला तो आराम से कानून की नजर से छिप भी जाता है,पर आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला समाज में घोषित हो जाता है। पीड़ादायक स्थिति को तो अधिक करीब से आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला झेलता है, फिर वह अपराधी कैसे हुआ? मेरा यहाँ इतना ही कहना है कि आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मानसिकता को समझते हुए उस पर रहम किया जाए। उसे अपराधी घोषित करने के पहले उसके अपराध को गंभीरता से लें, आखिर उसने यह कदम क्यों उठाया? इन प्रश्नों का जवाब ढ़ूँढा जाए, तो आत्महत्या की कोशिश में नाकाम होना एक अपराध नहीं होगा, बल्कि अपने जीवन के साथ खिलवाड़ करना माना जाएगा।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 24 जनवरी 2011

दो विरोधाभासी मुहावरों के बीच जीवन



डॉ. महेश परिमल
आज मेरे सामने दो मुहावरे हैं। एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है और एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। दोनों ही मुहावरों में विरोधाभास है। जब भी एक उदाहरण देता है, दूसरा तपाक से दहला मारते हुए दूसरा मुहावरा उछाल देता है। लोग हँसकर रह जाते हैं। आइए इन मुहावरों का विश्लेषण करें:- दोनों में मुख्य अंतर है, अच्छाई और बुराई का। मनुष्य की यह प्रवृत्ति है कि उसे बुराई जल्द आकर्षित और प्रभावित करती है। दूसरी ओर अच्छाई में चकाचौंध करने वाली कोई चीज नहीं होती, यह सदैव निलिर्प्त होती है। जब तक कमरे में उजाला है, तब तक हमें अंधेरे का भान ही नहीं होता। जैसे ही लाइट गई, अंधेरा पसरा कि हम फड़फड़ाने लगते हैं। तब हम उजाले का महत्व समझने लगते हैं।
विदेशों से हमने कई नकलें की हैं। फैशन, शिक्षा, रहन-सहन आदि की नकल करने में हम बहुत आगे हैं। पर समय की पाबंदी, निष्ठा, अनुशासन जैसे गुणों की ओर देखना भी मुनासिब नहीं समझा। विदेशों में जब एक मिनट के लिए किसी की ट्रेन छूट गई या फिर थोड़ी सी देर के लिए काफी नुकसान उठाना पड़ा हो, वही जान सकता है कि समय का कितना महत्व है। हम अपने देश में समय को बेकार जाते देखते भर रहते हैं।
एक सड़ी हुई मछली में संक्रामक कीटाणु होते हैं, जो तेजी से फैलते हैं। उनकी संख्या प्रतिक्षण बढ़ती है, इसलिए सारा तालाब कुछ ही देर में गंदा हो जाता है। दूसरी ओर चने का इकट्ठा होना, भाड़ तक पहुँचने तक उनका रूप सख्त है। गर्मी पाते ही चने का रूप बदल जाता है। वह कोमल हो जाता है। भाड़ की गर्मी से चने ने अपना रूप बदल दिया। भाड़ फोड़ना एक क्रांतिकारी विचार है। क्रांति ठोस इरादों से आती है। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करना क्रांति का आगाज है। भाड़ चने पर कोई अत्याचार नहीं करता, बल्कि अपनी तपिश से उसे कोमल और स्वादिष्ट बनाया। चना भाड़ फोड़ने की सोच भी नहीं सकता, क्योंकि भाड़ के सामने जाते ही उसका रूप बदल जाता है। बिलकुल उस हैवान की तरह, जो गुस्से से देवी माँ के सामने आता है और अपना क्रोध भूलकर उसके चरणों में लोट जाता है। माँ का प्यार उस हैवान को पिघला देता है।

मछली तालाब को हमेशा के लिए गंदा नहीं कर सकती। बुराई केवल कुछ देर के लिए ही तालाब पर हावी होती है। कुछ समय बाद तालाब की अच्छाई सक्रिय हो जाती है। धीरे-धीरे बुराई का नाश होता है और तालाब स्वच्छ हो जाता है। बुराई के ऐसे ही रंग हमें अपने जीवन में देखने को मिलते हैं। जैसे ही हमारे जीवन में बुराईरूपी अंधेरे का आगमन होता है, विवेकरूपी दीया प्रस्थान कर जाता है। बुराई अपना खेल खेलती है, मानव को दानव तक बना देती है। बुराई में एक विशेषता होती है, जब वह कमजोर होने लगती है, तब वह अधिक आक्रामक हो जाती है। यही समय है, जब थोड़े धर्य के साथ उसका मुकाबला किया जाए। इस दौरान हमें उस सुहानी सुबह के बारे में सोचना चाहिए, जो उस अंधेरी बुराई के ठीक पीछे उजाले के रूप में होती है। बुराई हमेशा शक्तिशाली नहीं रह पाती, उसके कमजोर होते ही अच्छाई का आगमन है और उसी दानव को महात्मा तक बना देती है। मेरा मानना है कि अच्छाई को कोई दानव भी सच्चे हृदय से स्वीकार करे, तो उसे महात्मा बनने में देर नहीं लगेगी। आप क्या सोचते हैं?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

