सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

आ गया है गिरते विचारों का पतझड़





आज के दैनिक भास्‍कर के सभी संस्‍करणों में एक साथ प्रकाशित

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

विशालकाय ट्रक और विशालकाय सामान

देखो, ये ट्रक कितने काम का है ? इसके पहिए मत गिनो, इसके काम को देखो। रेल्‍वे इंजन भी इसकी शरण में है। बड़ी से बड़ी चीजें भी उठाकर यह एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान ले जाता है। इसके कारण रास्‍ता जाम भी होता है। क्‍या हुआ थोड1ा ठहरकर इस विशालकाय ट्रक को ही देख लें।














शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

अंतिम होना अंत नहीं होता

अंतिम होना अंत नहीं होता
अंग्रेजी में एक कहावत है लास्ट बट नॉट द लीस्ट, यानी जो आखिरी है वह न्यूनतम या सबसे कम नहीं, वह भी मूल्यवान है। अक्सर लोग आखिरी होने को, अंतिम होने को खराब, व्यर्थ या निरर्थक समझ बैठते हैं...
यह शब्द भले ही मिलते-जुलते लगते हैं, लेकिन इनमें जमीन- आसमान का फर्क है। और शब्दों में भेद न समझने के कारण इंसान अपनी सोच और कृत्यों में भी भेद पैदा कर लेता है। अंतिम होना इस बात का सबूत है कि यह स्थिति स्थाई नहीं, क्योंकि यह स्थिति क्रम से गुजरी है और क्रम परिवर्तनशील है। जो आज पहला है, वह कल आखिरी हो सकता है और जो आज आखिरी है वह कल पहला हो सकता है। अंतिम होना यह बताता है कि अभी भी परिवर्तन की गुंजाइश है। जिन कारणों के चलते हम इस स्थिति पर पहुंचे हैं, उनको समझकर कल होने वाले परिणाम में फेरबदल कर सकते हैं।

जिसे हम अंतिम कहते हैं या समझते हैं, वह आदि भी हो सकता है, अंत भी, अथ भी और इति भी। छोर का फर्क है, किनारे का अंतर है। हर बिंदु, यानी कि छोर मिल जाते हैं तो एक वर्तुल बनता है। वर्तुलाकार यानी की गोला। गोलाकार प्रतीक है पूर्णता का, शून्यता का, गर्भ का, पृथ्वी का, आत्मा रूपी बिंदु का। यह आकार, यह अवस्था बिना रेखा से गुजरे संभव नहीं और रेखा होने के लिए अंतिम बिंदु को छूना जरूरी है।

दिन-रात भी ऐसे ही हैं। जो रात के करीब हैं इसका अर्थ यह नहीं कि वह अंतिम है। इसका अर्थ यह है कि वह सुबह के करीब है। यह सोचकर की अंतिम होना अंत है, तो घड़ी की सुइयां बारह के बाद आगे ही न बढ़ें। बारह अंक का अपना महत्व है, यदि बारह नहीं बजेंगे तो कभी एक भी नहीं बजेगा।

इसलिए समय हो या संबंध, हमें अंतिम होने से नहीं घबराना चाहिए। आखिरी होने का मलाल नहीं करना चाहिए। अंतिम होने का भी अपना अर्थ है, अपना स्वाद है, अपना आनंद है अगर उसे बोधपूर्ण रूप से देख लिया जाए तो।

मन का ध्यान हमेशा बनाए रखें
हमारा मन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यही हमारे सारे काम करता है, पर तथ्य यह भी है कि सफलता और संपन्नता पाने के लिए अपने मन और मस्तिष्क को अधिकतम १० प्रतिशत ही उपयोग में लाते हैं। यह भी तथ्य है कि एक बेजोड़ सफल व्यक्ति केवल १५ प्रतिशत अपने मन और मस्तिष्क का प्रयोग कर जीवन में बेजोड़ सफलता प्राप्त कर लेता है, लेकिन अगर आप विशेष सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको अपने जीवन के प्रत्येक पहलू से मन की एकाग्रता बनाए रखने का लक्ष्य स्थापित करना चाहिए। उस समय, जब आप महसूस करते हैं कि आपके मन को बोलना चाहिए, तो इसे पूर्ण एकाग्रता से आपके आदेशानुसार बोलना चाहिए। स्मरण रहे कि एकाग्रता केवल मन को प्रशिक्षित करने से ही संभव है। इसलिए अपने मन को प्रशिक्षित करने का प्रयास कीजिए। याद रखें कि यही मन की एकाग्रता आपको जीवन में एक सफल व्यक्ति बनाने के लिए जिम्मेदार होगी।
प्रसन्नता! हर पल, हर समय, हर क्षण यही आपके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। जब आप अपने हृदय में और अपने आस-पास असीमित प्रसन्नता पाते हैं, तो निश्चित रूप से आप अपने आपको एक उत्कृष्ट सफल व्यक्ति का टाइटल देने की क्षमता रखते हैं। केवल धन और प्रसिद्धि आपके लिए सफलता का द्वार खोल सकती है। हर व्यक्ति को प्रयास करना चाहिए कि आज, कल और हर दिन उसका जीवन प्रसन्नता से भरा रहे। हम सभी इस जीवन के नाटक के एक भाग हैं, जहां हम कभी निर्देशक, कभी निर्माता, कभी अभिनेता, कभी कैमरामैन होते हैं। इसलिए हमें यह देखना चाहिए कि हम जीवन रूपी नाटक में कोई भूमिका निभा भी रहे हों, तो हमें उस भूमिका में से असीमित प्रसन्नता पानी और निकालनी है। हमें अपनी एक हैप्पीनेस डायरी बनानी चाहिए, ताकि जब कभी भी किसी तरह के दुख या अवसाद के शिकार हों, तो उसकी मदद से खुश हो सकें।

