रविवार, 18 दिसंबर 2016
कविता - यह लघु सरिता का बहता जल - गोपाल सिंह नेपाली
कविता का अंश...
यह लघु सरिता का बहता जल,
कितना शीतल, कितना निर्मल,
हिमगिरि के हिम से निकल निकल,
यह निर्मल दूध सा हिम का जल,
कर-कर निनाद कल-कल छल-छल,
तन का चंचल मन का विह्वल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
ऊँचे शिखरों से उतर-उतर,
गिर-गिर, गिरि की चट्टानों पर,
कंकड़-कंकड़ पैदल चलकर,
दिन भर, रजनी भर, जीवन भर,
धोता वसुधा का अन्तस्तल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
हिम के पत्थर वो पिघल पिघल,
बन गए धरा का वारि विमल,
सुख पाता जिससे पथिक विकल,
पी-पी कर अंजलि भर मृदुजल,
नित जलकर भी कितना शीतल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
कितना कोमल, कितना वत्सल,
रे जननी का वह अन्तस्तल,
जिसका यह शीतल करुणा जल,
बहता रहता युग-युग अविरल,
गंगा, यमुना, सरयू निर्मल,
यह लघु सरिता का बहता जल।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

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