डॉ. महेश परिमल
नई सरकार के शपथ लेने का समय गया है। यह तो तय है कि सरकार किसी की भी बने, चाहे भाजपा की या फिर कांग्रेस की। दोनों ही स्थितियों में डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नहीं बनना है। उन्हें हम स्वतंत्र भारत के सबसे अधिक रहस्यमय प्रधानमंत्री की संज्ञा दे सकते हैं। यह भी सच है कि विश्व के सबसे अधिक पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है। उनके सम्मान में कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी एक समारोह करने वाली हैं। यह सम्मान उन्हें पूरे दस साल तक खामोश रहने के लिए किया जाएगा। इस दौरान उन्होंने अपमान के जो घूंट पीये, इसके बाद भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। आखिर उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया, यह रहस्य हमेशा बरकरार रहेगा। देश उन्हें भले ही भूतपूर्व प्रधानमंत्री कहे, पर देखा जाए तो वे अभूतपूर्व प्रधानमंत्री थे।
डॉ. मनमोहन सिंह के करीबी कहते हैं कि अपने दस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने करीब चार बार इस्तीफा देना चाहा। पर किसी न किसी कारण से वे ऐसा नहीं कर पाए। पिछले ही वर्ष सितम्बर में उनकी केबिनेट द्वारा मंजूर किए गए विधेयक को राहुल गांधी ने सरेआम फाड़ दिया था, उस समय केवल डॉ. मनमोहन सिंह ही नहीं, बल्कि उनके पूरे मंत्रिमंडल का अपमान हुआ था। इस समय उन्होंने इस्तीफा देने का मन बना लिया था। पर किसी विवशता के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। 120 करोड़ की आबादी वाले इस देश का प्रधानमंत्री इतना विवश हो सकता है कि वह अपना निर्णय ही न ले पाए, वह क्या इतना लाचार भी हो सकता है, यह रहस्य अभी तक समझ में नहीं आया है। मनमोहन सिंह कोई राजनीतिज्ञ नहीं हैं, पर ब्यूरोकेट अवश्य थे। इसके बाद भी यूपीए -1 के शासनकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते में उन्होंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया था। उनकी छबि बेदाग रही। उनका या उनके करीबी रिश्तेदारों का नाम कभी किसी घोटाले में सामने नहीं आया। इस तरह का आक्षेप उनके दुश्मनों ने भी कभी नहीं किया। इसके बाद भी ठीक उनके नाक के नीचे इतने बड़े-बड़े घोटाले हो गए। इससे सरकार की भारी फजीहत भी हुई, इसके बाद भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, यह बात उनके सभी साथियों को साल रही है।
उनकी छबि एक कुशल अर्थशास्त्री के रूप में है। सन् 1991 में भारत के आर्थिक सुधारों का जब दौर शुरू हुआ, उनके प्रणोता डॉ. मनमोहन सिंह ही थे। यूपीए -1 के कार्यकाल में तेजी से आर्थिक विकास के लिए डॉ. मनमोहन सिंह की नीतियों को ही जवाबदार माना जाएगा। इसके बाद भी यूपीए-2 में जब आर्थिक घोटाले हुए, उसे मनमोहन ¨सह ने किस तरह से चला लिया?र्थशास्त्र के रूप में उनका अनुभव उस समय क्यों काम में नहीं आया? अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने अपनी आर्थिक नीतियों को अमल में लाने की पूरी कोशिश की, इस कोशिश में कामयाब भी हुए। उनकी इस कोशिश से मध्यम वर्ग खुश भी था। इस वर्ग में डॉ. मनमोहन सिंह की लोकप्रियता भी बढ़ी। कुछ अंश तक इसी लोकप्रियता के कारण यूपीए सरकार 2009 में भी बन गई। परंतु इस सफलता का पूरा श्रेय सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी ले गए। इतना ही नहीं, यूपीए-2 के दौरान मनमोहन सिंह की कई नीतियों को पलट दिया गया। इस समय मनमोहन सिंह अपनी लोकप्रियता को देखते हुए यदि चुनाव लड़ने की आवश्यकता थी। इसके बदले में वे कोयला आवंटन के मामले में फंस गए। इस दौरान में पूरी तरह से मौन ही रहे। उन्होंने ऐसा क्यों किया? डॉ. मनमोहन सिंह के भूतपूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु ने अपने हाल प्रकाशित किताब में यह रहस्योद्घाटन किया है कि प्रधानमंत्री को मीडिया में जरा भी प्रसिद्धि मिलती, तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी बेचैन हो जाते। वे हमेशा प्रसिद्धि से दूर रहने की कोशिश करते। मनमोहन सिंह की राजनीतिक ताकत बढ़ जाए, इसका खयाल सोनिया गांधी से अधिक वे स्वयं रखते। उनके कार्यो से सोनिया गांधी में किसी तरह की असुरक्षा की भावना पैदा हो, ऐसा वे नहीं चाहते थे। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी उन्होंने कभी अपनी राजनैतिक छवि बनाने की कोशिश भी नहीं की। इसलिए वे टिक गए।
