बुधवार, 30 जून 2010

एक तो महँगाई, उस पर भटका मानसून!


डॉ. महेश परिमल
एक बार फिर मानसून भटक गया। समय से निकला था, कई राज्यों पर दस्तक दी, अपनी आमद बताई। कई लोगों को भिगोया, अखबारों में तस्वीर छपवाई, आकाश की ओर तकते किसानों के चेहरे पर राहत दिखाई देने वाली तस्वीरों का भी खूब आनंद लिया। सभी ने उसके स्वागत की तैयारी कर ली। पर न जाने वह कहाँ भटक गया। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। मानसून हर साल भटकता है। मौसम विभाग उसकी खोज तो करता है, पर उसकी भविष्यवाणियों पर बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं। महँगाई की मार से पिस रही जनता को मानसून ही राहत दे सकता था, पर वह भी दगाबाज हो गया। अब किससे अपनी पीड़ा बताएँ, सामने चुनाव नहीं हैं। नेता भी अपना वेतन बढ़ाने के लिए कमर कसे हुए हैं। उन्हें भी फुरसत नहीं है। उन्हें अपना मुद्दा ही महत्वपूर्ण लग रहा है।
मौसम विभाग ने पहले से मानसून के समय से पूर्व आने की घोषणा की थी। यह भी कहा था कि इस बार मानसून खूब बरसेगा। लोगों ने बाढ़ से बचने के संसाधन इकट्ठे कर लिए। किसान भी बीज लेकर खेतों को तैयार करने लगा। साहूकार भी खुश था कि इस बार कई लोग अपना कर्ज वापस कर देंगे, व्यापारी को आशा थी कि इस बार झमाझम मानसून उन्हंे लाभ देगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मानसून भटक गया, इसके साथ ही उन गरीबों के मुँह से निवाला ही छिन गया। क्या हो गया मानसून को, कहाँ चला गया। हर बार तो वह रुठ ही जाता है, बड़ी मुश्किल से मनाया जाता है। फिर भी बारिश की बूंदों से सरोबार करना नहीं भूलता।
मानसून ने अपने आने का अहसास तो खूब कराया। पर बदरा न बरसे, तो फिर किस काम के? उन्हें तो बरसना ही चाहिए। न बरसें, उनकी मर्जी! वह तो बीच में ‘लैला’ का आगमन हो गया था, इसलिए हमारा मानसून भी उसी में खो गया। अब भला कहाँ ढूँढें उसे, कहाँ मिलेगा कहा नहीं जा सकता। आखिर उसकी भी तो उम्र है भटकने की। हम ही हैं, जो उसे मनाने की कोशिश भी नहीं करते।

मानसून को खूब आता है भटकना। हर कोई उसे कोस रहा है, आखिर वह क्यों भटका? कभी उसका दर्द समझने की किसी ने थोड़ी सी भी कोशिश नहीं की। हम उसे गर्मी से निजात दिलाने वाला देवता मानते हैं। वह गर्मी भगाता है, यह सच है, पर गर्मी उसे भी पसंद नहीं है। यह किसी ने समझा। हमारा शरीर जब गर्म होने लगता है, तब हम समझ जाते हैं कि हमें बुखार है। इसकी दवा लेनी चाहिए और कुछ परहेज करना चाहिए। हर बार धरती गर्म होती है, उसे भी बुखार आता है, हम उसका बुखार दूर करने की कोई कोशिश नहीं करते। अब उसका बुखार तप रहा है। पूरा शरीर ही धधक रहा है, हम उसे ठंडा नहीं कर पा रहे हैं। धधकती धरती से दूर भाग रहा है मानसून। वह कैसे रह पाएगा हमारे बीच। हम ही तो रोज धरती का नुकसान करने बैठे हैं। रोज ही कोई न कोई हरकत हमारी ऐसी होती ही है, जिससे धरती को नुकसान पहुँचता है। यह तो हमारी माँ है, भला माँ से कोई ऐसा र्दुव्‍यवहार करता है? लेकिन हम कपूत बनकर रोज ही उस पर अत्याचार कर रहे हैं। उसकी छाती पर आज असंख्य छेद हमने ही कर रखे हैं। उसके भीतर का पूरा पानी ही सोख लिया है हमने। हमारे चेहरे का पानी नहीं उतरा। हमें जरा भी शर्म नहीं आई। खींचते रहे.. खींचते रहे उसके शरीर का पानी। इतना पानी लेने के बाद भी हम पानी-पानी नहीं हुए।
धरती माँ को पेड़ों-पौधों से प्यार है। हमने उसे काटकर वहाँ कांक्रीट का जंगल बसा लिया। उसे हरियाली पसंद है, हमने हरियाली ही नष्ट कर दी। उसे भोले-भाले बच्चे पसंद हैं, हमने उन बच्चों की मासूमियत छिन ली। उन्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। धरती माँ को बड़े-बुजुर्ग पसंद हैं, ताकि उनके अनुभवों का लाभ लेकर आज की पीढ़ी कुछ सीख सके। हमने उन बुजुर्गो को वृद्धाश्रमों की राह दिखा दी। नहीं पसंद है हमें उनकी कच-कच। हम तो हमारे बच्चों के साथ ही भले। इस समय वे यह भूल जाते हैं कि कल यदि उनके बच्चे भी उनसे यही कहने लगे कि नहीं चाहिए, हमें आपकी कच-कच। आप जाइए वृद्धाश्रम, जहाँ दादाजी को भेजा था। तब क्या हालत होगी उनकी, किसी ने सोचा है भला!
आज हमारा कोई काम ऐसा नहीं है, जिससे धरती का तापमान कम हो सके। कोई सूरत बचा कर नहीं रखी है हमने। तब भला मानसून कैसे भटक नहीं सकता? आखिर उसे भी तो धरती से प्यार है। जो धरती से प्यार करते हैं, वे वही काम करते हैं, जो उसे पसंद है। हमने एक पौधा तक नहीं रोपा और आशा करते हैं ठंडी छाँव की। हमने किसी पौधे को संरक्षण नहीं दिया और आशा करते हैं कि हमें कोई संरक्षण देगा। इस पर भी धरती हमें श्राप नहीं दे रही है, वह हमें बार-बार सावधान कर रही है कि सँभलने का समय तो निकल गया है, अब कुछ तो बचा लो। नहीं तो कुछ भी नहीं बचेगा। सब खत्म हो जाएगा। रोने के लिए हमारे पास आँसू तक नहीं होंगे। आँसू के लिए संवेदना का होना आवश्यक है, हम तो संवेदनाशून्य हैं।
मानसून नहीं, बल्कि आज मानव ही भटक गया है। मानसून फिर देर से ही सही आएगा ही, धरती को सराबोर कर देगा। पर यह जो मानव है, वह कभी भी अपने सही रास्ते पर अब नहीं आ सकता। इतना पापी हो गया है कि धरती भी उसे स्वीकार नहीं कर पा रही है। हमारे पूर्वजों का जो पराक्रम रहा, उसके बल पर हमने जीना सीखा, हमिने हरे-भरे पेड़ पाए, झरने, नदियाँ, झील आदि प्रकृति के रूप में प्राप्त किया।आज हम भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं, कांक्रीट के जंगल, हरियाली से बहुत दूर उजाड़ स्थान। देखा जाए, तो मानसून ही महँगाई का बड़ा स्वरूप है। ये भटककर महँगाई को और अधिक बढ़ाएगा। इसलिए हमें और भी अधिक महँगाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इसलिए मानसून को मनाओ, महँगाई दूर भगाओ। मानसून तभी मानेगा, जब धरती का तापमान कम होगा। धरती का तापमान कम होगा, पेड़ो से पौधों से, हरियाली से और अच्छे इंसानों से। यदि आज धरती से ये सब देने का वादा करते हो, तो तैयार हो जाओ, एक खिलखिलाते मानसून का, हरियाली की चादर ओढ़े धरती का, साथ ही अच्छे इंसानों का स्वागत करने के लिए।
डॉ. महेश परिमल

एक तो महँगाई, उस पर भटका मानसून!


डॉ. महेश परिमल
एक बार फिर मानसून भटक गया। समय से निकला था, कई राज्यों पर दस्तक दी, अपनी आमद बताई। कई लोगों को भिगोया, अखबारों में तस्वीर छपवाई, आकाश की ओर तकते किसानों के चेहरे पर राहत दिखाई देने वाली तस्वीरों का भी खूब आनंद लिया। सभी ने उसके स्वागत की तैयारी कर ली। पर न जाने वह कहाँ भटक गया। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। मानसून हर साल भटकता है। मौसम विभाग उसकी खोज तो करता है, पर उसकी भविष्यवाणियों पर बहुत कम लोग विश्वास कर पाते हैं। महँगाई की मार से पिस रही जनता को मानसून ही राहत दे सकता था, पर वह भी दगाबाज हो गया। अब किससे अपनी पीड़ा बताएँ, सामने चुनाव नहीं हैं। नेता भी अपना वेतन बढ़ाने के लिए कमर कसे हुए हैं। उन्हें भी फुरसत नहीं है। उन्हें अपना मुद्दा ही महत्वपूर्ण लग रहा है।
मौसम विभाग ने पहले से मानसून के समय से पूर्व आने की घोषणा की थी। यह भी कहा था कि इस बार मानसून खूब बरसेगा। लोगों ने बाढ़ से बचने के संसाधन इकट्ठे कर लिए। किसान भी बीज लेकर खेतों को तैयार करने लगा। साहूकार भी खुश था कि इस बार कई लोग अपना कर्ज वापस कर देंगे, व्यापारी को आशा थी कि इस बार झमाझम मानसून उन्हंे लाभ देगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मानसून भटक गया, इसके साथ ही उन गरीबों के मुँह से निवाला ही छिन गया। क्या हो गया मानसून को, कहाँ चला गया। हर बार तो वह रुठ ही जाता है, बड़ी मुश्किल से मनाया जाता है। फिर भी बारिश की बूंदों से सरोबार करना नहीं भूलता।
मानसून ने अपने आने का अहसास तो खूब कराया। पर बदरा न बरसे, तो फिर किस काम के? उन्हें तो बरसना ही चाहिए। न बरसें, उनकी मर्जी! वह तो बीच में ‘लैला’ का आगमन हो गया था, इसलिए हमारा मानसून भी उसी में खो गया। अब भला कहाँ ढूँढें उसे, कहाँ मिलेगा कहा नहीं जा सकता। आखिर उसकी भी तो उम्र है भटकने की। हम ही हैं, जो उसे मनाने की कोशिश भी नहीं करते।
मानसून को खूब आता है भटकना। हर कोई उसे कोस रहा है, आखिर वह क्यों भटका? कभी उसका दर्द समझने की किसी ने थोड़ी सी भी कोशिश नहीं की। हम उसे गर्मी से निजात दिलाने वाला देवता मानते हैं। वह गर्मी भगाता है, यह सच है, पर गर्मी उसे भी पसंद नहीं है। यह किसी ने समझा। हमारा शरीर जब गर्म होने लगता है, तब हम समझ जाते हैं कि हमें बुखार है। इसकी दवा लेनी चाहिए और कुछ परहेज करना चाहिए। हर बार धरती गर्म होती है, उसे भी बुखार आता है, हम उसका बुखार दूर करने की कोई कोशिश नहीं करते। अब उसका बुखार तप रहा है। पूरा शरीर ही धधक रहा है, हम उसे ठंडा नहीं कर पा रहे हैं। धधकती धरती से दूर भाग रहा है मानसून। वह कैसे रह पाएगा हमारे बीच। हम ही तो रोज धरती का नुकसान करने बैठे हैं। रोज ही कोई न कोई हरकत हमारी ऐसी होती ही है, जिससे धरती को नुकसान पहुँचता है। यह तो हमारी माँ है, भला माँ से कोई ऐसा र्दुव्‍यवहार करता है? लेकिन हम कपूत बनकर रोज ही उस पर अत्याचार कर रहे हैं। उसकी छाती पर आज असंख्य छेद हमने ही कर रखे हैं। उसके भीतर का पूरा पानी ही सोख लिया है हमने। हमारे चेहरे का पानी नहीं उतरा। हमें जरा भी शर्म नहीं आई। खींचते रहे.. खींचते रहे उसके शरीर का पानी। इतना पानी लेने के बाद भी हम पानी-पानी नहीं हुए।
धरती माँ को पेड़ों-पौधों से प्यार है। हमने उसे काटकर वहाँ कांक्रीट का जंगल बसा लिया। उसे हरियाली पसंद है, हमने हरियाली ही नष्ट कर दी। उसे भोले-भाले बच्चे पसंद हैं, हमने उन बच्चों की मासूमियत छिन ली। उन्हें समय से पहले ही बड़ा बना दिया। धरती माँ को बड़े-बुजुर्ग पसंद हैं, ताकि उनके अनुभवों का लाभ लेकर आज की पीढ़ी कुछ सीख सके। हमने उन बुजुर्गो को वृद्धाश्रमों की राह दिखा दी। नहीं पसंद है हमें उनकी कच-कच। हम तो हमारे बच्चों के साथ ही भले। इस समय वे यह भूल जाते हैं कि कल यदि उनके बच्चे भी उनसे यही कहने लगे कि नहीं चाहिए, हमें आपकी कच-कच। आप जाइए वृद्धाश्रम, जहाँ दादाजी को भेजा था। तब क्या हालत होगी उनकी, किसी ने सोचा है भला!
आज हमारा कोई काम ऐसा नहीं है, जिससे धरती का तापमान कम हो सके। कोई सूरत बचा कर नहीं रखी है हमने। तब भला मानसून कैसे भटक नहीं सकता? आखिर उसे भी तो धरती से प्यार है। जो धरती से प्यार करते हैं, वे वही काम करते हैं, जो उसे पसंद है। हमने एक पौधा तक नहीं रोपा और आशा करते हैं ठंडी छाँव की। हमने किसी पौधे को संरक्षण नहीं दिया और आशा करते हैं कि हमें कोई संरक्षण देगा। इस पर भी धरती हमें श्राप नहीं दे रही है, वह हमें बार-बार सावधान कर रही है कि सँभलने का समय तो निकल गया है, अब कुछ तो बचा लो। नहीं तो कुछ भी नहीं बचेगा। सब खत्म हो जाएगा। रोने के लिए हमारे पास आँसू तक नहीं होंगे। आँसू के लिए संवेदना का होना आवश्यक है, हम तो संवेदनाशून्य हैं।
मानसून नहीं, बल्कि आज मानव ही भटक गया है। मानसून फिर देर से ही सही आएगा ही, धरती को सराबोर कर देगा। पर यह जो मानव है, वह कभी भी अपने सही रास्ते पर अब नहीं आ सकता। इतना पापी हो गया है कि धरती भी उसे स्वीकार नहीं कर पा रही है। हमारे पूर्वजों का जो पराक्रम रहा, उसके बल पर हमने जीना सीखा, हमिने हरे-भरे पेड़ पाए, झरने, नदियाँ, झील आदि प्रकृति के रूप में प्राप्त किया।आज हम भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं, कांक्रीट के जंगल, हरियाली से बहुत दूर उजाड़ स्थान। देखा जाए, तो मानसून ही महँगाई का बड़ा स्वरूप है। ये भटककर महँगाई को और अधिक बढ़ाएगा। इसलिए हमें और भी अधिक महँगाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इसलिए मानसून को मनाओ, महँगाई दूर भगाओ। मानसून तभी मानेगा, जब धरती का तापमान कम होगा। धरती का तापमान कम होगा, पेड़ो से पौधों से, हरियाली से और अच्छे इंसानों से। यदि आज धरती से ये सब देने का वादा करते हो, तो तैयार हो जाओ, एक खिलखिलाते मानसून का, हरियाली की चादर ओढ़े धरती का, साथ ही अच्छे इंसानों का स्वागत करने के लिए।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 28 जून 2010

संसद में एक तैयारी गुपचुप!

