गुरुवार, 29 मई 2014

अब मोदी की रोज होगी परीक्षा

डॉ. महेश परिमल
मोदी सरकार ने शपथ ग्रहण के साथ ही काम करना शुरू कर दिया है। अब यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि उनके सामने किस तरह की चुनौतियां हैं। वे उसका मुकाबला किस तरह से करेंगे। पर सच तो यह है कि अनेक चुनौतियों के साथ-साथ पूरा रास्ता अग्निपथ की तरह है। जहां कदम-कदम पर अंगारे दहक रहे हैं, पूरा रास्ता फिसलन भरा है। लोग ताकते बैठे हैं कि कब कौन-सा कदम गलत उठे, तो वे टोक सकें। आक्षेप लगा सकें। आरोपों के कठघरे में खड़ा कर सकें। अब तक जनसभाओं में प्रधानमंत्री बहुत बोले, पर अब उन्हें कम बोलकर काम अधिक कर दिखाना होगा। तभी उनका व्यक्तित्व निखरकर सामने आ पाएगा। वैसे लोगों ने उन पर पूरा भरोसा किया है, पर सभी जानते हैं कि भरोसा जीतने में काफी वक्त लगता है, पर खोने में कुछ पल। इसलिएा प्रधानमंत्री एवं उनके मंत्रिमंडल के साथियों के शपथ ग्रहण समारोह में देश-विदेश के अनेक लोगों ने अपनी उपस्थिति देकर स्वयं को गौरवान्वित समझा। मोदी मंत्रिमंडल ने अपना काम शुरू कर दिया है। अब तक मोदी एक राज्य को चलाते थे, अब उनके सामने पूरा देश है। देश ही नहीं विश्व के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश को चलाने की जिम्मेदारी है। लोगों ने उनसे काफी अपेक्षाएं पाल रखी हैं, इसलिए उनके एक-एक कदम की समीक्षा होगी।
आज मोदी के सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक क्षेत्र की है। दूसरी है विदेशी मामलों की। तीसरी है सुरक्षा और चौथी उत्तर-पूर्व के राज्यों की समस्या। पांचवें क्रम में है आंतरिक सुरक्षा और छठी है कुछ नया कर दिखाने की। रोटी-कपड़ा-मकान और बिजली आदि आर्थिक क्षेत्र की समस्याओं में समाहित की जा सकती है। सबसे पहले बात आर्थिक क्षेत्र की, तो मोदी ने गुजरात और मध्यप्रदेश में सफल रूप से बनाई गई ज्योतिग्राम योजना को देश भर में लागू करनी होगी। दाल और तिलहन के समर्थन मूल्यों पर विचार करना होगा। चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी ने कई बार गेहूं की आयात-निर्यात नीति आदि पर अपने विचार व्यक्त किए। अब वे सत्ता पर काबिज हैं, तो अपने आइडियों को अमल में लाना चाहिए। फारेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट भी एक सुलगता प्रश्न है। सरकारी सस्ते अनाज की दुकानों की बदहाली पर भी उन्हें विचार करना होगा। विदेशी मामलों का मुद्दा भी महत्वपूर्ण है। पिछले दस वर्षो से यूपीए शासन के दौरान विदेश नीति में काफी खोट थी। चीन के साथ व्यवसाय, आंतरिक-बाहरी सुरक्षा, पड़ोसी देशों के साथ डांवाडोल संबंध, पाकिस्तान की बार-बार बदनामी, पाक प्रेरित आतंकवाद आदि के संबंध में नए सिरे से विदेश नीति तैयार करनी होगी। शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों को आमंत्रित कर भारत ने चीन को यह संकेत दे दिया है कि भारत एक परिवर्तन के मोड़ पर है। अमेरिका के साथ भी कड़ा व्यवहार दर्शाना होगा। अमेरिका में अवैधानिक रूप से रहने वाले गुजरातियों को स्थायी करने का काम हाथ में लेना होगा। दस वर्ष पहले एनडीए शासन में केपिटल गुड्स का आयात दस अरब डॉलर का था, जो यूपीए सरकार के दस वर्ष के शासन में 587 अरब डॉलर पर पहुंच गया। फ्रेंडली इंडस्ट्रियल पॉलिसी तैयार करनी होगी। कोल इंडिया जैसी अनेक निजी क्षेत्र की कंपनियों को और अधिक व्यावसायिक बनाना होगा। 2014 का फोब्र्स की रिपोर्ट बताती है कि भारतीय विद्यार्थी जब विदेश पढ़ने जाते हैं, तब उन पर 27 हजार करोड़ का खर्च होता है, इस खर्च की जीडीपी पर मामूली असर होता है। उद्योगों के लिए अटकी हुई फाइलों की भी समीक्षा करनी होगी।
सुरक्षा के क्षेत्र में कहा जाता है कि भारतीय सेना महत्वपूर्ण हथियारों की कमी से जूझ रही है। 155 एम अल्ट्रा लाइट वेट फिल्ड होवीत्जर और लाइट यूटीलिटी हेलिकाप्टर आदि के बिना अधिक समय तक नहीं रहा जा सकता। भारत में ही ये शस्त्र बनाए जाए, इसकी तैयारी करनी होगी। शस्त्रों की आयात नीति को विदेशी नीति के साथ जोड़ना होगा। ऐसा हमारे विशेषज्ञ मानते हें। ये सारे बातें तो रुटीन की है। पर मोदी को कुछ ऐसा नया कर दिखाना होगा, जिसमें लोगों की दिलचस्पी हो। यह भी सच है कि मोदी के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है कि जिसे घुमाते ही परिवर्तन दिखाई देने लगे। लोगों की यह अपेक्षा है कि यूपीए सरकार की नीतियों की आलोचना करने वाले नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियों के अभी कई गड्ढे और कई पर्वत हैें। अभी कई जम्प आने हैं। उन्हें देश की राजनीति के बदले विदेशी मामलों की राजनीति पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। कितने ही समीक्षक यह मानते हैं कि सीएम से पीएम की दिशा में टर्न लेना बहुत ही मुश्किल है। मोदी ने गुजरात में जिस तरह से स्व केंद्र शासन चलाया, वैसा शासन चलाना केंद्र शासन में संभव ही नहीं है। सबको साथ लेकर चलने की बात कहना आसान है, पर उसे अमल में लाना बहुत ही मुश्किल है। अब मोदी को यह पता चल जाना चाहिए कि ह्यूमन हेप्पीनेस अर्थात सभी के जीवन में खुशहाली हमेशा कायम रहे, वैसे प्रयास किए जाने चाहिए। यह तब संभव है, जब लोगों को सरकार द्वारा लिए गए निर्णय का सीधा असर उनकी निजी जिंदगी पर पड़े।
जो भी हो, पर सच यही है कि भाजपा को इस बार अपेक्षाओं के वोट मिले हैं। लोगों ने अपने प्रतिनिधियों को नहीं देखा, उन्होंने केवल नरेंद्र मोदी को ही देखा। उन्हीं को वोट दिया। तीस वर्ष बाद देश गठबंधन की राजनीति से मुक्त हुआ है। इसका श्रेय मतदाता को दिया जाना चाहिए। वह भी आजिज आ चुका था, गठबंधन की राजनीति से। क्षेत्रीय दल अब तक देश के विकास में रोड़ा ही अटकाते रहे हैं। कई बार तो सीधी ब्लेकमेलिंग ही दिखाई दी है। ममता और जया तो इसी में महारत हासिल कर चुकी हैं। इसलिए लोगों ने इस बार भाजपा को गठबंधन की राजनीति से दूर रखा है, ताकि देश का संपूर्ण विकास हो। बिना किसी मजबूरी के सरकार अपने ठोस निर्णय ले सके। इन पूरी अपेक्षाओं के केंद्र में केवल नरेंद्र मोदी ही हैं।
  डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 26 मई 2014