डॉ. मनमोहन सिंह दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे, किंतु अपने इस कार्यकाल में उन्होंने बहुत कम साथियों को अपने विश्वास में लिया। प्रणब मुखर्जी से उनके आत्मीय संबंध कभी नहीं रहे। यूपीए-2 के दौरान पी. चिदम्बरम उनके विश्वासपात्र थे, किंतु संयुक्त संसदीय समिति के सामने जब पी. चिदम्बरम ने यह कहा कि ए. राजा ने प्रधानमंत्री के सामने ही 2 जी स्पेक्ट्रम के भाव तय किए थे, तब चिदम्बरम ने भी उनका विश्वास खो दिया था। भारतीय संविधान में नागरिकों को बोलने की आजादी दी है। पर हमारे प्रधानमंत्री से यह आजादी छीन ली गई थी। इसके कारण वे कई बार उपहास के पात्र बने। यहां तक कि अपने मोबाइल को साइलेंट मोड के बदले मनमोहन मोड पर रखने लगे थे। हमारे प्रधानमंत्री भले ही दस वर्ष तक खामोश रहे। पर 17 मई के बाद वे बोलेंगे और खूब बोलेंगे, ऐसा देश के नागरिक मान रहे हैं। वे अपना मौनव्रत तोड़ेंगे, ऐसा विश्वास भी लोगों को है। देश के इतने महत्वपूर्ण पद से निवृत होने के बाद वे अपने संस्मरण लिखेंगे, तो उनकी किताब बेस्टसेलर होगी, इसमें कोई शक नहीं। सवाल यह है कि देश हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को किस तरह से याद रखेगा? एक सुलझे हुए प्रधानमंत्री के रूप में या फिर एक खामोश प्रधानमत्री के रूप में? इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को किस तरह से अनदेखा कर उनकी कार्यक्षमता को प्रभावित किया जा सकता है, ऐसा केवल हमारे ही देश में हो सकता है। प्रधानमंत्री की अच्छाइयां दफ्न कर दी गई है, उसे बाहर आना ही चाहिए। ताकि लोगों को पता चल सके कि एक प्रधानमंत्री कितना बेबस और लाचार भी हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल
नई सरकार के शपथ लेने का समय गया है। यह तो तय है कि सरकार किसी की भी बने, चाहे भाजपा की या फिर कांग्रेस की। दोनों ही स्थितियों में डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नहीं बनना है। उन्हें हम स्वतंत्र भारत के सबसे अधिक रहस्यमय प्रधानमंत्री की संज्ञा दे सकते हैं। यह भी सच है कि विश्व के सबसे अधिक पढ़े-लिखे प्रधानमंत्री होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है। उनके सम्मान में कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी एक समारोह करने वाली हैं। यह सम्मान उन्हें पूरे दस साल तक खामोश रहने के लिए किया जाएगा। इस दौरान उन्होंने अपमान के जो घूंट पीये, इसके बाद भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। आखिर उन्होंने इस्तीफा क्यों नहीं दिया, यह रहस्य हमेशा बरकरार रहेगा। देश उन्हें भले ही भूतपूर्व प्रधानमंत्री कहे, पर देखा जाए तो वे अभूतपूर्व प्रधानमंत्री थे।
डॉ. मनमोहन सिंह के करीबी कहते हैं कि अपने दस वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने करीब चार बार इस्तीफा देना चाहा। पर किसी न किसी कारण से वे ऐसा नहीं कर पाए। पिछले ही वर्ष सितम्बर में उनकी केबिनेट द्वारा मंजूर किए गए विधेयक को राहुल गांधी ने सरेआम फाड़ दिया था, उस समय केवल डॉ. मनमोहन सिंह ही नहीं, बल्कि उनके पूरे मंत्रिमंडल का अपमान हुआ था। इस समय उन्होंने इस्तीफा देने का मन बना लिया था। पर किसी विवशता के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। 120 करोड़ की आबादी वाले इस देश का प्रधानमंत्री इतना विवश हो सकता है कि वह अपना निर्णय ही न ले पाए, वह क्या इतना लाचार भी हो सकता है, यह रहस्य अभी तक समझ में नहीं आया है। मनमोहन सिंह कोई राजनीतिज्ञ नहीं हैं, पर ब्यूरोकेट अवश्य थे। इसके बाद भी यूपीए -1 के शासनकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते में उन्होंने अपनी अप्रतिम प्रतिभा का परिचय दिया था। उनकी छबि बेदाग रही। उनका या उनके करीबी रिश्तेदारों का नाम कभी किसी घोटाले में सामने नहीं आया। इस तरह का आक्षेप उनके दुश्मनों ने भी कभी नहीं किया। इसके बाद भी ठीक उनके नाक के नीचे इतने बड़े-बड़े घोटाले हो गए। इससे सरकार की भारी फजीहत भी हुई, इसके बाद भी उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, यह बात उनके सभी साथियों को साल रही है।
