बुधवार, 31 दिसंबर 2014

‘छिलपे’ का महत्व


डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले ही पड़ोस के घर में बढ़ई ने कुछ काम किया। तब वहां कचरे के
रूप में ‘छिलपा’ दिखाई दिया। साथियों के लिए यह कुछ नया नाम हो सकता है।
लकड़ी पर जब रंदा चलता है, तो लकड़ी का जो ऊपरी भाग निकलता है, उसे ‘छिलपा’
कहा जाता है। छिलपा मुझे अतीत में झांकने के लिए विवश कर देता है। पिताजी
बढ़ई थे, घर पर भी कभी-कभी कुछ काम कर ही लेते थे। अतएव ‘छिलपा’ निकलता ही
था। यह ‘छिलपा’ हमारे कई काम आता। कई बार तो इसकी डिजाइन इतनी सुंदर होती
कि उससे कुछ आर्ट भी तैयार हो जाता। जिस तरह से शार्पनर से पेंसिल छिलते
हुए जो छिलन निकलती है, बच्चे उस पर फेविकोल लगाकर कुछ आकृति बनाते हैं,
ठीक उसी तरह उन छिलको से हम भाई-बहन भी कुछ न कुछ बना ही लेते थे। यही
नहीं, ‘छिलपा’ अन्य कई काम भी आता। चूल्हे पर लकड़ी जलाने के पहले उसे भी
साथ जलाया जाता। ‘छिलपा’  जल्दी जलता, इससे लकड़ी आग जल्दी पकड़ती।

‘छिलपा’ हम भाई-बहनों के जीवन से जुड़ा हुआ है। अनजाने में वह हमें यह
प्रेरणा देता है कि लकड़ी पर रंदा जितना अधिक चलेगा, उससे न केवल लकड़ी
चिकनी होगी, बल्कि ‘छिलपा’ भी उतना ही साफ-सुथरा निकलेगा। यानी जीवन में
जितना अधिक संघर्ष होगा, जीवन उतना ही चमकदार बनेगा। यह तय है। अब जीवन
के चमकदार बनने से क्या होगा? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि
चमकदार जीवन आखिर किसके लिए प्रेरणास्पद होगा? इसे समझने के लिए हमें
लकड़ी की तासीर समझनी होगी। लकड़ी के फर्नीचर कितने सुंदर दिखाई देते हैं?
बरसों-बरस तक वैसे ही बने रहते हैं। उनमें ज़रा भी परिवर्तन दिखाई नहीं
देता। कभी गंदे दिखाई दें, तो गीले कपड़े से पोंछ देने पर वह फिर चमकदार
बन जाता है। इसके पीछे लकड़ी पर रंदे का चलना ही पर्याप्त नहीं होता, उस
पर पॉलिश की जाती है। जिससे उसकी चमक बढ़ जाती है।
‘छिलपा’ इसे हम लकड़ी की चमड़ी कह सकते हैं। चमड़ी निकलती जाती है, लकड़ी
निखरती जाती है। जिस तरह से साँप की केंचुल निकलती है। ठीक उसी तरह मानव
अपनी बुरी आदतों को छोड़ता जाए, तो उसे इंसान बनने में देर नहीं लगेगी।
वास्तव में इंसान यदि सुधरना चाहे, तो उसकी प्रत्येक गलती ही उसे सुधार
सकती है। ‘छिलपा’ तो एक प्रतीक है। सफाई का, गरीबों के ईंधन का। उनका
चूल्हा इसी से जलता है। आजकल लकड़ियां मिलती कहां हैं? वैसे तो ‘छिलपा’ भी
नहीं मिलता। पहले बढ़ई लोगों से ‘छिलपा’ ले जाने के लिए कहते थे, आज उसे
ही बेचते हैं। पहले जो उनके लिए कचरा था, आज आय का साधन है। गरीबी में जो
चीजें गरीब को अनायास मिल जाती थीं, आज उसी के लिए उसे मशक्कत करनी पड़ती
है। उसके लिए दाम देने होते हैं। गरीब को हर चीज के लिए दाम देने होते
हैं, पर जब बात गरीब को दाम देने की होती है, तो हर कोई यही चाहता है कि
उसे कम से कम दाम देना पड़े। कैसा अर्थशास्त्र है यह? गरीब पर ऊंगली उठने
में देर नहीं लगती। मानों उसे ईमानदारी से जीना आता ही नहीं। पर अमीर यह
भूल जाते हैं कि गरीब के बिना उनका जीवन संभव ही नहीं। ‘छिलपा’ गरीबी का
प्रतीक भले ही हो, पर उसमें स्वाभिमान की झलक दिखाई देती है। गरीब का
चूल्हा ही नहीं जलाता ‘छिलपा’, बल्कि गरीब के पेट की आग बुझाने में भी
सहायक होता है। हम सब ‘छिलपे’ में अपने स्वर्गीय पिता के परिश्रम के रूप
में देखते हैं। पिता से यही सीख मिली है, जो आज तक काम आ रही है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