घर की खिड़की पर आती नहीं चिड़िया


डॉ महेश परिमल
चिड़िया का चहकना कितना भला लगता है। उसकी चहचहाहट में भी एक लय है। बचपन मानो चिड़िया की चहचहाहट की इस लय पर थिरक उठता है।
बचपन में चिड़ियों पर बहुत सी कहानियां पढ़ते थे। मां की कहानियों में भी कभी कभी चिड़िया चॅँ-चूँ बोल जाती थी। अपने दोनों पंजों से चिड़िया जब आगे बढ़ती है, तो उसे फुदकना कहते हैं, यह मां की कहानियों से ही जाना। चिड़िया से आज तककिसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। सचमुच अपने सामने किसी चिड़िया का चहकना कितना भला लगता है। उसकी चहचहाहट में भी एक लय है। बचपन मानो उसकी लय पर थिरक उठता है। शायद ही कोई ऐसा हो, जिसने चिड़ियों की चहचहाहट न सुनी हो। वह बचपन, बचपन ही नहीं, जिसमें चिड़ियों की चहचहाहट वाली कोई कहानी ही न हो। मेरा बच्च एक दिन कुछ कह रहा था। चिड़िया आती है, चिड़िया जाती है, चिड़िया दूर दूर चली जाती है। फिर आती है, दाना चुगकर चली जाती है..। बच्चों के कोमल मन पर भी चिड़िया अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक चिड़ियों का साथ होता है। एकमात्र यही ऐसा परिंदा है, जिसे कोई अपना दुश्मन नहीं मानता। लेकिन आज ये ही दोस्त हमारे बीच से गुम हो रहे हैं। अब सुबह चिड़ियों की चहचहाहट से नहीं होती। उनकी राह देखनी पड़ती है। भाग्य अच्छा हो, तो वह दिख भी जाती है। कांक्रीट के जंगल में अब वह अपना घरौंदा नहीं बना पाती। पहले पेड़ों पर अपना घरौंदा वह बना भी लेती थी। पेड़ उसके घरौंदे को सुरक्षित रख भी लेते थे। आज कांक्रीट के इस जंगल में ऐसी कोई बिल्डिंग नहीं, जो उसके घरौंदे को महफूज रख सके। इन घरों में वह सब कुछ होता है, जिससे घर सँवरता है। ऐसे घरों में चिड़ियों का प्रवेश होता तो है, पर उस घर के लिए नुकसानदेह साबित होता है। कभी एक उंगली जितने सहारे पर टिकी कोई फ्रेम या शो पीस या फिर कोई कीमती सामान, इन चिड़ियों के कारण टूट फूट जाता है। ऐसे घरों के लोग चिड़ियों को दुत्कारने लगते हैं। वास्तव में चिड़ियाएं वहां प्यार का संदेशा देने जाती हैं। पर उनके संदेशों को कोई सुनना नही चाहता।

आखिर चिड़िया क्यों हमारे आँगन में नहीं फुदकती? क्या वह हमसे नाराज है? या फिर वह हमसे कुछ कहना चाहती है? दरअसल चिड़ियाएं कभी किसी से नाराज नहीं होतीं। नाराज होना तो उनके स्वभाव में ही नहीं है। वे तो यह समझ ही नहीं पा रही हैं कि अब घरों में उसके लिए जगह क्यों नहीं है? उसके लिए दाने पानी के कटोरे अब कहीं-कहीं ही देखने को मिलते हैं। ऐसा क्यों है, यह सोचना उसका काम नहीं। सोचना तो हमें है कि आखिर चिड़ियाएं अब घरों के अंदर बेखौफ होकर क्यों नहीं आतीं? बसेरे के लिए अब उतने घने दरख्त भी कहां बचे, जहां वह अपने बच्चों को सुरक्षित रखकर दाने पानी की तलाश में निकल सके। पेड़ और इंसान के दरो-दीवार उसके विश्वास और भरोसे के दायरे से धीर-ेधीरे अब दूर होने लगे हैं। अब सुनने को नहीं मिलती गोरैया की मीठी तान, न उस पर कोई कहानी। अब न नानी है, न कहानी। हम प्रतीक्षा करते हैं दाना पानी लेकर चिड़िया का। वह आएगी, दाना चुगेगी और चोंच में दबाकर चली जाएगी। बिल्कुल बच्चे की कविता की तरह। आप बताएंगे, क्या चिड़िया आएगी? क्या वह हमसे नाराज है? क्या वह हमसे कुछ कहना चाहती है? क्या हम उससे यह वादा नहीं कर सकते कि हमारी सुबह उसकी चहचहाहट से होगी? हम देंगे उसे दाना पानी। हम रखेंगे उसका खयाल। हम सिद्ध कर देंगे कि हम उस पर आश्रित हैं, वह हम पर नहीं।
डॉ महेश परिमल