आज से नमो युग का प्रारंभ

डॉ. महेश परिमल
आज नरेंद्र मोदी देश के 15 वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेंगे। देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी एक के बाद एक ऐसा काम कर रहे हैं, जो पहले कभी नहीं हुआ। संसद की सीढ़ियों पर अपना माथा रखकर उसे प्रणाम करने का काम अभी तक किसी ने नहीं किया। उनकी यह तस्वीर मीडिया में छा गई। लोगों को लगा कि उन्होंने भाजपा प्रत्याशी को वोट देकर कुछ भी गलत नहीं किया। 26 मई को मोदी प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे, उसके बाद गठन होगा मंत्रिमंडल का। इसमें कौन-कौन होगा, यह एक यक्ष प्रश्न है। पर कयास लगाए जा रहे हैं कि अभी तो मंत्रिमंडल छोटा ही होगा, बाद भी उसका विस्तार किया जाएगा। उनके मंत्रिमंडल से ही देश के अगले 5 वर्षो का भविष्य तय होगा। देश की दिशा और दशा तय होगी। इसलिए मोदी यह काम पूरी सावधानी से ही करेंगे, यह तय है। दस वर्ष पहले अटल मंत्रिमंडल में जो मंत्री थे, उनमें से कई तो राजनीति से दूर जा चुके हैं, या फिर प्रधानमंत्री की नजर से उतर चुके हैं। इसलिए यह तय माना जा रहा है कि मंत्रिमंडल में कई नए चेहरे शामिल होंगे।
अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रिमंडल में लालकृष्ण आडवाणी नम्बर टू थे। उन्हें गृह मंत्रालय के साथ-साथ देश का उपप्रधानमंत्री का पद भी दिया गया था। इस समय आडवाणी की उम्र 86 वर्ष है। अपनी वरिष्ठता को देखते हुए वे अपने से जूनियर नरेंद्र मोदी के केबिनेट में शामिल होंगे, इसकी कोई संभावना दिखाई नहीं देती। उन्हें लोकसभा स्पीकर का सम्मानीय पद दिया जा सकता है। इससे उनकी गरिमा बनी रहेगी। भविष्य में उन्हें राष्ट्रपति भी बनाया जा सकता है। भाजपा में नरेंद्र मोदी से अधिक वरिष्ठ मुरली मनोहर जोशी भी हैं, जो वाजपेयी मंत्रिमंडल में मानव संसाधन विकास मंत्री थे। उनकी अगवानी में भाजपा ने अपना चुनावी घोषणा पत्र तैयार किया था। कानपुर सीट पर उन्होंने भारी मतो से विजयश्री प्राप्त की है। मोदी के केबिनेट में शामिल होने के नाम पर वे अभी भी असमंजस में हैं। यदि वे केबिनेट में शामिल होने के लिए राजी हो जाते हैं, तो उन्हें फिर से मानव संसाधन विकास मंत्रालय दिया जा सकता है। यदि वे अपने से जूनियर नरेंद्र मोदी के केबिनेट में शामिल नहीं होना चाहते हों, तो उनके लिए दूसरा रास्ता योजना आयोग के उपाध्यक्ष पद का कार्यभार दिया जाना ही शेष रहता है।
भाजपा की एक और वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज्य ने अपनी नाराजगी पहले ही जाहिर कर दी है कि उन्हें यदि उचित और सम्मानीय पद नहीं मिला, तो सरकार में शामिल नहीं होंगी। वाजपेयी मंत्रिमंडल में वे पहले तो स्वास्थ्य मंत्रालय और बाद में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में काम किया। इसके साथ ही वे दिल्ली की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं। लोकसभा में विपक्ष की नेता के रूप में भी काम करने का उन्हें खासा अनुभव है। पहले तो वे स्वयं ही प्रधानमंत्री पद की दावेदार थीं। पर बाद में उन्हें मना लिया गया। उन्हें विदेश मंत्री या सूचना प्रसारण मंत्री का पद देकर मनाया जा सकता है। किसी भी मंत्रिमंडल में वित्त विभाग किसको दिया जाता है, उस पर सबकी नजर होती है। वाजपेयी केबिनेट में वित्त विभाग यशवंत सिन्हा को दिया गया था। उसके बाद जसवंत सिंह को उनके स्थान पर लाया गया था। यशवंत सिन्हा अब सेवानिवृत्त हो चुके हैं, जसवंत सिंह ने भाजपा से इस्तीफा दे दिया है। इसलिए वित्त मंत्री के रूप में अभी सबसे प्रबल दावेदार अरुण जेटली हैं, भले ही वे चुनाव हार चुके हैं, पर मोदी के वे अतिनिकट माने जाते हैं। अरुण जेटली वाजपेयी मंत्रिमंडल में वाणिज्य मंत्री थे, यह अनुभव भी उन्हें काम आएगा। संभवत: नरेंद्र मोदी वित्त मंत्री पद अपने गुजराती भाई दीपक पारेख जैसे अर्थशास्त्री को सौंप सकते हैं।
प्रधानमंत्री के बाद केबिनेट में दूसरे नम्बर का महत्वपूर्ण पद गृहमंत्री का होता है। नरेंद्र मोदी के लिए यह सबसे मुश्किलभरा निर्णय हो सकता है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने यह विभाग अपने ही पास रखा था। बाद में अपने विश्वस्त अमित शाह को  उप गृहमंत्री का पद दकर पुलिस विभाग उन्हें दिया था। अमित शाह नकली एनकाउंटर के मामले में आरोपी घोषित होने के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में कमाल ही कर दिया। उनके गृह मंत्री बनने की पूरी संभावना थी, पर उन पर तीन हत्याओं का आरोप है, इसलिए आरोपों के चलते उन्हें किसी तरह का पद नहीं दिया जा सकता। इसलिए वे भाजपाध्यक्ष राजनाथ सिंह को गृह मंत्री बना सकते हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद संभाला है, इसके अलावा वाजपेयी मंत्रिमंडल के केबिनेट में कृषि और फूड प्रोसेसिंग मंत्रालय में काम करने का अनुभव है। नरेंद्र मोदी केबिनेट में पहले तो एक दर्जन मंत्रियों को शामिल करेंगे, उसके बाद अपने मंत्रिमंडल का विस्तार करेंगे, ऐसा माना जा रहा है। गृह, विदेश, रक्षा और वित्त इन चारों महत्वपूर्ण मंत्रालय के आवंटन के बाद जो मंत्रालय बाकी रह जाते हैं, उसके लिए नीतिन गडकरी, रविशंकर प्रसाद, अनंत कुमार, राजीव प्रसाद रुडी, वैंकैया नायडू, सुमित्रा महाजन, कलराज मिश्र, गोपीनाथ मुंडे, आदि नेताओं को शामिल किया जा सकता है। अमेठी में राहुल गांधी को कड़ी टक्कर देने वाली स्मृति ईरानी को भी मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सकता है। मोदी मंत्रिमंडल की पहली सूची घोषित होने के बाद ही देश के आगामी 5 वर्षो की दिशा तय हो जाएगी। देखना यह है कि मोदी कितने सधे कदमों से इस काम को पूरा करते हैं। उनके सामने भले ही विपक्ष नाम की कोई चीज न हो, पर चुनौतियों के रूप में कई समस्याएं हैं। लोगों की यही धारणा है कि जिस तरह से उन्होंने चुनावी रैलियों में स्वयं को स्थापित किया है, ठीक उसी तरह वे देश को भी आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 23 मई 2014

