गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
साफ माथे का समाज
अनुपम मिश्र
लेखक प्रख्यात गांधीवादी विचारक एवं पर्यावरणविद् हैं। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ इनकी बहुचर्चित पुस्तक है। संपर्क: गांधी शांति प्रतिष्ठान 223, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नई दिल्ली-110002 ;‘आज भी खरे हैं तालाब’ से साभार
पर्यावरण आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है। कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्रा में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। साद तालाबों में नही, नए समाज के माथे में भर गई है।
तालाब में पानी आता है, पानी जाता है। इस आवक-जावक का पूरे तालाब पर असर पड़ता है। वर्षा की तेज बूंदों से आगौर की मिट्टी धुलती है तो आगर में मिट्टी घुलती है। पाल की मिट्टी कटती है तो आगर में मिट्टी भरती है। तालाब के स्वरूप के बिगड़ने का यह खेल नियमित चलता रहता है। इसलिए तालाब बनाने वाले लोग, तालाब बनाने वाला समाज तालाब के स्वरूप को बिगड़ने से बचाने का खेल भी उतने ही नियमपूर्वक खेलता रहा हैं। जो तालाब देखते ही देखते पिछले पचास-सौ बरस में नष्ट कर दिए गए हैं, उन तालाबों ने नियम से खेले गए खेलों के कारण ही कुछ सैकड़ों बरसों तक समाज का खेल ठीक से चलाया था। पहली बार पानी भरा नहीं कि तालाब की रखवाली का, रख-रखाव का काम शुरू हो जाता था। यह आसान नहीं था। पर समाज को देश के इस कोने से उस कोने तक हजारों तालबों को ठीक-ठाक बनाए रखना था, इसलिए उसने इस कठिन काम को हर जगह इतना व्यवस्थित बना लिया था कि यह सब बिलकुल सहज ढंग से होता रहता था। आगौर में कदम रखा नहीं कि रख-रखाव का पहला काम देखने को मिल जाएगा। देश के कई क्षेत्रों में तालाब का आगौर प्रारंभ होते ही उसकी सूचना देने के लिए पत्थर के सुंदर स्तंभ लगे मिलते हैं। स्तंभ को देखकर समझ लें कि अब आप तालाब के आगौर में खड़े हैं, यहीं से पानी तालाब में भरेगा। इसलिए इस जगह को साफ-सुथरा रखना है। जूते आदि पहन कर आगौर में नहीं आना है, दिशा मैदान आदि की बात दूर, यहां थूकना तक मना रहा है। ‘जूते पहन कर आना मना है’, ‘थूकना मना है’ जैसे बोर्ड नहीं ठोंके जाते थे पर सभी लोग बस स्तंभ देखकर इन बातों का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। आगर के पानी की साफ-सफाई और शु(ता बनाए रखने का काम भी पहले दिन से ही शुरू हो जाता था। नए बने तालाब में जिस दिन पानी भरता, उस दिन समारोह के साथ उसमें जीव-जंतु लाकर छोड़े जाते थे। कहीं-कहीं जीवित प्राणियों के साथ सामथ्र्य के अनुसार चांदी या सोने तक के जीव-जन्तु विसर्जित किए जाते थे। छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में अभी कोई पचास-पचपन बरस पहले तक तालाब में सोने की नथ पहनाकर कछुए छोड़े गए थे।
पहले वर्ष में कुछ विशेष प्रकार की वनस्पति भी डाली जाती थी। अलग-अलग क्षेत्रा में इनका प्रकार बदलता था पर काम एक ही था- पानी को साफ रखना। मध्य प्रदेश में यह गदिया या चीला थी तो राजस्थान में कुमुदिनी, निर्मली या चाक्षुष। चाक्षुष से ही चाकसू शब्द बना है। कोई एक ऐसा दौर आया होगा कि तालाब के पानी की साफ-सफाई के लिए चाकसू पौधे का चलन खूब बढ़ गया होगा। आज के जयपुर के पास एक बड़े कस्बे का नाम चाकसू है। यह नामकरण शायद चाकसू पौधे के प्रति कृतज्ञता जताने के लिए किया गया हो। पाल पर पीपल, बरगद और गूलर के पेड़ लगाए जाते रहे हैं।