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

परेशान करने वाले शब्‍द



डॉ महेश परिमल
कुछ शब्‍दों ने मुझे हमेशा परेशान किया है। कुछ शब्‍द आज भले ही हमें गलत अर्थ देते हों, पर सच तो यह है कि उन शब्‍दों का अर्थ पहले सकारात्‍मक होता रहा है, लेकिन समय के साथ कुछ लोगों की क्षुद्र मानसिकता के कारण उन शब्‍दों के अर्थ में बदलाव आ गया।
असुर शब्द ‘इशु’ (असु) से बना है, जिसका अर्थ है ‘ईश्वर’. ऋग्वेद में असुर इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. ‘असु: प्राणो विद्यते यस्मिन् स असुर:’ अर्थात् जिसमें प्राण, बल अथवा सामर्थ्य हो, वह असुर है. ‘असुर’ सुर का विलोम शब्द है, जिसका अर्थ हुआ, ‘सुर-विरोधी’. कुछ विद्वानों के अनुसार ‘दानव’ का अर्थ ‘दानी’ और ‘दमनशील,’ ‘राक्षस’ का अर्थ ‘रक्षक’ और ‘पालक,’ ‘निशाचर’ का अर्थ ‘रात का पहरेदार,’ ‘रात में चोर-लुटेरों से समाज की रक्षा करने वाला’ तथा ‘असुर’ का अर्थ ‘अमछयी’ या ‘मदिरा न पीने’ वाला होता है. देव-असुर संघर्ष (देवासुर संग्राम अर्थात् आर्यों और मूलनिवासियों का प्रथम युद्ध) के बाद देवों ने असुर का अर्थ बदल दिया. भागवत पुराण में अनार्यों को यज्ञों में विध्न डालने वाला बताया गया है अर्थात् जो यज्ञों में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें असुर कहा जाने लगा. वैदिक काल (1500-500 ई.पू) में असुरों को कर्म विरोधी, देवों के प्रति उदासीन, अद्भुत आदेशों के पालने वाले (अन्यव्रत) के रूप में कहा गया है. इस देश के मूलनिवासी धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ राजाओं को आर्यों ने अपनी पुस्तकों में असुर, दैत्य, दानव व राक्षस आदि नामों से उल्लेख करके उन्हें अविचारी, अनाचारी, अधार्मिक और अत्याचारी सिद्ध करके उनके प्रति जनता में घृणा उत्पन्न की और अपने आर्य राजाओं की प्रंशसा कर उन्हें अवतार ही नहीं बल्कि परमेश्वर से भी अधिक महापुरुष सिद्ध करके जनता में उनकी भक्ति व भजन करने के लिए वेदों का प्रचार किया।

कुछ लोग समझते हैं कि ‘चमार’ शब्द चमड़े का काम करने वाली जातियों से जुड़ा है और चमड़े का काम करने के कारण ही इस नाम से इतनी घृणा पैदा हुई है. यह तर्क सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पेशे को घृणित नहीं कहा जा सकता. आज बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में यह कार्य हो रहा है और सवर्ण लोग भी कर रहे हैं. इस तरह चमार जाति अपनी पृथक् पंचायत प्रणाली से बँधी थी और अपने प्रत्येक झगड़े-टंटे या किसी अन्य समस्या का फैसला अपने स्तर पर ही कर लेते थे
कुछ विद्वानों का मत है कि ‘चंवर’ से ‘चमार’ शब्द की उत्पत्ति हुई है. संभवत: ‘चंवर’ शब्द का विकास ‘चार्वाक’ से हुआ है. इसका तात्पर्य कि जो ‘चार्वाक धर्म’ को मानते हैं, वे ‘चंवर’ हैं. ‘चार्वाक धर्म’ नास्तिक धर्म है. यह वैष्णव धर्म में विश्वास नहीं करता. यह समानता का पाठ पढ़ाता है तथा झूठे आडम्बरों की पोल खोलता है. चंवर, चामुण्डराय, हिरण्यकश्यप, महाबलि, कपिलासुर, जालंधर, विषु, विदुवर्तन आदि भी ‘चार्वाक धर्म’ को मानने वाले शासक हुए हैं. चार्वाक शब्द ‘चारू (मीठा)’ एंव ‘वाक्’ (बोलने वाला)’ की संधि से बना है, जिसका अर्थ है –‘मीठा बोलने वाला’. लेकिन वैष्णव मतावलंबियों ने इस धर्म के अनुयायियों को ‘हमेशा चरने वाले’ अर्थात् ‘अधिक खाने वाले’ तथा ‘चबर-चबर’ करने वाले अर्थात् ‘अधिक बोलने वाले’ घोषित कर दिया. यह भी प्रचार किया गया है कि ‘चार्वाक धर्म’ का ध्येय केवल खाना-पीना और मौज उड़ाना है. कर्ज लेकर घी पीना है. अत: इसी धार्मिक विरोध के कारण ही ये घृणा उपजी थी और इस घृणा का आधार ‘चार्वाक धर्म’ ही था. वैष्णव मतावलंबियों ने ‘चार्वाक धर्म’ का साहित्य जला डाला. जहाँ भी ‘चार्वाक धर्म’ का व्यक्ति दिखाई दे, उसे मारने तक के आदेश दिए गए थे।
‘चमार’ जाति को अत्यंत अस्पृश्य व नीच बनाने का श्रेय शब्द-कोश कारों को भी जाता है. जातिवाचक शब्दों पर ‘हंस’ अगस्त 1998, पूर्णांक 144, वर्ष 13 अंक 1, में श्री भवदेय पाण्डेय का लेख ‘सवर्ण मानसिकता और पुरुषवादी कुण्ठा’ लेख छपा था. इस आलेख में कहा गया है, ‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों की तरह हिन्दी शब्द-कोश कारों ने भी ‘चमार’ वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है. संस्कृत के शब्द-कोश ग्रथों में ‘चमार’ को नीच जाति नहीं कहा गया था. जातीय कुण्ठा की चरम अभिव्यक्ति हिन्दी शब्द-कोश ग्रंथों में हुई है।
डॉ महेश परिमल