डॉ. महेश परिमल
शीर्षक आपको निश्चित रूप से चौंका सकता है। भला ऐसी कौन-सी तैयारी है, जो गुपचुप चल रही है। संसद की कार्रवाई का सीधा प्रसारण भी होता है। इसमें गुपचुप तो कुछ भी नहीं हो सकता। बिलकुल सही सोच रहे हैं, आप सब। जिस संसद का नजारा हमें शर्मसार कर देता हो। उसी संसद में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जब सब एक हो जाते हैं। सभी का सुर एक हो जाता है। कोई किसी का विरोध नहीं करता। संसद की गरिमा को तार-तार करने वाले हमारे सारे प्रतिनिधि भले ही आपस में जूतम-पैजार के लिए तत्पर हों, पर एक मुद्दा ऐसा भी होता है, जिसका आज तक किसी सांसद ने विरोध नहीं किया। भले ही वह किसी भी दल का हो। ये वही संसद है, जहाँ का नजारा देखकर हमें कभी-कभी कोफ्त होती है। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते। आखिर हमीं ने तो उन्हें भेजा है, अपना प्रतिनिधि बनाकर। हमारे ये प्रतिनिधि संसद में कितना भी लड़ लें, पर एक क्षण ऐसा भी आता है, जब विरोध की कोई गुंजाइश नहीं होती। उग्र तेवर भी यहाँ किसी काम का नहीं।
हमारे देश में केवल किसको यह अधिकार है कि वह अपना वेतन बढ़वा सके। कोई चाहकर भी अपना वेतन नहीं बढ़ा सकता, क्योंकि वह उसके हाथ में नहीं है। पर हमारे देश के सांसदों को ही यह अधिकार है कि वे अपना वेतन बढ़ा सकते हैं। संसद में इन दिनों उसी की तैयारी चल रही है। जी हाँ हमारे प्रतिनिधि बिना आरोप-प्रत्यारोप के अपना वेतन बढ़ाने जा रहे हैं। संसद में यह काम बहुत ही गुपचुच तरीके से हो भी जाएगा। हमें पता ही नहीं चलेगा। एक बार हम सब फिर छले जाएँगे। सारे भेदभाव भूलकर हमारे सांसद अपना वेतन बढ़वा लेंगे। हमारे संविधान में यह व्यवस्था नहीं है कि इनसे पूछा जाए कि आखिर किस अधिकार के तहत इन्होंने अपना वेतन बढ़वा लिया? अभी हालत यह है कि एक सांसद हर वर्ष 32 लाख रुपए प्राप्त करता है। यदि उन्हें दिए जाने वाले धन की गिनती की जाए, तो एक सांसद पाँच वर्ष में साढ़े आठ सौ करोड़ रुपए प्राप्त करता है। सांसदों की माँग है कि उन्हें सरकार के सचिव से एक रुपए अधिक वेतन मिले।
अभी सांसदों का वेतन 12 हजार रुपए प्रतिमाह है। बाकी सारी राशि उन्हें भत्ते के रूप में प्राप्त होती है। सांसद चाहते हैं कि 80 हजार रुपए कर दिया जाए। अभी जो उन्हें एक हजार रुपए दैनिक भत्ता मिल रहा है, उसे बढ़ाकर दो हजार रुपए कर दिया जाए। जिस देश में एक आम आदमी की न्यूनतम आय 2800 रुपए प्रतिमाह है, गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले करीब 77 प्रतिशत लोगों की आय 600 रुपए से भी कम है। ऐसे गरीब देश के ये सेवाभावी सांसद लाखों रुपए वेतन और भत्ते के रूप में प्राप्त कर रहे हैं। इन्हें गरीबी कभी आड़े नहीं आती। कुछ दिनों पहले ही इग्लैंड की महारानी ने अपने वेतन और भत्ते में बढ़ोत्तरी की माँग की थी। इसका विरोध भी होने लगा है। वहाँ के लोगों का मानना है कि महारानी की परवरिश सफेद हाथी को पालने जैसी है। संभव है वहाँ एक प्रस्ताव के माध्यम से महारानी को किसी प्रकार की अतिरिक्त सहायता देने पर रोक लग जाए। पर हमारे देश में ऐसा कभी संभव नहीं है। मुँह से केवल एक ही वाक्य निकलता है मेरा भारत महान्!
एक रुपए में दो कप चाय या कॉफी, मसाला दोसा दो रुपए में, एक रुपए में मिल्क शेक, शाकाहारी भोजन मात्र 11 रुपए में और शाही मांसाहारी भोजन मात्र 36 रुपए में। आप सोच रहे होंगे, ये किस जमाने की बात हो रही है। पर सच मानो यह आज की बात है, हमारे सांसदों को यह सुविधा हमारी सरकार दे रही है। संसद में उनके लिए इतना सस्ता भोजन भी उन्हें वहाँ जाने के लिए विवश नहीं करता। एक गरीब देश के सांसद होने के क्या-क्या सुख हैं, ये शायद आम आदमी नहीं जानता। लेकिन यह सच है कि जनता के इस प्रतिनिधि को वे सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं, जिसके लिए एक आम आदमी जीवन भर संघर्ष करता रहता है, लेकिन उस स्तर तक नहीं पहुँच पाता। हमारे सांसद इसे आसानी से सेवा भाव के नाम पर प्राप्त कर लेते हैं।
आज से चालीस साल पहले तक सांसद होना यानी सेवा भाव का दूसरा नाम था। पर आज ये एक फायदे का सौदा हो गया है। एक सांसद अपने जीवन में ही इतना कमा लेता है कि उसके परिवार के किसी भी सदस्य को काम की आवश्यकता नहीं पड़ती। सेवा के नाम पर होने वाले इस धंधे ने भारतीय अर्थव्यवस्था की चूलें हिलाकर रख दी हैं, पर हमारे सांसद दिनों-दिन करोड़पति होते जा रहे हैं और आम आदमी को रोटी जुटाने के लाले पड़ रहे हैं.
वत्र्तमान में सांसद होना एक बहुत बड़ा फायदे का सौदा है, इसका भविष्य काफी उज्जवल है। भारतीय सांसदों पर श्रेष्ठ काम करने का दबाव नहीं होता, उनके काम का वार्षिक मूल्यांकन भी नहीं होता। केवल चुनाव के समय ही उनकी जवाबदारी बढ़ जाती है, उनका एक ही उद्देश्य होता है कि किसी तरह संसद तक पहुँच जाएँ, फिर तो उनके पौ-बारह हो जाते हैं। उनकी तमाम सुविधाओं पर किसी तरह का अंकुश नहीं है। उन्हें दी जाने वाली सुविधाएँ सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही हैं। टैक्स के नाम पर उनसे केवल मासिक वेतन पर ही कुछ कटौती होती है, शेष अन्य सुविधाओं और भत्तों को जोड़ा ही नहीं जा रहा है। इसके बाद भी इस गरीब देश के करोड़पति सांसदों को इतने से ही संतोष नहीं हुआ है, उनके वेतन एवं अन्य भत्तों पर लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है।
हमारे देश की 36 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। ये नागरिक अपने और देश के उद्धार के लिए जिन सांसदों को चुन कर संसद में भेजते हैं, वे वहाँ जनता की भलाई के नाम पर लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौच आदि करते हुए भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, कई सांसदों को तो रिश्वत लेते हुए भी देश के लाखों नागरिकों ने भी देखा है। इतना सब कुछ होते हुए भी इस बार फिर उनके वेतन और भत्तों में वृद्धि करने वाला विधेयक चुपचाप पारित हो जाएगा। इसका जरा-सा भी विरोध नहीं होगा। अभी तक हमारे ये जनप्रतिनिधि 40 हजार रुपए वेतन एवं अन्य भत्ते प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन अब उनका वेतन बढ़कर 65 हजार के आसपास पहुँच जाएगा। इससे हमारे देश की जनता पर 62 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ बढ़ जाएगा।
अब समय आ गया है कि सरकार से यह पूछा जाए कि आखिर सांसदों को किसलिए इतनी सुविधाएँ मिलती हैं? आखिर ये काम क्या करते हैं? अगर इनसे यह कहा जाए कि इन्हें वेतन और सुविधाएं नहीं मिलेंगी, तो भी वे सांसद बने रहना पसंद करेंगे। वजह साफ है, आज सांसद होना सेवा भाव न होकर एक पेशा हो गया है। जिसमें जावक कुछ भी नहीं केवल आवक ही आवक है। ये जनता के प्रतिनिधि चुनाव के पहले तक ही होते हैं, चुनाव जीतने के बाद ये केवल पार्टी और कुछ रसूखदारों के नुमाइंदे बनकर रह जाते हैं। आखिर हमारे पास वह ताकत कब आएगी, जिसके बल पर हमने उन्हें सांसद भेजा है, उसी बल पर हम उन्हें वापस बुला भी सकें? क्या राम मनोहर लोहिया का यह सपना कभी पूरा होगा?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 26 जून 2010

हम सब अघोषित आपातकाल की ओर...



डॉ. महेश परिमल
लो, अब पेट्रोल-डीजल और केरोसीन के दाम बढ़ गए। रसोई गैस भी महँगी हो गई। सरकार ने अपना रंग अब दिखाना शुरू कर दिया है। पहले भी यही कहा जाता रहा है कि कांग्रेस व्यापारियों की सरकार है, इसका गरीबों से कोई लेना-देना नहीं है। महँगाई काँग्रेस शासन में ही बेलगाम हो जाती है। एक तो मानसून आने में देर हो रही है। दूध, बिजली के दाम अभी-अभी बढ़े हैं। उस पर सरकार का यह रवैया, आम आदमी को बुरी तरह से त्रस्त करके रख देगा। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल की घोषणा हुई थी। उसी तारीख को इस बार पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस और केरोसीन के दाम बढ़ाकर सरकार ने हम सबको एक अघोषित आपातकाल की तरफ धकेल दिया है।
अब देखिए महँगाई किस तरह से अपना रौद्र रूप दिखाती है। अनाज के दाम तो कम होने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। दालों की कीमतें आसमान में पहुँच गई हैं। सब्जियाँ आम आदमी की पहुंँच से दूर होने लगी है। अब परिवहन भी महँगा हो जाएगा। सरकार कहती है कि दिसम्बर तक महँगाई पर काबू पा लिया जाएगा। केसे हो पाएगा, यह सब? इस जवाब सरकार के पास भी नहीं है। सरकार काम तो महँगाई बढ़ाने के करती है, उस पर कहती है कि महँगाई पर काबू पा लिया जाएगा। मुद्रा-स्फीति पर सरकार का बस नहीं रहा। वह उसके हाथ से फिसल गई है। गरीबों को मदद देने के नाम पर सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है। ऐसे में लगता है कि आम आदमी को जीने का कोई हक नहीं है। क्योंकि चारों तरफ से उस पर दबाव बढ़ रहा है। बच्चों की फीस, परिवहन खर्च, महँगा अनाज, कहीं से कुछ भी राहत नहीं। आम आदमी के बल पर चलने वाली सरकार आम आदमी को ही भूलने लगी है।
हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री हैं। इसके बाद भी वे विकास की बातें करते हुए थकते नहीं हैं। पर जब भी महँगाई की बात सामने आती है, तब वे खामोश रह जाते हैं। ऐसे में उनके भीतर का अर्थशास्त्री न जाने कहाँ दुबक जाता है। केंद्र सरकार कई मोर्चो पर विफल रही है। इसमें महँगाई पर किसी तरह का लगाम न लगा पाना सरकार की सबसे बड़ी विफलता है। प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं कि महँगाई पर शीघ्र ही अंकुश लगा लिया जाएगा। कुछ ही समय बाद इसका असर भी दिखाई देने लगेगा। पर आज जो कुछ भी हो रहा है, उससे लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री केवल प्रधानमंत्री ही बनकर रह गए हैं। एक अर्थशास्त्री के रूप में उन्होंने अपनी पहचान खो दी है। अभी तक किसी भी मामले में उन्होंने कोई कड़े कदम उठाए हैं, ऐसा नहीं दिखता। उनके सारे निर्णय आयातित होते हैं। जिस पर केवल उनकी मुहर ही होती है। देश की जो आर्थिक नीतियाँ हैं, उससे अमीर और अमीर और गरीब और गरीब बनता जा रहा है। तमाम सरकारी प्रयास महँगाई पर काबू नहीं पा सके।
अभी पिछले सप्ताह ही प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि अगले वर्ष विकास दर 8.5 प्रतिशत होगी, तब मुद्रास्फीति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि इस दिशा में कड़े कदम उठाए जाएँगे। ऐसा ही उन्होंने कई बार कहा है। हर बार कहते हैं। मुद्रास्फीति दर बढ़ती ही जा रही है। हमारे देश की यह खासियत है कि महँगाई के कारण कई आवश्यक चीजों की दामों में बेतहाशा वृद्धि होती है। जब सरकार कड़े कदम उठाने की बात करती है, तब भी दाम कम नहीं होते। हाँ सरकार आँकड़ों में महँगाई अवश्य कम होने लगती है। कई बार सीजन में भी चीजों के दाम घटने के संकेत दिए जाते हैं, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। देश में जब भी पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में वृद्धि होती है, महँगाई बढ़ जाती है। इसे रोकने के सारे प्रयास विफल होते हैं। साल भर में दालों और शक्कर की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है, सरकार के प्रयास काम नहीं आए।
सरकार ने जब चार जून को पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इज़ाफा किया था, तो यह सहज रूप से माना जा रहा था कि मुद्रास्फीति घटने की जगह और बढ़ेगी। लेकिन वह इस तेजी से बढ़ेगी और सारे कयासों को हैरत में डालती एकाएक दहाई का आँकड़ा पार कर जाएगी, यह किसी के अनुमान में नहीं था। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति सात जून को समाप्त सप्ताह में 11.05 प्रतिशत पर पहुँच गई, जबकि इससे पिछले सप्ताह यह 8.75 प्रतिशत थी। यह आंकड़ा स्पष्ट करता है कि मौजूदा समय में महँगाई पिछले 13 वषों के रिकार्ड स्तर पर है। सर्वाधिक बढ़ोत्तरी ईंधन और ऊर्जा समूह में दर्ज की गई है, जिसका सूचकांक पहले के मुकाबले 7.8 प्रतिशत उछला है। इस इजाफे का प्रभाव शेयर बाजार पर भी तत्काल हुआ है, जब इसकी घोषणा के साथ ही बम्बई शेयर बाजार का सेंसेक्स 517 अंकों तथा नेशनल स्टाक एक्सचेंज का निफ्टी 157 अंक लुढ़ककर इस वर्ष के न्यूनतम स्तर पर बंद हुआ। महँगाई दर के इस इजाफे के बारे में उद्योग चेम्बरों का कहना है कि मुद्रास्फीति संभवत सरकार के हाथ से बाहर जा चुकी है। उनका यह भी मानना है कि इसकी वजह से आर्थिक विकास दर में भी गिरावट आएगी।
मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी का यह Rम हालाँकि मार्च महीने में सरकार के बजट पेश करने के बाद से ही लगातार जारी है, लेकिन एकाएक यह 2.03 प्रतिशत की छलांग लगा लेगी, इसका अनुमान सरकार के अर्थशास्त्रियों को कत्तई नहीं था। अगर बढ़ोत्तरी का यह Rम यथावत बना रहा, तो वैश्विक स्तर पर छलांग लगाती देश की अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचेगी तथा विकास की सारी संकल्पनाएँ बीच रास्ते दम तोड़ देंगी। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित सारे व्यवस्थापक शुरू से एक ही राग अलाप रहे हैं कि सरकार बढ़ती महँगाई को नियंत्रित करने का हर स्तर पर प्रयास कर रही है। इसके अलावा रिजर्व बैंक द्वारा किए गए मौद्रिक उपाय भी कारगर परिणाम देते दिखाई नहीं देते। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की दृष्टि से उसने अपनी अल्पकालिक ऋण-दर (रेपोरेट) बढ़ाकर 8 प्रतिशत कर दी है। माना यह जा रहा है वह इसमें फिर बढ़ोत्तरी करेगा और जुलाई में यह दर 8.25 प्रतिशत हो सकती है। उसके इस प्रयास से ब्याज दरों में इजाफा होगा और उद्योग जगत को गंभीर धक्का लगेगा जिसकी वजह से आर्थिक विकास दर घटेगी।
अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि महँगाई के शिखर छूते कदमों ने देश को एक अघोषित आर्थिक आपातकाल के गर्त में झोंक दिया है। इसकी बढ़ोत्तरी ने अब तक के स्थापित अर्थशास्त्र के नियमों को भी खारिज कर दिया है। अर्थशास्त्र की मान्यता है कि वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण मांग और आपूर्ति के सिद्धांतों पर आधारित होता है। यानी जब बाजार में मांग के अनुपात में वस्तु की उपलब्धता अधिक होती है, तो उसके मूल्य कम होते हैं। वहीं जब बाजार में उस वस्तु की आपूर्ति कम होती है, तो उसके मूल्य बढ़ जाते हैं। लेकिन इस महँगाई पर यह नियम लागू नहीं होता। इसे आश्चर्यजनक ही माना जाएगा कि बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है। कोई भी व्यक्ति जितनी मात्रा में चाहे, बहुत आसानी से उतनी मात्रा में खरीदी कर सकता है। फिर भी उनके दाम लगातार बढ़ रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष तो निकलता ही है कि वस्तुओं की उपलब्धता कहीं से बाधित नहीं है। अतएव बढ़ती महँगाई की जिम्मेदार कुछ अन्य ताकतें हो सकती हैं, जिनकी ओर हमारे सरकारी व्यवस्थापकों का ध्यान नहीं जा रहा है। होने को तो यह भी हो सकता है कि उदारीकरण के वरदान से पैदा हुए इन भस्मासुरों की ताकत अब वर-दाताओं के मुकाबले बहुत अधिक हो चुकी हो और उस ताकत के आगे वे अपने को निरुपाय तथा असहाय महसूस कर रहे हों। सच तो यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सिंडिकेट के हाथों अब पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था है और वे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की गरज से विभिन्न उत्पादों के दामों में इजाफा करते रहते हैं।
जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि बढ़ती महँगाई ने गरीब तबके, निम्न मध्यवर्ग और निश्चित आय वर्ग के लोगों के सामने एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। विडम्बना यह है कि इस संकट का आर्थिक समाधान तलाश करने की जगह इसको भी राजनीति के गलियारे में घसीटा जा रहा है। इससे कतिपय राजनीतिक लाभ तो अर्जित किया जा सकता है, लेकिन देश के आम आदमी को राहत तो कतई नहीं दी जा सकती। सरकार अगर यह कहती है कि महँगाई वैश्विक कारणों से बढ़ रही है तो वह गलत नहीं कह रही है। गलत केवल इतना है कि वैश्वीकरण के नशे में इस सरकार ने नहीं, अपितु इसके पहले की कई सरकारों ने हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बेच दिया। वैश्वीकरण का विरोध नहीं किया जा सकता, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के मूल्य पर नहीं होना चाहिए। फिलहाल बढ़ती महँगाई ने आम आदमी को अपने कूर पंजों में दबोच लिया है। उसे मुक्त कराने के लिए राजनीति नहीं एक विशुद्ध देसी अर्थशास्त्र की जरूरत है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 22 जून 2010