तालाब और इन पेड़ों के बीच उम्र को लेकर हमेशा होड़-सी दिखती थी। कौन ज्यादा टिकता है-पेड़ या तालाब? लेकिन यह प्रश्न प्रायः अनुत्तरित ही रहा है। दोनों को एक-दूसरे का लंबा संग इतना भाया है कि उपेक्षा के इस ताजे दौर में जो भी पहले गया, दूसरा शोक में उसके पीछे-पीछे चला गया है। पेड़ कटे हैं तो तालाब भी कुछ समय में सूखकर पट गया है और यदि पहले तालाब नष्ट हुआ है तो पेड़ भी बहुत दिन नहीं टिक पाए हैं। तालाबों पर आम भी खूब लगाया जाता रहा है, पर यह पाल पर कम, पाल के नीचे की जमीन में ज्यादा मिलता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्रा में बहुत से तालाबों में शीतला माता का वास माना गया है और इसलिए ऐसे तालबों की पाल पर नीम के पेड़ जरूर लगाए जाते रहे हैं। बिना पेड़ की पाल की तुलना बिना मूर्ति के मंदिर से भी की गई है। बिहार और उत्तर प्रदेश के अनेक भागों में पाल पर अरहर के पेड़ भी लगाए जाते थे। इन्हीं इलाकों में नए बने तालाब की पाल पर कुछ समय तक सरसों की खली का धुआं किया जाता था ताकि नई पाल में चूहे आदि बिल बनाकर उसे कमजोर न कर दें। ये सब काम ऐसे हैं, जो तालाब बनने पर एक बार करने पड़ते हैं, या बहुत जरूरी हो गया तो एकाध बार और। लेकिन तालाब में हर वर्ष मिट्टी जमा होती है। इसलिए उसे हर वर्ष निकालते रहने का प्रबंध सुंदर नियमों में बांध कर रखा गया था। कहीं साद निकालने के कठिन श्रम को एक उत्सव, त्यौहार में बदल कर आनंद का अवसर बनाया गया था तो कहीं उसके लिए इतनी ठीक व्यवस्था कर दी गई कि जिस तरह वह चुपचाप तालाब के तल में आकर बैठती थी, उसी तरह चुपचाप उसे बाहर निकाल कर पाल पर जमा दिया जाता था। साद निकालने का समय अलग-अलग क्षेत्रों में मौसम को देखकर तय किया जाता रहा है। उस समय तालाब में पानी सबसे कम रहना चाहिए। गोवा और पश्चिम घाट के तटवर्ती क्षेत्रों में यह काम दीपावली के तुरंत बाद किया जाता है। उत्तर के बहुत बड़े भाग में नव वर्ष यानी चैत्रा से ठीक पहले, तो छत्तीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल, बिहार और दक्षिण में बरसात आने से पहले खेत तैयार करते समय। आज तालाबों से कट गया समाज, उसे चलाने वाला प्रशासन तालाब की सफाई और साद निकालने का काम एक समस्या की तरह देखता है और वह इस समस्या को हल करने के बदले तरह-तरह के बहाने खोजता है। उसके नए हिसाब से यह काम खर्चीला है। कई कलेक्टरों ने समय-समय पर अपने क्षेत्रा में तालाबों से मिट्टी नहीं निकाल पाने का एक बड़ा कारण यही बताया है कि इसका खर्च इतना ज्यादा है कि उससे तो नया तालाब बनाना सस्ता पड़ेगा। पुराने तालाब साफ नहीं करवाए गए और नए तो कभी बने ही नहीं। साद तालाबों में नही, नए समाज के माथे में भर गई है। तब समाज का माथा साफ था। उसने साद को समस्या की तरह नहीं बल्कि तालाब के प्रसाद की तरह ग्रहण किया था। प्रसाद को ग्रहण करने के पात्रा थे किसान, कुम्हार और गृहस्थ। इस प्रसाद को लेने वाले किसान प्रति गाड़ी के हिसाब से मिट्टी काटते, अपनी गाड़ी भरते और इसे खेतों में पफैला कर उनका उपजाउफपन बनाए रखते। इस प्रसाद के बदले वे प्रति गाड़ी के हिसाब से कुछ नकद या पफसल का कुछ अंश ग्राम कोष में जमा करते थे। पिफर इस राशि से तालाबों की मरम्मत का काम होता था।
