गुरुवार, 29 दिसंबर 2016
बाल कहानी – गोलू की बाँसुरी – डॉ. उषा यादव
कहानी का अंश…
एक लड़का था। उसका नाम था गोलू। वह दुनिया में बिलकुल अकेला था पर वह अपने गुणों के कारण सारे गाँव का प्रिय था। कोई उसे बचा हुआ खाना दे देता, तो कोई उसे अपने बच्चों के पुराने कपड़े। कोई अपने घर के बरामदे में सोने के लिए जगह दे देता। इसी तरह उसके दिन कट रहे थे। एक दिन शाम को गाँव के बाहर बने देवी मंदिर के पास बच्चे खेल रहे थे। तभी एक बाँसुरी वाला वहां आया और उसकी मीठी बाँसुरी की आवाज सुनकर बच्चे उसके आसपास जमा हो गए। वे कहने लगे – बाँसुरी वाले जाना नहीं, हम अभी अपने घर से पैसे लेकर आते हैं। कहते हुए बच्चो ने सरपट दौड़ लगाई और थोड़ी देर में ही घर से पैसे लेकर आ गए। बाँसुरी वाले की सभी बाँसुरी थोड़ी देर में ही बिक गई। सिर्फ एक बाँसुरी बाकी रही। नन्हा गोलू भी उसी झुंड में खड़ा था। बाँसुरी वाले ने उसे पुचकारते हुए कहा – बेटा, तुम्हें बाँसुरी पसंद नहीं है क्या? तुम अपने घर से पैसे लेकर क्यों नहीं आए? एक बच्चा बोला – इसका तो घर ही नहीं है। इसका इस दुनिया में कोई नहीं है। बाँसुरी वाले का मन भारी हो गया। उसने अपनी आखरी बाँसुरी उसे पकड़ाते हुए कहा – देखो बेटा, यह बाँसुरी थोड़ी चटकी हुई है, इसलिए मैं इसे नहीं बेच रहा था। तुम इसे रख लो। तुम्हें इसके लिए कुछ नहीं देना होगा। यह मेरी तरफ से तुम्हारे लिए उपहार है। गोलू का चेहरा खुशी से चमक उठा। उसे वह चटकी हुई बाँसुरी हजार कीमती खिलौनों से भी बढ़कर लगी। बेचारे ने जिंदगी में पहली बार मनोरंजन की कोई चीज पाई थी। बाँसुरी को लेकर अपने सीने से ऐसे चिपका लिया, जैसे कभी छोड़ेगा ही नहीं। तभी एक भिखारिन जैसी एक औरत वहाँ आई। उसके चेहरे पर उदासी थी। वह बोली – बच्चो, क्या कोई बाँसुरीवाला यहाँ आया था क्या? वह कहाँ गया? एक बच्चा बोला – उसकी सारी बाँसुरियाँ हमने खरीद ली। वह चला गया। यह सुनकर उस औरत की आँखें भर आई और वह बोली – मेरा बेटा पंद्रह दिन से बीमार है। वह झोपड़ी में पड़ा हुआ है। उसने बाँसुरी की आवाज सुनकर मुझे बाँसुरी खरीदने के लिए यहाँ भेजा था। पर अब तो बाँसुरी वाला यहाँ नहीं है। दूसरा बच्चा बोला – तुमने आने में देर कर दी। भिखारिन बोली – तुम सभी के पास तो ढेरों खिलौने हैं। क्या तुम अपनी बाँसुरी मुझे दे सकते हो। तुम लोग तो खाते-पीते घर के लड़के हो। यदि तुम में से कोई मुझे बाँसुरी देगा तो मेरा बेटा खुश हो जाएगा। बच्चे तो आखिर बच्चे थे। वे भला अपनी बाँसुरी उसे कैसे देते? तो क्या गोलू को उस भिखारीन स्त्री पर दया आई? क्या उसने अपनी बाँसुरी उसे दे दी? या वह भी दूसरे बच्चो की तरह ही वहाँ से चलीा गया? बेचारी उस स्त्री को अपने बच्चे के लिए बाँसुरी मिली या नहीं?
यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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