जमीन पर विमान


                                  दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

मासूमों के शोषण की इबारत लिखते कारखाने

डॉ. महेश परिमल
अभी पिछले माह ही हमारे बीच से बाल दिवस गुजर गया। इस दिन हम सबने बच्चों को याद किया, अपना जन्म दिन बच्चों को समर्पित करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी याद किया। साथ ही यह संकल्प लिया कि अब बच्चों को पूरा संरक्षण दिया जाएगा। लेकिन आज भी किसी की साइकिल, स्कूटर या फिर बाइक िबगड़ जाए, तो उसे एक बच्चा ही सुधार पाता है। आज देश के छोटे होटल हों, कारखाने हों, फैक्टरियां हों, सभी स्थानों पर बच्चे काम करते दिख जाएंगे। इससे अनजान होकर हम अपने काम में लगे रहते हैं। कोई काम नहीं आता बाल दिवस पर लिया गया संकल्प। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी दिवाली की खुशियां इन्हीं बच्चों के माध्यम से ही बिखरती हैं। पटाखा बनाने वाले कारखानों में आज भी बच्चे पटाखा बनाते समय काल-कवलित होते हैं। हमारे लिए यह केवल एक खबर मात्र होती है। पर हम खुशियां मनाने के लिए पटाखे चलाना नहीं छोड़ते। पटाखे से पर्यावरण का नुकसान होता है, पर सच तो यह है कि इसमें हजारों मासूमों का परिश्रम लगा हुआ है। पटाखे मासूमों के शोषण की इबारत लिखते हैं। क्यों न हम खुशियां मनाने के लिए पटाखों का इस्तेमाल करना ही बंद कर दें?
भारत विश्व की दूसरी सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है और सूचना तकनीकी के क्षेत्र में भी उसे अग्रणी माना जाता है। इसके बावजूद भारत में बाल मजदूरी जैसा अभिशाप समाप्त होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। यह भारत की आत्मा में लगा हुआ एक ऐसा खंजर है जो निकाले नहीं निकल पा रहा। अनेक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक बाल मजदूर भारत में ही हैं और इनकी उम्र 4-5 वर्ष से लेकर 14 वर्ष के बीच है। विश्व भर में जितने बाल मजदूर हैं, उनका 30 प्रतिशत भारत में ही है। और यह स्थिति तब है, जब भारत में बाल श्रम को गैर कानूनी घोषित किया जा चुका है, और बाल श्रमिकों से काम लेने वालों के लिए अच्छी-खासी सजा का प्रावधान भी है।
दरअसल बाल मजदूरी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसे कानून बना कर खत्म किया जा सके, ठीक वैसे ही जैसे छुआछूत। देश को आजादी मिलने के बाद बने संविधान में छुआछूत को गैर कानूनी करार दे दिया गया, लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और लोगों के नजरिए में बदलाव आए बिना उसका समाप्त होना संभव नहीं था। यही कारण है कि आज भी वह अनेक जगहों पर प्रचलित है। इसी तरह जब तक बाल मजदूरी के पीछे के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक इस अभिशाप से छुटकारा मिलना मुमकिन नहीं है। मजदूर के घर बच्चा पैदा होने पर हिन्दी के प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी जिसकी बहुत मशहूर पंक्ति है "एक हथौड़े वाला और हुआ" यानी, उन्हें भी यही उम्मीद है कि मजदूर का बेटा भी बड़ा होकर बाप की तरह हथौड़ा ही संभालेगा। शायद उन्हें भी यह अंदाज न होगा कि वह कितना बड़ा होगा, जब उसके हाथ में हथौड़ा पकड़ा दिया जाएगा। गरीबी सबसे बड़ा कारण है जो मां-बाप अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगा देते हैं। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह चौपट हो जाना दूसरा बड़ा कारण है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की इतनी कम सुविधाएं हैं कि गरीब बच्चे उनमें दाखिला लेने के कुछ ही समय बाद वहां जाना बंद कर देते हैं। उनके सामने काम करके परिवार की आमदनी में कुछ योगदान करने के सिवा कोई और चारा ही नहीं बचता।
पहले बाल मजदूरी गांव में अधिक थी, लेकिन अब वह शहरों में भी पसर गई है। हर जगह बच्चों को काम करते देखा जा सकता है। बाल मजदूरों की अवैध तस्करी भी फलफूल रही है। बाल मजदूरी को समाप्त करने के प्रयास में लगे स्वयंसेवी संगठन कानूनों को कड़ा बनाने की मांग करते आ रहे हैं, लेकिन कानून कड़ा करने से भी समस्या का हल होने वाला नहीं। दहेज हत्या संबंधी कानून कितना कड़ा है, यह किसी से छिपा नहीं। फिर भी दहेज के लिए बहू की हत्या की घटनाएं आए दिन देखने में आती हैं। बाल मजदूरी तभी समाप्त हो सकती है, जब उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बदला जाए, जिनके कारण वह पैदा होती और पनपती है।
जब तक गरीब बच्चों की निःशुल्क शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बारे में सरकार गंभीरता से नहीं सोचती और उन्हें सुविधाएं मुहैया नहीं कराती, तब तक बाल मजदूरी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। गरीब अपने परिवार का पेट बहुत मुश्किल से भर पाता है। अगर वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकता, तो वह उन्हें काम पर ही लगाएगा। अक्सर उस पर कर्ज का बोझ भी होता है जिसे उतारने के लिए उसे यूं भी अतिरिक्त आमदनी की जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगाना विवशता है। जब तक उसकी यह विवशता बनी रहेगी, बाल मजदूरी भी जाने वाली नहीं।
इस दिश में अगर हम एक छोटी-सी शुरुआत करें कि हम न तो अपने घर में किसी बाल मजदूर को काम पर रखेंगे, न ही बाल मजदूरों के हाथों से अपने वाहन ठीक कराएंगे। इसके अलावा जिन होटलों आदि में बच्चे काम कर रहे हों, वहां न जाएं। एक छोटी-सी कोशिश यह भी हो सकती है कि जहां बच्चे काम कर रहे हों, वहां जाकर हम किसी एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठाने का संकल्प लें। यह एक छोटी-सी शुरुआत होगी, पर निश्चित रूप से यह मन को संतोष दिलाएगा और दिल को सुकून। एक कदम तो उठाइए, कुछ समय बाद आपके पास सुकून की ढेर सारी दौलत होगी। जिस दौलत को पाने के लिए इंसान जिंदगी भर कोशिश करता है, वह आपके कदमों में होगी।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