आज भी छत्तीसगढ़ में लद्दी निकालने का काम मुख्यतः किसान परिवार ही करते हैं। दूर-दूर तक साबुन पहुंच जाने के बाद भी कई घरों में लद्दी से सिर धोने और नहाने का चलन जारी है। बिहार में यह काम उड़ाही कहलाता है। उड़ाही समाज की सेवा है, श्रमदान है। गांव के हर घर से काम कर सकने वाले तालाब पर एकत्रा होते थे। हर घर दो से पांच मन मिट्टी निकालता था। काम के समय वही गुड़ का पानी बंटता था। पंचायत में एकत्रा हर्जाने की रकम का एक भाग उड़ा ही के संयोजन में खर्च होता था। दक्षिण में धर्मादा प्रथा थी। कहीं-कहीं इस काम के लिए गांव की भूमि का एक हिस्सा दान कर दिया जाता था और उसकी आमदनी सिपर्फ साद निकालने के लिए खर्च की जाती थी। ऐसी भूमि को कोडगे कहा जाता था। राज ओर समाज मिलकर कमर कस लें तो पिफर किसी काम में ढील कैसे आएगी। दक्षिण में तालाबों के रख-रखाव के मामले में राज और समाज का यह तालमेल खूब व्यवस्थित था। राज के खजाने से इस काम के लिए अनुदान मिलता था पर उसी के साथ हर गांव में इस काम के लिए एक अलग खजाना बन जाए, ऐसा भी इंतजाम था। हर गांव में कुछ भूमि, कुछ खेत या खेत का कुछ भाग तालाब की व्यवस्था के लिए अलग रख दिया जाता था। इस पर लगान नहीं लगता था। ऐसी भूमि मान्यम् कहलाती थी। मान्यम् से होने वाली बचत, आय या मिलने वाली पफसल तालाब से जुड़े तरह-तरह के कामों को करने वाले लोगों को दी जाती थी। जितनी तरह के काम, उतनी तरह के मान्यम्। जो काम जहां होना है, वहीं उसका प्रबंध किया जाता था, वहीं उसका खर्च जुटा लिया जाता था। अलौति मान्यम् से श्रमिकों के पारिश्रमिक की व्यवस्था की जाती थी। अणैंकरण मान्यम् पूरे वर्ष भर तालाब की देखरेख करने वालों के लिए था। इसी से उन परिवारों की जीविका भी चलती थी, जो तालाब की पाल पर पशुओं को जाने से रोकते थे। पाल की तरह तालाब के आगौर में भी पशुओं के आने-जाने पर रोक थी। इस काम में भी लोग साल भर लगे रहते थे। उनकी व्यवस्था बंदेला मान्यम् से की जाती थी।
तालाब से जुड़े खेतों में पफसल बुवाई से कटाई तक पशुओं को रोकना एक निश्चित अवधि तक चलने वाला काम था। यह भी बंदेला मान्यम् से पूरा होता था। इसे करने वाले पट्टी कहलाते थे। सिंचाई के समय नहर का डाट खोलना, समय पर पानी पहुंचाना एक अलग जिम्मेदारी थी। इस सेवा को नीरमुनक्क मान्यम् से पूरा किया जाता था। कहीं किसान पानी की बर्बादी तो नहीं कर रहे- इसे देखने वालों का वेतन कुलमकवल मान्यम् से मिलता था। तालाब में कितना पानी आया है, कितने ख्ेातों में क्या-क्या बोया गया है, किसे कितना पानी चाहिए- जैसे प्रश्न नीरघंटी या नीरुकुट्टी हल करते थे। यह पद दक्षिण में सिपर्फ हरिजन परिवार को मिलता था। तालाब का जल स्तर देखकर खेतों में उसके न्यायोचित बंटवारे के बारीक हिसाब-किताब की विलक्षण क्षमता नीरुकुट्टी को विरासत में मिलती थी। आज के कुछ नए समाजशास्त्रिायों का कहना है