बुधवार, 12 जनवरी 2011

सचिन भी बन गए बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मोहरा



डॉ. महेश परिमल

सचिन क्रिकेट के भगवान हैं, इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता। सचिन एक सुलझे हुए इंसान हैं, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता। इसका उदाहरण उन्होने हाल ही में शराब के विज्ञापन के लिए अपनी सहमति न देकर दिया भी है। उन्हें भारत रत्न भले ही न मिला हो, पर वे सचमुच भारत रत्न हैं। हाल ही में उन्होंने कोकाकोला का ब्रांड एम्बेसेडर बनना स्वीकार किया, इससे उन पर ऊँगलियाँ उठ रहीं हैं। आखिर भगवान गलती कैसे कर सकता है। हमारे देश में जिस तरह से ठंडे पेय पदार्थ लगातार प्रदूषित होते जा रहे हैं, उसे देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि ये ठंडे पेय पदार्थ तो शरीर के लिए शराब से अधिक खतरनाक हैं। आखिर क्या सोचकर सचिन ने कोकाकोला का ब्रांड एम्बेसेडर बनना स्वीकार किया? इसके पहले भी वे पेप्सी का विज्ञापन कर ही चुके हैं। अपनी चमत्कारिक लोकप्रियता से वे युवाओं को एक तरह से जहर पीने के लिए ही प्रेरित कर रहे हैं।
आज से 8 वर्ष पहले दिल्ली की संस्था 'सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंटÓ की तरफ से कोकाकोला और पेप्सी में जंतुनाशकों की मिलावट के संबंध में आई जानकारी ने काफी सनसनी फैलाई थी। तब केंद्र में एनडीए की सरकार थी। यदि केंद्र सरकार की नीयत उस समय साफ होती, तो सरकार तमाम ठंडे पेय पदार्थों पर तत्काल प्रतिबंध लगा सकती थी, पर ऐसा हो नहीं पाया। कोकाकोला और पेप्सी की राजनीतिक ताकत के चलते इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। सरकार की तरफ से तत्कालीन विपक्षी नेता शरद पवार की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट देती, तब तक सरकार की चला-चली की बेला आ गई। रिपोर्ट पूरी तरह से उक्त कंपनियों के खिलाफ जा रही थी। क्योंकि रिपोर्ट में यह सिफारिश की गई थी कि इन तमाम पेय पदार्थों में कितनी मात्रा में जंतुनाशकों का प्रयोग किया गया है, इसकी जाँच के लिए सख्त कानून बनाया जाए। साथ ही इस कानून पर सख्ती से अमल में लाया भी जाए।
संयुक्त संसदीय समिति की इस रिपोर्ट को अमल में लाने की जिम्मेदारी अब यूपीए सरकार पर आ गई। इस समिति के अध्यक्ष शरद पवार भी मंत्री बन गए। शरद पवार पर भी यह जिम्मेदारी बनती थी कि वे सरकार पर दबाव डालते कि उनकी अध्यक्षता में जिस समिति का गठन किया गया, उस सिफारिशों को लागू किया जाए। इस बात को आज सात साल बीत जाने के बाद भी उक्त सिफारिशें अन्य सिफारिशों की तरह कहीं धूल खा रहीं हैं। आज भी ठंडे पेय पदार्थों पर बिना किसी सूचना के जंतुनाशकों की मिलावट की जा रही है। विज्ञापनों से प्रभावित होकर युवा उसे पी रहे हैं और अपनी जिंदगी को एक भयानक अँंधरे में ले जा रहे हैं। आखिर इसका जवाबदार कौन है? आखिर उन सिफारिशों को अटकाने का काम कौन कर रहा है? इसकी एक झलक को धारावाहिक रूप से मैगजीन डाउन टू अर्थÓ में प्रकाशित किया गया है। इसे पढ़कर पता चल जाता है कि आखिर किस तरह से केंद्र सरकार भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरफदारी कर रही है। संयुक्त संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि ठंडे पेय पदार्थों मे तमाम चीजें मिलाने के लिए भले ही विदेशों में सख्त कानून न हों, पर हमारे देश में तो इसके लिए सख्त कानून बनने ही चाहिए। जब तक इस दिशा में कानून सख्त नहीं होंगे, तब तक ये बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भारतीयों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करती रहें्रगी। इनका यही कहना होगा कि हम किसी प्रकार से कानून का उल्लंधन नहीं कर रहे हैं। इस दौरान लाखों युवाओं ने इन ठंडे पदार्थों को पीकर अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर चुके हैं, इसके बाद भी हमारी सरकार ने इस दिशा में एक भी ऐसा कदम नहीं उठाया, जिससे यह साफ हो कि वह युवाओं के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित है।
