मंगलवार, 18 जनवरी 2011

परेशान करने वाले शब्‍द



डॉ महेश परिमल
कुछ शब्‍दों ने मुझे हमेशा परेशान किया है। कुछ शब्‍द आज भले ही हमें गलत अर्थ देते हों, पर सच तो यह है कि उन शब्‍दों का अर्थ पहले सकारात्‍मक होता रहा है, लेकिन समय के साथ कुछ लोगों की क्षुद्र मानसिकता के कारण उन शब्‍दों के अर्थ में बदलाव आ गया।
असुर शब्द ‘इशु’ (असु) से बना है, जिसका अर्थ है ‘ईश्वर’. ऋग्वेद में असुर इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. ‘असु: प्राणो विद्यते यस्मिन् स असुर:’ अर्थात् जिसमें प्राण, बल अथवा सामर्थ्य हो, वह असुर है. ‘असुर’ सुर का विलोम शब्द है, जिसका अर्थ हुआ, ‘सुर-विरोधी’. कुछ विद्वानों के अनुसार ‘दानव’ का अर्थ ‘दानी’ और ‘दमनशील,’ ‘राक्षस’ का अर्थ ‘रक्षक’ और ‘पालक,’ ‘निशाचर’ का अर्थ ‘रात का पहरेदार,’ ‘रात में चोर-लुटेरों से समाज की रक्षा करने वाला’ तथा ‘असुर’ का अर्थ ‘अमछयी’ या ‘मदिरा न पीने’ वाला होता है. देव-असुर संघर्ष (देवासुर संग्राम अर्थात् आर्यों और मूलनिवासियों का प्रथम युद्ध) के बाद देवों ने असुर का अर्थ बदल दिया. भागवत पुराण में अनार्यों को यज्ञों में विध्न डालने वाला बताया गया है अर्थात् जो यज्ञों में विश्वास नहीं करते थे, उन्हें असुर कहा जाने लगा. वैदिक काल (1500-500 ई.पू) में असुरों को कर्म विरोधी, देवों के प्रति उदासीन, अद्भुत आदेशों के पालने वाले (अन्यव्रत) के रूप में कहा गया है. इस देश के मूलनिवासी धर्मात्मा और सत्यनिष्ठ राजाओं को आर्यों ने अपनी पुस्तकों में असुर, दैत्य, दानव व राक्षस आदि नामों से उल्लेख करके उन्हें अविचारी, अनाचारी, अधार्मिक और अत्याचारी सिद्ध करके उनके प्रति जनता में घृणा उत्पन्न की और अपने आर्य राजाओं की प्रंशसा कर उन्हें अवतार ही नहीं बल्कि परमेश्वर से भी अधिक महापुरुष सिद्ध करके जनता में उनकी भक्ति व भजन करने के लिए वेदों का प्रचार किया।

कुछ लोग समझते हैं कि ‘चमार’ शब्द चमड़े का काम करने वाली जातियों से जुड़ा है और चमड़े का काम करने के कारण ही इस नाम से इतनी घृणा पैदा हुई है. यह तर्क सही प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पेशे को घृणित नहीं कहा जा सकता. आज बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में यह कार्य हो रहा है और सवर्ण लोग भी कर रहे हैं. इस तरह चमार जाति अपनी पृथक् पंचायत प्रणाली से बँधी थी और अपने प्रत्येक झगड़े-टंटे या किसी अन्य समस्या का फैसला अपने स्तर पर ही कर लेते थे
कुछ विद्वानों का मत है कि ‘चंवर’ से ‘चमार’ शब्द की उत्पत्ति हुई है. संभवत: ‘चंवर’ शब्द का विकास ‘चार्वाक’ से हुआ है. इसका तात्पर्य कि जो ‘चार्वाक धर्म’ को मानते हैं, वे ‘चंवर’ हैं. ‘चार्वाक धर्म’ नास्तिक धर्म है. यह वैष्णव धर्म में विश्वास नहीं करता. यह समानता का पाठ पढ़ाता है तथा झूठे आडम्बरों की पोल खोलता है. चंवर, चामुण्डराय, हिरण्यकश्यप, महाबलि, कपिलासुर, जालंधर, विषु, विदुवर्तन आदि भी ‘चार्वाक धर्म’ को मानने वाले शासक हुए हैं. चार्वाक शब्द ‘चारू (मीठा)’ एंव ‘वाक्’ (बोलने वाला)’ की संधि से बना है, जिसका अर्थ है –‘मीठा बोलने वाला’. लेकिन वैष्णव मतावलंबियों ने इस धर्म के अनुयायियों को ‘हमेशा चरने वाले’ अर्थात् ‘अधिक खाने वाले’ तथा ‘चबर-चबर’ करने वाले अर्थात् ‘अधिक बोलने वाले’ घोषित कर दिया. यह भी प्रचार किया गया है कि ‘चार्वाक धर्म’ का ध्येय केवल खाना-पीना और मौज उड़ाना है. कर्ज लेकर घी पीना है. अत: इसी धार्मिक विरोध के कारण ही ये घृणा उपजी थी और इस घृणा का आधार ‘चार्वाक धर्म’ ही था. वैष्णव मतावलंबियों ने ‘चार्वाक धर्म’ का साहित्य जला डाला. जहाँ भी ‘चार्वाक धर्म’ का व्यक्ति दिखाई दे, उसे मारने तक के आदेश दिए गए थे।
‘चमार’ जाति को अत्यंत अस्पृश्य व नीच बनाने का श्रेय शब्द-कोश कारों को भी जाता है. जातिवाचक शब्दों पर ‘हंस’ अगस्त 1998, पूर्णांक 144, वर्ष 13 अंक 1, में श्री भवदेय पाण्डेय का लेख ‘सवर्ण मानसिकता और पुरुषवादी कुण्ठा’ लेख छपा था. इस आलेख में कहा गया है, ‘इतिहास साक्षी है कि संस्कृत और हिन्दी के ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों की तरह हिन्दी शब्द-कोश कारों ने भी ‘चमार’ वाचक शब्दों के साथ भारी छल किया है. संस्कृत के शब्द-कोश ग्रथों में ‘चमार’ को नीच जाति नहीं कहा गया था. जातीय कुण्ठा की चरम अभिव्यक्ति हिन्दी शब्द-कोश ग्रंथों में हुई है।
डॉ महेश परिमल

2 टिप्‍पणियां:

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  2. शब्‍दों के मूल और प्रचलित अर्थ का अंतर आश्‍चर्य में डाल देता है.

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