मासूम की मौत से जुड़ी है इबोला के जन्म की कहानी

डॉ. महेश परिमल
इबोला एक बार फिर सर उठा रहा है। यह एक ऐसा रोग है, जो अभी तक लाइलाज है। दूसरा यह सघन बस्तियों में तेजी से फैलता है। अब तो यह हवाई मार्ग से होते हुए एक देश से दूसरे देश तक पहंंुचने भी लगा है। इसलिए यह उन देशों में भी तेजी से फैलेगा, इसमें कोई शक नहीं।
गिनी के मेलिआंडु गांव में रहने वाला एमिल केवल दो वर्ष का था, तब उसने एक छोटे-से चमगादड़ का मांस खा लिया। शाम तक उसकी तबियत बिगड़ने लगी। उसके बुखार के साथ सरदर्द होने लगा। यही नहीं उसे डायरिया भी हो गया। दो दिन के भीतर ही उसकी मौत हो गई। यह मौत दिसम्बर 2013 में हुई, इसके कुछ ही दिनों बाद उसकी तीन बहनें भी मौत का शिकार हो गई। आखिर में उसकी गर्भवती मां भी चल बसी। यह इबोेला से हाेने वाली मौतों की शुरुआत थी। इस रोग ने अब तक 5 हजार लोगोें को अपनी चपेट में ले लिया है। इस रोग ने हजारों मासूमों को अनाथ बना दिया है। हजारों लोग अभी भी मौत से जूझ रहे हैं। इस रोग की पहचान सर्वप्रथम सन् 1976 में इबोला नदी के पास स्थित एक गाँव में की गई थी।
जहां से इबोला की शुरुआत हुई, वह गांव गिनी के एकदम जंगली क्षेत्र है। इस क्षेत्र के आसपास पामोलीव की खेती होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस क्षेत्र में चमगादड़ों द्वारा इस रोग के वाइरस सबसे पहले मासूम एमिले तक पहुंचे। इस वाइरस ने इसके बाद तो हिलमिलकर रहने वाली बस्तियों पर हमला बोला। लोग लगातार मरने लगे। पर किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। वैसे भी दस देश में स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी नहीं हैं कि लोगों के बीमार पड़ते ही उनका इलाज हो जाए। इबोला से होने वाली मौतों को पहले तो किसी ने नोटिस नहीं लिया। इसका इलाज भी किया गया, तो कोई अन्य रोग समझकर। मौतों के मामले उन क्षेत्रों में अधिक होते, जो गांव एकदम सुदूर क्षेत्रों में होते। इस देश की सीमा पर दो अन्य देश सीरिया लियोन और लाइबेरिया की सीमाएं हैं। धीरे से इबोला ने इन देशों में भी प्रवेश कर लिया। एक छोटे से गांव के एक मासूम को हुए इस रोग ने देखते ही देखते तीन देशों को अपनी चपेट में ले लिया। हजारों की जान लील ली। इसका सीधा असर अस्पताल के कर्मचारियों पर पड़ा। पहले तो इस रोग को कालरा या बुखार वाला रोग समझकर इलाज किया जाता रहा। उन्हें इस आभास तक न था कि यह काेई नया रोग है। इसे समझने तक पहली 15 मौतों में से चार तो केवल स्वास्थ्यकर्मी ही थे।
इबोला के फैलने के पीछे ग्रामीण इलाकों की परंपराएं अधिक दोषी हैं, क्योंकि सुदूर क्षेेत्रों में गांव के लोग कई तरह की परंपराओं का पालन करती हैं, जिसमें किसी की मौत के बाद शव को नहलाना, उसे चूमना आदि शामिल है। शव की अंतिम यात्रा में भी पूरा गांव शामिल होता, इससे इबोला का वाइरस तेजी से फैलता।