सात वर्ष बाद भी आखिर उन सिफारिशों को अनदेखा क्यों किया गया? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। सभी जानते हैं कि सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों का खिलौना बन गई है। ये कंपनियाँ सरकार से जो चाहे करवा लेती हैं, इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी है। सरकार कोई भी हो, इनका काम कभी नहीं रुकता। साफ्ट ड्रिंक में कितने प्रतिशत जंतुनाशकों की उपस्थिति से किसी प्रकार का खतरा नहीं होता, इस तरह का कानून बनाने की पहली कोशिश स्वास्थ्य विभाग 2004 में की थी। यह कोशिश नाकाम साबित हुई। उधर इन ठंडे पेय पदार्थों के खिलाफ स्वैच्छिक संस्थाओं ने अपना अभियान जारी रखा। इस विरोध को देखते हुए केंद्र सरकार ने ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडडर्स नामक स्वायत्त संस्था यह काम सौंपा कि इसके लिए कानून बनाया जाए कि आखिर इन ठंडे पेज पदार्थों में कितने प्रतिशत जंतुनाशकों का होना आवश्यक है। इसके लिए इस संस्था ने 14 विशेषज्ञों की एक समिति तैयार की। इस समिति में कोला कंपनियों के प्रतिनिधि भी शामिल थे। समिति ने तीन वर्षों में 20 बैठकें कीं। इन बैठकों में कोला कंपनियों के प्रतिनिधियों ने हमेशा बखेड़ा ही खड़ा किया। उनका उद्देश्य यही था कि किसी भी तरह से ये इस तरह का कोई कानून न बना सकें, जिससे उन्हें भविष्य में परेशानियों का सामना करना पड़े। इसके बावजूद समिति के अन्य सदस्यों ने मिलकर यह तय कर लिया कि जिस तरह से पीने के पानी में यह तय कर लिया गया है कि इसमें किस सीमा तक जंतुनाशकों की उपस्थिति रहे, उसी तरह इन ठंडे पेज पदार्थों के लिए भी यही नियम लागू किया जाए। समिति का यह तर्क था कि साफ्ट डिं्रक के दो मुख्य घटक पानी और शक्कर ही हैं। सरकार की लेबोरेटरी की ही सिफारिश है कि भारत में जो शक्कर पैदा होती है, उसमें जंतुनाशकों की उपस्थिति नहीं के बराबर है। इससे स्पष्ट है कि जितने जंतुनाशक पीने के पानी में हैं, उससे अधिक तो इन पेय पदार्थों में होने ही नहीं चाहिए। हमारे देश में पेकेज्ड डिं्रकिंग वॉटर में 0.5 पाट्र्स पर बिलियन (यानी एक अरब अणुणुओं का आधा) जितने जंतुनाशकों को चलाया जा सकता है। इसके विपरीत आज बाजार में जो ठंडे पेय पदार्थ मिल रहे हैं, उनमें 15 पाट्र्स पर बिलियन जितने जंतुनाशक होते हैं। इससे ही स्पष्ट है कि ये पेय पदार्थों हमारे स्वास्थ्य के लिए कितने खतरनाक हैं।
स्वास्थ्य से खुलेआम होने वाले इस खेल में सरकार कहाँ तक शामिल है, इसका एक छोटा-सा उदाहरण यह है कि ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड की समिति की तरफ से जब अंतिम निर्णय लेना था, तब दिल्ली में एक बैठक का आयोजन किया गया। इस बैठक में कोला कंपनी की सारी चाल नाकाम हो सकती थी, यह तय था। बैठक में कोला कंपनी के सदस्यों की संख्या भी कम थी। बैठक में एक निश्चित निर्णय पर सहमति बन भी गई थी। 29 मार्च की सुबह यह बैठक हुई, इसके पहले ही केंद्र सरकार के स्वास्थ्य विभाग के सचिव का एक पत्र समिति को मिला, जिसमें यह आदेश था कि बैठक में कोई अंतिम निर्णय न लिया जाए। आश्चर्य इस बात का है कि पत्र में तारीख 29 मार्च की ही थी। यह पत्र समिति के अध्यक्ष को ही दिया गया था। सोचने वाली बात यह है कि जहाँ सरकारी कार्यालयों में एक फाइल को दूसरे स्थान पर पहुँचने में बरसों लग जाते हैं, वही स्वास्थ्य विभाग को यह पत्र कुछ ही मिनटों में सारी औपचारिकताएँ पार करते हुए समिति के अध्यक्ष तक कैसे पहुँच गया? इससे स्पष्ट है कि बहुराष्ट्रयी कंपनियों की पहुँच कहाँ-कहाँ तक है, वे जब चाहें जैसा चाहें करवा सकती हैं। अंतिम समय में कोला कंपनी को बचाने के लिए आखिर किसने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, यह कोई बता सकता है।
कोल्ड ड्रिंक्स बनाने वाली कंपनियाँ भारत में हर वर्ष 5 हजार करोड़ रुपए का माल बेचती हें। इसमें उन्हें काफी मुनाफा होता है। इस पेय पदार्थ की कीमत मात्र डेढ़ रुपए होती है, किंतु इसे खुले आम दस से बारह रुपए में बेचा जाता है। लूट की इस रकम का एक हिस्सा ये कंपनियाँ फिल्मी स्टार्स, क्रिकेटरों एवं नेताओं को दिया जाता है, ताकि देश के युवा इन ठंडे पदार्थों को पीकर अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते रहें। सचिन जो अब तक केस्ट्रॉल, तोशिबा, रीनोल्ड, बूस्ट, केनोन, जेपी सिमेंट, अवाईवा और आईटीसी जैसी कंपनियों के ब्रांड एम्बेसेडर बनकर वर्षों से करोड़ों रुपए कमा चुके हैं, तो एक कंपनी के ब्रांड एम्बेसेडर नहीं बनेंगे, तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इससे उनकी छबि और निखरेगी। ऐसा केवल सचिन को ही नहीं, बल्कि देश के अन्य लोगों को भी सोचना होगा। तभी आशा की एक नई किरण हम सबके सामने होगी।
डॉ. महेश परिमल

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