गरीब देश के करोड़पति सांसद!

डॉ. महेश परिमल
राज्यसभा में पहुँचने वाले 49 नए सांसदों में 38 करोड़पति हैं। महिला आरक्षण की बात करने वाले तमाम दल की बातें बेमानी निकलीं, क्योंकि राज्यसभा में केवल तीन महिलाएँ ही पहुँच पाई हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि इन सांसदों में 28 प्रतिशत सांसद कई अपराधों में लिप्त हैं। इससे भी आश्चर्यजनक बात यह है कि यूबी इंडस्ट्रीज के मालिक विजय माल्या की संपत्ति 615 करोड़ रुपए है, किंतु अभी तक उनका अपना कोई मकान नहीं है और न ही कोई स्थायी संपत्ति। दूसरे क्रम में 189.6 करोड़ की संपत्ति वाले टीडीपी के वाय. सत्यनारायण चौधरी हैं, तीसरे स्थान पर हैं झारखंड के जेएमएम के कँवरदीप सिंह, इनके पास 82.6 करोड़ रुपए हैं। इन सांसदों में कांग्रेस के धीरज प्रसाद साहू और सपा के राशि मसूद करोड़पति होने के बाद भी उनके पास पेन नम्बर नहीं है। ये हाल हैं हमारे सांसदों के।
ऐसी बात नहीं है कि ये सांसद केवल करोड़पति ही हैं। एनजीओ नेशनल इलेक्शन वांच द्वारा इनके शपथपत्र का जो विश्लेषण किया गया, उसमें पता चला कि 54 सांसदों में से 15 सांसद यानी 28 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ हत्या का प्रयास, अपहरण और ठगी के मामले अदालत में चल रहे हैं। इसमें कांग्रेस के 16 में से 3, भाजपा के 11 में से 2, बसपा के 7 में से 1 और एनसीपी के दो सांसदों का समावेश है।
एक रुपए में दो कप चाय या कॉफी, मसाला दोसा दो रुपए में, एक रुपए में मिल्क शेक, शाकाहारी भोजन मात्र 11 रुपए में और शाही मांसाहारी भोजन मात्र 36 रुपए में। आप सोच रहे होंगे, ये किस जमाने की बात हो रही है। पर सच मानो यह आज की बात है, हमारे सांसदों को यह सुविधा हमारी सरकार दे रही है। संसद में उनके लिए इतना सस्ता भोजन भी उन्हें वहाँ जाने के लिए विवश नहीं करता। एक गरीब देश के सांसद होने के क्या-क्या सुख हैं, ये शायद आम आदमी नहीं जानता। लेकिन यह सच है कि जनता के इस प्रतिनिधि को वे सारी सुविधाएँ प्राप्त हैं, जिसके लिए एक आम आदमी जीवन भर संघर्ष करता रहता है, लेकिन उस स्तर तक नहीं पहुँच पाता। हमारे सांसद इसे आसानी से सेवा भाव के नाम पर प्राप्त कर लेते हैं।
आज से चालीस साल पहले तक सांसद होना यानी सेवा भाव का दूसरा नाम था। पर आज ये एक फायदे का सौदा हो गया है। एक सांसद अपने जीवन में ही इतना कमा लेता है कि उसके परिवार के किसी भी सदस्य को काम की आवश्यकता नहीं पड़ती। सेवा के नाम पर होने वाले इस धंधे ने भारतीय अर्थव्यवस्था की चूलें हिलाकर रख दी हैं, पर हमारे सांसद दिनों-दिन करोड़पति होते जा रहे हैं और आम आदमी को रोटी जुटाने के लाले पड़ रहे हैं.
वत्र्तमान में सांसद होना एक बहुत बड़ फायदे का सौदा है, इसका भविष्य काफी उज्‍जवल है। भारतीय सांसदों पर श्रेष्ठ काम करने का दबाव नहीं होता, उनके काम का वार्षिक मूल्यांकन भी नहीं होता। केवल चुनाव के समय ही उनकी जवाबदारी बढ़ जाती है, उनका एक ही उद्देश्य होता है कि किसी तरह संसद तक पहुँच जाएँ, फिर तो उनके पौ-बारह हो जाते हैं। उनकी तमाम सुविधाओं पर किसी तरह का अंकुश नहीं है। उन्हें दी जाने वाली सुविधाएँ सुरसा के मुँह की तरह बढ़ रही हैं। टैक्स के नाम पर उनसे केवल मासिक वेतन पर ही कुछ कटौती होती है, शेष अन्य सुविधाओं और भत्तों को जोड़ा ही नहीं जा रहा है। इसके बाद भी इस गरीब देश के करोड़पति सांसदों को इतने से ही संतोष नहीं हुआ है, उनके वेतन एवं अन्य भत्तों पर लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है।
हमारे देश की 36 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे जी रही है। ये नागरिक अपने और देश के उद्धार के लिए जिन सांसदों को चुन कर संसद में भेजते हैं, वे वहाँ जनता की भलाई के नाम पर लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौच आदि करते हुए भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, कई सांसदों को तो रिश्वत लेते हुए भी देश के लाखों नागरिकों ने भी देखा है। इतना सब कुछ होते हुए भी इस बार फिर उनके वेतन और भत्तों में वृद्धि करने वाला विधेयक चुपचाप पारित हो गया। इसका जरा-सा भी विरोध नहीं हुआ। अभी तक हमारे ये जनप्रतिनिधि 40 हजार रुपए वेतन एवं अन्य भत्ते प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन अब उनका वेतन बढ़कर 65 हजार के आसपास पहुँच जाएगा। इससे हमारे देश की जनता पर 62 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ बढ़ जाएगा।
अब समय आ गया है कि सरकार से यह पूछा जाए कि आखिर सांसदों को किसलिए इतनी सुविधाएँ मिलती हैं? आखिर ये काम क्या करते हैं? अगर इनसे यह कहा जाए कि इन्हें वेतन और सुविधाएं नहीं मिलेंगी, तो भी वे सांसद बने रहना पसंद करेंगे। वजह साफ है, आज सांसद होना सेवा भाव न होकर एक पेशा हो गया है। जिसमें जावक कुछ भी नहीं केवल आवक ही आवक है। ये जनता के प्रतिनिध चुनाव के पहले तक ही होते हैं, चुनाव जीतने के बाद ये केवल पार्टी और कुछ रसूखदारों के नुमाइंदे बनकर रह जाते हैं। आखिर हमारे पास वह ताकत कब आएगी, जिसके बल पर हमने उन्हें सांसद भेजा है, उसी बल पर हम उन्हें वापस बुला भी सकें। क्या राम मनोहर लोहिया का यह सपना कभी पूरा होगा?
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 21 जून 2010

एंडरसन को लिजलिजी व्यवस्था ने भगाया


डॉ. महेश परिमल
एंडरसन तो भोपाल में 15 हजार हत्याएँ करके 25 वर्ष पहले ही भाग गया। लोग बेवजह ही आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। हर कोई अपने को बचाना चाहता है। हर कोई दूसरे को दागदार बनाना चाहता है। बचाने और बनाने के इस खेल में कोई यह सोचने को तैयार ही नहीं है कि आखिर एंडरसन को किसने भगाया? साफ जवाब है कि एंडरसन को देश की लिजलिजी व्यवस्था ने भगाया। उस व्यवस्था में सरकार किसी की भी होती, वही होता, जो व्यवस्था में है। कांग्रेस सरकार के समय एंडरसन भागा, तो भाजपा शासन में भी कट्टर आतंकवादी अजहर मसूद को छोड़ा गया। सभी यही कहेंगे कि नियम कायदे हालात तय करते हैं। उस समय जो हालात थे, उसके तहत एंडरसन को भगाना जरुरी था। उधर कांधार कांड के समय के हालात ऐसे थे कि अजहर मसूद को छोड़ना पड़ा। दोनोंे पार्टियों के अपने-अपने तर्क हैं। अपने-अपने आसमां हैं।
मामला एंडरसन का हो या फिर अजहर मसूद का। ऐसे वक्त पर सरकारें हमेशा निरीह ही हो जाती हैं। निरीह होना लाजिमी भी है, क्योंकि सभी सरकारों के स्वार्थ उससे जुड़े होते हैं। स्वार्थ लिप्सा में क्या-क्या नहीं हो जाता। एक भारतीय राजनयिक अपना धर्म बदलकर दूसरे देश के लिए काम करना शुरू कर देती है। सरकार को इसका पता बहुत बाद में चलता है। यह सब एक व्यवस्था के तहत होता है। इसी व्यवस्था में ही छिपा है अव्यवस्था का रहस्य। वास्तव में देखा जाए, तो अव्यवस्था इतनी अधिक व्यवस्थित है कि वह व्यवस्था को भी सरे आम सवालों के घेरे में खड़ा कर सकती है। एक व्यवस्था के तहत सरकार तैयार करती है, उसके लिए धन की व्यवस्था करती है, फिर वह एक अव्यवस्था के तहत वह धन उन सारे हाथों तक पहुँच जाता है, जो इस अव्यवस्था को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुम्बई में टिफिन सही व्यक्ति तक पहुँचाना एक व्यवस्था है और सरकार का तमाम योजनाओं पर खर्च करने के बाद भी योजनाओं का पूरा न होना एक अव्यवस्था है। इसे कोई नहीं बदल सकता। क्योंकि सरकार पूरी तरह से निर्भर है, उन लोगों पर, जो अव्यवस्था की धुरी पर हैं।
अब सरकार ने एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी से जुड़े लोगों के लिए राहत का पैकेज जारी कर दिया है। जो भोपाल में रहते हैं, वे इसे अच्छी तरह से समझते हैं कि भोपाल गैसर राहत के धन ने कितने परिवारों को बरबाद कर दिया। देखते ही देखते भोपाल महँगे शहरों में शुमार हो गया। 25 बरस बाद भी आज तक कई गैस पीड़ित ऐसे हैं, जिन्हें मुआवजे के नाम पर कुछ भी नहीं मिला। इसके अलावा हजारों लोग ऐसे भी हैं, जो उस दिन शहर में थे ही नहीं, लेकिन उन्होंने मुआवजा प्राप्त किया। उनके बच्चों के नाम से मुआवजा प्राप्त किया। गैस कांड के बाद शहर में अपराध बढ़े, शराबखोरी बढ़ी, अनाप-शनाप खर्च करने वालों में वृद्धि हुई। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि मुआवजे की 80 प्रतिशत राशि बेकार गई। लोग उसका सदुपयोग नहीं कर पाए। यह सब एक अव्यवस्था के तहत ही हुआ।
सोमवार यानी 21 जून को मंत्रियों का दल किसे दोषी ठहराता है, किसे राजी करता है, यह देखना है। पर सबसे बड़ी बात यही है कि ये दल राजीव गांधीन को बचाने के लिए पूरी कोशिश करेगा। उन्हें दागदार नहीं बनने देगा। बाकी ठीकरा किसी पर भी फूटे। इस मामले में अजरुन सिंह की खामोशी पर सबकी निगाहें हैं। वे कुछ नहीं बोलेंगे। क्योंकि वे एक व्यवस्था से बँधे हैं। उनकी चुप्पी ही उनके लिए जीवनदान की तरह है। ये दल प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट देगा। इस रिपोर्ट में क्या-क्या होगा और क्या-क्या नहीं होगा, इसे सब जानते हैं। यह रिपोर्ट एक लीपापोती से अधिक कुछ नहीं होगी। रिपोर्ट में इसका जिक्र अवश्य होगा कि एंडरसन को किस तरह से भारत वापस लाया जाए। लेकिन यह भी तय है कि उसे वापस लाया जाना संभव नहीं है। उसकी जान एक बार बच गई है, अब वह मुआवजा राशि देकर बचना चाहेगा।
इस रिपोर्ट में यदि मंत्री प्रजा की परेशानियों को समझने की कोशिश करते दिखाई देंगे, तो इससे लाखों गैस पीड़ितों की आत्मा उन्हें धन्यवाद करेगी। लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि आम आदमी की तकलीफों को समझना वह भी बिना चुनाव के पहले, यह तो हमारे देश के नेताओं की फितरत में ही शामिल नहीं है। पिछले 60 साल में नहीं समझा, अब क्या खाक समझेंगे? मूर्खतापूर्ण बयान इन दिनों सामने आए हैं। एंडरसन को यदि नहीं भगाया जाता, तो भीड़ उन्हें मार डालती। भीड़ को उस वक्त अपनी जान बचानी थी। वह क्या किसी की जान लेती। फिर उसके सामने इतने सारे नेता थे, पुलिस थी, भीड़ ने तो किसी को नहीं मारा। जिसे अपनी जान की फिक्र होती है, वह वार नहीं करता, अपने आप को बचाता है। सरकार विमान में बैठने के बाद एंडरसन ने ऐसे ही नहीं कहा था कि ‘वेरी गुड गवर्नमेंट’। एक अव्यवस्था के तहत वह भागा, एक अव्यवस्था के तहत वह आज भी बचा हुआ है। सब कुछ व्यवस्था के तहत हो रहा है। इस व्यवस्था को ही बदलना चाहिए। हमारे नेता इसे कभी बदल नहीं सकते, क्योंकि वे भी उसी अव्यवस्था के एक अंग हैं। जब तक हमारे देश में आम आदमी का प्रतिनिधि वीआईपी होता रहेगा, तब तक इस व्यवस्था में सुधार संभव नहीं है। यह तय है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 17 जून 2010