मेरे एक और ब्‍लॉग का पता है
http://aajkasach.blogspot.com/

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

इण्डियन टीम

प्रति
इण्डियन टीम
वल्र्ड कप 2011
हे भारतीय टीम
नीला रंग दिया है तुझे आसमाँ से निकाल कर!
सजा लेना इसे अपने शरीर पर और आसमाँ छू लेना!!
थोड़ी सी नीलिमा भी दी है उस बहती नदी से निकाल कर!
कैसी भी मुश्किल आए, तू इस नदी की तरह बहते रहना!!
दो चक्र सजाए हैं तेरे सीने और माथे पर!
इन चक्रों से तुम विरोधी टीमों को चक्रव्यूह तोड़ देना!!
आजू-बाजू तिरंगे भी लगा, हैं तेरे शरीर पर!
इन्हें अपने पंख बनाकर तुम भरे तूफान में भी उड़ लेना!!
सूखी है भारत की ये जमीन पिछले 28 सालों से!
तू अपने मेहनत के पसीने से इस बंजर जमीन को भी सींच देना!!
भारत माता की गोद दी है तुझे आखिरी खेल खेलने के लिये!
खेलना तू दिल खोल कर और भारत के हर शख्स का दिल जीत लेना!!
25 जून 1983 लिखा गया था इतिहास के पन्नों पर!
तुम 02 अप्रैल 2011 को इतिहास के पन्नों पर लिख देना!!
शुभकामनाओं के साथ
डाँ. धर्मेन्द्र गुप्ता
अनंत कृपा ग्रुप

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

हाशिये पर चले गए हैं शहर के फुटपाथ






दैनिक भास्‍कर के सभी संस्‍करणों में एक साथ प्रकाशित

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तैयार हो जाएँ धन वर्षा के साक्षी होने के लिए



डॉ. महेश परिमल
पिछले 6 महीनों से देश की प्रजा महँगाई के नाम पर आँसू बहा रही है। महँगाई के समाचार दिखाते और छापते हुए मीडिया भी परेशान हो गया है। उनके प्रयासों से कर्मचारियों के न तो वेतन बढ़े और न ही महँगाई कम हुई। लेकिन इस सबसे ध्यान हटाने के लिए अब हम सबके सामने एक नया औजार आ रहा है। वह है आईपीएल का उत्सव। अगले महीने से शुरू होने वाले इस खेल कुंभ में करोड़ों रुपए के वारे-न्यारे होंगे। उसके बाद वर्ल्ड कप का शोर शुरू हो जाएगा। इस तरह से देश में क्रिकेट का बुखार बहुत ही जल्द शुरू होने वाला है। देश की जनता सब कुछ भूलकर क्रिकेट में रम जाएगी। इस दौरान हमारे खिलाड़ी कई तरह के प्रोडक्ट के लिए विज्ञापन करते नजर आएँगे। उनका गेटअप भी देखने लायक होगा। यानी सब कुछ भुला देने की तैयारी के साथ शुरू होने वाली है धन वर्षा, आपको इसका साक्षी बनने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
वर्ल्ड कप और आईपीएल के लिए जो तैयारी चल रही है, उसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि विभिन्न कंपनियों द्वारा टीवी के लिए तैयार किए जाने वाले विज्ञापनों की राशि 1500 करोड़ होगी। क्रिकेटप्रेमियों के लिए आगामी तीन महीने तक भरपूर मनोरंजन का प्रबंध किया गया है। अगले महीने 19 फरवरी से शुरू होने वाले वर्ल्ड कप की धमाल शुरू हो जाएगी। उसके बाद 8 अप्रैल से आईपीएल का तमाशा शुरू हो जाएगा। हाल ही में ही आईपीएल 4 के लिए क्रिकेटरों की नीलामी के बाद ही सारे समीकरण बनने शुरू हो गए हैं। क्रिकेटरों के भाव पर पूरा दारोमदार है। वर्ल्ड कप के लिए भारतीय टीम की घोषणा हो चुकी है। एक तरफ क्रिकेटर नेट प्रेक्टिस कर रहे होंगे, तो दूसरी तरफ वे विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त होंगे। वर्ल्ड कप के दौरान एक तरफ क्रिकेटर मैदान में चौके-छक्के मार रहे होंगे, तो दूसरी तरफ उन्हें चमकाकर अपना उत्पाद बेचने वाली कंपनियों के विज्ञापन भी दिखाए जा रहे होंगे।
एक अंदाज के मुताबिक भारत एवं विदेशी कंपनियाँ वर्ल्ड कप और आईपीएल के दौरान टीवी के विज्ञापनों के पीछे करीब 1500 करोड़ रुपए खर्च कर रहीं हैं। आगामी 90 दिनों के दौरान विभिन्न उत्पादनों का प्रचार जाने-पहचाने क्रिकेटर करते दिखाई देंगे। इसके लिए लोकप्रिय क्रिकेटरों को मोटी राशि के साथ साइन भी कर लिया गया है। प्रचार माध्यमों की दृष्टि से यह सबसे बड़ी घटना होगी, क्योंकि वर्ल्ड कप और आईपीएल के दौरान युवाओं का अधिकांश समय टीवी के सामने ही गुजरेगा। संभवत: इन दिनों क्रिकेट का ओवरडोज भी हो जाए। कुछ भी हो, पर क्रिकेटरों की लोकप्रियता को भुनाने की पूरी तैयारी हो चुकी है। क्रिकेटर ने भी इस माध्यम से कमाई करनी शुरू कर दी है। विज्ञापन एजेंसियाँ खूब व्यस्त हैं। वे दिन-रात इस दिशा में काम कर रही हैं। इसके पहले सौरव और सचिन तेंदुलकर और शाहरुख खान जैसी हस्तियों को पेप्सी का ब्रांड एम्बेसेडर बनाया जा चुका है। इनकी उम्र अधिक हो गई, इसलिए पेप्सी ने इनसे किनारा कर लिया। अब उनके सामने हैं धोनी, सहवाग, और हरभजन सिंह जैसे क्रिकेटर और रणबीर कपूर जैसी फिल्मी हस्ती। ये लोग पेप्सी की पहली पसंद हैं। पेप्सी ने धोनी, हरभजन, सहवाग, सुरेश रैना और विराट कोहली को लेकर एक विज्ञापन बनाने वाली है। इस विज्ञापन में ये क्रिकेटर अपने शरीर पर वस्त्रों के बदले बॉडी पेंटिंग के साथ दिखाई देंगे। इस विज्ञापन में धोनी अपना प्रसिद्ध हेलीकाप्टर शॉट किस तरह खेलें, यह बताते हुए दिखाई देंगे। पेप्सी इस तरह के 5 विज्ञापन बना रही है।