नीतीश कुमार का नया दॉंव


दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

मंगलवार, 20 मई 2014

नेताओं की सम्पत्ति में 30-40 गुना बढ़ोत्तरी

डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव के लिए मतदान का कार्य सम्पन्न हो गया। इस दौरान मतदाताओं से देश की राजनीति में काफी कुछ बदलाव देखा। इस समय आरोप-प्रत्यारोप का जैसा दौर चला, वैसा दौर पहले देखने में नहीं आया था। अत्याधुनिक तरीके से प्रचार भी पहली बार देखा गया। सबसे बड़ी बात यह रही कि इस चुनाव में जो भी प्रत्याशी खड़ा हुआ, उसकी औसत सम्पत्ति 6 करोड़ है। एक तरफ प्रजा की सम्पत्ति में भले ही कोई इजाफा न हुआ हो, पर प्रत्याशियों की सम्पत्ति में जोरदार इजाफा हुआ है। यही नहीं, प्रत्याशियों की चल-अचल सम्पत्ति भी बेशुमार बढ़ी है। आखिर ये प्रत्याशी ऐसा क्या करते हैं, जिससे इनकी सम्पत्ति बढ़ती ही रहती है?  इस चुनाव में प्रत्याशियों ने अपनी सम्पत्ति का जो ब्यौरा है, उससे यह स्पष्ट होता है कि कोई भी प्रत्याशी आम आदमी या कम सम्पत्ति वाला नहीं है। कई करोड़ों से खेल रहे हैं, तो कुछ लाखों से खेल रहे हैं। कई प्रत्याशियों की सम्पत्ति पिछले चुनाव की अपेक्षा इस बार 40 से 50 गुना बढ़ गई है।
2014 के चुनावी जंग में उतरने वाले प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति 5.83 करोड़ है। कांग्रेस के प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति 54 करोड़ रुपए है, तो भाजपा के प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति 8 करोड़ रुपए है। इसी तरह आम आदमी पार्टी के प्रत्याशियों की 3 करोड़, बसपा के 4 और सपा के प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति 3 करोड़ रुपए है। प्रत्याशियों की औसत सम्पत्ति 54 करोड़ के साथ कांग्रेस इसलिए आगे है, क्योंकि उसमें नंदन नीलकेणी और उनकी पत्नी की 7710 करोड़ की सम्पत्ति का भी समावेश होती है। राजनीतिज्ञों की सम्पत्ति दोगुनी या चौगुनी होती है, यह तो समझा जा सकता है, पर जब यह सम्पत्ति बढ़कर 30 से 40 गुना होती है, तो प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर इतनी सम्पत्ति उनके पास आती कहां से है? क्या केवल जनता की सेवा करने से ही सम्पत्ति प्राप्त होती है, या फिर और कोई कारण है? इस चुनाव में खड़े होने वाले कई प्रत्याशियों ने उम्मीदवारी फार्म में यह लिखा है कि उनके पास पेनकार्ड नहीं है। 28 प्रतिशत प्रत्याशियों ने यही कहा है कि उनके पास पेनकार्ड नहीं है। अधिकांश नेता अपनी सम्पत्ति को लेकर खूब सजग हैं। वे यह तो बताते हैं कि उनके पास इतनी सम्पत्ति है, लेकिन यह बताने को कतई तैयार नहीं है कि आखिर उनके पास यह सम्पत्ति आई कहां से? आखिर ये राजनीति में इतने अधिक व्यस्त होने के बाद ऐसा क्या कर लेते हैं कि इनकी सम्पत्ति बढ़ती ही रहती है?
जो लोग नौकरी-व्यवसाय नहीं करते, दिन भर राजनीति में ही उलझे रते हैं, उनके पास करोड़ों की सम्पत्ति कहां से आती है, उनकी सम्पत्ति में दिन-राज बढ़ोत्तरी कैसे होती रहती है? इन प्रश्नों का सही उत्तर इस देश में शायद ही किसी को मिल पाए। सूचना का अधिकार कानून तो है, पर वह यहां पर लाचार नजर आता है? प्रत्याशी अपने फार्म में अपनी सम्पत्ति का विवरण देते हैं, उसमें चल-अचल सम्पत्ति दोनों का ब्यौरा देते हैं। इसमें वे अपनी नकद राशि, बैंक डिपाजिट, बांड, म्युच्युअल फंड, पोस्ट ऑफिस सेविंग, लोन, सोन-चांदी आदि की जानकारी देते हैं। कांग्रेस प्रत्याशी नंदन नीलकेणी और उनकी पत्नी की सम्पत्ति 7710 करोड़ है, इसमें उनके इम्फोसिस शेयर का भी समावेश किया गया है। प्रत्याशियों को अपने जीवन साथी की सम्पत्ति को भी बताना होता है। प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा ने नरेंद्र मोदी को आगे किया है, उनकी चल सम्पत्ति 51.6 लाख रुपए, राहुल गांधी की 8 करोड़ रुपए और अरविंद केजरीवाल की चल सम्पत्ति 1.6 लाख रुपए और अचल सम्पत्ति 92 लाख रुपए है। दूसरी ओर उनकी पत्नी की सम्पत्ति 1.17 करोड़ रुपए है।
सामान्य रूप से यह चर्चा चल रही है कि प्रत्याशी अपने फार्म में जो सम्पत्ति दर्शाते हैं, वह सच्ची नहीं होती। महत्वपूर्ण यह है कि 5 वर्ष में सम्पत्ति 30 से 40 गुना कैसे बढ़ गई? फार्म में यह कॉलम भी होना चाहिए। आय का स्रोत यानी आय कहां से प्राप्त की? इसका भी उल्लेख फार्म में होना चाहिए। 5 वर्ष में सम्पत्ति 30 गुना बढ़ गई, तो यह किसी भी व्यापार में संभव नही है। परंतु हमारे देश के नेताओं से इसे सिद्ध कर दिखाया है। इससे यही स्पष्ट होता है कि राजनीति का धंधा सबसे लाभप्रद और सुरक्षित धंधा है। आश्चर्य इस बात का है कि देश के 80 प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति वहीं के वहीं है। कई बार तो यह सम्पत्ति घटी भी है। उसके हाथ में आई राशि, जो वेतन के रूप में प्राप्त होती है, वह तो कुछ ही दिनों में खत्म हो जाती है। इन 80 प्रतिशत लोगों के पास बचत का कोई प्रावधान नहीं है। वे न तो बांड खरीद सकते हैं, न ही म्युच्युअल में धन लगा सकते हैं। भीषण महंगाई के बीच यह वर्ग अपनी सम्पत्ति तो बढ़ा नहीं सकता, पर उसे बचाए रखने में अपनी पूरी कोशिश लगा देता है। किसी की सम्पत्ति 30 से 40 गुना बढ़े, यह तो आम आदमी के लिए या कहें देश की 80 प्रतिशत जनता के लिए एक सपने की तरह ही है। 30 गुना सम्पत्ति तभी बढ़ सकती है, जब किसी बड़े भ्रष्टाचार को अंजाम दिया जाए। या फिर अचानक ही विरासत में सम्पत्ति मिल जाए। इस तरह की सम्पत्ति सभी के भाग्य में नहीं होती। इसलिए मध्यम वर्ग की सम्पत्ति तो वहीं के वहीं रहती है। यह वर्ग लाख कोशिश कर ले, पर सम्पत्ति है कि बढ़ती ही नहीं, फिर जब यही वर्ग हमारे देश के नताओं को देखता है, तो आश्चर्य में पड़ जाता है कि आखिर राजनीति में ऐसा क्या है, जो सम्पत्ति को बेशुमार बढ़ाने में मदद करता है?
शपथ लेते हुए हर नेता यही कहता है कि वह ईमानदारी पूर्वक अपना कर्तव्य निभाएगा। पर यह शपथ आखिर कहां काफूर हो जाती है, इसे कोई देखने वाला नहीं है। सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी अप्रत्याशित हो, तो आश्चर्य होता ही है। पर यह सम्पत्ति बढ़ती कैसे है, यह बताने को कोई तैयार नहीं। आरटीआई कानून भी यहां बेबस दिखाई देता है। क्या देश में ऐसा कभी कोई कानून आएगा, जिससे यह पता चल सके कि अमुक नेता की सम्पत्ति 30 से 40 गुना कैसे बढ़ोत्तरी हो गई? या फिर ऐसा कोई साफ्टवेयर इजाद होगा, जो यह बताने में सक्षम होगा? तब तक हम नेताओं की सम्पत्ति को बढ़ता देख केवल आहें ही भर सकते हैं?
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 15 मई 2014

रहस्‍यमय प्रधानमंत्री की विदाई!