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

पतंग से सीखो अनुशासन



डॉ महेश परिमलआकाश में तैरती रंग-बिरंगी पतंगें भला किसे अच्छी नहीं लगती? एक डोर से बँधी हवा में हिचकोले खाती हुई पतंग कई अर्थों में हमें अनुशासन सिखाती हैं, जरा उसकी हरकतों पर ध्यान तो दीजिए, फिर समझ जाएँगे कि मात्र एक डोर से वह किस तरह से हमें अनुशासन सिखाती है.
अनुशासन कई लोगों को एक बंधन लग सकता है. निश्चित ही एकबारगी यह सभी को बंधन ही लगता है, पर सच यह है कि यह अपने आप में एक मुक्त व्यवस्था है, जो जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अतिआवश्यक है. आप याद करें, बरसों बाद जब माँ पुत्र से मिलती है, तब उसे वह कसकर अपनी बाहों में भींच लेती है. क्या थोड़े ही पलों का वह बंधन सचमुच बंधन है? क्या आप बार-बार इस बंधन में नहीं बँधना चाहेंगे? यहाँ यह कहा जा सकता है कि बंधन में भी सुख है. यही है अनुशासन.
अनुशासन को यदि दूसरे ढंग से समझना हो, तो हमारे सामने पतंग का उदाहरण है. पतंग काफी ऊपर होती है, उसे डोर ही होती है, जो संभालती है. बच्चा यदि पिता से कहे कि यह पतंग तो डोर से बंधी हुई है, तब यह कैसे मुक्त आकाश में विचर सकती है? तब यदि पिता उस डोर को ही काट दें, तो बच्चा कुछ देर बाद पतंग को जमीन पर पाता है. बच्चा जिस डोर को पतंग के लिए बंधन समझ रहा था, वह बंधन ही था, जो पतंग को ऊपर उड़ा रहा था. वही बंधन ही है अनुशासन. अनुशासन ही होते हैं, जिससे मानव आधार प्राप्त करता है.
कभी पतंग को आपने आकाश में मुक्त रूप से उड़ान भरते देखा है! क्या कभी सोचा है कि इससे जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है. गुजरात और राजस्थान में मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग उड़ाने की परंपरा है. इस दिन लोग पूरे दिन अपनी छत पर रहकर पतंग उड़ाते हैं. क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या महिलाएँ, क्या युवतियाँ सभी जोश में होते हैं, फिर युवाओं की बात ही क्या? पतंग का यह त्योहार अपनी संस्कृति की विशेषता ही नहीं, परंतु आदर्श व्यक्तित्व का संदेश भी देता है. आइए जानें पतंग से जीवन जीने की कला किस तरह सीखी जा सकती है-
पतंग का आशय है अपार संतुलन, नियमबध्द नियंत्रण, सफल होने का आक्रामक जोश और परिस्थितियों के अनुकूल होने का अद्भुत समन्वय. वास्तव में देखा जाए तो तीव्र स्पर्धा के इस युग में पतंग जैसा व्यक्तित्व उपयोगी बन सकता है. पतंग का ही दूसरा नाम है, मुक्त आकाश में विचरने की मानव की सुसुप्त इच्छाओं का प्रतीक. परंतु पतंग आक्रामक एवं जोशीले व्यक्तित्व की भी प्रतीक है. पतंग का कन्ना संतुलन की कला सिखाते हैं. कन्ना बाँधने में थोड़ी-सी भी लापरवाही होने पर पतंग यहाँ-वहाँ डोलती है. याने सही संतुलन नहीं रह पाता. इसी तरह हमारे व्यक्तित्व में भी संतुलन न होने पर जीवन गोते खाने लगता है. हमारे व्यक्तित्व में भी संतुलन होना आवश्यक है. आज के इस तेजी से बदलते आधुनिक परिवेश में प्रगति करनी हो, तो काम के प्रति समर्पण भावना आवश्यक है. इसके साथ ही परिवार के प्रति अपनी जवाबदारी भी निभाना भी अनिवार्य है. इन परिस्थितियों में नौकरी-व्यवसाय और पारिवारिक जीवन के बीच संतुलन रखना अतिआवश्यक हो जाता है, इसमें हुई थोड़ी-सी लापरवाही ंजिंदगी की पतंग को असंतुलित कर देती है.