सचिन तेंदुलकर रिनोल्ड और आइवा जैसी कंपनियों के ब्रांड एम्बेसेडर हैं। रिनोल्ड कंपनी ने वर्ल्ड कप के लिए सचिन को चमकाने वाला एक विशेष विज्ञापन की शूटिंग की है। इस विज्ञापन में सचिन की श्रेष्ठता और उनका अनुशासन को विशेष रूप से ध्यान में रखा गया है। इस विज्ञापन की टेग लाइन है आप जितना अधिक लिखेंगे, उतना अधिक याद रखेंगे।’ आइवा भी सचिन को लेकर बच्चों की शिक्षा के लिए बीमा पॉलिसी का विज्ञापन वर्ल्ड कप के लिए विशेष रूप से बना रही है। इस विज्ञापन में सचिन एक आदर्श पिता के रूप में दिखाई देंगे। फरवरी 2010 को ग्वालियर में वन डे में सचिन के दोहरे शतक के रिकॉर्ड को भुनाने के लिए कोका-कोला कंपनी ने उनसे करार किया है। इस कारण सचिन वर्ल्ड कप के दौरान कोका-कोला के विज्ञापनों में भी दिखाई देंगे।
जो क्रिकेटर अधिक सफल होता है, उसे अधिक विज्ञापन मिलते हैं। यहाँ सभी उगते सूरज को सलाम करते हैं। विफल क्रिकेटर टीम से निकाल दिए जाएँ, इसके पहले ही विज्ञापन कंपनियाँ उनसे किनारा कर लेती हैं। किसी भी क्रिकेटर के सफल होने की देर है कि उसके सामने विज्ञापन के लिए कांट्रेक्ट करने की होड़ लग जाती है। गौतम गंभीर ने केप टाउन में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ खेलते हुए 92 रन बनाए, तो एमआरएफ कंपनी ने उन्हें साइन कर लिया। दक्षिण अफ्रीका से गौतम गंभीर जैसे ही लौटेंगे, वैसे ही एमआरएफ अपने विज्ञापन की शूटिंग शुरू कर देगी। इसके अलावा हमारे क्रिकेटर ठंडे पेय पदार्थो, सीमेंट, रियल एस्टेट, घड़ी और शराब के विज्ञापनों के लिए काम कर रहे हैं। हरभजन ने हाल ही में एक प्रसिद्ध शराब कंपनी में विज्ञापन करने के लिए कांटेक्ट साइन किए हैं।
आईपीएल और वर्ल्ड कप के मद्देनजर कुछ प्रसिद्ध कंपनियों ने विज्ञापनों के लिए खास बजट तैयार किया है। अनिल धीरुभाई अंबानी ग्रुप की रिलायंस इंडीकॉम कंपनी ने टीवी के विज्ञापनों के लिए 50 करोड़ का बजट तैयार किया है। वर्ल्ड कप के लिए पहले से स्लॉट खरीदना भी कई बार महँगा साबित होता है। यदि मैच के दौरान भारतीय टीम खेल रही हो, तो विज्ञापनों का रुपया वसूल हो जाता है। पर भारतीय टीम पहले ही दौर में बाहर हो गई, तो गई भैंस पानी में। 2007 में ऐसा ही हुआ था। वेस्ट इंडीज में भारतीय टीम पहले ही बाहर हो गई थी, इसलिए जिसने भी पहले से विज्ञापनों का स्लॉट बुक करवाया था, वह घाटे में रहा। कई कंपनियाँ तो बुक किए गए विज्ञापनों को रद्द करवाकर रिफंड माँगने के लिए भी दौड़ पड़ी थी।
इलेक्ट्रानिक्स का सामान बनाने वाली कोरियन कंपनी एल जी वर्ल्ड कप के दौरान भारत जल्द ही बाहर फिंक जाए, इसका खतरा उठाने को तैयार नहीं है। इस कारण उसने वर्ल्ड कप के दौरान विज्ञापनों का एक भी स्लॉट बुक नहीं करवाया है। एलजी वर्ल्ड कप का आयोजन करनेवाली कंपनी आईसीसी की ग्राउंड पार्टनर है। इस कारण जिस स्टेडियम में वर्ल्ड कप का मैच खेला जाएगा, वहाँ एलजी कंपनी के साइन बोर्ड देखने को मिलेंगे। देश की सबसे बड़ी मीडिया एजेंसी ‘ग्रुप एम’ द्वारा व्यक्त की गई संभावना के अनुसार भारत और विदेशी कंपनियाँ वर्ल्ड कप के दौरान 750 करोड़ रुपए और आईपीएल -4 के दौरान करीब उतने ही धन के विज्ञापन दिखाएँगी। दर्शकों की संख्या के लिहाज से देखा जाए, तो आईपीएल देखने वाले युवा अधिक हैं। यह अधिक लाभदायक है। पर स्टेटस की दृष्टि से देखें, तो वर्ल्ड कप का स्कोर बढ़ जाता है। इसलिए इस दौरान दर्शकों को सबसे अधिक पेप्सी और हीरो होंडा के विज्ञापन देखने को मिलेंगे। इसके अलावा सोनी और नोकिया कंपनी भी अपनी रणनीति बनाने में लगी हैं। सेट मेक्स पर आईपीएल-4 के 80 प्रतिशत प्रायोजकों में हुंडाई, वोडाफोन, केडबरी आदि सात कंपनियों का समावेश होता है।