हवाई जहाजों ने पूरी दुनिया को बड़ी तेजी से जोड़ दिया है। लेकिन बेहतर हुई फ्लाइट कनेक्टिविटी के साथ बीमारियां भी ग्लोबल हो रही हैं। अब बीमारियां कुछ ही घंटों में हजारों किलोमीटर पहुंच जाती हैं। चमगादड़ या फ्रूट बैट में इबोला का वायरस होता है। कुछ पश्चिमी अफ्रीकी देशों में ये छोटा चमगादड़ खाया जाता है। पहले यह वायरस जानवर से इंसान में आता है और फिर इंसान से इंसान में फैलता है और वह भी तेजी से। फिलहाल इसके रुकने का कोई उपाय दिखाई नहीं देता। बीमारियां कैसे फैलती हैं, बर्लिन की हुमबोल्ट यूनिवर्सिटी के बायोलॉजिस्ट डिर्क ब्रोकमन इसका जवाब नक्शे की मदद से खोज रहे हैं। ब्रोकमन के मुताबिक पहले बीमारियां आस पास के इलाकों में भी फैलती थी लेकिन अब हालात पूरी तरह अलग हैं, "आज लोग हवाई जहाजों के बड़े नेटवर्क की मदद से लंबी यात्रा करते हैं। जिस तरह बीमारियां आजकल फैल रही हैं, वैसा पहले नहीं हुआ।"मतलब साफ है कि लोगों के साथ रोगाणु भी सफर कर रहे हैं। हर साल दुनिया भर में साढ़े तीन अरब लोग हवाई अड्डों के जरिए यात्रा करते हैं। कोई भी जगह, भौगोलिक रूप से भले ही हजारों किलोमीटर दूर क्यों न हो, एयरलाइंस के कनेक्शन उसे बहुत तेजी और कारगर ढंग से करीब ला चुके हैं।
फैलाव का पूर्वानुमान
ब्रोकमन कहते हैं, "इसी के आधार पर हमने एक ऐसा मॉडल बनाया है जो बता सकता है कि कैसे एयर ट्रैफिक के चलते संक्रमण वाली बीमारियां दुनिया में फैल रही हैं। इससे पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है। जैसे, अगर आपको पता है कि बीमारी कहां पैदा हुई तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह किसी नए इलाके में कब पहुंचेगी।"2009 में स्वाइन फ्लू की शुरुआत मेक्सिको में हुई। पूरी दुनिया में फ्लाइट कनेक्शन होने की वजह से साल भर के भीतर स्वाइन फ्लू करीब करीब पूरी दुनिया में फैल गया। ब्रोकमन ने अब इबोला के प्रसार का अनुमान लगाने के लिए एक मॉडल तैयार किया है। यह बताता है कि पश्चिम अफ्रीका से इबोला के बाहर फैलने की संभावना कितनी है। मॉडल के काम करने के तरीके को समझाते हुए जर्मन वैज्ञानिक कहते हैं, "माना कि इबोला से संक्रमित 100 लोग विमान में सवार होते हैं, तो उनमें से एक जर्मनी आता है। यानी जोखिम को एक फीसदी है। फ्रांस में खतरे की संभावना यहां से दस गुना ज्यादा है।" इसकी वजह यह है कि गिनी से उड़ान भरने वाले ज्यादातर विमान पेरिस आते हैं, इसीलिए फ्रांस में जर्मनी से ज्यादा रिस्क है।
फिलहाल दूसरे देश भी शाेधकर्ताओं की मदद ले रहे हैं, वे जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें भी इबोला के लिए तैयार रहना चाहिए। ब्रोकमन कहते हैं, "मेरे पास कई लोगों के सवाल आ रहे हैं कि दक्षिण अफ्रीका में इबोला फैलने का खतरा कितना है, क्योंकि इबोला से वहां पर्यटन उद्योग ढह सकता है। लेकिन फिर पता चला कि दक्षिण अफ्रीका में फ्रांस की तुलना में इबोला का खतरा कम है। पहले तो हम बस अपनी सोच और अनुभव के आधार पर अनुमान लगा सकते थे, लेकिन अब हमारे पास इसके लिए आंकड़े हैं।" ब्रोकमन अपने मॉडल से यह भी पता लगा सकते हैं कि अगर प्रभावित इलाके से फ्लाइट संपर्क काट दिया जाए तो किस ढंग से बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है।