पतंग से सीखने लायक दूसरा गुण है नियंत्रण. खुले आकाश में उड़ने वाली पतंग को देखकर लगता है कि वह अपने-आप ही उड़ रही है. लेकिन उसका नियंत्रण डोर के माध्यम से उड़ाने वाले के हाथ में होता है. डोर का नियंत्रण ही पतंग को भटकने से रोकता है. हमारे व्यक्तित्व के लिए भी एक ऐसी ही लगाम की आवश्यकता है. निश्चित लक्ष्य से दूर ले जाने वाले अनेक प्रलोभनरूपी व्यवधान हमारे सामने आते हैं. इस समय स्वेच्छिक नियंत्रण और अनुशासन ही हमारी पतंग को निरंकुश बनने से रोक सकता है. पतंग की उड़ान भी तभी सफल होती है, जब प्रतिस्पर्धा में दूसरी पतंग के साथ उसके पेंच लड़ाए जाते हैं. पतंग के पेंच में हार-जीत की जो भावना देखने में आती है, वह शायद ही कहीं और देखने को मिले. पतंग किसी की भी कटे, खुशी दोनों को ही होती है. जिसकी पतंग कटती है, वह भी अपना ंगम भुलकर दूसरी पतंग का कन्ना बाँधने में लग जाता है. यही व्यावहारिकता जीवन में भी होनी चाहिए. अपना ंगम भुलकर दूसरों की खुशियों में शामिल होना और एक नए संकल्प के साथ जीवन की राहों पर चल निकलना ही इंसानियत है.
पतंग का आकार भी उसे एक अलग ही महत्व देता है. हवा को तिरछा काटने वाली पतंग हवा के रुख के अनुसार अपने आपको संभालती है. आकाश में अपनी उड़ान को कायम रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाली पतंग हवा की गति के साथ मुड़ने में ंजरा भी देर नहीं करती. हवा की दिशा बदलते ही वह भी अपनी दिशा तुरंत बदल देती है. इसी तरह मनुष्य को परिस्थितियों के अनुसार ढलना आना चाहिए. जो अपने आप को हालात के अनुसार नहीं ढाल पाते, वे 'आऊट डेटेड' बन जाते हैं और हमेशा गतिशील रहने वाले 'एवरग्रीन' होते हैं. यह सीख हमें पतंग से ही मिलती है.
पतंग उड़ाने में सिध्दहस्त व्यक्ति यदि जीवन को भी उसी अंदाज में ले, तो वह भी जीवन की राहों में सदैव अग्रसर होता जाएगा. बस थोड़ा-सा सँभलने की बात है, जीवन की डोर यदि थोड़ी कमजोर हुई, तो जीवन ही जोखिम में पड़ जाता है. इसीलिए पतंग उड़ाने वाले हमेशा खराब माँजे को अलग कर देते हैं, जिसका उपयोग कन्ना बाँधने में किया जाता है. उस धागे से पेंच नहीं लड़ाया जा सकता. ठीक उसी तरह जीवन में भी उसी पर विश्वास किया जा सकता है, जो सबल हो, जिस पर जीवन के अनुभवों का माँजा लगा हो, वही व्यक्ति हमारे काम आ सकता है. धागों में कहीं भी अवरोध या गठान का होना भी पतंगबाजों को शोभा नहीं देता. क्योंकि यदि पेंच लड़ाते समय यदि प्रतिद्वंद्वी का धागा उस गठान के पास आकर अटक गया, तो समझो कट गई पतंग. क्योंकि पतंग का धागा वहीं रगड़ खाएगा और डोर का काट देगा. जीवन भी यही कहता है. जीवन में मोहरूपी अवरोध आते ही रहते हैं, परंतु सही इंसान इस मोह के पडाव पर नहीं ठहरता, वह सदैव मंजिल की ओर ही बढ़ता रहता है. 'चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी' यही मूलवाक्य होना चाहिए. 25 या 50 पैसे से शुरू होकर पतंग हजारों रुपयों में भी मिलती है. इसी तरह जीवन के अनुभव भी हमें कहीं भी किसी भी रूप में मिल सकते हैं. छोटे से बच्चे भी प्रेरणा के स्रोत बन सकते हैं, तो झुर्रीदार चेहरा भी हमें अनुभवों के मोती बाँटता मिलेगा. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह से अनुभवों की मोतियों को समेटते हैं.