वर्ल्ड कप की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि 80 प्रतिशत मैचों में भारत की टीम रहेगी ही नहीं। जिस मैंच में भारत की टीम नहीं खेलेगी,उसमें भारत के दर्शकों की दिलचस्पी कम ही होती है। इस कारण इन मैचों में भारत में व्यापार करने वाली कंपनी अपने विज्ञापनों देने के लिए तुरंत तैयार नहीं होती। इसके बाद भी यदि भारतीय टीम सेमी फाइनल और फाइनल तक नहीं पहुँच पा रहीं हैं, तो उसमें भी टीआरपी कम हो जाती है। इन कंपनियों की ईश्वर से यही प्रार्थना है कि भारतीय टीम फाइनल तक पहुँच जाए। भारतीय टीम का प्रदर्शन यदि ठीक नही हुआ, तो सबसे बड़ा झटका इन कंपनियों को लगेगा।
इन मैचों को देखते हुए अनेक कंपनियों ने अपने विशेष उत्पाद बाजार में लाने को तैयार हैं। बिग बाजार कंपनी द्वारा वर्ल्ड कप को ध्यान में रखते हुए साबुन और टूथपेस्ट की विशेष ब्रांड लांच करने की तैयारी कर रही है। इन सभी उत्पादों में उनके ब्रांड एम्बेसेडर सचिन तेंदुलकर दिखाई देंगे।अंत में एक बात, कार्ल मार्क्‍स ने धर्म को अफीम बताया है। पर यदि आज वे जीवित होते, तो निश्चित ही उन्हें अपने विचार बदलने पड़ते। वे क्रिकेट को ही अफीम की संज्ञा देते। क्योंकि पिछले 6 महीनों से भारतीय जनता महँगाई के बोझ तले इतना अधिक दब गई है कि उसकी आवाज ही नहीं निकल रही है। अब यदि मैदान में सचिन छक्का मारते हैं, धोनी चौका मारते हैं, तो भारतीय जनता अपना दु:ख भूलकर उस खुशी में शामिल हो जाएगी। भारत दर्शक भी अब परिवर्तन चाहते हैं, इसलिए उनके लिए तैयार है आईपीएल और वर्ल्ड कप की जाजम। जिस पर चलकर उन्हें विज्ञापन कंपनियों को पुनर्जीवित करना है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

साफ माथे का समाज




अनुपम मिश्र

लेखक प्रख्यात गांधीवादी विचारक एवं पर्यावरणविद् हैं। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ इनकी बहुचर्चित पुस्तक है। संपर्क: गांधी शांति प्रतिष्ठान 223, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नई दिल्ली-110002 ;‘आज भी खरे हैं तालाब’ से साभार