डॉ. महेश परिमल
नई सरकार के शपथ लेने का समय गया है। यह तो तय है कि सरकार किसी की भी बने, चाहे भाजपा की या फिर कांग्रेस की। दोनों ही स्थितियों में डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नहीं बनना है।  उन्हें हम स्वतंत्र भारत के सबसे अधिक रहस्यमय प्रधानमंत्री की संज्ञा दे सकते हैं। यह भी सच है कि विश्व के सबसे अधिक पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है। उनके सम्मान में कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी एक समारोह करने वाली हैं।  यह सम्मान उन्हें पूरे दस साल तक खामोश रहने के लिए किया जाएगा।  इस दौरान उन्होंने अपमान के जो घूंट पीये, इसके बाद भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया।  आखिर उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया, यह रहस्य हमेशा बरकरार रहेगा। देश उन्‍हें भले ही भूतपूर्व प्रधानमंत्री कहे, पर देखा जाए तो वे अभूतपूर्व प्रधानमंत्री थे।‍
डॉ. मनमोहन सिंह के करीबी कहते हैं कि अपने दस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने करीब चार बार इस्तीफा देना चाहा। पर किसी न किसी कारण से वे ऐसा नहीं कर पाए। पिछले ही वर्ष सितम्बर में उनकी केबिनेट द्वारा मंजूर किए गए विधेयक को राहुल गांधी ने सरेआम फाड़ दिया था, उस समय केवल डॉ. मनमोहन सिंह ही नहीं, बल्कि उनके पूरे मंत्रिमंडल का अपमान हुआ था। इस समय उन्होंने इस्तीफा देने का मन बना लिया था। पर किसी विवशता के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। 120 करोड़ की आबादी वाले इस देश का प्रधानमंत्री इतना विवश हो सकता है कि वह अपना निर्णय ही न ले पाए, वह क्या इतना लाचार भी हो सकता है, यह रहस्य अभी तक समझ में नहीं आया है। मनमोहन सिंह कोई राजनीतिज्ञ नहीं हैं, पर ब्यूरोकेट अवश्य थे। इसके बाद भी यूपीए -1 के शासनकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते में उन्होंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया था। उनकी छबि बेदाग रही। उनका या उनके करीबी रिश्तेदारों का नाम कभी किसी घोटाले में सामने नहीं आया। इस तरह का आक्षेप उनके दुश्मनों ने भी कभी नहीं किया। इसके बाद भी ठीक उनके नाक के नीचे इतने बड़े-बड़े घोटाले हो गए। इससे सरकार की भारी फजीहत भी हुई, इसके बाद भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, यह बात उनके सभी साथियों को साल रही है।
उनकी छबि एक कुशल अर्थशास्त्री के रूप में है। सन् 1991 में भारत के आर्थिक सुधारों का जब दौर शुरू हुआ, उनके प्रणोता डॉ. मनमोहन सिंह ही थे। यूपीए -1 के कार्यकाल में तेजी से आर्थिक विकास के लिए डॉ. मनमोहन सिंह की नीतियों को ही जवाबदार माना जाएगा। इसके बाद भी यूपीए-2 में जब आर्थिक घोटाले हुए, उसे मनमोहन ¨सह ने किस तरह से चला लिया?र्थशास्त्र के रूप में उनका अनुभव उस समय क्यों काम में नहीं आया? अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने अपनी आर्थिक नीतियों को अमल में लाने की पूरी कोशिश की, इस कोशिश में कामयाब भी हुए। उनकी इस कोशिश से मध्यम वर्ग खुश भी था। इस वर्ग में डॉ. मनमोहन सिंह की लोकप्रियता भी बढ़ी। कुछ अंश तक इसी लोकप्रियता के कारण यूपीए सरकार 2009 में भी बन गई। परंतु इस सफलता का पूरा श्रेय सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी ले गए। इतना ही नहीं, यूपीए-2 के दौरान मनमोहन सिंह की कई नीतियों को पलट दिया गया। इस समय मनमोहन सिंह अपनी लोकप्रियता को देखते हुए यदि चुनाव लड़ने की आवश्यकता थी। इसके बदले में वे कोयला आवंटन के मामले में फंस गए। इस दौरान में पूरी तरह से मौन ही रहे। उन्होंने ऐसा क्यों किया? डॉ. मनमोहन सिंह के भूतपूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु ने अपने हाल प्रकाशित किताब में यह रहस्योद्घाटन किया है कि प्रधानमंत्री को मीडिया में जरा भी प्रसिद्धि मिलती, तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी बेचैन हो जाते। वे हमेशा प्रसिद्धि से दूर रहने की कोशिश करते। मनमोहन सिंह की राजनीतिक ताकत बढ़ जाए, इसका खयाल सोनिया गांधी से अधिक वे स्वयं रखते। उनके कार्यो से सोनिया गांधी में किसी तरह की असुरक्षा की भावना पैदा हो, ऐसा वे नहीं चाहते थे। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी उन्होंने कभी अपनी राजनैतिक छवि बनाने की कोशिश भी नहीं की। इसलिए वे टिक गए।
डॉ. मनमोहन सिंह दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे, किंतु अपने इस कार्यकाल में उन्होंने बहुत कम साथियों को अपने विश्वास में लिया। प्रणब मुखर्जी से उनके आत्मीय संबंध कभी नहीं रहे। यूपीए-2 के दौरान पी. चिदम्बरम उनके विश्वासपात्र थे, किंतु संयुक्त संसदीय समिति के सामने जब पी. चिदम्बरम ने यह कहा कि ए. राजा ने प्रधानमंत्री के सामने ही 2 जी स्पेक्ट्रम के भाव तय किए थे, तब चिदम्बरम ने भी उनका विश्वास खो दिया था। भारतीय संविधान में नागरिकों को बोलने की आजादी दी है। पर हमारे प्रधानमंत्री से यह आजादी छीन ली गई थी। इसके कारण वे कई बार उपहास के पात्र बने। यहां तक कि अपने मोबाइल को साइलेंट मोड के बदले मनमोहन मोड पर रखने लगे थे। हमारे प्रधानमंत्री भले ही दस वर्ष तक खामोश रहे। पर 17 मई के बाद वे बोलेंगे और खूब बोलेंगे, ऐसा देश के नागरिक मान रहे हैं। वे अपना मौनव्रत तोड़ेंगे, ऐसा विश्वास भी लोगों को है। देश के इतने महत्वपूर्ण पद से निवृत होने के बाद वे अपने संस्मरण लिखेंगे, तो उनकी किताब बेस्टसेलर होगी, इसमें कोई शक नहीं। सवाल यह है कि देश हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को किस तरह से याद रखेगा? एक सुलझे हुए प्रधानमंत्री के रूप में या फिर एक खामोश प्रधानमत्री के रूप में? इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को किस तरह से अनदेखा कर उनकी कार्यक्षमता को प्रभावित किया जा सकता है, ऐसा केवल हमारे ही देश में हो सकता है। प्रधानमंत्री की अच्छाइयां दफ्न कर दी गई है, उसे बाहर आना ही चाहिए। ताकि लोगों को पता चल सके कि एक प्रधानमंत्री कितना बेबस और लाचार भी हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 13 मई 2014

