रविवार, 24 मई 2020

घर बुलाता है, अम्फान के रूप में नई मुसीबत हमारी देहरी पर







मई 2020 के तीसरे सप्ताह में लोकस्वर, लोकोत्तर में प्रकाशित आलेख

सोमवार, 18 मई 2020

भारत का मजदूर, पैदल चलने को मजबूर


रविवार 17 मई  को लोकस्वर बिलासपुर और लोकोत्तर भोपाल में प्रकाशित

भारत का मजदूर, पैदल चलने को मजबूर 
डॉ. महेश परिमल
उत्तर प्रदेश के औरैया के पास 24 मजदूर सड़क दुर्घटना में चल बसे। मंजिल की ओर जाते हुए मौत ने उन्हें अपने आगोश में ले लिया। इन दिनों पूरे देश में मजदूरों का पलायन जारी है। सड़कें खाली नहीं हैं, सभी ने तमाम सुविधाओं का काफी इंतजार किया। जब कुछ नहीं बचा, तब उन्होंने मान लिया कि अब पांवों का ही सहारा है। यही पांव उन्हें मंजिल तक पहुंचाएंगे। अब उन्हें किसी सहारे की जरूरत नहीं। इन लोगों ने क्या-क्या तकलीफें नहीं सहीं। जहां जैसा, जो भी साधन मिला, अपनी मंजिल की ओर बढ़ते गए। मंजिल दूर जरूर थी, पर ओझल नहीं थी। साइकिल, ठेला, ऑटो, बाइक, ट्रक, ट्रेक्टर इन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचाने में सहायक रहे। इन सबकों घर बुला रहा था। वही घर जिसे संवारने के लिए वे उससे काफी दूर निकल आए थे। इधर घर तो संवर गया, पर जिंदगी बिखर गई। जब दाने-दाने को मोहताज हो गए, तो निकल पड़े घर जाने के लिए। हर बार उनका घर जाना खुशियों का संदेशे के साथ होता था, पर इस बार घर जाना उन मजदूरों की मजबूरी थी। पहली समस्या तो घर तक पहुंचाने वाले संसाधन की थी। जब संसाधन नहीं मिला, तो दूसरे साथियों की तरह वे भी पैदल निकल पड़े।
इन मजदूरों के साथ उनका परिवार भी है। जिसमें बच्चे भी शामिल हैं। नन्हें पांव से लम्बी दूरियां पार करने वाले बच्चे अपने माता-पिता की मजबूरी समझ रहे हैं, पर वे भी क्या करते। इन हालात में उनका साथ देना ही उन्हें हिम्मत बंधाना है। पैदल चलते हुए रास्ते में पड़ाव भी आते हैं। पर,  उन्हें तो पड़ाव की भी चिंता नहीं थी। जहां भी पड़ाव आता, कुछ संस्थाएं आगे बढ़ती, उन्हें कुछ देने के पहले मीडिया को बुलाती, तस्वीरें खिंचवाती उसके बाद उन्हें कुछ खाना नसीब हो पाता। रास्ते के पड़ाव दिखावे के पड़ाव बन गए थे। ऐसी कोई संस्था नहीं, जिसने अपना काम केवल सेवा ही माना। हर संस्था पहले अपनी पहचान दिखावे से कायम करना चाहती है। इन्हीं दिखावों के बीच मजदूरों का सफर जारी रहा। कहीं-कहीं ये मौत का भी सफर बन रहा है।
आज देश की सड़कों पर श्रमिक नहीं, श्रम जा रहा है। देश के कर्णधारों को शर्म नहीं आ रही है। हमेशा देश सेवा की बात करने वाले तमाम नेता आज न जाने कहां छिपे हैं। किसी नेता ने अपनी संपत्ति दान की हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। न ही किसी नेता ने अपने घर में लंगर खोला, जहां बिना भेदभाव के सभी को भोजन मिलता। जब ये श्रम एक राज्य से दूसरे राज्य चला गया, तो फिर छोड़े गए राज्य का क्या होगा? यह तो उस राज्य ने नहीं सोचा। उसने नहीं सोचा, कोई बात नहीं, पर उस राज्य को तो सोचना ही चाहिए कि इतने सारे मजदूर जब अपने राज्य में आएंगे, तो उन्हें कौन रोजगार देगा? उन बेरोजगारों के लिए सरकार की क्या योजना है?