􀀔 पर्यावरण आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है। कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्रा में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। साद तालाबों में नही, नए समाज के माथे में भर गई है।
तालाब में पानी आता है, पानी जाता है। इस आवक-जावक का पूरे तालाब पर असर पड़ता है। वर्षा की तेज बूंदों से आगौर की मिट्टी धुलती है तो आगर में मिट्टी घुलती है। पाल की मिट्टी कटती है तो आगर में मिट्टी भरती है। तालाब के स्वरूप के बिगड़ने का यह खेल नियमित चलता रहता है। इसलिए तालाब बनाने वाले लोग, तालाब बनाने वाला समाज तालाब के स्वरूप को बिगड़ने से बचाने का खेल भी उतने ही नियमपूर्वक खेलता रहा हैं। जो तालाब देखते ही देखते पिछले पचास-सौ बरस में नष्ट कर दिए गए हैं, उन तालाबों ने नियम से खेले गए खेलों के कारण ही कुछ सैकड़ों बरसों तक समाज का खेल ठीक से चलाया था। पहली बार पानी भरा नहीं कि तालाब की रखवाली का, रख-रखाव का काम शुरू हो जाता था। यह आसान नहीं था। पर समाज को देश के इस कोने से उस कोने तक हजारों तालबों को ठीक-ठाक बनाए रखना था, इसलिए उसने इस कठिन काम को हर जगह इतना व्यवस्थित बना लिया था कि यह सब बिलकुल सहज ढंग से होता रहता था। आगौर में कदम रखा नहीं कि रख-रखाव का पहला काम देखने को मिल जाएगा। देश के कई क्षेत्रों में तालाब का आगौर प्रारंभ होते ही उसकी सूचना देने के लिए पत्थर के सुंदर स्तंभ लगे मिलते हैं। स्तंभ को देखकर समझ लें कि अब आप तालाब के आगौर में खड़े हैं, यहीं से पानी तालाब में भरेगा। इसलिए इस जगह को साफ-सुथरा रखना है। जूते आदि पहन कर आगौर में नहीं आना है, दिशा मैदान आदि की बात दूर, यहां थूकना तक मना रहा है। ‘जूते पहन कर आना मना है’, ‘थूकना मना है’ जैसे बोर्ड नहीं ठोंके जाते थे पर सभी लोग बस स्तंभ देखकर इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। आगर के पानी की साफ-सफाई और शु(ता बनाए रखने का काम भी पहले दिन से ही शुरू हो जाता था। नए बने तालाब में जिस दिन पानी भरता, उस दिन समारोह के साथ उसमें जीव-जंतु लाकर छोड़े जाते थे। कहीं-कहीं जीवित प्राणियों के साथ सामथ्र्य के अनुसार चांदी या सोने तक के जीव-जन्तु विसर्जित किए जाते थे। छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में अभी कोई पचास-पचपन बरस पहले तक तालाब में सोने की नथ पहनाकर कछुए छोड़े गए थे।
पहले वर्ष में कुछ विशेष प्रकार की वनस्पति भी डाली जाती थी। अलग-अलग क्षेत्रा में इनका प्रकार बदलता था पर काम एक ही था- पानी को साफ रखना। मध्य प्रदेश में यह गदिया या चीला थी तो राजस्थान में कुमुदिनी, निर्मली या चाक्षुष। चाक्षुष से ही चाकसू शब्द बना है। कोई एक ऐसा दौर आया होगा कि तालाब के पानी की साफ-सफाई के लिए चाकसू पौधे का चलन खूब बढ़ गया होगा। आज के जयपुर के पास एक बड़े कस्बे का नाम चाकसू है। यह नामकरण शायद चाकसू पौधे के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए किया गया हो। पाल पर पीपल, बरगद और गूलर के पेड़ लगाए जाते रहे हैं।
तालाब और इन पेड़ों के बीच उम्र को लेकर हमेशा होड़-सी दिखती थी। कौन ज्यादा टिकता है-पेड़ या तालाब? लेकिन यह प्रश्न प्रायः अनुत्तरित ही रहा है। दोनों को एक-दूसरे का लंबा संग इतना भाया है कि उपेक्षा के इस ताजे दौर में जो भी पहले गया, दूसरा शोक में उसके पीछे-पीछे चला गया है। पेड़ कटे हैं तो तालाब भी कुछ समय में सूखकर पट गया है और यदि पहले तालाब नष्ट हुआ है तो पेड़ भी बहुत दिन नहीं टिक पाए हैं। तालाबों पर आम भी खूब लगाया जाता रहा है, पर यह पाल पर कम, पाल के नीचे की जमीन में ज्यादा मिलता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्रा में बहुत से तालाबों में शीतला माता का वास माना गया है और इसलिए ऐसे तालबों की पाल पर नीम के पेड़ जरूर लगाए जाते रहे हैं। बिना पेड़ की पाल की तुलना बिना मूर्ति के मंदिर से भी की गई है। बिहार और उत्तर प्रदेश के अनेक भागों में पाल पर अरहर के पेड़ भी लगाए जाते थे। इन्हीं इलाकों में नए बने तालाब की पाल पर कुछ समय तक सरसों की खली का धुआं किया जाता था ताकि नई पाल में चूहे आदि बिल बनाकर उसे कमजोर न कर दें। ये सब काम ऐसे हैं, जो तालाब बनने पर एक बार करने पड़ते हैं, या बहुत जरूरी हो गया तो एकाध बार और। लेकिन तालाब में हर वर्ष मिट्टी जमा होती है। इसलिए उसे हर वर्ष निकालते रहने का प्रबंध सुंदर नियमों में बांध कर रखा गया था। कहीं साद निकालने के कठिन श्रम को एक उत्सव, त्यौहार में बदल कर आनंद का अवसर बनाया गया था तो कहीं उसके लिए इतनी ठीक व्यवस्था कर दी गई कि जिस तरह वह चुपचाप तालाब के तल में आकर बैठती थी, उसी तरह चुपचाप उसे बाहर निकाल कर पाल पर जमा दिया जाता था। साद निकालने का समय अलग-अलग क्षेत्रों में मौसम को देखकर तय किया जाता रहा है। उस समय तालाब में पानी सबसे कम रहना चाहिए। गोवा और पश्चिम घाट के तटवर्ती क्षेत्रों में यह काम दीपावली के तुरंत बाद किया जाता है। उत्तर के बहुत बड़े भाग में नव वर्ष यानी चैत्रा से ठीक पहले, तो छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, बिहार और दक्षिण में बरसात आने से पहले खेत तैयार करते समय। आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है। कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्रा में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। साद तालाबों में नही, नए समाज के माथे में भर गई है। तब समाज का माथा साफ था। उसने साद को समस्या की तरह नहीं बल्कि तालाब के प्रसाद की तरह ग्रहण किया था। प्रसाद को ग्रहण करने के पात्रा थे किसान, कुम्हार और गृहस्थ। इस प्रसाद को लेने वाले किसान प्रति गाड़ी के हिसाब से मिट्टी काटते, अपनी गाड़ी भरते और इसे खेतों में पफैला कर उनका उपजाउफपन बनाए रखते। इस प्रसाद के बदले वे प्रति गाड़ी के हिसाब से कुछ नकद या पफसल का कुछ अंश ग्राम कोष में जमा करते थे। पिफर इस राशि से तालाबों की मरम्मत का काम होता था।
आज भी छत्तीसगढ़ में लद्दी निकालने का काम मुख्यतः किसान परिवार ही करते हैं। दूर-दूर तक साबुन पहुंच जाने के बाद भी कई घरों में लद्दी से सिर धोने और नहाने का चलन जारी है। बिहार में यह काम उड़ाही कहलाता है। उड़ाही समाज की सेवा है, श्रमदान है। गांव के हर घर से काम कर सकने वाले तालाब पर एकत्रा होते थे। हर घर दो से पांच मन मिट्टी निकालता था। काम के समय वही गुड़ का पानी बंटता था। पंचायत में एकत्रा हर्जाने की रकम का एक भाग उड़ा ही के संयोजन में खर्च होता था। दक्षिण में धर्मादा प्रथा थी। कहीं-कहीं इस काम के लिए गांव की भूमि का एक हिस्सा दान कर दिया जाता था और उसकी आमदनी सिपर्फ साद निकालने के लिए खर्च की जाती थी। ऐसी भूमि को कोडगे कहा जाता था। राज ओर समाज मिलकर कमर कस लें तो पिफर किसी काम में ढील कैसे आएगी। दक्षिण में तालाबों के रख-रखाव के मामले में राज और समाज का यह तालमेल खूब व्यवस्थित था। राज के खजाने से इस काम के लिए अनुदान मिलता था पर उसी के साथ हर गांव में इस काम के लिए एक अलग खजाना बन जाए, ऐसा भी इंतजाम था। हर गांव में कुछ भूमि, कुछ खेत या खेत का कुछ भाग तालाब की व्यवस्था के लिए अलग रख दिया जाता था। इस पर लगान नहीं लगता था। ऐसी भूमि मान्यम् कहलाती थी। मान्यम् से होने वाली बचत, आय या मिलने वाली पफसल तालाब से जुड़े तरह-तरह के कामों को करने वाले लोगों को दी जाती थी। जितनी तरह के काम, उतनी तरह के मान्यम्। जो काम जहां होना है, वहीं उसका प्रबंध किया जाता था, वहीं उसका खर्च जुटा लिया जाता था। अलौति मान्यम् से श्रमिकों के पारिश्रमिक की व्यवस्था की जाती थी। अणैंकरण मान्यम् पूरे वर्ष भर तालाब की देखरेख करने वालों के लिए था। इसी से उन परिवारों की जीविका भी चलती थी, जो तालाब की पाल पर पशुओं को जाने से रोकते थे। पाल की तरह तालाब के आगौर में भी पशुओं के आने-जाने पर रोक थी। इस काम में भी लोग साल भर लगे रहते थे। उनकी व्यवस्था बंदेला मान्यम् से की जाती थी।