‘नीच’ शब्द ने बदली राजनीति

 डॉ. महेश परिमल
क्रिकेट मैच के दौरान बल्लेबाज बॉलर की कमजोर बाल की प्रतीक्षा करता रहता है, जैसे ही बॉल आई, वह सिक्सर मार देता है। ठीक उसी तरह राजनीति में भी जैसे ही प्रियंका गांधी ने नरेंद्र मोदी के लिए ‘नीच’ शब्द का इस्तेमाल किया, नरेंद्र मोदी ने उसे सिक्सर मारकर उसका राजनीतिक लाभ ले लिया। इसी एक शब्द के कारण पूरी राजनीति में उथल-पुथल मच गई। अमेठी में लोगों ने पहली बार देखा कि राहुल गांधी पोलिंग बूथ पर मतदान देखने पहुंचे। इसके पहले उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया। अब तक वे अपनी जीत के आंकड़े ही देखते थे, पर इस बार हालात बदले हुए हैं। बहन प्रियंका उनका प्रचार करते-करते यह भूल गई कि वे राजनीति में नई हैं और नरेंद्र मोदी एक पेशेवर राजनीतिज्ञ हैं। उनका एक शब्द अमेठी के लिए ही नहीं, पूरी कांग्रेस के लिए कितना भारी हो जाएगा, यह तो वक्त ही बताएगा। ऐसा नहीं है कि इस तरह की गलती पहली बार हुई है। सोनिया गांधी ने भी नरेंद्र मोदी को चुनावी सभा में ‘मौत का सौदागर’ कहा था, मात्र एक शब्द ने पूरी राजनीति को ही बदल दिया। नरेंद्र मोदी ने इसका भरपूर लाभ उठाया और वे चुनाव जीत गए।
7 मई को 64 सीटों के लिए मतदान हुआ। यह मतदान इसलिए अधिक चर्चित हुआ, क्योंकि प्रियंका गांधी ने यह कहा दिया कि मोदी ‘नीच’ राजनीति का इस्तेमाल करते हैं। अपने भाई राहुल को जिताने के लिए वह भरसक प्रयास कर रही हैं। पूरा अमेठी ही मथकर रख दिया है, उन्होंने। इस बीच उनके कई बयान आए, जिसका पूरी शिद्दत के साथ नरेंद्र मोदी ने जवाब दिया। इस बीच कई तरह की तस्वीरें भी सामने आई, जिसमें प्रियंका कहीं ईंटों के ढेर पर बैठी हैं, कहीं आम लोगों से भेंट कर रही हैं। इन सबके दौरान वे यह भूल जाती हैं कि वे एक अकुशल राजनीतिज्ञ हैं, उनकी एक-एक बात पर विपक्ष घात लगाए बैठा है। उनका मुकाबला एक पेशेवर राजनीतिज्ञ से है। जो एक शब्द पर राजनीति की दिशा बदलने में माहिर है। इसलिए प्रियंका ने जैसे ही नरेंद्र मोदी के लिए ‘नीच’ शब्द का इस्तेमाल किया, वैसे ही नरेंद्र मोदी ने इस शब्द को पिछड़ी जाति से जोड़कर पूरा वातावरण अपने पक्ष में कर लिया। अब कांग्रेस इस शब्द के कई अर्थ बताने में अपनी शक्ति लगा रही है। इसी एक शब्द ने अमेठी वालों को हैरान कर दिया कि मतदान के दिन राहुल गांधी पोलिंब बूथ में जाकर मतदान करते लोगों को देख रहे थे। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। इसके पहले तो वे मतदान के दिन कभी अमेठी में ही नहीं रहे। प्रियंका के इस शब्द को पहले नरेंद्र मोदी ने लपका, रही सही कसर स्मृति ईरानी ने पूरी कर दी। उन्होंने इस शब्द का खुलासा करते हुए कहा कि नीच कर्म यानी सैनिकों की विधवा के लिए तैयार किए गए आदर्श फ्लैट, नीच कर्म यानी सैनिकों के कटे हुए सर मिलने के बाद भी कोई तीखी प्रतिक्रिया नहीं,  इसे कहते हैं नीच कर्म। चुनावी रैली में प्रियंका ने यह भी कहा कि अमेठी में भले ही सड़क बने या न बने, पर परिवार के संबंध बनें रहें, यह महत्वपूर्ण है। अब यह बात अमेठीवासियों के गले नहीं उतर रही है कि जन सुविधाएं न मिलने से कितनी परेशानी होती है, यह गांधी परिवार नहीं जानता। संबंध बने रहे, तो इसका लाभ आखिर किसको मिलेगा? क्या इसे गांधी परिवार को समझाना होगा। आवश्यक चीजों से वंचित होकर एक गरीब परिवार को आखिर संबंधों को बनाए रखने में आखिर मिलेगा क्या? प्रियंका की इस बात से कोई भी मतदाता सहमत नहीं है। इसके पहले अमेठी के ये हालात थे कि वहां राहुल गांधी खड़े हो गए, तो अन्य कोई दल वहां से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं करता था। इस बार भले ही सपा ने राहुल गांधी के खिलाफ अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किए हैं, पर आम आदमी पार्टी के कुमार विश्वास पिछले दो महीनों से अमेठी में डेरा डाले हुए हैं। अरविंद केजरीवाल ने भी वहां बड़ा रोड-शो किया। देर से ही सही पर भाजपा की स्मृति ईरानी भी मैदान में उतरकर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की है।
चुनाव को सही अर्थो में देखा जाए, तो यह केवल शब्दों की मारामारी की जंग है। जब से अमेठी में चुनाव की बागडोर प्रियंका गांधी ने संभाली है, तब से कांग्रेस का कोई भी नेता वहां नहीं पहुंचा है। प्रियंका ने कई नुक्कड़ सभाओं को संबोधित किया। अपने पिता को शहीद बताते हुए उनके बलिदान के नाम पर जनता से वोट मांगा। कई तरह के विवादास्पद बयान दिए। पर नरेंद्र मोदी ने केवल एक आमसभा का आयोजन कर गांधी परिवार के मंसूबों पर पानी फेर दिया। कांग्रेस की छावनी में उथल-पुथल मचा दी। नरेंद्र मोदी चाहते थे कि गांधी परिवार से कोई एक ऐसा विवादास्पद बयान आए, जिसे वे लपक लें और माहौल अपने पक्ष में कर लें। यह हुआ भी, जब प्रियंका गांधी ने हंसी-हंसी में नरेंद्र मोदी के लिए ‘नीच’ शब्द का प्रयोग किया। मोदी जो चाहते थे, वह हो गया, उन्होंने इस ‘नीच’ शब्द को जाति के साथ जोड़कर पूरा माहौल अपने पक्ष में कर लिया। अब नीच कर्म और नीच जाति को लेकर कांग्रेस में हायतौबा मची है। वह इसका खुलासा करते-करते थक गई, पर मतदाताओं को संतुष्ट नहीं कर पाई। अगली जंग वाराणसी में होगी। वहां 12 मई को मतदान है, इसके पहले बहुत से जहर बुझे तीर छोड़े जाएंगे, कौन सा तीर किस काम आएगा, यह तो वक्त ही बताएगा। पर इतना तो तय है कि प्रियंका, सोनिया, राहुल की जोरदार आम सभाएं होंगी, तो उधर सुषमा स्वराज, लाल कृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह भी चुनावी सभाओं में गरजेंगे। ‘नीच’ शब्द देकर प्रियंका ने नरेंद्र मोदी को राजनीति का एक ऐसा अस्त्र दे दिया है, जिससे मोदी जब चाहे, तब चला सकते हैं। उतावलेपन में प्रियंका के मुंह से यह शब्द निकल गया, ठीक उसी तरह जब सोनिया ने नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कह दिया। इस एक शब्द के कारण मोदी ने पूरा माहौल अपने पक्ष में कर लिया। कभी-कभी एक शब्द भी किसी दल या नेता के लिए कितना भारी हो सकता है, यह आज की स्थिति से पता चल जाता है। ‘मौत का सौदागर’ शब्द को लेकर जब नरेंद्र मोदी से एक साक्षात्कार में पूछा गया, तो उन्होंने इसे हंसी में टालते हुए कह दिया था कि सोनिया गांधी को हिंदी नहीं आती, उन्हें कहना था ‘मत का सौदागर’, तो उनके मुंह से निकल गया ‘मौत का सौदागर’। इस तरह से एक शब्द ने राजनीति की दिशा बदली, शायद अब दशा भी बदल दे।
शब्दों के इस मायाजाल में कई नेता उलझ चुके हैं। दिग्विजय सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा, तोगड़िया, शरद पवार, मुलायम यादव आदि जब बोलते हैं, तो उन्हें यह भान ही नहीं होता है कि वे क्या बोल रहे हैं। इसलिए कभी कोई शब्द इन पर भी भारी हो सकता है, यह इन्हें नहीं भूलना चाहिए। शब्दों की भी ताकत होती है। लाचार और विवश जनता में कई शब्द प्राण फूंक सकते हैं, तो दूसरी तरफ एक सक्रिय कार्यकर्ता को पूरी तरह से निष्क्रिय भी बना सकते हैं। इसलिए समय रहते नेता शब्दों की महत्ता को समझ जाएं, अन्यथा उन्हें भी एक शब्द भी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 10 मई 2014