सरकार के हाथ से फिसल गई मुद्रास्फीति


डॉ. महेश परिमल
महंगाई ने एक बार फिर सर उठाया है। मुद्रास्फीति की दर पिछले दो वर्षो की तुलना में सबसे अधिक है। हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक अर्थशास्त्री हैं। इसके बाद भी वे विकास की बातें करते हुए थकते नहीं हैं। पर जब भी महँगाई की बात सामने आती है, तब वे खामोश रह जाते हैं। ऐसे में उनके भीतर का अर्थशास्त्री न जाने कहाँ दुबक जाता है। केंद्र सरकार कई मोर्चो पर विफल रही है। इसमें महँगाई पर किसी तरह का लगाम न लगा पाना सरकार की सबसे बड़ी विफलता है। प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं कि महँगाई पर शीघ्र ही अंकुश लगा लिया जाएगा। कुछ ही समय बाद इसका असर भी दिखाई देने लगेगा। पर आज जो कुछ भी हो रहा है, उससे लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री केवल प्रधानमंत्री ही बनकर रह गए हैं। एक अर्थशास्त्री के रूप में उन्होंने अपनी पहचान खो दी है। अभी तक किसी भी मामले में उन्होंने कोई कड़े कदम उठाए हैं, ऐसा नहीं दिखता। उनके सारे निर्णय आयातित होते हैं। जिस पर केवल उनकी मुहर ही होती है। देश की जो आर्थिक नीतियाँ हैं, उससे अमीर और अमीर और गरीब और गरीब बनता जा रहा है। तमाम सरकारी प्रयास महँगाई पर काबू नहीं पा सके।
अभी पिछले सप्ताह ही प्रधानमंत्री ने यह कहा था कि अगले वर्ष विकास दर 8.5 प्रतिशत होगी, तब मुद्रास्फीति का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि इस दिशा में कड़े कदम उठाए जाएँगे। ऐसा ही उन्होंने कई बार कहा है। हर बार कहते हैं। मुद्रास्फीति दर बढ़ती ही जा रही है। हमारे देश की यह खासियत है कि महँगाई के कारण कई आवश्यक चीजों की दामों में बेतहाशा वृद्धि होती है। जब सरकार कड़े कदम उठाने की बात करती है, तब भी दाम कम नहीं होते। हाँ सरकार आँकड़ों में महँगाई अवश्य कम होने लगती है। कई बार सीजन में भी चीजों के दाम घटने के संकेत दिए जाते हैं, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। देश में जब भी पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में वृद्धि होती है, महँगाई बढ़ जाती है। इसे रोकने के सारे प्रयास विफल होते हैं। साल भर में दालों और शक्कर की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई है, सरकार के प्रयास काम नहीं आए।
सरकार ने जब चार जून को पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में इज़ाफा किया था, तो यह सहज रूप से माना जा रहा था कि मुद्रास्फीति घटने की जगह और बढ़ेगी। लेकिन वह इस तेजी से बढ़ेगी और सारे कयासों को हैरत में डालती एकाएक दहाई का आँकड़ा पार कर जाएगी, यह किसी के अनुमान में नहीं था। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति सात जून को समाप्त सप्ताह में 11.05 प्रतिशत पर पहुँच गई, जबकि इससे पिछले सप्ताह यह 8.75 प्रतिशत थी। यह आंकड़ा स्पष्ट करता है कि मौजूदा समय में महँगाई पिछले 13 वषों के रिकार्ड स्तर पर है। सर्वाधिक बढ़ोत्तरी ईंधन और ऊर्जा समूह में दर्ज की गई है, जिसका सूचकांक पहले के मुकाबले 7.8 प्रतिशत उछला है। इस इजाफे का प्रभाव शेयर बाजार पर भी तत्काल हुआ है, जब इसकी घोषणा के साथ ही बम्बई शेयर बाजार का सेंसेक्स 517 अंकों तथा नेशनल स्टाक एक्सचेंज का निफ्टी 157 अंक लुढ़ककर इस वर्ष के न्यूनतम स्तर पर बंद हुआ। महँगाई दर के इस इजाफे के बारे में उद्योग चेम्बरों का कहना है कि मुद्रास्फीति संभवत सरकार के हाथ से बाहर जा चुकी है। उनका यह भी मानना है कि इसकी वजह से आर्थिक विकास दर में भी गिरावट आएगी।
मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी का यह Rम हालाँकि मार्च महीने में सरकार के बजट पेश करने के बाद से ही लगातार जारी है, लेकिन एकाएक यह 2.03 प्रतिशत की छलांग लगा लेगी, इसका अनुमान सरकार के अर्थशास्त्रियों को कत्तई नहीं था। अगर बढ़ोत्तरी का यह Rम यथावत बना रहा, तो वैश्विक स्तर पर छलांग लगाती देश की अर्थव्यवस्था को भारी क्षति पहुँचेगी तथा विकास की सारी संकल्पनाएँ बीच रास्ते दम तोड़ देंगी। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री सहित सारे व्यवस्थापक शुरू से एक ही राग अलाप रहे हैं कि सरकार बढ़ती महँगाई को नियंत्रित करने का हर स्तर पर प्रयास कर रही है। इसके अलावा रिजर्व बैंक द्वारा किए गए मौद्रिक उपाय भी कारगर परिणाम देते दिखाई नहीं देते। मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने की दृष्टि से उसने अपनी अल्पकालिक ऋण-दर (रेपोरेट) बढ़ाकर 8 प्रतिशत कर दी है। माना यह जा रहा है वह इसमें फिर बढ़ोत्तरी करेगा और जुलाई में यह दर 8.25 प्रतिशत हो सकती है। उसके इस प्रयास से ब्याज दरों में इजाफा होगा और उद्योग जगत को गंभीर धक्का लगेगा जिसकी वजह से आर्थिक विकास दर घटेगी।

अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि महँगाई के शिखर छूते कदमों ने देश को एक अघोषित आर्थिक आपातकाल के गर्त में झोंक दिया है। इसकी बढ़ोत्तरी ने अब तक के स्थापित अर्थशास्त्र के नियमों को भी खारिज कर दिया है। अर्थशास्त्र की मान्यता है कि वस्तुओं के मूल्य का निर्धारण मांग और आपूर्ति के सिद्धांतों पर आधारित होता है। यानी जब बाजार में मांग के अनुपात में वस्तु की उपलब्धता अधिक होती है, तो उसके मूल्य कम होते हैं। वहीं जब बाजार में उस वस्तु की आपूर्ति कम होती है, तो उसके मूल्य बढ़ जाते हैं। लेकिन इस महँगाई पर यह नियम लागू नहीं होता। इसे आश्चर्यजनक ही माना जाएगा कि बाजार में वस्तुओं की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में है। कोई भी व्यक्ति जितनी मात्रा में चाहे, बहुत आसानी से उतनी मात्रा में खरीदी कर सकता है। फिर भी उनके दाम लगातार बढ़ रहे हैं। इससे यह निष्कर्ष तो निकलता ही है कि वस्तुओं की उपलब्धता कहीं से बाधित नहीं है। अतएव बढ़ती महँगाई की जिम्मेदार कुछ अन्य ताकतें हो सकती हैं, जिनकी ओर हमारे सरकारी व्यवस्थापकों का ध्यान नहीं जा रहा है। होने को तो यह भी हो सकता है कि उदारीकरण के वरदान से पैदा हुए इन भस्मासुरों की ताकत अब वर-दाताओं के मुकाबले बहुत अधिक हो चुकी हो और उस ताकत के आगे वे अपने को निरुपाय तथा असहाय महसूस कर रहे हों। सच तो यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सिंडिकेट के हाथों अब पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था है और वे अंधाधुंध मुनाफा कमाने की गरज से विभिन्न उत्पादों के दामों में इजाफा करते रहते हैं।
जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि बढ़ती महँगाई ने गरीब तबके, निम्न मध्यवर्ग और निश्चित आय वर्ग के लोगों के सामने एक अभूतपूर्व संकट खड़ा कर दिया है। विडम्बना यह है कि इस संकट का आर्थिक समाधान तलाश करने की जगह इसको भी राजनीति के गलियारे में घसीटा जा रहा है। इससे कतिपय राजनीतिक लाभ तो अर्जित किया जा सकता है, लेकिन देश के आम आदमी को राहत तो कतई नहीं दी जा सकती। सरकार अगर यह कहती है कि महँगाई वैश्विक कारणों से बढ़ रही है तो वह गलत नहीं कह रही है। गलत केवल इतना है कि वैश्वीकरण के नशे में इस सरकार ने नहीं, अपितु इसके पहले की कई सरकारों ने हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मुनाफाखोर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों बेच दिया। वैश्वीकरण का विरोध नहीं किया जा सकता, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह राष्ट्रीय अर्थशास्त्र के मूल्य पर नहीं होना चाहिए। फिलहाल बढ़ती महँगाई ने आम आदमी को अपने कूर पंजों में दबोच लिया है। उसे मुक्त कराने के लिए राजनीति नहीं एक विशुद्ध देसी अर्थशास्त्र की जरूरत है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 15 जून 2010