तालाब से जुड़े खेतों में पफसल बुवाई से कटाई तक पशुओं को रोकना एक निश्चित अवधि तक चलने वाला काम था। यह भी बंदेला मान्यम् से पूरा होता था। इसे करने वाले पट्टी कहलाते थे। सिंचाई के समय नहर का डाट खोलना, समय पर पानी पहुंचाना एक अलग जिम्मेदारी थी। इस सेवा को नीरमुनक्क मान्यम् से पूरा किया जाता था। कहीं किसान पानी की बर्बादी तो नहीं कर रहे- इसे देखने वालों का वेतन कुलमकवल मान्यम् से मिलता था। तालाब में कितना पानी आया है, कितने ख्ेातों में क्या-क्या बोया गया है, किसे कितना पानी चाहिए- जैसे प्रश्न नीरघंटी या नीरुकुट्टी हल करते थे। यह पद दक्षिण में सिपर्फ हरिजन परिवार को मिलता था। तालाब का जल स्तर देखकर खेतों में उसके न्यायोचित बंटवारे के बारीक हिसाब-किताब की विलक्षण क्षमता नीरुकुट्टी को विरासत में मिलती थी। आज के कुछ नए समाजशास्त्रिायों का कहना है कि हरिजन परिवार को यह पद स्वार्थवश दिया जाता था। इन परिवारों के पास भूमि नहीं होती थी इसलिए भूमिवानों के खेतों में पानी के किसी भी विवाद में वे निष्पक्ष होकर काम कर सकते थे। यदि सिपर्फ भूमिहीन होना ही योग्यता का आधार था तो पिफर भूमिहीन ब्राह्मण तो सदा मिलते रह सकते थे। लेकिन इस बात को यहीं छोड़ें और पिफर लौटें मान्यम् पर। कई तालाबों का पानी सिंचाई के अलावा पीने के काम भी आता था। ऐसे तालाबों से घरों तक पानी लेकर आने वाले कहारों के लिए उरणी मान्यम् से वेतन जुटाया जाता था। उप्पार और वादी मान्यम् से तालाबों की साधारण टूट-पूफट ठीक की जाती थी। वायक्कल मान्यम् तालाब के अलावा उनसे निकली नहरों की देखभाल में खर्च होता था। पाल से लेकर नहरों तक पर पेड़ लगाए जाते थे और पूरे वर्ष भर उनकी सार-संभाल, कटाई, छंटाई आदि का काम चलता रहता था। यह सारी जिम्मेदारी मानल मान्यम् से पूरी की जाती थी।
खुलगा मान्यम् और पाटुल मान्यम् मरम्मत के अलावा क्षेत्रा में बनने वाले नए तालाबों की खुदाई में होने वाले खर्च संभालते थे। एक तालाब से जुड़े इतने तरह के काम, इतनी सेवाएं वर्ष भर ठीक से चलती रहें- यह देखना भी एक काम था। किस काम में कितने लोगों को लगाना है, कहां से कुछ को घटना है- यह सारा संयोजन करैमान्यम् से पूरा किया जाता था। इसे कुलम वेट्टु या कण्मोई वेट्टु भी कहते थे। दक्षिण का यह छोटा साधारण-सा वर्णन तालाब और उससे जुड़ी पूरी व्यवस्था की थाह नहीं ले सकता। यह तो अथाह है। ऐसी ही या इससे मिलती-जुलती व्यवस्थाएं सभी हिस्सों में, उत्तर में, पूरब-पश्चिम में भी रही ही होंगी। पर कुछ काम तो गुलामी के उस दौर में टूटे और पिफर विचित्रा आजाद के इस दौर में पूफटे समाज में यह सब बिखर गया। लेकिन गैंगजी कला जैसे लोग इस टूटे-पूफटे समाज में बिखर गई व्यवस्था को अपने ढंग से ठीक करने आते रहे हैं। नाम तो था गंगाजी पर पिफर न जाने कैसे वह गैंगजी हो गया। उनका नाम स्नेह, आत्मीयता के कारण बिगड़ा या घिसा होगा लेकिन उनके शहर को कुछ सौ साल से घेर कर खड़े आठ भव्य तालाब ठीक व्यवस्था के टूटे जाने के बाद धीरे-धीरे आ रही उपेक्षा के कारण घिसने, बिगड़ने लगे थे। अलग-अलग पीढ़ियों ने इन्हें अलग-अलग समय में बनाया था, पर आठ में से छह एक श्रृंखला में बांधे गए थे। इनका रख-रखाव भी उन पीढ़ियों ने श्रृंखला में बंध कर ही किया होगा। सार-संभाल की वह व्यवस्थित कड़ी पिफर कभी टूट गई। इस कड़ी के टूटने की आवाज गैंगजी के कान में कब पड़ी, पता नहीं। पर आज जो बड़े-बूढ़े पफलौदी शहर में हैं, वे गैंगजी की एक ही छवि याद रखे हैं: टूटी चप्पल पहने गैंगजी सुबह से शाम तक इन तालाबों का चक्कर लगाते थे। नहाने वाले घाटों पर, पानी लेने वाले घाटों पर कोई गंदगी पफैलाता दिखे तो उसे पिता जैसी डांट पिलाते थे। कभी वे पाल का तो कभी नेष्टा का निरीक्षण करते। कहां किस तालाब में कैसी मरम्मत चाहिए - इसकी मन ही मन सूची बनाते। इन तालाबों पर आने वाले बच्चों के साथ खुद खेलते और उन्हें तरह-तरह के खेल खिलाते। शहर को तीन तरपफ से घेरे खड़े तालाबों का एक चक्कर लगाने में कोई 3 घंटे लगते हैं। गैंगजी कभी पहले तालाब पर दिखते तो कभी आखिरी पर, कभी सुबह यहां मिलते तो दोपहर वहां और शाम न जाने
कहां। गैंगजी अपने आप तालाबों के रखवाले बन गए थे। वर्ष के अंत में एक समय ऐसा आता जब गैंगजी तालाबों के बदले शहर की गली-गली घूमते दिखते। साथ चलती बच्चों की फौज। हर घर का दरवाजा खुलने पर उन्हें बिना मांगे एक रुपया मिल जाता। बरसों से हरेक घर जानता था कि गैंगजी सिपर्फ एक रुपया मांगते हैं, न कम न ज्यादा। रुपये बटोरने का काम पूरा होते ही वे पूरे शहर के बच्चों को बटोरते। बच्चों के साथ ढेर सारी टोकरियां, तगाड़ियां, फावड़े, कुदाल भी जमा हो जाते। पिफर एक के बाद एक तालाब साफ होने लगता। साद निकाल कर पाल पर जमाई जाती। हरेक तालाब के नेष्टा का कचरा भी इसी तरह साफ किया जाता। एक तगाड़ी मिट्टी-कचरे के बदले हर बच्चे को दुअन्नी इनाम में मिलती। गैंगजी कल्ला कब से यह कर रहे थे- आज किसी को याद नहीं। बस इतना पता है कि यह काम सन् 55-56 तक चलता रहा। पिफर गैंगजी चले गए। शहर को वैसी किसी मृत्यु की याद नहीं। पूरा शहर शामिल था उनकी अंतिम यात्रा में। एक तालाब के नीचे ही बने घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। बाद में वहीं उनकी समाधि बनाई गई। जो तालाब बनाते थे, समाज उन्हें संत बना देता था। गैंगजी ने तालाब तो नहीं बनाया था। पहले बने तालाबों की रखवाली की थी। वे भी संत बन गए थे। पफलौदी में तालाबों की सफाई का खेल संत खिलवाता था तो जैसलमेर में यह खेल खुद राजा खेलता था। सभी को पहले से पता रहता था पिफर भी नगर-भर में डिंडोरा पिटता था। राजा की तरपफ से, वर्ष के अंतिम दिन, फाल्गुन कृष्ण चैदस को नगर के सबसे बड़े तालाब घड़सीसर पर ल्हास खेलने का बुलावा है। उस दिन राजा, उनका पूरा परिवार, दरबार, सेना और पूरी प्रजा कुदाल, फावड़े, तगाड़ियां लेकर घड़सीसर पर जमा होती। राजा तालाब की मिट्टी काट कर पहली तगाड़ी भरता और उसे खुद उठाकर पाल पर डालता। बस गाजे-बाजे के साथ ल्हास शुरु। पूरी प्रजा का खाना-पीना दरबार की तरपफ से होता। राजा और प्रजा सबके हाथ मिट्टी में सन जाते। राजा इतने तन्मय हो जाते कि उस दिन उनके कंधे से किसी का भी कंधा टकरा सकता था। जो दरबार में भी सुलभ नहीं, आज वही तालाब के दरवाजे पर, मिट्टी ढोर रहा है। राजा की सुरक्षा की व्यवस्था करने वाले, उनके अंगरक्षक भी मिट्टी काट रहे हैं, मिट्टी डाल रहे हैं। ऐसे ही एक ल्हास में जैसलमेर के राजा तेजसिंह पर हमला हुआ था। वे पाल पर ही मारे गए थे। लेकिन ल्हास खेलना बंद नहीं हुआ। यह चलता रहा, पफैलता रहा। मध्य प्रदेश के भील समाज में भी ल्हास खेला जाता है, गुजरात में भी ल्हास चलती है। वहां यह परंपरा तालाब से आगे बढ़ कर समाज के ऐसे किसी भी काम से जुड़ गई थी, जिसमें सबकी मदद चाहिए। सबके लिए सबकी मदद। इसी परंपरा से तालाब बनते थे, इसी से उनकी देखभाल होती थी। मिट्टी कटती थी, मिट्टी डलती थी समाज का खेल ल्हास के उल्हास से चलता था।
अनुपम मिश्र