कि हरिजन परिवार को यह पद स्वार्थवश दिया जाता था। इन परिवारों के पास भूमि नहीं होती थी इसलिए भूमिवानों के खेतों में पानी के किसी भी विवाद में वे निष्पक्ष होकर काम कर सकते थे। यदि सिपर्फ भूमिहीन होना ही योग्यता का आधार था तो पिफर भूमिहीन ब्राह्मण तो सदा मिलते रह सकते थे। लेकिन इस बात को यहीं छोड़ें और पिफर लौटें मान्यम् पर। कई तालाबों का पानी सिंचाई के अलावा पीने के काम भी आता था। ऐसे तालाबों से घरों तक पानी लेकर आने वाले कहारों के लिए उरणी मान्यम् से वेतन जुटाया जाता था। उप्पार और वादी मान्यम् से तालाबों की साधारण टूट-पूफट ठीक की जाती थी। वायक्कल मान्यम् तालाब के अलावा उनसे निकली नहरों की देखभाल में खर्च होता था। पाल से लेकर नहरों तक पर पेड़ लगाए जाते थे और पूरे वर्ष भर उनकी सार-संभाल, कटाई, छंटाई आदि का काम चलता रहता था। यह सारी जिम्मेदारी मानल मान्यम् से पूरी की जाती थी।
खुलगा मान्यम् और पाटुल मान्यम् मरम्मत के अलावा क्षेत्रा में बनने वाले नए तालाबों की खुदाई में होने वाले खर्च संभालते थे। एक तालाब से जुड़े इतने तरह के काम, इतनी सेवाएं वर्ष भर ठीक से चलती रहें- यह देखना भी एक काम था। किस काम में कितने लोगों को लगाना है, कहां से कुछ को घटना है- यह सारा संयोजन करैमान्यम् से पूरा किया जाता था। इसे कुलम वेट्टु या कण्मोई वेट्टु भी कहते थे। दक्षिण का यह छोटा साधारण-सा वर्णन तालाब और उससे जुड़ी पूरी व्यवस्था की थाह नहीं ले सकता। यह तो अथाह है। ऐसी ही या इससे मिलती-जुलती व्यवस्थाएं सभी हिस्सों में, उत्तर में, पूरब-पश्चिम में भी रही ही होंगी। पर कुछ काम तो गुलामी के उस दौर में टूटे और पिफर विचित्रा आजाद के इस दौर में पूफटे समाज में यह सब बिखर गया। लेकिन गैंगजी कला जैसे लोग इस टूटे-पूफटे समाज में बिखर गई व्यवस्था को अपने ढंग से ठीक करने आते रहे हैं। नाम तो था गंगाजी पर पिफर न जाने कैसे वह गैंगजी हो गया। उनका नाम स्नेह, आत्मीयता के कारण बिगड़ा या घिसा होगा लेकिन उनके शहर को कुछ सौ साल से घेर कर खड़े आठ भव्य तालाब ठीक व्यवस्था के टूटे जाने के बाद धीरे-धीरे आ रही उपेक्षा के कारण घिसने, बिगड़ने लगे थे। अलग-अलग पीढ़ियों ने इन्हें अलग-अलग समय में बनाया था, पर आठ में से छह एक श्रृंखला में बांधे गए थे। इनका रख-रखाव भी उन पीढ़ियों ने श्रृंखला में बंध कर ही किया होगा। सार-संभाल की वह व्यवस्थित कड़ी पिफर कभी टूट गई। इस कड़ी के टूटने की आवाज गैंगजी के कान में कब पड़ी, पता नहीं। पर आज जो बड़े-बूढ़े पफलौदी शहर में हैं, वे गैंगजी की एक ही छवि याद रखे हैं: टूटी चप्पल पहने गैंगजी सुबह से शाम तक इन तालाबों का चक्कर लगाते थे। नहाने वाले घाटों पर, पानी लेने वाले घाटों पर कोई गंदगी पफैलाता दिखे तो उसे पिता जैसी डांट पिलाते थे। कभी वे पाल का तो कभी नेष्टा का निरीक्षण करते। कहां किस तालाब में कैसी मरम्मत चाहिए - इसकी मन ही मन सूची बनाते। इन तालाबों पर आने वाले बच्चों के साथ खुद खेलते और उन्हें तरह-तरह के खेल खिलाते। शहर को तीन तरपफ से घेरे खड़े तालाबों का एक चक्कर लगाने में कोई 3 घंटे लगते हैं। गैंगजी कभी पहले तालाब पर दिखते तो कभी आखिरी पर, कभी सुबह यहां मिलते तो दोपहर वहां और शाम न जाने