हिन्दी से दूर होते हिन्दी के अखबार



मनोज कुमार

शीर्षक पढ़कर आप चैंक गए होंगे। चैंकिये नहीं, यह हकीकत है। मैं भी तब चैंका था जब लगभग एक दर्जन समाचार पत्रों का लगभग छह महीने तक अध्ययन करता रहा। हिन्दी अखबारों की हिन्दी का मटियामेट इन छह महीनों में नहीं हुआ बल्कि इसकी शुरूआत तो लगभग डेढ़ दशक पहले ही शुरू हो गयी थी। जिस तरह एक मध्यमवर्गीय परिवार के लिये हिन्दी पाठशाला में पढ़ने वाला बच्चा हर तरह से कमजोर होता है और पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा चाहे कितना ही कमजोर क्यों न हो, वह कुशाग्र बुद्धि का ही कहलायेगा, ऐसी मान्यता है, सच्चाई नहीं। लगभग यही स्थिति हिन्दी के अखबारों का है। यह सच है कि हिन्दी के अखबारों का अपना प्रभाव है। उनकी अपनी ताकत है और यही नहीं हिन्दी के अखबार ही समाज के मार्गदर्शक भी रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम की बात करें अथवा नये भारत के गढ़ने की, हिन्दी के अखबारोें की भूमिका ही महत्वपूर्ण रही है। भारत गांवों का देश कहलाता है और हिन्दी के अखबार इनकी आवाज बने हुए हैं। बदलते समय में भी हिन्दी के अखबार वशाली बने हुए है। बाजार की सबसे बड़ी ताकत भी हिन्दी के अखबार हैं और बाजार की सबसे बड़ी कमजोरी भी हिन्दी के अखबार हैं। इन सबके बावजूद हिन्दी के अखबार कहीं न कहीं अपने आपको कमजोर महसूस करते हैं और अंग्रेजी से नकलीपन करने से बाज नहीं आते हैं।
ये नकलीपन कैसा है और इसके पीछे क्या तर्क दिये जा रहे हैं, इस मानसिकता को समझना होगा। इस बात को समझने के लिये हमें अस्सी के दौर में जाना होगा। यह वह दौर था जब हिन्दी का अर्थ हिन्दी ही हुआ करता था। खबरों में अंग्रेजी के शब्दों के उपयोग की मनाही थी। पढ़ने वाले भी सुधि पाठक हुआ करते थे। समय बदला और चीजें बदलने लगीं। सबसे पहले कचहरी अथवा अदालत के स्थान पर कोर्ट का उपयोग किया जाने लगा। इसके बाद जिलाध्यक्ष एवं जिलाधीश के स्थान पर कलेक्टर और आयुक्त के स्थान पर कमिश्नर लिखा जाने लगा। हिन्दी के पाठक इस बात को पचा नहीं पाये और विरोध होने लगा तब बताया गया कि समय बदलने के साथ साथ अब हिन्दी अंग्रेजी का मिलाप होने लगा है और वही शब्द अंग्रेजी के उपयोग में आएंगे जो बोलचाल के होंगे। तर्क यह था एक रिक्शावाला कोर्ट तो समझ जाता है किन्तु कचहरी अथवा अदालत उसके समझ से
परे है। जिलाध्यक्ष शब्द को लेकर यह तर्क दिया गया कि विभिन्न राजनीतिक दलों के जिलों के अध्यक्षों को जिलाध्यक्ष कहा जाता है और जिलाधीश अथवा जिलाध्यक्ष मे भ्रम होता है इसलिये कलेक्टर लिखा जाएगा ताकि यह बात साफ रहे कि कलेक्टर अर्थात जिलाध्यक्ष है जो एक शासकीय अधिकारी है न कि किसी पार्टी का जिलाध्यक्ष। आयुक्त को कमिश्नर लिखे जाने पर कोई पक्का तर्क नहीं मिल पाया तो कहा गया कि रेलपांत का हिन्दी लौहपथ गामिनी है और सिगरेट को श्वेत धूम्रपान दंडिका कहा जाता है जो कि आम बोलचाल में लिखना संभव नहीं है। इसी के साथ शुरू हुआ हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल। इसके बाद हिन्दी
अखबारों को लगने लगा कि हिन्दी पत्रकारिता में खोजी पुट नहीं है और अनुवाद की परम्परा चल पड़ी। बड़े अंंग्रेजी अखबारों से हिन्दी में खबरें अनुवाद कर प्रकाशित की जाने लगी। इसके पीछे बड़ी, गंभीर, खोजी और न जाने ऐसे कितने तर्क देकर एक बार फिर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं का गुणगान किया जाने लगा। 90 के आते आते तो लगभग हर अखबार यह करने लगा था। खासतौर पर क्षेत्रीय हिन्दी अखबार। मुझे लगता है कि इसके पीछे यह भावना भी काम कर रही थी कि देखिये हमारे पास श्रेष्ठ अनुवादक हैं जो अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद कर आप तक पहुंचा रहे हैं। हालांकि यह दौर अनुवाद का दौर था किन्तु इसकी विशेषता यह थी कि इसमें अंग्रेजी का शब्दानुवाद नहीं किया जाता था बल्कि भावानुवाद किया जाता था। इससे अंग्रेजी में लिखी गयी खबर की आत्मा भी नहीं मरती थी और हिन्दीभाषी पाठकों को खबर का स्वाद भी मिल जाता था। ऐसा भी नहीं है कि इसका फायदा हिन्दी के पाठकांें को नहीं हुआ। फायदा हुआ किन्तु श्रेष्ठिवर्ग साबित हुआ अंग्रेजी जानने वाले और अंग्रेजी के खबर विद्वान। अनचाहे में हिन्दी अखबार स्वयं को दूसरे दर्जे का मानने लगे और हिन्दी में काम करने वाले पत्रकार स्वयं में हीनभावना के शिकार होने लगे। प्रबंधन भी उन पत्रकारों को विशेष तवज्जो देने लगा जो अंग्रेजी के प्रति मोह रखते थे और एक तरह से स्वयं को अंग्रेजीपरस्त बताने में माहिर थे। हिन्दी और अंग्रेजी की यह कशमकश चल ही रही थी कि हिन्दी को लेकर आंदोलन होने लगा। अंग्रेजी हटाओ के समर्थकोंं की इस मायने में मैं पराजय देखता हूं कि वे अंग्रेजी तो हटा नहीं पाये किन्तु हिन्दी को भी नहीं बचा पाये। पत्रकारिता का यह बदलाव का युग था। सन् 77 के आपातकाल के बाद एकाएक नवीन समाचार पत्रों के प्रकाशन संख्या में वृद्वि होने लगी जिसमें हिन्दी की संख्या अधिक थी। यह स्वाभाविक भी था क्यांेकि देश भर में हिन्दीभाषियों की संख्या अधिक थी, खासकर अविभाजित मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में। मध्यप्रदेश में तब अंग्रेजी जानने वाले राजधानी भोपाल के भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स में काम करने आये अहिन्दी भाषी लोग या वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के भिलाई इस्पात संयंत्र अथवा एसीसीएल, बाल्को आदि में काम करने वाले अहिन्दी भाषी लोगों को ही अंग्रेजी अखबार की दरकार थी। इनके लिये राजधानी दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी के अखबार जो उस समय दूसरे दिन पहुंचते थे, पर्याप्त था। हिन्दी अखबारों के प्रकाशनों की बढ़ती संख्या और अनुवाद की कमी से जूझते अखबारों के संकट को समाचार एजेंसियों
ने परख लिया। संभवतः सबसे पहले यूनाइटेड न्यूज एजेंसी ने वार्ता के नाम से हिन्दी समाचार देना शुरू किया। इसके बाद प्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया ने भाषा नाम से हिन्दी में समाचार देना आरंभ किया।
वार्ता और भाषा के आगमन के साथ हिन्दी अखबारों में अनुवादकों को नजरअंदाज किया जाने लगा। कई अखबारों ने तत्काल अनुवादकों के पद को समाप्त कर दिया। हिन्दी के अखबारों में हिन्दी की उपेक्षा का परिणाम यह रहा कि एक समय पू्रफरीडिंग के लिये हिन्दी में एमए पास लोगों को रखा जाता था। हिन्दी अखबारों को यह पद भी भारी पड़ने लगा और उपसम्पादकों और रिपोर्टरों को कह दिया गया कि अपनी खबरों का पू्रफ वे ही पढ़ेंगे। थोड़ा बहुत विरोध होने के बाद पू्रफरीडर का पद समाप्त कर दिया गया। मेरा खयाल है कि आज के समय में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के अलावा थोड़े से अखबारों में ही यह पद सुरक्षित है। अगर मेरी स्मरणशक्ति काम कर रही है तो पू्रफरीडर को बछावत वेतन आयोग ने श्रमजीवी पत्रकार के समकक्ष माना था। खैर, इसके बाद आज समाचार पत्रों में जो गलतियां छप रही हैं, वे हमें शर्मसार करती हैं, गर्व का भाव कहीं नहंीं है। लिखते समय वाक्य के गठन में गलती हो जाना या कई बार एक जैसे नाम में भूल की आशंका बनी रहती थी जिसे पू्रफरीडर सुधार लिया करते थे किन्तु अब हमारी गलती कौन बताये। इतना जरूर है कि अगले दिन आपकी गलती के लिये संपादक दंड देने के लिये जरूर हाजिर रहेगा। 90 में टेलीविजन संस्कृति ने तो हिन्दी समाचार पत्रों को प्रिंटमीडिया का
टेलीविजन बना दिया। अब खबरों की प्रस्तुति उसी रूप में होने लगी और भाषा भी लगभग टेलीविजन की हो गई। खबर और विचार की भाषा के बीच के अंतर को भी नहीं रखा गया। वाक्य विन्यास का बिगड़ा रूप् अपने आपमें हिन्दी पाठको को
डरा देने वाला है। एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि जिन अखबारों से बच्चेहिज्जा कर हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखते थे, आज वह अखबार गुम हो गया है।
सिटी, मेट्रो, नेशनल, इंटरनेशल जैसे शब्द धड़ल्ले से हिन्दी अखबारों में उपयोग हो रहे हैं। अखबार के एकाधिक पृष्ठों के नाम अंग्रेजी में होते हैं। कहा जाने लगा कि यह हिंग्लिश का दौर है। हिंग्लिस से एक कदम और आगे जाकर एक अखबार आईनेक्स्ट के नाम पर आरंभ हुआ। इसे न तो आप हिन्दी कह सकते हैं और न इसे अंग्रेजी, हिंग्लिश का भी कोई चेहरा नजर नहीं आया। इस बहुमुखी प्रतिभा वाले समाचार पत्र से मेरा परिचय महात्मा गांधी अन्र्तराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों ने कराया। पत्रकारिता के छात्रों के बीच जब मैं व्याख्यान देने पहुंचा और पत्रकारिता की भाषा पर चर्चा हुई तो विद्यार्थियों ने इस अनोखे अखबार के बारे में न केवल बताया बल्कि एक प्रति भेंट भी की। वे पत्रकारिता की इस भाषा से दुखी थे।
एक तरफ हिन्दी के अखबार स्वयं को हिन्दी से दूर कर रहे थे और दूसरी तरफ अंग्रेजी के अखबार और पत्रिकायें हिन्दी पाठकों के बीच एक बड़ा बाजार देख रही थी। इन प्रकाशनों ने न केवल हिन्दीभाषी पाठकों में बाजार ढूंढ़ा बल्कि भाषाई पाठकों में वे बाजार की तलाश करने निकल पड़े। अंग्रेजी का इंडिया टुडे हिन्दी में प्रयोग करने वाला पहला अखबार था। आरंभिक दिनों में
हिन्दी इंडिया टुडे की सामग्री अंग्रेजी से अनुवादित होती थी किन्तु आहिस्ता आहिस्ता हिन्दी का स्वतंत्र स्वरूप् ग्रहण कर लिया। मेरे लिये ही नहीं हिन्दी पत्रकारों के लिये यह गौरव की बात है कि हमारे अग्रज और रायपुर जैसे कभी एक छोटे से शहर (आज भले ही रायपुर छत्तीसगढ़ की राजधानी हो) से निकले श्री जगदीश उपासने हिन्दी इंडिया टुडे के संपादकीय कक्ष के
सबसे ऊंचे ओहदे पर बैठे हैं। अंग्रेजी के प्रकाशनों का हिन्दी में आरंभ होना और हिन्दी के एक पत्रकार का शीर्ष पर बैठना इस बात का संकेत है कि हिन्दी ताकतवर थी और रहेगी।
हिन्दी पत्रकारिता के लिये यह सौभाग्य था कि उसे राजेन्द्र माथुर जैसे पत्रकार एवं ओजस्वी सम्पादक मिला। राजेन्द्र माथुर मूलतः अंग्रेजी के जानकार थे और वे चाहते तो उस दौर में भी बड़ी मोटी तनख्वाह पर किसी अंग्रेजी अखबार के शीर्षस्थ पर पर काबिज हो सकते थे किन्तु उन्होंने इसके उलट किया। वे हिन्दी पत्रकारिता में आये और हिन्दी में सम्पादक के होने
को नया अर्थ दिया। हिन्दी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर का नाम गर्व से लिया जाता रहेगा। हिन्दी पत्रकारिता को हताशा और कुंठा के दौर से बाहर आने की जरूरत है और अपने भीतर की ताकत को पहचानने की भी। हिन्दी पत्रकारिता में अनेक नामचीन पत्रकार और सम्पादक हुए जिनकी पृष्ठभूमि ग्रामीण और मध्यमवर्गीय परिवार की रही है किन्तु मेरी जानकारी में अंग्रेजी के अपवाद स्वरूप् कुछ नाम छोड़ दें तो बाकि बचे पत्रकार और सम्पादक सम्पन्न, शहरी परिवेश में पले-बढ़े और पब्लिक स्कूलांे में शिक्षित परिवारों से आये। हिन्दी पत्रकारिता और समाचार पत्रों को इस बात की मीमांसा करना चाहिए कि जब एक अंग्रेजी का अखबार हिन्दी मंे छपने के लिये मजबूर हो सकता है तो हम हिन्दी में ही अपना एकछत्र राज्य क्यों नहीं बना पाये? क्यों हम अंग्रेजी पत्रकारिता का अनुगामी बने हुए हैं? क्यों हमें अंग्रेजी पत्रकारिता श्रेष्ठ लगती है? इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हिन्दी का एक बड़ा पाठक वर्ग आज भी अंग्रेजीमिश्रित हिन्दी के खिलाफ हैं। कार्पोरेटस्वरूप लेकर तेजी से फैलते भास्कर पत्र समूह एवं कुछ हिन्दी के कुछ अन्य समाचार पत्र सम्मानजनक मानदेय देने लगे हैं। पेजथ्री पढ़ाने वाले हिन्दी के अखबारों में स्थानीय लेखकों को स्थान नहीं मिल पाता है और न ही उन्हें सम्मानपूर्वक मानदेय दिया जाता है। पाठक वर्ग भी इन दिनों अखबारों को गंभीरता से नहीं ले रहा है। वह भी अखबारों के उपहार योजनाओं में उलझ कर रह गया है। एक समय था जब गलत खबर छपने पर पाठकों की दनादन चिठिठयां समाचार पत्रों के कार्यालयों में आ जाती थी। संपादक को गलती के लिये माफी मांगने के लिये मजबूर होना पड़ता था किन्तु इन गलतियों पर पाठक ध्यान खींचने के बजाय, उसे सुधारने के बजाय मजा लेते हैं। पाठकों की यह निराशा इस बात को साबित करती है कि उसने अखबारों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है।
80 के दशक में जब मैंने देशबन्धु से अपनी पत्रकारिता का श्रीगणेश किया तो हमें प्रशिक्षण के दौरान यह बात बतायी गयी थी कि हमारे अखबार का पाठक वर्ग कौन सा है और उनमें साक्षरता का प्रतिशत क्या है। यह इसलिये कि हम खबरों की, विचारों की, संयोजन करने की कला उनकी समझ के अनुरूप् कर सकें। गंभीर गहन साहित्यिक शब्दों का जाल उन्हें अखबार से दूर कर देगा। इसका यह अर्थ भी कदापि नहीं था कि आप स्तरहीन शब्दों का उपयोग करें बल्कि समझाइश यह थी कि गृह के बजाय घर लिखें और कृषक के बजाय किसान। जनसत्ता को पढ़ते हुए मैं इस बात से गर्व से भर जाता हूं कि आज भी यह अखबार हिन्दी पाठक का अखबार है। उसकी भाषा, उसकी प्रस्तुति एक आम हिन्दुस्तानी पाठक की है जो गंगा जमुनी संस्कृति में पला बढ़ा है। जिसे हिन्दी के साथ उर्दू का भी ज्ञान है और देशज बोली की सुगंध इस अखबार में छपे हर शब्द से आपको हमको मिल जाएगी। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं उस दिन की जब हिन्दी के अखबार पेजथ्री से उबरकर वापस चैपाल का अखबार बन सकेंगे।
मनोज कुमार