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा



अनुपम मिश्र
तालाबआज हर बात की तरह पानी का राजनीति भी चल निकली है। पानी तरल है, इसलिए उसकी राजनीति भी जरूरत से ज्यादा बहने लगी है। देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच भी पानी को लेकर एक न एक लड़ाई हर जगह मिलेगी।

मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति ‘आईएसआई मार्का’ तराजू लेकर पानी बांटने निकलने वाली पनिहारिन नहीं है। तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचक्र पढ़ते हैं। अरब सागर से कैसे भाप बनती है, कितनी बड़ी मात्रा में वह ‘नौतपा’ के दिनों में कैसे आती है, कैसे मानसून की हवाएं बादलों को पश्चिम से, पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती हैं, हमारा साधारण किसान भी जानता है। ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था में प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती। फिर भी आप पाएंगे कि एकरूपता बनी रहती है।

पानी की राजनीति ने प्रकृति के इस स्वभाव को भूलने की अक्षम्य गलती की है। इसलिए हम प्रकृति से क्षमा नहीं पा सके हैं। हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी खर्चीली मांग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है। अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिए और जब नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति पर, नदियों पर थोप देते हैं। अब हमारे सामने नदियों को जोड़ने की योजना भी रखी गई है। देश के जिस भूगोल ने लाखों साल की मेहनत से इस कोने से उस कोने तक तरह-तरह से छोटी-बड़ी नदियां निकाली, अब हम उसे दोष दे रहे हैं और चाहते हैं कि एक नदी कश्मीर से कन्याकुमारी तक क्यों नहीं बही? अभी भी करने लायक छोटे-छोटे कामों के बदले अरबों रुपए की योजनाओं पर बात हो रही है। इस गोद में कुछ ही पहले तक हजारों नदियां खेलती थीं, उन सबको सुखाकर अब हम चार-पांच नदियों को जोड़कर उनका पानी यहां-वहां ले जाना चाहते हैं।