आम आदमी की पहुंच से दूर अल्‍फांसो

डॉ. महेश परिमल
यूरोपीय संघ ने भारत के आमों पर एकतरफा प्रतिबंध लगा दिया है। इससे देश के आम उत्पादकों में काफी निराशा है। देश को करोड़ों का नुकसान हुआ है। पिछले वर्ष हमने 265 करोड़ रुपए के आम विदेश भेजे थे। जो आधे यूरोप में शौक से खाए गए। भारतीय किसानों के साथ इतना बड़ा धोखा हो गया, सरकार चुनाव में व्यस्त है, इसलिए इस दिशा में कुछ होना संभव नहीं दिखता। आचार संहिता का भी मामला है। सरकार के पास समय नहीं है, वाणिज्य विभाग कुछ करने की स्थिति में नहीं है, फिर भी उसने अपना विरोध दर्ज कर ही दिया है। अब जो कुछ करना है, वह आने वाली सरकार को करना है। आम उत्पादक हताश हैं। इस बार उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया है।
सरकार मान्यता प्राप्त 25 पेकेजिंग हाउस के माध्यम से आमों का निर्यात करती है। यूरोपीय संघ को यह आपत्ति है कि भारत के आमों की पेकेजिंग हाउस की समय-समय पर जांच नहीं हो पाती। कई बार सड़े हुए आम भी भेज दिए जाते हैं। भारत ने यूरोपियन संघ को यह विश्वास दिलाया था कि वह आमों का निर्यात पंजीकृत पेकेजिंग हाउस के माध्यम से ही किया जाएगा। इस संबंध में दोनों पक्षों के बीच विचार-विमर्श चल ही रहा था कि अचानक ही यूरोपियन संघ ने एकतरफा निर्णय ले किया। एक बार फिर भारत की निष्क्रियता सामने आ गई। भारतीय आमों की विदेशों में जोरदार मांग है। पिछले तीन वर्षो के आंकड़ों पर नजर डालें, तो 2010-11 में 165 करोड़ रुपए की कीमत के 58, 863 टन, 2011-12 में 210 करोड़ रुपए के 63,441 टन और 2012-13 में 264 करोड़ के 55, 413 टन आमों का निर्यात किया गया। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि विदेशों में भारतीय आमों की कितनी मांग है। यह मांग लगातार बढ़ भी रही है।
ब्रिटेन में पाकिस्तानी आमों की अपेक्षा भारतीय आम की मांग अधिक है। अमेरिका में भी गुजरात के वलसाड़ और जूनागढ़ के आम की डिमांड है। भारत से विदेशों में केवल आम ही नहीं, बल्कि विभिन्न तरह के अचारों का भी निर्यात होता है। गुजरात में आम से बनने वाले विविध अचारों की मांग विदेशों में होने के कारण काफी पहले से ही इसकी तैयारी कर ली जाती है। इस समय यूयूरोपीय संघ ने भारतीय आमों पर प्रतिबंध लगाया है, किंतु भारतीय अचारों पर नहीं। इसलिए आम के व्यापारी अब अचारों पर विशेष ध्यान देने लगे हैं। वैसे देखा जाए, तो देश में खाद्य विभाग की सुस्ती के कारण रसायनों से पकाए जाने वाले आमों और गर्मी में मिलने वाले आम के रस की बिक्री पर किसी तरह का नियंत्रण न होने के कारण सड़े आमों के रस बाजार में खुले आम बिकते हैं। खाद्य विभाग की सक्रियता से कुछ व्यापारियों पर कार्रवाई होती है, पर वह इतनी हल्की होती है कि कोई उससे सबक लेने को तैयार नहीं होता। न तो अधिक जुर्माना लिया जाता है और न ही किसी प्रकार के दंड की व्यवस्था है। इसलिए मिलावटी रस का व्यापार बेखौफ चल रहा है। इसी तरह की लापरवाही के चलते विदेश भेजे जाने वाले आमों में भी आ गई होगी, जहां सड़े आम भेज दिए गए होंगे, जिसकी जानकारी निर्यातकों को नहीं होगी। इसलिए भारतीय आमों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस प्रतिबंध के पीछे निर्यातकों की लापरवाही ही है। विभाग सतर्क होता, तो यह नौबत नहीं आती।  भारत से विदेश भेजे जाने वाली आम तो भारतीय बाजारों में दिखाई ही नहीं देते। कई फार्म हाउस ऐसे हैं, जहां विदेश भेजे जाने वाले आमों का उत्पादन होता है। इसके लिए वे साल भर कड़ा परिश्रम करते हैं। देश में अभी जो आम बिक रहे हैं, वे किसी भी तरह से विदेश भेजे जाने लायक नहीं हैं।
देश में आम का सीजन शुरू हो गया है। इस स्थिति में यूरोपियन संघ ने भारतीय आमों पर एकतरफा प्रतिबंध लगाकर सभी को चौंका दिया है। अब सभी देश यह कह रहे हैं कि भारत से आने वाले आमों की विशेष रूप से जांच होगी, तभी कुछ संभव हो पाएगा। इस संबंध में भारत और यूरोपियन संघ के बीच काफी समय से चर्चा चल ही रही थी। परंतु संघ अचानक ही इस प्रकार के प्रतिबंध का निर्णय ले लेगा, यह किसी ने नहीं सोचा था। यूरोपीय देशों में रहने वाले एनआरआई भारत के केसर और हाफूस को पसंद करते हैं। भारत भी यूरोपियन संघ के एक्सपोर्ट क्वालिटी का माल के नियम-कायदों को समझना होगा। आम के सीजन के समय ही इस पर प्रतिबंध लगाने से व्यापारियों को काफी नुकसान ही होगा। इस प्रतिबंध का असर यह होगा कि अब भारतीय भी विदेशों में भेजे जाने वाले आमों को देख और चख सकेंगे। वे आम जो अब तक खास थे, कुछ हद तक आम हो जाएंगे। भले ही इसकी कीमत आम आदमी के बूते के बाहर की हो, पर इतना तो तय है कि अब एक्सपोर्ट क्वालिटी के आमों को भारतीय बाजारों में देखा जा सकता है।
    डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 7 मई 2014