एक तरफ बचाव है तो दूसरी तरफ इबोला की काट ढूंढने की कोशिशें जारी हैं। अफ्रीका से हर रोज इबोला के नए मामले सामने आ रहे हैं। दुनिया भर के लोग सोच रहे हैं कि आखिर इस मर्ज़ की दवा क्यों नहीं बनाई गई। वैज्ञानिक और रिसर्चर जर्मनी के साथ मिल कर एक नई तकनीक पर काम कर रहे हैं। एक ग्रीनहाउस में तंबाकू के हज़ारों पौधे उगाए रहे हैं। जीवविज्ञानी यूरी क्लेबा और उनके साथी तेजी से इन पौधों को उगाना चाहते हैं। उनका मानना है कि ये पौधे इबोला वायरस से लड़ने का राज़ खोल सकते हैं। यह एक जटिल तरीका है, जिसमें इन्हें एक विदेशी डीएनए से संक्रमित कराया जाता है। इससे वे दोबारा इस तरह प्रोग्राम हो जाते हैं कि वे सिर्फ एक प्रोटीन पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। हम उसी प्रोटीन से दवा बनाना चाहते हैं।
मूल रूप से यूक्रेन के वैज्ञानिक क्लेबा पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के साथ मिल कर काम करते हैं। वे अफ्रीका के खबरों पर बारीकी से नजर रखते हैं। उनके प्रयोग पर अमेरिका की दो दवा कंपनियों ने अभी से संपर्क साध लिया है। वे इबोला की दवा तैयार कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए काफी पैसों की जरूरत होगी। इस पौधे से तैयार प्रोटीन को पहले रिसर्च के लिए तैयार किया जाएगा। इसकी दवा को अब तक सिर्फ कुछ बीमार लोगों पर ही टेस्ट किया गया है। यूरी क्लेबा की टीम में तीस वैज्ञानिक हैं, कई सीधे पढ़ाई पूरी करके उनके साथ जुड़ गए हैं। 2004 से वे एक जटिल प्रक्रिया पर काम कर रहे हैं, जो सिर्फ एक ही बीमारी से नहीं लड़ेगी। यह दवा उद्योग में कई चीजों और दूसरे उत्पादों के लिए उपयोग हो सकती है। इबोला उनमें से सिर्फ एक है। इसलिए यह टूल तैयार करना बहुत जरूरी है।
चुंबकीय इलाज से खून की सफाई 15।09।2014
वैज्ञानिकों ने एक ऐसा उपकरण विकसित किया है जिसकी मदद से इबोला या कोई अन्य खतरनाक वारयस हो, बैक्टीरिया हो या दूसरे हानिकारक तत्व, इन्हें चुंबक के जरिए खून से निकाला जा सकेगा।
इबोला से खेल को खतरा
हिन्द महासागर के छोटे से देश सेशेल्स ने सियेरा लियोन की फुटबॉल टीम को देश में आने से मना कर दिया। सियेरा लियोन बुरी तरह इबोला से प्रभावित है। इसके बाद खेल पर इस बीमारी का असर दिखने लगा है। इबोला वायरस एक बार शरीर पर हमला कर दे, तो बचने की उम्मीद बहुत कम होती है। अफ्रीका में इलाज के दौरान संक्रमित हुए एक डॉक्टर की जर्मनी के अस्पताल में मौत हो गई।
इबोला से होने वाली मौतें:-
कुल       सीएरा लिओन   गिनी   नाइजीरिया
5689      1398               1260          8
डॉ. महेश परिमल