सोमवार, 14 जून 2010

जिंदगियाँ सँवारने वाला हो तलाक कानून


डॉ. महेश परिमल
हिंदू विवाह कानून में संशोधन को केंद्र ने मंजूरी दे दी है। इसके अनुसार एक साथ रहते हुए दंपति को लगे कि अब साथ-साथ रहना मुश्किल है, तो उन्हें आराम से तलाक मिल जाएगा। देखा जाए, तो तलाक एक ऐसा शब्द है, जिसे हम संबंधों को उतारकर फेंकने का पर्याय कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इसे हम छुटकारा भी कह सकते हैं। दूसरी ओर विवाह एक पवित्र बंधन है, इसका विकल्प अभी तक नहीं ढँूढ़ा जा सका है। जब विवाह का यह पवित्र संबंध एकदम टूटने के कगार पर आ खड़ा हो जाए, तब अलग-अलग रहना ही श्रेयस्कर है। इसे सरकार ने अभी माना। इसे कानून का रूप देने की कवायद शुरू हो गई है। इसके अनुसार अब पति-पत्नी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 बी के अनुसार आपसी सहमति से तलाक ले सकते हैं।
आज न्याय की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। न्याय को रसूखदार किस तरह से अपनी जेब में लेकर घूमते हैं, यह बात तो भोपाल गैस कांड से उभरकर सामने आ ही गई है। आज न्याय बिक रहा है। बस खरीददार का रसूखदार होना ही सबसे जरुरी है। ऐसे में बरसों से तलाक की अर्जी देकर न्याय की आस में जीने वाले भला किस तरह के न्याय की आशा में साँस ले सकते है? कई बार तो हालत यह होती है कि पूरा यौवन ही न्याय की आस में बीत जाता है। बुढ़ापे में जब कोई सहारा नहीं होता, तब न्याय के रूप में उन्हें तलाक की अनुमति मिलती है। ऐसे में दोनों की स्थिति दयनीय हो जाती है। ऐसे न्याय का औचित्य ही क्या है? यौवन की कीमत पर मिलने वाले इस न्याय को अन्याय कहना ही उचित होगा। देर से ही सही, सरकार ने इस दिशा में चिंता दिखाते हुए सराहनीय कदम उठाया है। इससे 'बे्रकडाउन ऑफ मेरिजÓ को भी सहारा मिल जाएगा, अर्थात् जिनका वैवाहिक जीवन एकदम ही दूभर हो गया हो, वे भी तलाक की अर्जी देकर अपने जीवन को सुधारने की दिशा में एक कदम उठा सकते हैं। तनावभरी जिंदगी से मुक्ति का साधन बन सकती है यह व्यवस्था। मतभेद और अधिक गहराएँ, उससे बेहतर यही है कि अपनी दुनिया ही अलग बसा ली जाए।
जिस तरह से आज 'लीव इन रिलेशनÓ को कानूनी मान्यता मिल गई है, ऐसे लोगों को अब तमाम दस्तावेज दिखाने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग कानून के मोहताज नहीं हैं। उसी तरह तलाक लेने के लिए भी तमाम दस्तावेज की दरकार न हो, ऐसी व्यवस्था भी होनी चाहिए। जो साथ-साथ नहीं रह सकते, उन्हें साथ-साथ रहने के लिए विवश करना किसी क्रूरता से कम नहीं है। सरकार को यहाँ सावधान रहने की आवश्यकता है कि यह कानून कुछ हाथों का खिलौना बनकर न रह जाए। जहाँ समाज रूढिय़ों से बँधा हो और नारी का स्थान दोयम दर्जे का हो, वहाँ इस व्यवस्था का दुरुपयोग होना लाजिमी है। इससे स्त्री जाति को ही अधिक नुकसान होने की संभावना है। इसके अलावा तलाक के बाद जिंदगी सँवरती नहीं, बल्कि बिखरती है। शिेषकर उन संतानों की, जो दो परिवार, दो खानदान, दो परंपराओं, दो ध्रुवों को जोड़ते हैं। कई हालात में दोनों में से कोई भी संतान को अपने पास नहीं रखना चाहता। संतान उन्हें इस रिश्ते की तरह ही एक बोझ लगते हैं। सरकार ने इसी को ध्यान में रखकर यह ऐतिहासिक कदम उठाया है। संतानों की बेहतर परवरिश के लिए उठाया गया यह कदम कारगर हो, इसकी आशा की जा सकती है। वैसे देखा जाए तो विवाह अपने आप में ही इतना रहस्यमय और गुम्फित है, जिसे समझना बहुत ही मुश्किल है। उस पर हमारे देश का कानून तो और भी गुम्फनभरा है। देश एक होने के बाद भी हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग कानून हैं। इसके बाद भी सब-कुछ कानून के अनुसार ही चल रहा है। मुस्लिम समुदाय में तलाक देना बहुत आसान है। पर हिंदू सम्प्रदाय में अभी तक बहुत मुश्किल था, तलाक लेना। हिंदू समाज में आज भी महिलाएँ रोज जुल्म सहकर भी पति से अलग होने का सपने में भी नहीं सोचती। पर अब बदलाव की जो बयार हबहने लगी है, उससे जीवनमूल्यों में भी काफी बदलाव आया है। अब पति परमेश्वर नहीं, बल्कि जीवनसाथी है। जिसे पत्नी के साथ जीवन बिताना है, अपनी आजादी को भूलकर।
विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है । दो प्राणी अपने अलग-अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं । स्त्री और पुरुष दोनों में परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ और कुछ अपूणर्ताएँ दे रखी हैं। विवाह सम्मिलन से एक-दूसरे की अपूर्णताओं की अपनी विशेषताओं से पूर्ण करते हैं, इससे समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है । इसलिए विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है । एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं का लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे हुए दो पहियों की तरह प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जाना विवाह का उद्देश्य है । वासना का दाम्पत्य-जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है, प्रधानत: दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके। धन्यो गृहस्थाश्रम: । सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं। वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वांंिछत सहयोग देते रहते हैं। ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढिय़ों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुन: प्रतिष्ठित करना आवश्क है । युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।
अंत में केवल इतना ही कि तलाक भी जीवन का अंत नहीं है। जहाँ तलाक होता है, वहाँ जीवन में आशा की कोंपलें फूटने की गुंजाइश हो, तो बेहतर, अन्यथा वह जीवन भी किसी श्राप से कम नहीं होता। विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है, यदि हो तो! विश्वास की महीन डोर पर ही बँधकर लोग पूरा जीवन ही बिता देते हैं। इस डोर को टूटने में जरा भी देर नहीं लगती। लेकिन यही डोर कई परिवारों को जोड़े रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आपसी विश्वास और समझ के सहारे चलने वाला जीवन ही सबसे बेहतर और उल्लासभरा जीवन है। इस पर तलाक की काली छाया भी न पड़े, इसकी पूरी कोशिश होनी चाहिए। कोशिशें जब कामयाब न हो पाए, तभी तलाक का सहारा लिया जाए, ताकि दो नहीं कई जिंदगियों को सँवरने का अवसर मिले।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 12 जून 2010

उदास इतिहास की सधी हुई आवाज-सफाई कामगार समुदाय



डॉं. गंगेश गुन्जन
संसार आज नित्यप्रति मानो सिमटता-सिकुड़ता जा है। अपने देश के भीतर का भी अधिकांश समाज इसी दौड़ में शामिल हो चुका है। ऐसे में इस प्रकार की पुस्तकें सामाजिक अध्ययन और आचार-विचार की दिशा में, आधुनिक भारतीय समाज के मौजूदा परिवेश को समझने में काम आनेवाली है।
देश और दुनिया के अधिकांश की सामाजिक संरचना में गहरे बैठे बीमारी की तरह, आदमी की गंदगी दूसरे एक लाचार आदमी के ही द्वारा सफाई की अमानवीय व्यवस्था, इस उंची वर्तमान सभ्यता की माथे पर कलंक ही तो है, स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के इतने स्वाधीन वर्षो के बाद भी, जात-पात, स्पृश्य-अस्पृश्य के प्रति देश के लोक-समाज का मन-मिज़ाज बहुत निश्छल नही था। ना ही इस विषयक गांधी-मन का आचरण-बोध ही सर्वस्वीकृत था।
उस पथ पर अग्रसर और बहुत दूर तक आगे निकल आये सामाजिक समरसता और न्याय की इस यात्रा में सुलभ-आंदोलन का देशव्यापी वातावरण बन सका और इसने, इस जातीय समाज में आत्मसम्मान की जो पत्यक्ष-परोक्ष चेतना और दृष्टि पैदा की, यथार्थवादी वैकल्पिक प्रयोग और उपाय सोचे-किये, उसकी प्रेरणा का रंग भी इस बहुत जरूरी अत: मूल्यवान किताब में परिलक्षित होता है। इसीलिए आकस्मिक नहीं है कि प्रकाशक ने इस पुस्तक की भूमिका सुलभ- आंदोलन के प्रणेता-संस्थापक डॉ विन्देश्वर पाठक से लिखवाई है।
भेदभाव आधारित अन्यायी जातिप्रथा जैसे मानव विरोधी चलन का परिष्कार-संस्कार करते हुए वसुधैव कुटुम्बकम के प्राचीन मौलिक भारतीय संकल्प को व्यवहार में पुनरूज्जीवित करने के मार्ग को नयी चिन्ता और आधुनिक समझ के साथ प्रशस्त करना अपरिहार्य है। सफाई कामगार समुदाय के ेलेखक ने इस मुद्दे को समझा है। लेखक की इसी समझ ने पुस्तक की उपयोगिता- आयु बहुत बढ़ा ली है।
बंगाल के भक्त कवि चण्डीदास ने कहा : सबार उपर मानुष सत्त ताहर उपर किच्छु नय। समस्त मनुष्यता के नीरोग भविष्य के लिये, इस ग्लोबल होते हुए विश्व समुदाय को, यह पाठ स्मरण करना, विकास के इसी कदम पर, जरूरी है।
''इस समाज के वर्ग ए में आनेवाले लोग आधा इस्लाम तथा आधा हिन्दू धर्म को मानते थे। इतना तो तय है कि इस पेशे में आनेवाले लोग विदेश से नही लाये गये बल्कि यहीं की उच्च जातियों से इनकी उत्पत्ति हुई।खासकर क्षत्रिय और ब्राम्हण जातियांे से।`` -इसी पुस्तक से पृ. ५
''किसी समय डोम वर्ग की जातियां श्रेष्ठ समझी जाती थी वे भी इस पेशे में आईं।`` जैसी जानकारियों वाली यह पुस्तक अपनी समस्तता में भले नही, किन्तु समाज के अधिकतम मानस को अपने दायरे में ला सकने में समर्थ हुई है। सुबुध्द-प्रबुघ्द पाठक समेत उनके लिए भी जो अल्प शिक्षित है। इस प्रकार मुझे तो महसूस हुआ है कि यह जो शोध का विषय है, या अधिक से अधिक कभी इतिहास के दायरे में भी ले जाया जा सकता है, अपने स्थापत्य में यह पुस्तक पढ़ते हुए मौलिक साहित्य लगती चलती है। कथानक की तरह।
प्रश्न यह उठता है कि आखिर किस विपत्ति या समस्या के कारण इन्हे यह गंदा और घृणित पेशा अपनाना पड़ा ?
मुझे तो यह भी लगता है कि इसके कई अंश यदि घोर अशिक्षित लोगों को भी रेडियो-पाठ की शैली में सुनाया जाय तो उन्हे इस पुस्तक का विषय और उनके लिए इसकी उपयोगिता क्या है इस बात को समझने में कहीं से भी कठिनाई नही होगी। पढ़ना इसकी उपयोगिता है, लेकिन सुन-सुनाकर भी इस किताब की आवश्यकता समझी जानी चाहिए।
सामाजिक परिप्रेक्ष्य इस पुस्तक में अपेक्षाकृत गौण है। इनकी उत्पत्ति, इतिहास एवं विकास पर विवेचना पर अधिक ध्यान दिया गया है। वैसे विषय की मांग भी है।
एक समय इस देश के लेखन में भोगे हुए यथार्थ के लिखने का बड़ा बोलबाला हुआ था, जिसकी भी एक ईमानदार उपस्थिति इस किताब में दीखती है। लेखक ने वर्षो इस समुदाय के बीच रहकर इनकी जीवन-स्थितियों की गहराई में जाकर अध्ययन किया है और मर्म के साथ समझा है तब लिखा है, तथ्यों को विश्वसनीयता से रखा है। प्रतिपाद्य विषय से लेखक की यह गहरी सम्बद्धता-संलग्नता पाठक के लिए भी पढ़ना सहज करती है।
इनकी प्रतिपादन-शैली में इसीलिये, इतिहास और तथ्यों की ताकत तो है लेकिन समाज मंे किसी वर्ग या वर्ग विशेष के विरुद्ध किसी प्रकार की गैर जरूरी आक्रमकता नहीं। ऐसी ज्वलंत समाज-सांस्कृतिक समस्याओं-विषयांे के विमर्श में आज प्रमुखता है - आक्रामक पक्षधरता और प्रत्याक्रमक विरोध। तिखे तेवरों के इस द्वेषी परिवेश मंे मूल मानवीय सहिष्णुता का गुण लगभग गायब ही हैं, और वर्ग -मित्र तथा वर्ग-शत्रु का एक नया ही आवतार हुआ लगता है, जिसने हमारी वैचारिक अर्हता का अपहरण कर लिया है। और वह अपहरण इतना देखार भी नहीं कि समाज इसको तत्काल पहचान सके और तब अपनी-अपनी बुद्धि, युक्ति के साथ इसे ग्रहण करे या खारिज कर सके। संवादों की इस आवाजाही मंे पारस्परिक क्रोध, अस्वीकार और संभव सीमा तक प्रतिशोधी मानस ही तैयार कर डाला गया है। मेरे विचार मंे यह इस संदर्भ का यह एक नया ही रोग हो रहा है साधारणत: प्रचलित आजकी व्यवहार शैली, सामाकजि सामस्या के इस अहम और नाजुक मामले को अपने-अपने दायर में ही परखने की हिमायत करती है। यह दुर्भाग्यपुर्ण ही है कि इतनी बड़ी बात को सत्ता और विपक्ष के अंदाज में हल्के-फुल्के तेवर की तरह ले लिया जाता है। एक संदेहास्पद दरार और दूरी तैयार कर इस संवेदनशील विषय पर व्यापक विमर्श नहीं होकर अधिकतर संकुचित चर्चा-प्रतिचर्चा का ही रूप दे दिया जाता है। जिससे परस्पर आपसी समझ और संवाद प्रदूषण का शिकार हो जाता है।
सफाई कामगार समुदाय पढ़ते हुए शिद्दत से महसूस होता है कि लेखक ने इस समकालीन ग्रंथि को समझा है। और अपनी इस प्रगतिशील लौकिक समझ के दायरे में ही इस विमर्श को रखकर देने की जो युक्ति की है वह सराहनीय है। पुस्तक में बरती गई अपने वास्तविक वय से बहुत बढ़कर लेखक द्वारा बरता गया संयम और विवेकी शालीनता दुर्लभ है। पाठक का ध्यान अवश्य जाएगा। आजकी इस डिजिटल-मुठ्ठी मंे समाती जाती हुई यह पूरी दुनियां में, जिसमें कुछ खतरनाक सामाजिक विषमताओं वाला अपना देश भारत भी है, ऐसे सभी विषय अप्रासंगिक होने के लिए तैयार हैं। प्राय: दिनकर जी ने या हंसकुमार तिवारी जी ने या किन्हीं ऐसे ही विचारवान कवि जी ने यह पंक्ति कही थी - 'दुनियां फूस बटोर चुकी है, मैं दो चिनगारी दे दूंगा।` सो वह दो चिनगारी इस तरह की तमाम सामाजिक कोढ़ों वाले महलों का लंका दहन करने को तैयार है। संजीव जी का यह अध्ययन इतर रुची रखने वाले पाठाकों का भी ध्यान खींचेगे।
किसी की भावना आहत किये बिना, पुस्तक, इस कलंकमयी परंपरा पर मौजूदा समाज को आत्मविश्लेषण के लिये प्रेरित करती है। आधुनिक सभ्यता के समक्ष जलता हुआ यह सवाल सामने है! कि मनुष्य को जानवर से भी बदतर, इस नारकीय जीवन स्थिति तक पहुंचाने के लिये कौन उत्तरदायी है? अतीत की इस अनीति में हमारा वर्तमान अर्थात्-समाज कहां तक दोषी है?
इस शोध प्रबन्ध में, उस सिद्धान्त से कुछ भिन्न बल्कि विपरीत स्थापना भी दी गई है जिसके अनुसार भंगी-समुदाय मुसलमानों की देन माने और बतलाये जाते रहे है। भूमिका लेखक डॉ पाठक भी सहमत है जो प्रस्तुत शोध की मान्यता है कि मानव सभ्यता की इस सबसे कुरूप विडंबना में हिन्दू भी पूर्णत: निर्दोष नहीं है, जिसमें मनुष्य के मल-मूत्र अपने सिर, कंधे पर ढोने को अभिशप्त है।
सभ्यता की यह कैसी इक्कीसवीं सदी और उपलब्धियों का कैसा महाशिखर तैयार किया है विश्व के मौजूदा ज्ञान-विज्ञान ने, जिसका सारा पराभव सिर्फ कुछ एक वर्ग के मनुष्यों के लिये ही रख दिया गया है। समाज की कितनी बड़ी आबादी युगऱ्युग से आज भी ज़ह़ालत ज़ालालत और दरिद्रता भरी ज़िन्दगी जीने का मानो श्राप भोग रही है।
तथाकथित वैज्ञानिक उत्कर्षो से जगमग इस वैभवपूर्ण महान युग में जवाबदेह राजनीति, धर्म, समाज की परम्परा खुद हम, यह सभ्य समाज है? कौन? मात्र अपने ही देश नही, विश्व के अन्य देशों के सामने भी विश्व मानवता के सम्मुख ही आज यह यक्ष-प्रश्न है।
इस समुदाय की उत्पत्ति सम्बन्धी कुल तीन परिकल्पनाएं लेखक ने की है। जाहिर है इसके बारे में उचित अपेक्षित तर्क भी रखे है।
समुदाय को दो आधारों पर रखकर, वर्गीकरण भी उपयुक्त लगता है। सफाई पेशा कोई एक जाति नही करती है, इसमें कई जातियां लगी हुई है।
अत: स्वाभाविक ही इस पुस्तक में उसके सूत्र देखने परखने की गंभीर कोशिश है कि आखिर इस पेशे से लोग जुड़े क्यों? इससे पहले इनकी जीविका-पेशा क्या थी? अपने नजरिये से इस पुस्तक में उत्तर ढूंढ़ने की गहरी चेष्टा है।
वसुधैव कुटुम्बकम् की अर्थ-अवधारणा को पूर्वाग्रह से मुक्त होकर विचार करने का आग्रह है लेखक का। एक उदार स्पष्टोक्ति है लेखक की ''इसकी प्रासंगिकता पर विचार क्रम में आप सोचें क्या बेहतर हो सकता है? यदि विसंगति है तो समाधान क्या है ?`` अर्थात हमें बतलाएं, मुझे बतलायें।
विषय के लिये जरूरी बिन्दुओं पर गंभीर मंथन के फलस्वरूप इसमें आई गुणवत्ता स्पष्ट परिलक्षित है। तथ्यान्वेषी विधि के सटीक उपयोग के सहारे यहां संदर्भो और इतिहास के वैसे भी प्रामाणिक प्रसंग प्रस्तुत किये गये है जो इस विषयक जानकारी में वर्तमान पीढ़ी के लिये उपयोगी योगदान बनेंगे । जनसाधारण के अनुभव और ज्ञान के लिये भी यह बड़े काम की होगी।
(क) जनसाधारण को शायद ही यह पता है कि जिस तरह ब्राम्हण अछूत से घृणा-भाव रखते और दूरी बरतते थे, उसी प्रकार अछूत भी ब्राम्हणों से घृणा करते थे। उनमें से कुछ जातियां ब्राम्हण को अपवित्र मानती है।
(ख) ''आज भी गांव में एक पैरियाह(अछूत) ब्राम्हणों की गली से नहीं गुजर सकता, यद्यपि शहरों में अब कोई उसे ब्राम्हणों के घर के पास से गुजरने से नहीं रोकता। किन्तु दूसरी ओर एक पैरियाह किसी भी स्थिति में एक ब्राम्हण को अपनी झोपड़ियों के बीच से नहीं गुजरने देता, उसका पक्का विश्वास है कि वह उनके विनाश का कारण होगा।`` श्री अब्बे दुब्याव, पृ सं. ३४
(ग) जैसे सूचना के स्तर पर यह जानकारी हमें चौकाती है कि ''बार नवागढ़ धमतरी के निकट वहां के आदिवासी वर्ष में एक बार ब्राम्हण की बलि देते थे`` श्री चमन हुमने ने लेखक को बतलाया था, पृ. सं. ३४
(घ) ये जातियां (तंजौर जिले की अछूत जातियॉं) किसी ब्राम्हण के उनके मुहल्ले में प्रवेश करने का बड़ा विरोध करती है। उनका विश्वास है कि इससे उनकी बड़ी हानि होगी। श्री हेमिंग्जवे पृ.सं. ३४
(च) ग्रुप बी की भंगी जातियां अपने संस्कार (विवाह मृत्यु आदि) ब्राम्हणों से नही करवाती, बल्की इनके अपने पुरोहित होते थे जो घर के बुजुर्ग या प्रबुध्द व्यक्ति होते थे। वे इन संस्कारों में ब्राम्हण को बुलाना महाविनाश का कारण समझते थे। पृ.सं. ३५
चमार, चमारी, लैरवा, माली, जाटव, मोची, रेगर नोना रोहिदास, रामनामी, सतनामी, सूर्यवंशी, सूर्यरामनामी, अहिरवार, चमार, भंगन, रैदास आदि ब्राम्हण को पुरोहित नही मानते और न ही इन पर श्रद्धा रखते है। पृ. वही
मैसूर में हसन जिले के निवासी होलियरों के बारे में जी.एस.एफ. मेकेन्सी ने लिखा है कि ''सामान्य रूप से जो ब्राम्हण किसी होलियर के हाथ से कुछ भी ग्रहण करने से इन्कार करते है इसका यही कारण बताते है।``
दूसरी ओर यह जानकारी रोचक है कि....''किन्तु फिर भी ब्राम्हण इसे अपने लिये बड़े सौभाग्य की बात समझते है यदि वे बिना अपमानित हुए होलिगिरी में से गुजर जायं। होलियरों को इस पर बड़ी आपत्ति है। यदि एक ब्राम्हण उनके मुहल्ले में जबर्दस्ती घुसे, तो वे सारे के सारे इकठ्ठे बाहर आकर उसे जुतिया देते है और कहा जाता है कि पहले वे उसे जान से भी मार डालते थे। दूसरी जातियों के लोग दरवाजे तक आ सकते है किन्तु घर में नही घुस सकते। ऐसा होने से होलियर पर दुर्भाग्य बरस पड़ेगा।`` यह अंधविश्वास बहुत कुछ जीवित है अभी।
यह जानना बड़ा दिलचस्प लगता है कि:
''उड़ीसा की कुंभी पटीया जाति के लोग, सब का छुआ खा सकते है किन्तु ब्राम्हण, राजा, नाई धेाबी उनके लिये अस्पृश्य है।`` भारत वर्ष में जाति भेद पृ.सं. १०१ द्वारा
जबकि उपर्युक्त चारो में प्रथम दो का स्थान तो सत्ता और शासक का रहा है।
(छ) मद्रास प्रान्त में कापू जाति की संख्या सबसे अधिक है कापुओं की मेट्लय शाखा अत्यन्त ब्राम्हण संद्वेषी है। पृ.सं. ३६
प्रश्न है कि परस्पर यह विरोध और घृणा क्यों है दोनो में ?
यह केवल राजनैतिक तो नही लगता। धार्मिक, लोकाचार आदि के नाम पर शास्त्रों का गलत प्रयोग जो पिछले कई दशकों से उच्च जातियों का मनुवादी प्रवृत्ति के नाम से समाज और राजनीतिक विचार धारा का केन्द्रीय विमर्श बन गया है-तथा अंधविश्वास, ज्यादा महत्वपूर्ण कारण लगते है। क्योकि ये ही स्पृश्य-अस्पृश्यक की मान्यतायें समय के साथ, स्वभाव संस्कार में परिणत होती चली गई।
इस पूरे विषय को अपेक्षित समग्रता और तर्क संगत संाचे में रखने की लेखकीय दृष्टि का आभास इस पुस्तक के प्रारूप को देखने से लगता है।
इसके पांच खण्ड है। जिसमें विभिन्न विवेचना के बिन्दु शीर्षक आधारित है। इसमें इस पूरे परिप्रेक्ष्य को शोधपरक गहराई से विवेचित करने का उल्लेखनीय कार्य किया गया है, ऐसा आभास होता है इसमें कोई संदेह नही। लेखक की यह भी विशेषता लगती है कि भारत देश मे इतने गहन और संवेदनशील विषय पर, पूर्वाग्रहमुक्त दृष्टि से लगभग नीर-क्षीर विवेकी कर्तव्य के साथ विवेचना की गई है। सफाई कामगार समुदाय की अतिप्राचीन सामाजिक परिस्थितियों का अद्यतन अध्ययन किया गया है। इतिहास के कालक्रम में, उनकी वर्तमान सामाजार्थिक दशा, समाज-संास्कृतिक स्वरूप, लौकिक धार्मिक मान्यतायें, जीवनयापन में व्याप्त हीनग्रन्थि किन्तु प्रतिशोध से भरी बेचैनी और हताशा का भाव लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में पनप रही किंचित नयी समझ और यत्किंचित ही सही परन्तु युगीन लोकतांत्रिक-अधिकार बोध के साथ, अपनी जीवन पद्धति से छुटकारे की प्रवृत्ति और ललक के साथ, विश्वभर में उठती मानवाधिकार की आवाजों से परिचित होते चलने के साथ ही देश के लोकतंत्र में मिले अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में आ रही जागरूकता, ये कुछ ऐसे लक्षण है जिनसे, शिक्षा के प्रति इच्छा और पेट-पालन के लिये सम्मान से भरे आर्थिक-विकल्प की बेचैनी, इनमें आ चुकी है। चेतना से भरे दिशा-बोध से अब ये लैस हो रहे है। और इस किताब में संस्थागत और संगठनों से जुड़ी तमाम जो सूचनाएं दी गई है, उनके मार्फत यह भी सहज ही पता चलता है कि गुणवत्ता भरे जीवनऱ्यापन के लिए संविधान में प्रदत्त अधिकार, समाज और संगठनों-संस्थाओं के ऊर्जा-स्रोज में इस समाज का आत्मसम्मान पूर्ण जीवनयापन का भविष्य मौजूद है जिसे इन्हे विधिवत आकार-प्रकार देना है। अर्थात् यह वर्ग और समाज शिक्षित-प्रशिक्षित हो चुका है। अनुपात भले अभी बहुत संतोषजनक और संतुलित न हो। जहां तक इस पुस्तक की बात है, इसमें इन तथ्यों की रोशनी में अध्ययन-अनुशीलन का जिम्मेदारी भरा प्रयास किया गया है। यह ग्रंथ अपने विषय का एक उपयोगी दस्तावेज बनेगा, ऐसा आभास सहज ही होता है।
०५.०९.२००७ शिक्षक दिवस
डॉ. गंगेश गुंजन
७४-डी, कंचन जंगा अपार्टमेंट,
सेक्टर -५३, नोयडा-२०१३०१
मोबाईल ०९८९९४६४५७६