डॉ महेश परिमल


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बुधवार, 12 जनवरी 2011

सचिन भी बन गए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मोहरा



डॉ. महेश परिमल

सचिन क्रिकेट के भगवान हैं, इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता। सचिन एक सुलझे हुए इंसान हैं, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता। इसका उदाहरण उन्होने हाल ही में शराब के विज्ञापन के लिए अपनी सहमति न देकर दिया भी है। उन्हें भारत रत्न भले ही न मिला हो, पर वे सचमुच भारत रत्न हैं। हाल ही में उन्होंने कोकाकोला का ब्रांड एम्बेसेडर बनना स्वीकार किया, इससे उन पर ऊँगलियाँ उठ रहीं हैं। आखिर भगवान गलती कैसे कर सकता है। हमारे देश में जिस तरह से ठंडे पेय पदार्थ लगातार प्रदूषित होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि ये ठंडे पेय पदार्थ तो शरीर के लिए शराब से अधिक खतरनाक हैं। आखिर क्या सोचकर सचिन ने कोकाकोला का ब्रांड एम्बेसेडर बनना स्वीकार किया? इसके पहले भी वे पेप्सी का विज्ञापन कर ही चुके हैं। अपनी चमत्कारिक लोकप्रियता से वे युवाओं को एक तरह से जहर पीने के लिए ही प्रेरित कर रहे हैं।
आज से 8 वर्ष पहले दिल्ली की संस्था 'सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंटÓ की तरफ से कोकाकोला और पेप्सी में जंतुनाशकों की मिलावट के संबंध में आई जानकारी ने काफी सनसनी फैलाई थी। तब केंद्र में एनडीए की सरकार थी। यदि केंद्र सरकार की नीयत उस समय साफ होती, तो सरकार तमाम ठंडे पेय पदार्थों पर तत्काल प्रतिबंध लगा सकती थी, पर ऐसा हो नहीं पाया। कोकाकोला और पेप्सी की राजनीतिक ताकत के चलते इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। सरकार की तरफ से तत्कालीन विपक्षी नेता शरद पवार की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट देती, तब तक सरकार की चला-चली की बेला आ गई। रिपोर्ट पूरी तरह से उक्त कंपनियों के खिलाफ जा रही थी। क्योंकि रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि इन तमाम पेय पदार्थों में कितनी मात्रा में जंतुनाशकों का प्रयोग किया गया है, इसकी जाँच के लिए सख्त कानून बनाया जाए। साथ ही इस कानून पर सख्ती से अमल में लाया भी जाए।
संयुक्त संसदीय समिति की इस रिपोर्ट को अमल में लाने की जिम्मेदारी अब यूपीए सरकार पर आ गई। इस समिति के अध्यक्ष शरद पवार भी मंत्री बन गए। शरद पवार पर भी यह जिम्मेदारी बनती थी कि वे सरकार पर दबाव डालते कि उनकी अध्यक्षता में जिस समिति का गठन किया गया, उस सिफारिशों को लागू किया जाए। इस बात को आज सात साल बीत जाने के बाद भी उक्त सिफारिशें अन्य सिफारिशों की तरह कहीं धूल खा रहीं हैं। आज भी ठंडे पेय पदार्थों पर बिना किसी सूचना के जंतुनाशकों की मिलावट की जा रही है। विज्ञापनों से प्रभावित होकर युवा उसे पी रहे हैं और अपनी जिंदगी को एक भयानक अँंधरे में ले जा रहे हैं। आखिर इसका जवाबदार कौन है? आखिर उन सिफारिशों को अटकाने का काम कौन कर रहा है? इसकी एक झलक को धारावाहिक रूप से मैगजीन डाउन टू अर्थÓ में प्रकाशित किया गया है। इसे पढ़कर पता चल जाता है कि आखिर किस तरह से केंद्र सरकार भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफदारी कर रही है। संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि ठंडे पेय पदार्थों मे तमाम चीजें मिलाने के लिए भले ही विदेशों में सख्त कानून न हों, पर हमारे देश में तो इसके लिए सख्त कानून बनने ही चाहिए। जब तक इस दिशा में कानून सख्त नहीं होंगे, तब तक ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारतीयों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करती रहें्रगी। इनका यही कहना होगा कि हम किसी प्रकार से कानून का उल्लंधन नहीं कर रहे हैं। इस दौरान लाखों युवाओं ने इन ठंडे पदार्थों को पीकर अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर चुके हैं, इसके बाद भी हमारी सरकार ने इस दिशा में एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया, जिससे यह साफ हो कि वह युवाओं के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित है।
