गुरुवार, 27 जनवरी 2011

आत्महत्या का प्रयास अपराध माना जाए?


डॉ. महेश परिमल
ऐसा कौन-सा अपराध है, जिसमें सफल होने पर कुछ नहीं होता, किंतु विफल होने पर सजा होती है? आपने सही सोचा, जी हाँ वह अपराध है ‘आत्महत्या’। क्या आत्महत्या को अपराध माना जाए? इसमें विफल होने वाले व्यक्ति के लिए जीवन एक अभिशाप बनकर रह जाता है। आप ही सोचें, एक गरीब व्यक्ति, जिसके पास जीने का कोई सहारा नहीं है, बीमार है, भोजन के लिए कहीं कुछ भी नहीं है, भीख माँगने पर उसका स्वाभिमान आड़े आता है, ऐसी दशा में वह आवेश में आकर आत्महत्या करना चाहे, तो क्या गलत है? इस पर वह यदि किसी कारण से अपने प्रयास में विफल रहता है, तो वह अपराधी कैसे हो गया? इसके बाद उसका जीवन जेल में कटता है। वहाँ जाकर फिर वही घिसटती जिंदगी! कहाँ तो सचमुच का अपराध करने वाले अपराधी समाज में ही बेखौफ घूमते हैं और कहाँ अपने जीवन को बरबाद करने के चक्कर में विफल होने वाला साधारण व्यक्ति जेल की हवा खा रहा है। क्या यह न्यायसंगत है?
अपने इस तर्क के माध्यम से मैं आत्महत्या के लिए लोगों को विवश नहीं करना चाहता। ऐसा अब पूरे देश में सोचा जाने लगा है। आत्महत्या एक अपराध है, जब यह कानून बनाया जा रहा था, तब परिस्थितियाँ दूसरी थीं। आज हालात पूरी तरह से बदल गए हैं। जिस तरह से 50-75 साल पहले टीबी याने क्षय रोग को राजरोग कहा जाता था, उसके बाद कैंसर की बारी आई और आज एड्स का बोलबाला है। इस तरह से परिस्थितियों के बदलने के साथ-साथ उन दशाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता हो जाती है, जो उस समय नहीं थी। आत्महत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। चिकित्सा के क्षेत्र में विज्ञान ने कई उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। अभी-अभी ही माँ-संतान को जोड़ने वाली गर्भनाल में रहने वाले अरबों जनकोष (स्टेम सेल) से हर तरह के रोगों का उपचार करने की जानकारी प्राप्त हुई है। फिर भी मानव मन भटकता रहता है। वह कब क्या करेगा, यह कहा नहीं जा सकता। आत्महत्या के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। 1995-96 में इंडियन पैनल कोड 309 की धारा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, किंतु सुप्रीम कोर्ट ने इसे बहाल रखा। वैसे तो कानूनविदो की 42 वीं वाषिर्क रिपोर्ट में आत्महत्या को कानूनन रूप देने की सिफारिश को स्वीकार कर सरकार ने राज्यसभा में भेजा गया था, पर लोकसभा में बहुमत न मिलने के कारण यह आवेदन काम नहीं आया। इस दलील को लेकर यह कहा जा रहा था कि इससे आत्महत्या के मामले बढ़ सकते हैं। यह दलील झूठ भी साबित हो सकती है, क्योंकि श्रीलंका में चार वर्ष पहले आत्महत्या को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया, तब से वहाँ आत्महत्या के मामलों में कमी आई है।
आत्महत्या के मामले में हमारे साधु-संत दोहरी बातें करते हैं। एक तरफ उनका मानना है कि आत्महत्या करने से हमें अपने जीवन में जो भोगना होता है, वह नहीं भोग पाते, इसलिए हमें फिर जन्म लेना पड़ता है। दूसरी तरफ वे कहते हैं कि मानव जीवन दुर्लभ है, 84 लाख योनियों से गुजरने के बाद मानव जीवन प्राप्त होता है, इसे व्यर्थ न किया जाए। इन दोनों विचारों में सच क्या है? वैसे देखा जाए, तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रमण महषिर्, श्री रंग अवधूत आदि महानुभाव कैंसर की पीड़ा को हँसते-हँसते झेला। साधु-संतों और साधारण मानव