समीक्षित कृति का नाम :- सफाई कामगार समुदाय
लेखक :- संजीव खुदशाह
प्रकाशक :-राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि. जगतपुरी नईदिल्ली
पृष्ठ सं. :-१४७ मूल्य :- १५०रू.

गुरुवार, 10 जून 2010

बेतहाशा काम, बेशुमार दाम, इससे हुई मौतें तमाम


डॉ. महेश परिमल
एयर इंडिया एक्सप्रेस की दुबई से मेंगलोर आने वाली फ्लाइट दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इसके कारणों की जाँच चल रही है। ब्लेक बॉक्स मिल गया है। अभी तक जो भी पता चला है, उससे यही लगता है कि यह दुर्घटना किसी तकनीकी खराबी के कारण नहीं हुई है। इसकी वजह पायलटों की भूल भी हो सकती है। वैसे भी सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि 78 प्रतिशत विमान दुर्घटनाएँ मानवीय भूल के कारण होती हैं। एयर इंडिया का किराया कम है, इसलिए लोग उस पर अधिक सफर करते हैं, पर वे भूल जाते हैं कि यही एयर इंडिया पायलटों से अधिक से अधिक काम लेता है, इसलिए थके-हारे पायलटों के हाथों में सैकड़ों लोगों की जान दे दी जाती है। निर्दोष यात्री यह नहीं समझ पाते कि पायलट को लगने वाला नींद का एक झोंका भी उनकी जान लेने के लिए पर्याप्त होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि एयर इंडिया पर सफर करने वाले सचमुच अधर में होते हैं। गंतव्य तक पहुँच गए, तो किस्मत, नहंीं तो मौत का साथ तो है ही।
एक बात तो स्पष्ट है कि एयर इंडिया एक्सप्रेस स्टाफ की कमी से जूझ रहा है। इसलिए जितने भी हैं, उनसे अधिक से अधिक काम लिया जा रहा है। डायरेक्टर जनरल ऑफ सिविल एविएशन(डीजीसी) द्वारा तय किया गया है कि केबिन क्रू(पायलट और एयर होस्टेस)से एक वर्ष में एक हजार घंटे से अधिक फ्लाइट न कराई जाए। एयर इंडिया के पास अभी 390 केबिन कू्र हैं, पर आवश्यकता 540 की है। इस कारण जो स्टाफ है, उन पर काम का अत्यधिक बोझ है। फ्लाइट नम्बर 812 का केबिन स्टाफ एक हजार घंटे की अपनी समय सीमा पूरी कर चुका था। उसके बाद भी वह काम कर रहा था, यह बात तो जाँच से ही सामने आएगी। एयरलाइंस मुनाफा कमाने के लिए लगातार गलतियाँ करती जा रही है। अधिकांश एयर लाइंस रात को विमान हेंगर में रखने के बजाए एक ही रात में विमान को रिटर्न के लिए विवश करते हैं। इसे तकनीकी भाषा में क्विक टर्न एराउंड (क्तञ्ज्र) फ्लाइट कहते हैं। दुबई से मेंगलोर की फ्लाइट भी इसी तरह की (क्तञ्ज्र) फ्लाइट थी। यह फ्लाइट 21 मई की रात 8 बजे कालिकट से दुबई जाने के लिए निकली थी और भारतीय समय के अनुसार रात 12 बजे दुबई पहुँची थी। फ्लाइट की लेडिंग तो हुई, उसके बाद कू्र वॉक एराउंड इंस्पेक्शन, फ्यूल चेक और वातावरण की जानकारी लेने में ही व्यस्त रहा। ये सारे कार्य पूरे होते-होते फ्लाइट की वापसी का वक्त हो गया। इस कारण केबिन कू्र आराम नहीं कर पाया। पूरी रात का जागरण करते हुए पायलट को मेंगलोर में लेडिंग के समय नींद का हल्का झोंका आ गया होगा। इसलिए उसके विमान ने रन वे ओवरशूट कर लिया, ऐसी संभावना है। रास्ते पर होने वाली विमान दुर्घटनाओं 50 प्रतिशत दुर्घटनाएँ रात दो बजे और सुबह 6 बजे ही होती हैं। फ्लाइट नम्बर 812 में ऐसा ही होने की संभावना है।
एयर इंडिया एक्सपे्रस ये एयर-इंडिया की सस्ती शाखा है। एयर इंडिया की अपेक्षा इसका किराया कम होता है। कम किराए के कारण लोग इसमें अधिक से अधिक यात्रा करते हैं। इस कारण पायलटों से अधिक से अधिक काम लिया जाता है। एयर इंडिया एक्सप्रेस के चीफ ऑफ ऑपरेशन केप्टन राजीव वाजपेयी ने तमाम केबिन कू्र को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा है, जिसमे कहा गया है कि कुछ स्टेशनों में स्टॉफ की कमी है, पर फ्लाइट की समय सीमा बढ़ न जाए, इसकी जवाबदारी प्रत्येक कर्मचारी की है। इस सूचना पर अमल न होता देख 6 मई को ही राजीव वाजपेयी ने सभी को एक कड़ा पत्र लिखा। सच्चाई तो यही है कि श्री वाजपेयी का यह रवैया ही काफी अन्यायपूर्ण था। यह जवाबदारी तो कर्मचारियों की नहीं, बल्कि एयरलाइंस की होनी चाहिए। एयर लाइंस के मैनेजर की तरफ से किसी पायलट को ड्यूटी पर आने का आदेश दिया जाता है, तो अपनी नौकरी बचाने के लिए पायलट इंकार नहीं करता। दूसरी ओर इस प्रकार की विमान दुर्घटना रोज-रोज तो होती नहीं, इसलिए स्टाफ की कमी की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इस असावधानी के कारण थके-हारे पायलट की भूल के कारण 158 लोगों की जान चली गई। अब यह आवश्यक हो गया है कि देश की तमाम एयर लाइंस में फ्लाइट अवर्स की सीमा का कड़ाई से पालन हो।
मेंगलोर की विमान दुर्घटना हुई, उसके लिए एयर लाइंस की हार्ड लेडिंग को जवाबदार माना जा सकता है। एयरोडायनेमिक्स की भाषा में लेंडिंग दो प्रकार की होती है। हार्ड और साफ्ट लेङ्क्षडग। विमान का जितना वजन होता है, उतने बल के साथ जो हवाई पट्टी को छुए, तो उसका फोर्स 1-जी कहलाता है। यदि विमान अपने वजन की अपेक्षा दोगुने वजन के साथ लेंडिंग करता है, तो उसे हार्ड लेंडिंग कहते हैं। हार्ड लेंडिंग मेें विमान जब हवाई पट्टी को छूता है, तो यात्रियों को हल्का झटका लगता है। हार्ड लेंडिग कम लंबाई वाली हवाई पट्टी पर हो सकती है। यह सुरक्षा की दृष्टि से सुरक्षित भी है। बोइंग कंपनी के विमान 2.5 जी तक हार्ड लेंडिंग को सहन कर सकते हैं। पर एयर लाइंस की नीति साफ्ट लेंडिंग की होती है। एयर इंडिया के अनुसार कोई पायलट जो 1.65 जी की अपेक्षा अधिक बल के साथ लेंडिंग करे, तो उसे इसका स्पष्टीकरण देना होता है। पायलट साफ्ट लेंडिंग करने के लिए हवाई पट्टी आ जाती है, तब कुछ सेकंड के लिए विमान को जमीन से स्पर्श कराने के बदले उसे हवा में तैरता रखते हैं। फ्लाइट नम्बर 812 के पायलट भी साफ्ट लेंडिंग करने की चिंता में विमान रन वे ओवरशूट हुआ हो, इसकी पूरी-पूरी संभावना है। पायलट जब ओवरशूट करते हैं, तब उन्हें डर होता है कि विमान निश्चित स्थान पर खड़ा नहीं हो पाएगा, तब उनके पास बचने का एक ही विकल्प होता है। जिसे गो एराउंड के रूप में जाना जाता है। गो एराउंड में हवाई पट्टी के पर उतरते समय विमान खड़े करना का खतरा दिखता है, तो फिर से टेक-ऑफ किया जाता है और एक चक्कर लगाकर सुरक्षित रूप से लेंडिंग की जाती है। यदि विमान को खड़े करने के लिए गेयर का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, तो गो एराउंड का विकल्प अपनाकर दुर्घटना का टालने की पूरी कोशिश की जाती है। कई पायलट थकान के कारण जब गो एराउंड के विकल्प का प्रयोग करने लगे, तो इस पर कड़ी नीति बनाई गई। अब यदि कोई पायलट गो एराउंड करता है, तो उसे इसका स्पष्टिकरण देना पड़ता है। इस नीति के कारण विमान की लेंडिंग में यात्रियों की जान हमेशा जोखिम में रहती है। मेंगलोर में उतरने के पहले पायलट ने गो एराउंड विकल्प का उपयोग करने की कोशिश की थी, पर तब तक काफी देर हो चुकी थी। ऐसा कहा जाता है।