सात वर्ष बाद भी आखिर उन सिफारिशों को अनदेखा क्यों किया गया? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। सभी जानते हैं कि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों का खिलौना बन गई है। ये कंपनियाँ सरकार से जो चाहे करवा लेती हैं, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी है। सरकार कोई भी हो, इनका काम कभी नहीं रुकता। साफ्ट ड्रिंक में कितने प्रतिशत जंतुनाशकों की उपस्थिति से किसी प्रकार का खतरा नहीं होता, इस तरह का कानून बनाने की पहली कोशिश स्वास्थ्य विभाग 2004 में की थी। यह कोशिश नाकाम साबित हुई। उधर इन ठंडे पेय पदार्थों के खिलाफ स्वैच्छिक संस्थाओं ने अपना अभियान जारी रखा। इस विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडडर्स नामक स्वायत्त संस्था यह काम सौंपा कि इसके लिए कानून बनाया जाए कि आखिर इन ठंडे पेज पदार्थों में कितने प्रतिशत जंतुनाशकों का होना आवश्यक है। इसके लिए इस संस्था ने 14 विशेषज्ञों की एक समिति तैयार की। इस समिति में कोला कंपनियों के प्रतिनिधि भी शामिल थे। समिति ने तीन वर्षों में 20 बैठकें कीं। इन बैठकों में कोला कंपनियों के प्रतिनिधियों ने हमेशा बखेड़ा ही खड़ा किया। उनका उद्देश्य यही था कि किसी भी तरह से ये इस तरह का कोई कानून न बना सकें, जिससे उन्हें भविष्य में परेशानियों का सामना करना पड़े। इसके बावजूद समिति के अन्य सदस्यों ने मिलकर यह तय कर लिया कि जिस तरह से पीने के पानी में यह तय कर लिया गया है कि इसमें किस सीमा तक जंतुनाशकों की उपस्थिति रहे, उसी तरह इन ठंडे पेज पदार्थों के लिए भी यही नियम लागू किया जाए। समिति का यह तर्क था कि साफ्ट डिं्रक के दो मुख्य घटक पानी और शक्कर ही हैं। सरकार की लेबोरेटरी की ही सिफारिश है कि भारत में जो शक्कर पैदा होती है, उसमें जंतुनाशकों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। इससे स्पष्ट है कि जितने जंतुनाशक पीने के पानी में हैं, उससे अधिक तो इन पेय पदार्थों में होने ही नहीं चाहिए। हमारे देश में पेकेज्ड डिं्रकिंग वॉटर में 0.5 पाट्र्स पर बिलियन (यानी एक अरब अणुणुओं का आधा) जितने जंतुनाशकों को चलाया जा सकता है। इसके विपरीत आज बाजार में जो ठंडे पेय पदार्थ मिल रहे हैं, उनमें 15 पाट्र्स पर बिलियन जितने जंतुनाशक होते हैं। इससे ही स्पष्ट है कि ये पेय पदार्थों हमारे स्वास्थ्य के लिए कितने खतरनाक हैं।
स्वास्थ्य से खुलेआम होने वाले इस खेल में सरकार कहाँ तक शामिल है, इसका एक छोटा-सा उदाहरण यह है कि ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड की समिति की तरफ से जब अंतिम निर्णय लेना था, तब दिल्ली में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में कोला कंपनी की सारी चाल नाकाम हो सकती थी, यह तय था। बैठक में कोला कंपनी के सदस्यों की संख्या भी कम थी। बैठक में एक निश्चित निर्णय पर सहमति बन भी गई थी। 29 मार्च की सुबह यह बैठक हुई, इसके पहले ही केंद्र सरकार के स्वास्थ्य विभाग के सचिव का एक पत्र समिति को मिला, जिसमें यह आदेश था कि बैठक में कोई अंतिम निर्णय न लिया जाए। आश्चर्य इस बात का है कि पत्र में तारीख 29 मार्च की ही थी। यह पत्र समिति के अध्यक्ष को ही दिया गया था। सोचने वाली बात यह है कि जहाँ सरकारी कार्यालयों में एक फाइल को दूसरे स्थान पर पहुँचने में बरसों लग जाते हैं, वही स्वास्थ्य विभाग को यह पत्र कुछ ही मिनटों में सारी औपचारिकताएँ पार करते हुए समिति के अध्यक्ष तक कैसे पहुँच गया? इससे स्पष्ट है कि बहुराष्ट्रयी कंपनियों की पहुँच कहाँ-कहाँ तक है, वे जब चाहें जैसा चाहें करवा सकती हैं। अंतिम समय में कोला कंपनी को बचाने के लिए आखिर किसने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह कोई बता सकता है।
कोल्ड ड्रिंक्स बनाने वाली कंपनियाँ भारत में हर वर्ष 5 हजार करोड़ रुपए का माल बेचती हें। इसमें उन्हें काफी मुनाफा होता है। इस पेय पदार्थ की कीमत मात्र डेढ़ रुपए होती है, किंतु इसे खुले आम दस से बारह रुपए में बेचा जाता है। लूट की इस रकम का एक हिस्सा ये कंपनियाँ फिल्मी स्टार्स, क्रिकेटरों एवं नेताओं को दिया जाता है, ताकि देश के युवा इन ठंडे पदार्थों को पीकर अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते रहें। सचिन जो अब तक केस्ट्रॉल, तोशिबा, रीनोल्ड, बूस्ट, केनोन, जेपी सिमेंट, अवाईवा और आईटीसी जैसी कंपनियों के ब्रांड एम्बेसेडर बनकर वर्षों से करोड़ों रुपए कमा चुके हैं, तो एक कंपनी के ब्रांड एम्बेसेडर नहीं बनेंगे, तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इससे उनकी छबि और निखरेगी। ऐसा केवल सचिन को ही नहीं, बल्कि देश के अन्य लोगों को भी सोचना होगा। तभी आशा की एक नई किरण हम सबके सामने होगी।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 5 जनवरी 2011

