
डॉ महेश परिमल
चिड़िया का चहकना कितना भला लगता है। उसकी चहचहाहट में भी एक लय है। बचपन मानो चिड़िया की चहचहाहट की इस लय पर थिरक उठता है।
बचपन में चिड़ियों पर बहुत सी कहानियां पढ़ते थे। मां की कहानियों में भी कभी कभी चिड़िया चॅँ-चूँ बोल जाती थी। अपने दोनों पंजों से चिड़िया जब आगे बढ़ती है, तो उसे फुदकना कहते हैं, यह मां की कहानियों से ही जाना। चिड़िया से आज तककिसी को कोई नुकसान नहीं हुआ। सचमुच अपने सामने किसी चिड़िया का चहकना कितना भला लगता है। उसकी चहचहाहट में भी एक लय है। बचपन मानो उसकी लय पर थिरक उठता है। शायद ही कोई ऐसा हो, जिसने चिड़ियों की चहचहाहट न सुनी हो। वह बचपन, बचपन ही नहीं, जिसमें चिड़ियों की चहचहाहट वाली कोई कहानी ही न हो। मेरा बच्च एक दिन कुछ कह रहा था। चिड़िया आती है, चिड़िया जाती है, चिड़िया दूर दूर चली जाती है। फिर आती है, दाना चुगकर चली जाती है..। बच्चों के कोमल मन पर भी चिड़िया अपना प्रभाव अवश्य छोड़ती है। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक चिड़ियों का साथ होता है। एकमात्र यही ऐसा परिंदा है, जिसे कोई अपना दुश्मन नहीं मानता। लेकिन आज ये ही दोस्त हमारे बीच से गुम हो रहे हैं। अब सुबह चिड़ियों की चहचहाहट से नहीं होती। उनकी राह देखनी पड़ती है। भाग्य अच्छा हो, तो वह दिख भी जाती है। कांक्रीट के जंगल में अब वह अपना घरौंदा नहीं बना पाती। पहले पेड़ों पर अपना घरौंदा वह बना भी लेती थी। पेड़ उसके घरौंदे को सुरक्षित रख भी लेते थे। आज कांक्रीट के इस जंगल में ऐसी कोई बिल्डिंग नहीं, जो उसके घरौंदे को महफूज रख सके। इन घरों में वह सब कुछ होता है, जिससे घर सँवरता है। ऐसे घरों में चिड़ियों का प्रवेश होता तो है, पर उस घर के लिए नुकसानदेह साबित होता है। कभी एक उंगली जितने सहारे पर टिकी कोई फ्रेम या शो पीस या फिर कोई कीमती सामान, इन चिड़ियों के कारण टूट फूट जाता है। ऐसे घरों के लोग चिड़ियों को दुत्कारने लगते हैं। वास्तव में चिड़ियाएं वहां प्यार का संदेशा देने जाती हैं। पर उनके संदेशों को कोई सुनना नही चाहता।

आखिर चिड़िया क्यों हमारे आँगन में नहीं फुदकती? क्या वह हमसे नाराज है? या फिर वह हमसे कुछ कहना चाहती है? दरअसल चिड़ियाएं कभी किसी से नाराज नहीं होतीं। नाराज होना तो उनके स्वभाव में ही नहीं है। वे तो यह समझ ही नहीं पा रही हैं कि अब घरों में उसके लिए जगह क्यों नहीं है? उसके लिए दाने पानी के कटोरे अब कहीं-कहीं ही देखने को मिलते हैं। ऐसा क्यों है, यह सोचना उसका काम नहीं। सोचना तो हमें है कि आखिर चिड़ियाएं अब घरों के अंदर बेखौफ होकर क्यों नहीं आतीं? बसेरे के लिए अब उतने घने दरख्त भी कहां बचे, जहां वह अपने बच्चों को सुरक्षित रखकर दाने पानी की तलाश में निकल सके। पेड़ और इंसान के दरो-दीवार उसके विश्वास और भरोसे के दायरे से धीर-ेधीरे अब दूर होने लगे हैं। अब सुनने को नहीं मिलती गोरैया की मीठी तान, न उस पर कोई कहानी। अब न नानी है, न कहानी। हम प्रतीक्षा करते हैं दाना पानी लेकर चिड़िया का। वह आएगी, दाना चुगेगी और चोंच में दबाकर चली जाएगी। बिल्कुल बच्चे की कविता की तरह। आप बताएंगे, क्या चिड़िया आएगी? क्या वह हमसे नाराज है? क्या वह हमसे कुछ कहना चाहती है? क्या हम उससे यह वादा नहीं कर सकते कि हमारी सुबह उसकी चहचहाहट से होगी? हम देंगे उसे दाना पानी। हम रखेंगे उसका खयाल। हम सिद्ध कर देंगे कि हम उस पर आश्रित हैं, वह हम पर नहीं।
डॉ महेश परिमल
यह टिप्पणी कहीं और लगाई है, दुहरा रहा हूं. एक वरिष्ठ साहित्यकार कह रहे थे- 'घर में जालियों के चलते मच्छर तो घुस नहीं पाते गौरैया कहां से आए.
जवाब देंहटाएंbhaskar mai padhi thi, acchi lagi
जवाब देंहटाएंकौन चिड़िया .... ये अगला सवाल है जो बच्चे पूछ-पूछ कर अपने मां-बाप को हलकान कर देंगे. पर वो जवाब नहीं दे पाएंगे। देंगे भी तब जब खुद याद हो कि आखिरी बार कब देखी थी गौरेया
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