भारत में पायलटों की कमी है, इसीलिए अब विदेशी पायलटों की नियुक्ति एयरलाइंस में होने लगी है। मेंगलोर फ्लाइट का पायलट जेड. ग्लुसिशिया सर्बिया का था। इन दिनों तमाम एयरलाइंस रशिया, चेकोस्लोवाकिया आदि यूरोपीय देशों से पायलटों का आयात कर रही हैं। यह सच है कि इन देशों के पायलट एक्सपर्ट हैं, पर वे भारत के वातावरण एवं हवाई पट्टियों से बिलकुल अनजान हैं। देश में इस समय करीब 600 विदेशी पायलट हैं। कई बार इनके उच्चारण को हवाई अड्डे पर तैनात ट्राफिक कंट्रोलर समझ नहीं पाते हैं। इनका वेतन भी भारतीय पायलटों की अपेक्षा काफी अधिक है। इसलिए इन पायलटों के खिलाफ भारतीय पायलटों में नाराजगी है। पहले यह तय किया गया था कि एक जुलाई से विदेशी पायलटों का उपयोग बंद कर दिया जाएगा, पर अब इसे एक वर्ष के लिए स्थगित कर दिया गया है। सरकार भी इस दिशा में निष्क्रिय है। एक तो मानवीय भूल उस पर प्रशासनिक भूल, इन दोनों के कारण यात्रियों का जीवन ही अंधकारमय हो गया है।
एयरलाइंस के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। यात्रियों को लुभाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। एयरलाइंस अपना खर्च भी कम कर रही है। ताकि मुनाफा बढ़ाया जा सके। इस चक्कर में पायलटों का वेतन कम किया जा रहा है और उनके काम के घंटों में बढ़ोत्तरी की जा रही है। ऐसे में पायलटों में नशे की आदत बढ़ती जा रही है। घर-परिवार के कई दिनों तक दूर रहकर पायलट एयर होस्टेस से प्यार करने लगते हैं। इसमें कई बार उन्हें मानसिक तनाव से भी होकर गुजरना पड़ता है। इन हालात से गुजरते हुए यदि वे विमान का संचालन करते हैं, तो अपनी जिंदगी उन पर दाँव लगाने वाले यात्रियों की क्या हालत होती होगी, यह तो तमाम विमान हादसों से जाना ही जा सकता है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 2 जून 2010

आखिर कौन है अफजल गुरु को बचाने वाले!


डॉ. महेश परिमल
अजमल कसाब को जब फाँसी की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फाँसी पर चढ़ाने के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई शक्तियाँ अफजल को बचाने में लगी हुई हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं। अब तो यह भी सिद्ध हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदखा किया, उन सभी को पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई शकिक्तयाँ अफजल को बचाने में लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? इसको समझते हुए उधर अफजल यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फाँसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी उसकी एक चाल हो। पर इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने मंे केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी ऊँगली उठ रही है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों है इतने लाचार हमारी राष्ट्रपति?
पहले बात करते हैं देश के सर्वोच्च पद पर विराजमान राष्ट्रपति के अधिकारों की। कहने को तो हमारे राष्ट्रपति अथाह अधिकारों के स्वामी हें। यहाँ पर स्वामिनी कहना अधिक उचित होगा। उनके पास यदि किसी की दया याचिका आती हे, तो वे स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय नहीं ले सकते। पहले उस आवेदन को गृह मंत्रालय भेजा जाता है। वहाँ से टिप्पणी आने के बाद उस पर राष्ट्रपति की मुहर लगती है। अभी हमारे राष्ट्रपति के पास 28 दया याचिकाएँ पेंडिंग हैं। इनमें से 7 गृह मंत्रालय के पास हैं। ये सभी याचिकाएँ भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की तरफ से उन्हें विरासत में मिली हैं। अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उन्होंने मात्र एक ही याचिका पर निर्णय लिया था। उन्होंने बलात्कारी धनंजय चटर्जी की दया याचिका को ठुकरा दिया था। जिसे बाद में फाँसी दी गई। इसके पूर्व के. आर. नारायण ने अपने कार्यकाल में एक भी दया याचिका पर निर्णय नहीं लिया था। अब इन सभी याचिकाओं पर निर्णय लेने की जवाबदारी प्रतिभा पाटिल पर आ पड़ी है। अब यदि हमारी राष्ट्रपति यह सोचें कि उनके पहले के राष्ट्रपतियों ने जब इस पर विचार नहीं किया, तो उनके अकेले करने से क्या होगा? वैसे भी दया याचिकाओं पर राष्ट्रपति कोई स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकतीं। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जब राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने गृहमंत्रालय से प्राप्त एक दया याचिका को ठुकरा देने की सलाह देते हुए फाइल वापस भेज दी थी। वे चाहते थे कि इस अपराधी को फाँसी के बजाए उम्रकैद दिया जाए। इसके बाद गृहमंत्रालय ने उस पर निर्णय लिया और उस पर राष्ट्रपति को अपनी मुहर लगानी पड़ी। इस तरह से देखा जाए, तो कई अधिकार प्राप्त हमारे राष्ट्रपति संविधान के मामले में स्वयं कुछ भी निर्णय लेने में अक्षम हैं।
राष्ट्रपति की इसी अक्षमता का लाभ अफजल गुरु जैसे आतंकवादी उठा रहे हैं। अभी जो दया याचिकाएँ राष्ट्रपति के सामने हैं, उसमें से कई तो दो दशक पुरानी हैं। इन पर अभी तक फैसला नहीं हो पाया है। संविधान की इसी कमजोर नब्ज को पकड़ते हुए जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारुख ने कह दिया कि पहले उन 28 दया याचिकाओं पर फैसला करो, फिर अफजल गुरु की याचिका पर फैसला करना। इसका मतलब साफ है कि न तो उन 28 याचिकाओं पर फैसला होगा न ही अफजल गुरु फाँसी होगी। यही बात स्पष्ट करती है कि अफजल गुरु पर किसका वरदहस्त है? उमर फारुख की इस टिप्पणी पर हमारे संविधान के विशेषज्ञों का कहना है कि फाँसी की सजा कोई होटल में रुम बुकिंग जैसी प्रक्रिया नहीं है, जिसमें जो पहले आएगा, वह पहले पाएगा।
इसके अलावा इस मामले में सबसे बड़ी बाधा सरकार की वह सोच है, जिसके अनुसार यदि अफजल गुरु को फाँसी दे दी गई, तो जम्मू-कश्मीर में हिंसा भड़क उठेगी। क्योंकि अफजल कश्मीरी मुसलमान है। अजमल कसाब को फाँसी हो, यह सभी चाहते हैं, क्योंकि वह पाकिस्तानी है। पर अफजल के मामले में कई लोग ऐसा नहीं सोचते। अफजल के कश्मीरी मुसलमान होने का लाभ कई लोग उठा रहे हैं। कई लोगों के लिए वह हीरो है। इसके पूर्व घाटी में मकबूल बट्ट को 1984 में फाँसी पर लटका दिया गया था। वह 1960 से ही कश्मीर की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था। उसे 1974 घाटी के एक पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या के आरोप में फाँसी की सजा सुनाई गई थी। अंतत: 11 फरवरी 1984 को उसे दिल्ली की तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गई। उसके शव को उसके परिजनों को नहीं दिया गया और जेल में ही उसे दफना दिया गया। उसकी फाँसी के बाद कश्मीर में अलगाववाद का आंदोलन और तेज हो गया। कश्मीर की प्रजा आज भी मकबूल बट्ट को अपना हीरो मानती है। उसकी पहचान शहीदे आजम के रूप में होती है। हर साल 11 फरवरी को श्रीनगर बंद रहता है। उधर कश्मीर के अलगाववादी आज भी अफजल को अपना हीरो मानते हैं। इस स्थिति में यदि अफजल को फांसी दे दी जाती है, तो कश्मीर घाटी एक बार फिर हिंसा की चपेट में आ सकती है। यही कारण है कि सरकार अफजल की फाँसी के मामले को लगातार टाल रही है।
अजमल कसाब को फाँसी की सजा की घोषणा के बाद सरकार पर अफजल के मामले पर जल्द निर्णय लेने का दबाव बनने लगा है। अब समय आ गया है कि अफजल की फाँसी पर निर्णय ले ही लिया जाए। देर होने से अफजल की शख्सियत बढ़ती ही जाएगी। यदि केंद्र सरकार इस दिशा में ठोस कार्रवाई नहीं करती है, तो उसे राजनीतिक लाभ से कम और नुकसान अधिक उठाना होगा। वरना फाइलें तो इधर से उधर होती ही रहेंगी। इन्हीं फाइलों में से कोई फाइल कब कहाँ पहुँच जाए, कहा नहीं जा सकता।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 1 जून 2010

अपनों से ही परायापन क्यों?



मनोज कुमार

किसी भी व्यवसाय का नेचर होता है कि वह अपने प्रतिद्वंदी कंपनी को बाजार में पिट दे। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बाजार में खुद को खड़ा रखने के लिये दू को पीटना जरूरी है। यह स्पर्धा मीडिया में भी चल रही है। अखबारों की प्रसार संख्या और टेलीविजन की टीआरपी को लेकर हो रही इस स्पर्धा को सही कहा जा सकता है किन्तु किसी पत्रकार अथवा मीडिया कर्मी के
सुख-दुख में भी इस तरह स्पर्धा को मैं कतई उचित नहीं मानता। मेरा मानना यह है कि मेरे साथी भी मेरी बातों से सहमत होंगे। भोपाल में यह स्पर्धा काफी वक्त से चल रही है। एक अखबार दूसरे अखबार से और एक चैनल दूसरे चैनल से आगे कल जाने के लिये बेताब है। आंकड़ों का खेल जारी है और इसे गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन जो इन दिनों क्या बल्कि एक मुद्दत से हो रहा है वह निहायत गलत है। बीती रात एक अखबार में काम करने वाले साथी को किसी अज्ञात लोगों ने लूट लिया। इस लूट की खबर सारे अखबारों में है। लूट का शिकार हुए साथी का नाम भी दिया गया है किन्तु अखबार का नाम प्रकाशन से सभी अखबारों ने परहेज किया है। यह पहली घटना नहीं है। एक पखवाड़े के भीतर यह चौथी-पांचवीं घटना है। यह सुखद है कि खबरों के प्रकाशन में कोई परहेज नहीं किया जा रहा है किन्तु सवाल यह है कि अखबार का नाम प्रकाशित करने से
क्या भला हो रहा है। अखबार में काम करने वाला साथी है और उस अखबार का नाम प्रकाशित किया जा रहा है तो ऐसा नहीं है कि इस खबर से अखबार की प्रसार संख्या में कोई वृद्वि या कमी हो रही है या अनावश्यक पब्लिसिटी हो रही है और साथी किसी टेलीविजन चेनल का है तो भी इसी तरह का कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो हमें सिखाया जाता था कि अपनी लाईन बड़ी करने के लिये किसी की लाईन को मिटाने की जरूरत नहीं है बल्कि स्वयं अपनी लाईन बड़ी करें। मीडिया की तीन बुनियादी बातें हैं जिनमें एक समाज को शिक्षित करना भी है। जब स्वयं मीडिया अपनों के साथ ऐसा बर्ताव करेगा तो वह समाज को कैसे और किस प्रकार की शिक्षा देगा, यह आत्ममंथन का विषय है।
मैं समझता हूं कि यह मुद्दा व्यक्ति विशेष, संस्था विशेष का न होकर समूचे मीडिया जगत का है और इस पर पहल करना जरूरी है। अपने अनुभव से मैं यह कह सकता हूं कि इस तरह की खबरों पर मैनेजमेंट का बहुत गंभीर हस्तक्षेप नहीं होता है। मैनेजमेंअ उन खबरों पर जरूर एक्शन लेता है जो उनके व्यवसायिक हितों को चोट पहुंचाती है। जो लोग मेरा ब्लॉग पढ़ रहे हैं, मेरा उनसे अनुरोध है कि इस दिशा में वे अपनी राय दें, हस्तक्षेप करें और हम सब एक हैं कि आवाज बुलंद करें।
मनोज कुमार

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