प्रजा को परेशान करने की सुपारी


डॉ. महेश परिमल
लगता है मनमोहन सिंह सरकार ने प्रजा को परेशान करने की सुपारी ले ली है। अभी पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि की बात लोग भूले ही नहीं हैं कि अब रसोई गैस महँगा करने की घोषणा कर दी गई है। घर का बजट बुरी तरह से लड़खड़ा गया है। बढ़ती महँगाई के हिसाब से आय नहीं बढ़ पाई है। आवश्यक जिंसों के दामों में लगातार वृद्धि होती ही जा रही है। आम आदमी की जीना ही मुश्किल हो गया है। चुनाव के समय वोट लेने के लिए आम आदमी को सर्वोपरि मानने वाली सरकार सत्तारुढ़ होते ही आम आदमी से कोसों दूर हो जाती है। चुनाव के समय ही केंद्र में रहने वाला आम आदमी चुनाव के बाद हाशिए पर आ जाता है। प्याज के दाम जब सर चढ़कर बोलने लगे, तब सरकार को होश आया और निर्यात पर पाबंदी लगा दी। कितने शर्म की बात है कि जिस प्याज को हमने पाकिस्तान को सस्ते दामों में बेचा, उसी प्याज को अब महँगे दामों में उसी से फिर खरीद रहे हैं। क्या यही है सरकार की दूरदर्शिता।
इस बार रसोई गैस की कीमतों में 50 से 100 रुपए की वृद्धि की गई है। शायद सरकार की तरफ से यह आम आदमी को क्रिसमस और नए साल का तोहफा है। कुछ ही दिनों में डीजल के दाम भी बढ़ने ही हैं। जब से यूपीए सरकार आई है, महँगाई बेलगाम हुई है। कांग्रेस पर व्यापारियों की सरकार होने का आरोप हमेशा से लगाया जाता रहा है, यह तो इसी से पता चलता है कि वह महँगाई बढ़ाते समय केवल व्यापारियों को ही ध्यान में रखती है। बाकी आम आदमी की परेशानियों से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढ़ाते समय सरकार हमेशा यह दलील देती है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रूड के भाव बढ़ रहे हैं। इसके अलावा आयल कंपनियों का घाटा कम करना भी उसी की जिम्मेदारी है। चाहे कुछ भी हो जाए, आयल कंपनियों का घाटा नहीं बढ़ना चाहिए। आज तक आयल कंपनियों के घाटे के संबंध में कोई पारदर्शी नीति तैयार नहीं की गई है। कितने सालों से यह खेल चल रहा है। जब भी पेट्रोलियम पदार्थो के दाम बढ़ते हैं, आयल कंपनियों का घाटा सामने आ जाता है। पर आयल कंपनियों का घाटा कैसे कम होता है और कैसे बढ़ता है, यह हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री भी नहीं समझा सकते। पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ाने के पहले यह नहीं सोचा जाता कि क्या इसका बोझ आम जनता सहन कर पाएगी? आयल कंपनियों के खर्च कम करने, पेट्रोलियम मंत्रालय के खर्च कम करने की दिशा में कभी कोई कदम नहीं उठाया जाता। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल के दामों मंे भले ही वृद्धि होती रहे, पर इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि आम आदमी पर ही बोझ डाल दिया जाए।
केंद्रीय डच्यूटी कम करने की कभी ईमानदार कोशिश नहीं की गई। आम जनता को राहत मिले, ऐसी किसी योजना केंद्र सरकार चला रही है, यह कोई नहीं जानता। सरकार दाम बढ़ाकर हमेशा किसी ने किसी बहाने से छटक जाती है। हमेशा से यही होता रहा है। आखिर सरकार की भी तो कोई जवाबदारी है या नहीं? हर बार उसके पास कोई न कोई बहाना होता ही है। सरकार बहानों से नहीं कल्याणकारी कामों से चलती है।
भ्रष्ट नेता सरकार को अरबों रुपए का चूना लगा देते हैं। निर्माण कार्य के नाम पर भी करोड़ों के वारे-न्यारे हो जाते हैं। पर आम आदमी आज भी भूखे के कगार पर बैठा है। कर्ज से डूबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। सरकार को इसकी कोई चिंता ही नहीं है। उसे तो अपने दामन के दाग बचाने से ही फुरसत नहीं। आखिर बेईमानी के दाग इतनी जल्दी धुलने वाले नहीं। ये जिद्दी दाग है। सरकार अपने को साफ-शफ्फाक बताने की कितनी भी कोशिशें कर ले, पर स्वयं को व्यापारीपरस्त होने से इंकार नहीं कर सकती। भ्रष्टाचार के दलदल में फँसे इस देश को ईमानदारी ही बचा सकती है। ऐसी ईमानदारी यूपीए सरकार में दिखाई नहीं देती। स्वयं को औरों से ईमानदार बताकर उसने वोट तो बटोर लिए, इस वोट से सरकार भी बना ली, पर आम आदमी को परेशान कर आखिर कितने समय तक टिक पाएगी। जनता को जवाब देने के लिए कभी न कभी तो उसे सामने आना ही होगा। तब शायद सरकार के पास इसका कोई जवाब न हो।
साल-दर-साल सरकार के हिस्से कुछ न कुछ ऐसा आता है, जिससे उसकी फजीहत होती है। कभी भ्रष्टाचार को लेकर, कभी चुनावों में धांधली कर, कभी सांसदों की खरीद-फरोख्त को लेकर, कभी महँगाई बढ़ाकर, कभी आम नागरिकों के विरोध में बयान देकर। आखिर आम नागरिक कब तक सहन करेंगे, ऐसी सरकार को?
डॉ. महेश परिमल

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