जल संकट प्रायः गरमियों के दिनों में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है। ठंड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचोड़ते मिल जाएंगे। राजनीतिक रूप से जो शहर थोड़े संपन्न और जागरूक हैं, उनकी जरूरत पूरी करने के लिए पानी पड़ोस से उधार भी लिया जाता है और कहीं-कहीं तो चोरी से खींच लिया जाता है लेकिन बाकी पूरा देश जलसंकट से उबर नहीं पाता। इस बीच कुछ हज़ार करोड़ रुपए खर्च करके जलसंग्रह, पानी-रोको, जैसी कई योजनाएं सामने आई हैं। वाटरशेड डेवलपमेंट अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाए। शायद एक बड़ी गलती हमसे यह हो रही है कि हमने पानी रोकने के समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध तरीकों को पुराना या पंरपरागत करार देकर छोड़ दिया है। यदि कुछ लाख साल से प्रकृति ने पानी गिराने का तरीका नहीं बदला है तो हम भी उसके सेवन के तरीके नहीं बदल सकते। ‘आग लगने पर कुआं खोदना’ पुरानी कहावत है। यही हम करते आ रहे हैं। प्यास लगती है, अकाल की आग लगती है, तो सरकार और समाज कुआं खोदना शुरू कर देते हैं। कहावत में तो कुआं खोदने पर शायद पानी निकलता भी है पर सरकारी आयोजनों और योजनाओं में इस पानी का रंग कुछ और ही दिखता है।


सागर और बूंद

तालाब, बावड़ी जैसे पुराने तरीकों की विकास की नई योजनाओं में बहुत उपेक्षा हुई है। न सिर्फ शहरों में, बल्कि गांवों में भी तालाबों को समतल कर मकान, दुकान, मैदान, बस स्टैंड बना लिए गए हैं। जो पानी यहां रुककर साल भर ठहरता था, उस इलाके के भूजल को ऊपर उठाता था, उसे हमने नष्ट कर दिया है। उसके बदले हमने आधुनिक ट्यूबवेल, नलकूप, हैंडपंप लगाकर पानी निकाला है। डालना बंद किया और निकालने की गति राक्षसी कर दी और मानते रहे कि सब कुछ हमारे अनुकूल चलेगा, लेकिन अब प्रकृति हमें हर साल चिट्ठी भेजकर याद दिला रही है कि हम गलती कर रहे है। इसकी सजा भुगतनी होगी। कभी पानी का प्रबंध और उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य-बोध के विशाल सागर की एक बूंद थी। सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े थे। बूंद अलग हो जाए तो न सागर रहे, न बूंद बचे। सात समुंदर पार से आए अंग्रेजों को न तो समाज के कर्तव्य-बोध का विशाल सागर दिख पाया, न उसकी बूंदे। उन्होंने अपने यहां के अनुभव और प्रशिक्षण के आधार पर यहां के राज में दस्तावेज जरूर खोजने की कोशिश की, लेकिन वैसे रिकार्ड राज में रखे नहीं जाते थे। इसलिए उन्होंने मान लिया कि यहां सारी व्यवस्था उन्हीं को करना है, यहां तो कुछ है ही नहीं। पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अकुशल कारीगरों में बदल दिए गए। ऐसे बहुत से लोग, जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, अनपढ़, असभ्य, अप्रशिक्षित माने जाने लगे।


न भूलें

हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सूखा, पानी की किल्लत, ये सब कभी अकेले नहीं आते। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है। इसमें 100 पैसा डालेंगे तो 100 पैसा निकाल सकेंगे। लेकिन डालना बंद कर देंगे और केवल निकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बंद करेगी और सीधे-सीधे सज़ा देगी। आज यह सज़ा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा में मिलने लगी है। पंजाब और हरियाणा सूखे राज्य नहीं माने जाते, लेकिन आज इनमें भी पानी के बंटवारे को लेकर राजनीतिक कड़वाहट दिख रही है। इसी तरह दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु में कोई कम पानी नहीं गिरता, लेकिन इन सभी जगहों पर किसानों ने पानी की अधिक मांग करने वाली फसलें बोई हैं और अब उनके हिस्से का पानी उनकी प्यास नहीं बुझा पा रहा। ऐसे विवादों का जब राजनीतिक हल नहीं निकल पाएगा तो हमें ऊंची अदालत का दरवाजा खटखटाना होगा। अदालत भी इसमें किसी एक के पक्ष में फैसला देगी तो दूसरे पक्ष में फैसला देगी तो दूसरे पक्ष को संतोष नहीं होगा। इसमें मुख्य समस्या प्यास की जरूरत की नहीं बची है और बनावटी प्यास और बनावटी जरूरत लंबे समय तक पूरी नहीं की जा सकेगी। कई बार जब अव्यवस्था बढ़ती जाती है, जन-नेतृत्व और सरकारी विभागों का निकम्मापन बढ़ने लगा है तो दुर्भाग्य से एक ही हल दिखता हैः राष्ट्रीयकरण के बदले निजीकरण कर दो। यही हल अब पानी के मामले में भी आगे रखा जाने लगा है। पहले हमारा समाज न राष्ट्रीयकरण जानता था और न निजीकरण। वह पानी का ‘अपनाकरण’ करता था। अपनत्व की भावना से उसका उपयोग करता था। जहां जितना उपलब्ध था, उतना खर्च करता था, इसलिए कम से कम पानी के मामले में, जब तक बहुत सोची-समझी योजनाएं फिर से सामने नहीं आएंगी, हम सब चुल्लू भर पानी में डूबते रहेंगे, लेकिन हमें शर्म नहीं आएगी।

अनुपम मिश्र

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