की सहनशक्ति में अंतर होता है, इसलिए साधारण मनुष्य पीड़ाएँ नहीं झेल पाता। जस्टिज लक्ष्मण का कहना है कि असाध्य बीमारी या असाध्य पीड़ा से त्रस्त मनुष्य को जीने के लिए बाध्य करना अमानवीय और अनैतिक है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जिस तरह से व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों पर निर्भर होना पड़ता है, उसी तरह अपनी जीवन लीला समाप्त करने का अधिकार भी व्यक्ति के पास होना चाहिए। कई देशों में अपने यहाँ मर्सिकिलिंग या यूथेनेसिया को कानूनी रूप दिया गया है। जो व्यक्ति पूरी तरह से किसी असाध्य रोग से पीड़ित है और उसके बचने की कोई संभावना नहीं है, उसे जीवित रखकर इंसान आखिर क्या हासिल करना चाहता है?
कानून विद् कहते हैं कि समाज के सभी वर्गाें को इस दिशा में आगे बढ़कर आत्महत्या को अपराध मानने के खिलाफ आंदोलन करना होगा,तभी बात बन सकती है। मौत की सजा को अमानवीय बताने वाले, उसे रद्द करने की माँग करने वाले मसिकिलिंग और यूथेनेसिया के मामले में खामोश क्यों रह जाते हैं। कोई व्यक्ति यदि घृणित अपराध करता है और उसे मौत की सजा होती है, तो लोग उसे मानवता का ध्वंस मानते हैं, ऐसे लोग असाध्य बीमारी से ग्रस्त लाचार और विवश व्यक्ति के प्रति सद्भाव क्यों नहीं रखते।
यह सच है कि आत्महत्या का विचार त्यागकर व्यक्ति नई ऊर्जा के साथ अपनी मंजिल को प्राप्त कर ले, ऐसे कम ही मिलेंगे। हर बार आत्महत्या का कारण वाजिब हो, यह भी जरूरी नहीं। सही समय पर व्यक्ति को यदि सही मार्गदर्शन मिल जाए, तो व्यक्ति आत्महत्या का विचार त्याग भी सकता है। यदि विचार आ जाए और इसके लिए वह प्रयास भी करे, उसमें विफल हो जाए, तो उसे अपराधी माना जाए? इस संबंध में कानून विदों एवं न्यायाधीशों के विचारों को गंभीरता से लेना होगा।
Êारा सोचें, आत्महत्या का विचार करने वाला व्यक्ति किन हालात से गुजर रहा है? आत्महत्या करने के लिए वह कैसे-कैसे तरीके अपनाता है। कभी कहीं से कूदकर, कभी जहर खाकर, कभी शरीर की नस काटकर, कभी गले में फाँसी लगाकर, आखिर यह सब करते हुए उसे पीड़ा की एक लम्बी सुरंग तो पार करनी ही होती है। जब ये प्रयास विफल हो जाते हैं, तो क्या वह अपराधी हो गया? दूसरी ओर जिसने इत्मीनान के साथ किसी की हत्या की हो, उसके बाद उस तनाव को दूर करने के लिए शराब की शरण में जाकर अपने को हल्का कर रहा हो, वह भी अपराधी? आखिर इन दोनों के अपराध में जमीन-आसमान का अंतर तो है ही। एक ने अपना जीवन होम करने की सोची और दूसरे ने किसी और का जीवन बड़े आराम से खत्म कर दिया। दोनों की प्रवृत्तियों में अंतर है। फिर हत्या करने वाला तो आराम से कानून की नजर से छिप भी जाता है,पर आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला समाज में घोषित हो जाता है। पीड़ादायक स्थिति को तो अधिक करीब से आत्महत्या करने की कोशिश करने वाला झेलता है, फिर वह अपराधी कैसे हुआ? मेरा यहाँ इतना ही कहना है कि आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मानसिकता को समझते हुए उस पर रहम किया जाए। उसे अपराधी घोषित करने के पहले उसके अपराध को गंभीरता से लें, आखिर उसने यह कदम क्यों उठाया? इन प्रश्नों का जवाब ढ़ूँढा जाए, तो आत्महत्या की कोशिश में नाकाम होना एक अपराध नहीं होगा, बल्कि अपने जीवन के साथ खिलवाड़ करना माना जाएगा।
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

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