उनकी छबि एक कुशल अर्थशास्त्री के रूप में है। सन् 1991 में भारत के आर्थिक सुधारों का जब दौर शुरू हुआ, उनके प्रणोता डॉ. मनमोहन सिंह ही थे। यूपीए -1 के कार्यकाल में तेजी से आर्थिक विकास के लिए डॉ. मनमोहन सिंह की नीतियों को ही जवाबदार माना जाएगा। इसके बाद भी यूपीए-2 में जब आर्थिक घोटाले हुए, उसे मनमोहन ¨सह ने किस तरह से चला लिया?र्थशास्त्र के रूप में उनका अनुभव उस समय क्यों काम में नहीं आया? अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने अपनी आर्थिक नीतियों को अमल में लाने की पूरी कोशिश की, इस कोशिश में कामयाब भी हुए। उनकी इस कोशिश से मध्यम वर्ग खुश भी था। इस वर्ग में डॉ. मनमोहन सिंह की लोकप्रियता भी बढ़ी। कुछ अंश तक इसी लोकप्रियता के कारण यूपीए सरकार 2009 में भी बन गई। परंतु इस सफलता का पूरा श्रेय सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी ले गए। इतना ही नहीं, यूपीए-2 के दौरान मनमोहन सिंह की कई नीतियों को पलट दिया गया। इस समय मनमोहन सिंह अपनी लोकप्रियता को देखते हुए यदि चुनाव लड़ने की आवश्यकता थी। इसके बदले में वे कोयला आवंटन के मामले में फंस गए। इस दौरान में पूरी तरह से मौन ही रहे। उन्होंने ऐसा क्यों किया? डॉ. मनमोहन सिंह के भूतपूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु ने अपने हाल प्रकाशित किताब में यह रहस्योद्घाटन किया है कि प्रधानमंत्री को मीडिया में जरा भी प्रसिद्धि मिलती, तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी बेचैन हो जाते। वे हमेशा प्रसिद्धि से दूर रहने की कोशिश करते। मनमोहन सिंह की राजनीतिक ताकत बढ़ जाए, इसका खयाल सोनिया गांधी से अधिक वे स्वयं रखते। उनके कार्यो से सोनिया गांधी में किसी तरह की असुरक्षा की भावना पैदा हो, ऐसा वे नहीं चाहते थे। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी उन्होंने कभी अपनी राजनैतिक छवि बनाने की कोशिश भी नहीं की। इसलिए वे टिक गए।
डॉ. मनमोहन सिंह दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे, किंतु अपने इस कार्यकाल में उन्होंने बहुत कम साथियों को अपने विश्वास में लिया। प्रणब मुखर्जी से उनके आत्मीय संबंध कभी नहीं रहे। यूपीए-2 के दौरान पी. चिदम्बरम उनके विश्वासपात्र थे, किंतु संयुक्त संसदीय समिति के सामने जब पी. चिदम्बरम ने यह कहा कि ए. राजा ने प्रधानमंत्री के सामने ही 2 जी स्पेक्ट्रम के भाव तय किए थे, तब चिदम्बरम ने भी उनका विश्वास खो दिया था। भारतीय संविधान में नागरिकों को बोलने की आजादी दी है। पर हमारे प्रधानमंत्री से यह आजादी छीन ली गई थी। इसके कारण वे कई बार उपहास के पात्र बने। यहां तक कि अपने मोबाइल को साइलेंट मोड के बदले मनमोहन मोड पर रखने लगे थे। हमारे प्रधानमंत्री भले ही दस वर्ष तक खामोश रहे। पर 17 मई के बाद वे बोलेंगे और खूब बोलेंगे, ऐसा देश के नागरिक मान रहे हैं। वे अपना मौनव्रत तोड़ेंगे, ऐसा विश्वास भी लोगों को है। देश के इतने महत्वपूर्ण पद से निवृत होने के बाद वे अपने संस्मरण लिखेंगे, तो उनकी किताब बेस्टसेलर होगी, इसमें कोई शक नहीं। सवाल यह है कि देश हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को किस तरह से याद रखेगा? एक सुलझे हुए प्रधानमंत्री के रूप में या फिर एक खामोश प्रधानमत्री के रूप में? इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को किस तरह से अनदेखा कर उनकी कार्यक्षमता को प्रभावित किया जा सकता है, ऐसा केवल हमारे ही देश में हो सकता है। प्रधानमंत्री की अच्छाइयां दफ्न कर दी गई है, उसे बाहर आना ही चाहिए। ताकि लोगों को पता चल सके कि एक प्रधानमंत्री कितना बेबस और लाचार भी हो सकता है।
डॉ. महेश परिमल
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