देश की सड़कें इन दिनों अपने घर जाते लाचार मजदूरों से अटी पड़ी हैं। हर राज्य से कोई न कोई कहीं न कहीं जाने के लिए निकल पड़ा है। सरकार कहती है कि उसने मजदूरों के लिए ट्रेनें चलाई, बसें चलाई। यदि उसकी बात को सच मान लिया जाए, तो अभी न जानें कितनी ट्रेनें-बसें और चलाई जानी चाहिए। तब तक मजदूर शांत नहीं बैठ सकते। अब न तो उनके पास रोजगार है, न पैसा और न ही वहीं रहने की कोई माद्दा। चारों ओर एक अनिश्चितता का वातावरण बन गया है। लोगों ने सरकारों पर भरोसा करना बंद कर दिया है। अब वे अपने परिवारों के साथ पूरे हौसलों को लेकर निकल पड़े हैं। सरकारें गुमसुम हैं। कुछ सूझ नहीं रहा है। आखिर क्या करें, इतने सारे मजदूरों का? कोई तो उपाय होगा?
उपाय तो हैं, पर उसे मानेगा कौन? इतने सारे मजदूर पैदल ही निकल पड़े हैं। वे जहां से भी गुजर रहे हैं, तो उसके आसपास के गांव-कस्बों या शहरों के वाहन मालिक उन्हें अपने वाहनों से केवल 50 कि.मी. की दूरी तय करवा दें, तो उनका श्रम बचेगा। बाकी आगे के सफर का बीड़ा दूसरे शहर के वाहन मालिक उठा लें। इस तरह से वे छोटे-छोटे सफर करते-करते अपनी मंजिल तक पहुंच जाएंगे। जब उन मजदूरों ने तय ही कर लिया है कि पूरा रास्ता उन्हें पैदल ही पार करना है, तो फिर बिना किसी अपेक्षा के उन्हें रास्तों के शहरों से थोड़ी-बहुत सहायता मिल जाएगी, तो उनका सफर आसान हो जाएगा। छोटी-छोटी मंजिलें उन्हें बड़ी मंजिल तक पहुंचा देंगी। इन दिनों सभी के वाहन थमे हुए हैं। इन थमे पहियों पर यदि जान डालनी है, तो इस सुझाव को मान लिया जाए। इससे काफी मजदूरों का भला होगा। सड़कों पर होने वाले हादसे रूक जाएंगे। यदि इन मजदूरों को भोजन की परेशानी होती है, तो इन्हें किसी एक जगह पर रोककर कुछ घरों से खाना दिया जा सकता है। ताकि भूख से कुलबुलाती आंतें कुछ समय के लिए चीखना बंद कर दे। गांवों की स्कूलों का उपयोग मजदूरों के ठहरने के लिए भी किया जा सकता है।
अंत कीर्ति श्रीवास की एक कविता से…
हां, मैं भारत का मजदूर हूं…
आज पैदल चलने को मजदूर हूं
थक कर चकनाचू हूं, लाचार हूं
मैं कोई गैर नहीं, आपमें से ही एक हूं
जीवन का एक शूल हूं
पांव के छाले ये तपती धूप और भूख से शिथिल हूं
थक चुका हूं, हारा नहीं
अपने घर, गांव परिवार से दूर हूं
हां, मैं भारत का मजदूर हूं
डॉ. महेश परिमल

रविवार, 10 मई 2020

वे लौट रहे हैं घरौंदों को ओर, घर जाने की छपटाहट





5 मई 2020 को दैनिक जागरण दिल्ली और हरिभूमि रोहतक में प्रकाशित

https://epaper.jagran.com/epaper/05-may-2020-262-national-edition-national-page-8.html


शुक्रवार, 1 मई 2020

अप्रैल 2020 के दूसरे पखवाड़े में प्रकाशित आलेख

























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