चुनाव आयोग की लाचारी



3 मई को दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

जहर उगलते नेता: खामोश चुनाव आयोग
डॉ. महेश परिमल
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश भारत में लोकसभा चुनाव का सातवां चरण समाप्त हो चुका है। इस दौरान हम सबने देखा कि इस बार नेताओं ने अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए काफी जहर उगला है। किसी भी दल को कमतर नहीं आंका जा सकता। आज तक कभी किसी सभा में यह देखने में नहीं आया कि किसी नेता के अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ जहर उगला, तो उसका प्रतिकार किया गया। न तो किसी पर पत्थरबाजी हुई, न ही प्रदर्शन किया गया। नेता भी श्रोताओं का मूड भांपते हुए पहले से ही आरोपों की बौछार करना शुरू कर देते हैं। इस बीच थोड़ा सा जहर उगला, तो लोगों ने तालियों से उसका स्वागत किया। बस यहीं से नेताओं को शह मिल जाती है और वे शुरू हो जाते हैं, पूरी शिद्दत के साथ, जहर उगलते रहते हैं और उन्हें तालियां मिलती रहती हैं। चुनाव आयोग के पास इसकी शिकायत पहुंचती है, उनकी ओर से कार्रवाई का आश्वासन मिलता है। आयोग के पास अधिकार तो कई हैं, पर उसका उपयोग सही समय पर सही व्यक्ति क ेसाथ नहीं हो पाता, इसलिए इस पर अभी तक न तो रोक लगी, न ही किसी नेता पर कार्रवाई हुई। आयोग को हम बिना नाखूनों का शेर कह सकते हैं। यदि आयोग को पूरी तरह से छूट मिले, तो देश के आधे नेता जहर उगलने के आरोप में सीखचों के पीछे चले जाएं। पर हमारे देश में यह संभव नहीं दिखता। चुनाव आयोग को कभी भी शक्तिशाली बनने का अवसर ही नहीं दिया गया।
हमारे देश में जब भी कोई नेता किसी जनसभा को संबोधित करता है, तो ऐसा लगता है, जैसे कोई फिल्मी संवाद बोल रहा है। आपको याद होगा कि धर्मेद्र जब परदे पर आते हैं और दुश्मन को ललकारते हुए कहते हैं कि कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊंगा, तो दर्शक ताली बजाते हैं। आज ऐसा ही कुछ राजनीति में भी हो रहा है। आजकल राजनीति में भी बाजारवाद हावी हो गया है। यदि कोई नेता किसी जनसभा को संबोधित करता है और चुनाव आचार संहिता का पालन करते हुए भाषण करता है, तो उसका भाषण इस अधिक शुष्क होता है कि लोग बोर होने लगते हैं। ऐसे नेता का भाषण सुनने आखिर कौन जाएगा? इसलिए नेता भी अपने भाषण में इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जो लोगों को पसंद आए। जिसे सुनकर लोग तालियां बजाएं। इसके लिए भाषण में तीखे आरोप होने चाहिए, जो जहर बुझे तीर का काम करे। ऐसे आरोप लगाते समय नेता स्वयं को किसी ही मेन से कम नहीं समझते। खुद को पाक-शफ्फाक बताने वाले ये नेता अपने भाषणों को लच्छेदार बनाने के लिए ऐसी भाषा बोलते हैं, जिसमें भले ही अपशब्द न हों, पर वह किसी अपशब्द से कमतर नहीं होते। सामने वाले को चुनौती देते समय पर बुरी तरह से बिफर भी जाते हैं। इस दौरान नेताओं की भाव-भंगिमा इतनी अधिक आक्रामक होती है कि वे इस समय किसी के साथ कुछ भी कर सकते हैं। यदि इस स्थिति को चुनाव आयोग देख ले, तो निश्चित ही उस नेता पर कार्रवाई हो। वेसे भी देखा जाए, तो आचार संहिता का सही रूप से पालन न करने वाले ऐसे नेता बहुत मिल जाएंगे, यदि इन पर कार्रवाई शुरू कर दी जाए, तो देश के आधे नेता सीखचों के भीतर चले जाएं। पर चुनाव आयोग की लाचारी के कारण इन पर ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है, जिससे लोगों को सबक मिले।
चुनाव आयोग की भी विवशताएं हैं। आखिर कितनों के खिलाफ कार्रवाई करे? कितने दलों को चुनाव लड़ने से रोके? सभी खुद को शेर से कम नहीं समझते। दूसरी ओर शेर को सवा शेर भी मिल रहे हैं। इस बार चुनाव कुछ लम्बा हो चला है, इसलिए ये नेता अपना धीरज भी खो रहे हैं। कुछ नेताओं को भी आराम करने का समय मिल रहा है। आराम के क्षणों में वे पुन: स्फूर्ति प्राप्त कर जहर उगलने का काम शुरू देते हैं। इस दौरान दूसरा पक्ष भी ऊर्जा बटोरकर मैदान में आ जाता है। राजनीतिक दलों के बी-ग्रेड के नेता अपने समर्थकों को खुश करने के लिए बेलगाम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। इस दौरान वे यह भी भूल जाते हैं कि ऐसा कर के वे पार्टी का ही नुकसान कर रहे हैं। आखिर इन्हें शह कौन देता है? यह प्रश्न विचारणीय है। देखा जाए तो इन्हें दल के बड़े नेताओं की ही शह मिली होती है। बड़े नेता भी यही चाहते हैं कि इनके मुंह से जहर बुझे तीर ही निकलें। सभी दलों के नेता जब चाहे कुछ भी बोल देते हैं। बाद में पार्टी को डेमेज कंट्रोल करना पड़ता है। दोष केवल बी ग्रेड के नेताओं को देना ठीक नहीं। मुलायम सिंह यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार ऐसे नेता हैं, ये जब बोलते हैं, तो इन्हें अपना ही होश नहीं रहता। जब से मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार के मामले में कहा है कि युवाओं से गलती हो जाती है, इसके लिए उन्हें फांसी की सजा नहीं दी जा सकती। इस बयान के लिए उन्हें देशभर की महिलाओं के कोप का भाजन बनना पड़ा। मुलायम जैसे कद्दावर नेता की जीभ फिसल सकती है, तो फिर दूसरे नेताओं का क्या कहना। अब तो ये नेता मंच से ही मतदाताओं को धमका रहे हैं। मुलायम सिंह ने शिक्षकों को स्थायी न करने और अजीत पवार वोट न देने वाले मतदाताओं को पानी न देने की धमकी दी है। चुनाव आयोग ने इस दिशा में सबूत जुगाड़ रही है, पर अजित पवार पर कोई कार्रवाई होगी, इसकी संभावना काफी कम है।
पूरे विश्व में भारतीय लोकतंत्र की साख है। यहां के चुनाव की सर्वत्र प्रशंसा की जाती है। पर अब नेताओं द्वारा भाषणों में जहर उगलने के कारण देश की छवि को धक्का पहुंचा है। अब तो ये नेता चुनाव आयोग पर भी ऊंगली उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं। आजम खां का बयान था कि आखिर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का अधिकार सरकार के पास ही है। इससे दो कदम आगे बढ़ते हुए ममता बनर्जी यह कहती हैं कि चुनाव आयोग तो कांग्रेस का एजेंट है। चुनाव आयोग के आदेश के अनुसार अधिकारियों के स्थानांतरण पर पहले वे सहमत नहीं थी। दोनों में टकराव की नौबत आ गई थी, बाद में मामला सुलझ गया। ममता बनर्जी ने इसी दौरान चुनाव आयोग को कांग्रेस का एजेंट करार दिया था। इस तरह से देखा जाए, तो इस समय कोई भी दल ऐसा नहीं है, जो अपनी शालीनता के कारण अलग पहचान कायम करता हो। हर दल में एक न एक नेता आक्रामक है। किसी भी दल को बेदाग नहीं कहा जा सकता। आखिर ऐसा क्यों होता है कि नेताओं की जबान पर अंकुश रखने के लिए किसी एक नेता पर कड़ी कार्रवाई की जाए, जिससे दूसरे उससे सबक लें। वह निर्णय एक नजीर बन जाए। ताकि अगली बार नेता जहर उगलने से बचें। इसके लिए चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र इकाई घोषित कर देना चाहिए। उस अपने अधिकार का भरपूर उपयोग की छूट मिले। ताकि देश में चुनाव को लेकर मचने वाली गहमा-गहमी से बचा जाए, और शांतिपूर्ण मतदान हो। इससे पूरे विश्व में देश की छवि सुधरेगी।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 2 मई 2014