कहां। गैंगजी अपने आप तालाबों के रखवाले बन गए थे। वर्ष के अंत में एक समय ऐसा आता जब गैंगजी तालाबों के बदले शहर की गली-गली घूमते दिखते। साथ चलती बच्चों की फौज। हर घर का दरवाजा खुलने पर उन्हें बिना मांगे एक रुपया मिल जाता। बरसों से हरेक घर जानता था कि गैंगजी सिपर्फ एक रुपया मांगते हैं, न कम न ज्यादा। रुपये बटोरने का काम पूरा होते ही वे पूरे शहर के बच्चों को बटोरते। बच्चों के साथ ढेर सारी टोकरियां, तगाड़ियां, फावड़े, कुदाल भी जमा हो जाते। पिफर एक के बाद एक तालाब साफ होने लगता। साद निकाल कर पाल पर जमाई जाती। हरेक तालाब के नेष्टा का कचरा भी इसी तरह साफ किया जाता। एक तगाड़ी मिट्टी-कचरे के बदले हर बच्चे को दुअन्नी इनाम में मिलती। गैंगजी कल्ला कब से यह कर रहे थे- आज किसी को याद नहीं। बस इतना पता है कि यह काम सन् 55-56 तक चलता रहा। पिफर गैंगजी चले गए। शहर को वैसी किसी मृत्यु की याद नहीं। पूरा शहर शामिल था उनकी अंतिम यात्रा में। एक तालाब के नीचे ही बने घाट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ। बाद में वहीं उनकी समाधि बनाई गई। जो तालाब बनाते थे, समाज उन्हें संत बना देता था। गैंगजी ने तालाब तो नहीं बनाया था। पहले बने तालाबों की रखवाली की थी। वे भी संत बन गए थे। पफलौदी में तालाबों की सफाई का खेल संत खिलवाता था तो जैसलमेर में यह खेल खुद राजा खेलता था। सभी को पहले से पता रहता था पिफर भी नगर-भर में डिंडोरा पिटता था। राजा की तरपफ से, वर्ष के अंतिम दिन, फाल्गुन कृष्ण चैदस को नगर के सबसे बड़े तालाब घड़सीसर पर ल्हास खेलने का बुलावा है। उस दिन राजा, उनका पूरा परिवार, दरबार, सेना और पूरी प्रजा कुदाल, फावड़े, तगाड़ियां लेकर घड़सीसर पर जमा होती। राजा तालाब की मिट्टी काट कर पहली तगाड़ी भरता और उसे खुद उठाकर पाल पर डालता। बस गाजे-बाजे के साथ ल्हास शुरु। पूरी प्रजा का खाना-पीना दरबार की तरपफ से होता। राजा और प्रजा सबके हाथ मिट्टी में सन जाते। राजा इतने तन्मय हो जाते कि उस दिन उनके कंधे से किसी का भी कंधा टकरा सकता था। जो दरबार में भी सुलभ नहीं, आज वही तालाब के दरवाजे पर, मिट्टी ढोर रहा है। राजा की सुरक्षा की व्यवस्था करने वाले, उनके अंगरक्षक भी मिट्टी काट रहे हैं, मिट्टी डाल रहे हैं। ऐसे ही एक ल्हास में जैसलमेर के राजा तेजसिंह पर हमला हुआ था। वे पाल पर ही मारे गए थे। लेकिन ल्हास खेलना बंद नहीं हुआ। यह चलता रहा, पफैलता रहा। मध्य प्रदेश के भील समाज में भी ल्हास खेला जाता है, गुजरात में भी ल्हास चलती है। वहां यह परंपरा तालाब से आगे बढ़ कर समाज के ऐसे किसी भी काम से जुड़ गई थी, जिसमें सबकी मदद चाहिए। सबके लिए सबकी मदद। इसी परंपरा से तालाब बनते थे, इसी से उनकी देखभाल होती थी। मिट्टी कटती थी, मिट्टी डलती थी समाज का खेल ल्हास के उल्हास से चलता था।
अनुपम मिश्र
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पर्यावरण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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इस उत्तम लेख के लिये धन्यवाद और टिप्पणी मे एक कविता ...
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