बेमानी है मजदूरों की बात करना

डॉ. महेश परिमल
पूरे विश्व में आज जिस तरह से बाजारवाद हावी है, उससे यही लगता है कि इस दुनिया में मजदूरों का कुछ काम ही नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि आज देश मजदूरों से पूरी तरह से खत्म हो गया है। पर सच है कि मजदूर आज एक श्रमिक के रूप में नहीं, बल्कि वह एक दूसरे ही रूप में हमारे सामने है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिसको मई दिवस के नाम से जाना जाता है, इसकी शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया और बाद में पुलिस फायरिंग में कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में जब फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, उसी वक्त से दुनिया के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा।
भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान में समाजवाद की आवाज कम ही सुनाई देती है। ऐसे हालात में मई दिवस की हालत क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। हम ऐतिहासिक दृष्टि से ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारे को देखें तो उस वक्त भी दुनिया के लोग दो खेमों में बंटे हुए थे। अमीर और गरीब देशों के बीच फर्क था। सारे देशों में कुशल और अकुशल श्रमिक एक साथ ट्रेड यूनियन में भागीदार नहीं थे। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सारे श्रमिक संगठन और इसके नेता अपने देश के झंडे के नीचे आ गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब सोवियत संघ संकट में था तब वहां यह नारा दिया गया कि मजदूर और समाजवाद अपनी-अपनी पैतृक भूमि को बचाएं। इसके बाद हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों में कल्याणकारी राज्य आया और मई दिवस का पुनर्जागरण हुआ।
अब दुनिया बदल चुकी है। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही पूंजीवाद का विकल्प दुनिया में खो गया। औद्योगिक उत्पादन का तरीका बदल गया। औद्योगिक उत्पादन तंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। एक साथ काम करना और एक जगह करना महज एक सपना रह गया। आजकल किताबें लिखी जा रही है काम का खात्मा। दुनिया में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थे। वह काम अब एक रोबोट कर लेता है। उदाहरण के लिए टाटा की नैनो फैक्टरी में 4 करोड़ रु. के निवेश पर एक नौकरी निकलती है। यह काम भी मजदूर के लिए नहीं बल्कि तकनीकी रूप से उच्च शिक्षित लोगों के लिए है। सिंगूर या नंदीग्राम में प्रदर्शन क्यों होता है? क्योंकि स्थानीय लोगों यह पता है कि हमारे लिए या हमारे बच्चों के लिए कुछ नहीं है। तकनीक ने लोगों की आवश्यकता को कम कर दिया। इससे साधारण लोगों की जमीन खिसक गई है। लोग बेरोजगार हैं, जिनके पास रोजगार है उसको यह डर सता रहा है कि कल यह कहीं छीन न जाए। आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों का हजारों नौजवान सड़क पर विरोध करते हैं लेकिन इस बुनियादी सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।
मजदूर हाशिए पर हैं। अब उनकी कोई बात नहीं करता। मजदूर कभी वोट बैंक नहीं माना गया, तो बदलते दौर में मजदूरों की जरूरत भी बदल गई। मजदूर किसे कहते हैं और मेहनतकश, यह भी अब लोगों को जानने की जरूरत नहीं रह गई है। इस बार जब मई दिवस मनाया जा रहा है, तब हिन्दुस्तान तख्तो-ताज का फैसला करने के लिए आमचुनाव के मुहाने पर खड़ा है। कभी इसी हिन्दुस्तान में मजदूरों के लिए, मेहनतकश लोगों के लिए राजनीतिक दल सडक़ पर उतर आते थे। आज किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में मेहनतकश के लिए कोई जगह नहीं है। उनके पास मुद्दे हैं तो धर्म और महंगाई की, वे चुनाव में वायदे करते हैं बेहतर जिंदगी की लेकिन बेहतर कौन बनाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि देश की आजादी के साथ ही मेहनतकश लोगों की उन्नति का जिम्मा कम्युनिस्टों के कंधे पर रहा है। आज जिस संख्या में राजनीतिक दल मैदान में हैं, तब वैसा नहीं था। कांग्रेस पर पूंजीवादी को प्रश्रय देने का कथित रूप से ठप्पा लगा था तो जनसंघ की पहचान अपने हिन्दूवादी सेाच को लेकर थी। तब माकपा हो या भाकपा या इनकी सोच से मेल खाते दल ही बार बार और लगातार मेहनतकश केपक्ष में खड़े होते दिखाई दिए हैं।
इस चुनाव में केवल औपचारिक रूप से माकपा हो या भाकपा का हस्तक्षेप है क्योंकि इस बार के चुनाव में मुद्दे नहीं, मौका भुनाने की होड़ है। जिस तरह प्रचार पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, वह कम से कम माकपा या भाकपा के बूते की बात तो है ही नहीं। जिस तरह से प्रचार का तरीका अपनाया गया है, वह भी माकपा या भाकपा के बूते में नहीं है। कभी इस देश में पूंजीवाद के खिलाफ सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष था लेकिन अब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद के बीच संघर्ष है। तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसी, की भी बात नहीं हो रही है, बल्कि बात हो रही है कि तेरे पास सौ करोड़ तो मेरे पास 99 करोड़ क्यों? जब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद मैदान में होगा तो सर्वहारा वर्ग का क्या काम? उसके लिए तो महात्मा गांधी के नाम पर रोजगार की गारंटी दी जा रही है। साल में सौ दिन काम करेगा और इस सौ दिन की कमाई से पूरे 365 दिन अपने परिवार को पेट भरेगा। यह सर्वहारा वर्ग की नियति है, लेकिन पूंजीपति हर मिनट में लाखों कमाएगा और उसके कमाने के लिए 365 दिन भी कम पड़ जाएंगे।
आज की पीढ़ी को यह पता भी नहीं होगा कि आखिर मजदूर दिवस होता क्या है। वह तो आयातीत डे मनाने में विश्वास रखती है। जिसमें ऐसे अनेक डे हैं, जो कल की पीढ़ी को नागवार अवश्य गुजरेंगे। सर्वहारा शब्द भी अब शब्दकोश से दूर होता जा रहा है। रुस क्रांति को कोई याद ही नहीं करना चाहता। दिन भर कड़ी मेहनत कर शाम को डेढ़-दो सौ रुपए लेकर घर आने वाला इंसान अपने परिवार को क्या खिलाए, यह सोच अब खत्म होने लगी है। गरीब और गरीब, लेकिन अमीर और अमीर होता जा रहा है। एक लम्बी खाई बन गई है, मजदूरों और मालिकों के बीच। इस पर सेतू बनाने का काम अब बंद हो गया है। अब न तो मजदूर संगठनों की बात सुनी जाती है, न ही मजदूरों की हड़ताल होती है। कारखाने चल रहे हैें, उनकी चिमनियों से धुआं निकल रहा है, पर कोई नहीं कहता कि दुनिया के मजदूरों एक हो, इंकलाब जिंदाबाद।
डॉ. महेश परिमल

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