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नवभारत भोपाल के संपादकीय पेज पर 13 दिसम्बर 2014 को प्रकाशित मेरा आलेख

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

सरकार नई पर आइडिए पुराने

डॉ. महेश परिमल
नई सरकार के शुरुआती हाव-भाव देखकर यही लग रहा था कि यह सरकार तेजी से काम करेगी, नई-नई योजनाएं लाएगी, सबको खुश करने का प्रयास करेगी। पर लगता है कि अब केंद्र की भाजपा सरकार के पास ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जिसमें कुछ नयापन हो। अभी दस नवम्बर को सरकार ने जो उड्‌डयन नीित जाहिर की, उसमे कुछ भी नया नहीं है। सभी कुछ पुरानी कांग्रेस सरकार की नीतियां ही काम करती दिखाई दे रही है। यही हाल किसान विकास पत्र का भी है। पहले तो सरकार ने नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन की दुहाई दे रही थी। पर जब अपनी पर बन आई, तो पुरानी नीतियों को ही अपनाना शुरू कर दिया। सरकार ने भ्रष्टाचार हटाना चाहती है, इनोवेटिव आइडिया लाना चाहती है, परंतु पुरानी नीतियां ही यदि जारी रखेगी, तो फिर यूपीए सरकार ही क्या बुरी थी?
कालेधन पर सरकार फिसड्‌डी साबित हो ही रही है। जिन खातों का खुलासा किया गया था, उसके बाद उसमें से अधिकांश खातों में अब जीरो बेलेंस है। सरकार पुरानी बोतल में नई शराब बेचने की फिराक में है। KYC के बाद KYP आया।  KYC यानी ‘नो योर कस्टमर रिक्वायरमेंट’, और KYP यानी ‘किसान विकास पत्र’। केवायसी का सरकार काेई खास लाभ नहीं उठा पाई। दूसरी तरफ बैंकों द्वारा केवायसी के बहाने ग्राहकों को परेशान ही कर रहीं हैं। केवायसी के माध्यम से बैंक में धन जमा कराने वालों की सही जानकारी मिल जाने का अंदाजा था। अब सरकार का ध्यान केवीपी पर है। रिजर्व बैंक ने केवायसी के लिए जो नियम तैयार किए हैं, वे केवीपी पर भी लागू होंगे। सरकार का गणित यह है कि 2015-16 तक किसान विकास पत्र द्वारा 35 हजार करोड़ जमा किया जा सकता है। परंतु ये केवीपी के संबंध में जो सूचना घोषित की गई है, उससे यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति किसान विकास पत्र खरीदता है, वह केश या चेक से भी निवेश कर सकता है। यदि वह चेक से निवेश करता है, तो उसकी पहचान हो सकती है, पर यदि वह नगद राशि देकर निवेश करता है, तो उसकी पहचान मुश्किल हो जाएगी। कोई भी व्यक्ति सुरक्षित निवेश चाहता है, तो वह सरकार की राशि दोगुना करने वाली योजना को अधिक पसंद करता है। किसान विकास पत्र से राशि 8 साल में दोगुनी हो जाती है। दूसरी ओर सरकार की कुछ ऐसी ही योजनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए वित्त मंत्री अरुण जेटली जिसे इनोवेटीव स्कीम बता रहे हैं, उसमें ऐसा कुछ भी इनावेटीव नहीं है।
हाल के डाटा अनुसार लोगों ने सोने में अधिक निवेश किया है। सरकार इसके विकल्प के रूप में किसान विकास पत्र की योजना सामने लाई है। अक्टूबर 2014 में सोने का आयात 4 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। पिछले वर्ष इस महीने में वह मात्र एक अरब डॉलर था। सोने के भाव टूटते होने के बाद भी इसका आयात बढ़ा है। अक्टूबर 13 में जिस सोने का आयात 24 टन था, वह इस अक्टूबर में 120 टन तक पहुंच गया। इस दिशा में सरकार ने अभी सोने के आयात में अस्थायी रूप से घटाने के लिए टैक्स लगाया है। परंतु इसके कारण सोने की तस्करी बढ़ गई है। सरकार निवेशकों से इसके नए विकल्प मांग रही है, पर लोग इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। लगता है सरकार के पास इस दिशा में कोई नया आइडिया नहीं है। जैसे निवेशकों के लिए नए आइडिए नहीं हैं, वैसे ही उड्‌डयन नीति के लिए हुआ है। यूपीए सरकार के दौरान उड्‌डयन नीति की हालत बहुत ही खराब थी। इस कारण एयर इंडिया ठप्प हो गई। उधर विदेशी एयरलाइंस सारा मुनाफा खींच ले जाती। नई एनडीए सरकार चाहती तो नए नियमों को लाकर नई उड्‌डयन नीति बनाकर उड्‌डयन क्षेत्र को रन वे पर ला सकती थी। पर ऐसा नहीं हो पाया, अब नई सरकार ने भी उसे बिना बदले पिछली नीतियों को ही लागू कर दिया है, तो उससे देश की एयरलाइंस को घाटा होगा और विदेशी एयरलाइंस मुनाफे में रहेंगी।
िकसान विकास पत्र 1988 में पहली बार सबके सामने आए थे। लोकप्रिय योजना होने के बाद भी नवम्बर 2011 में वापस ले ली गई थी। इसकी सिफारिश श्यामलाल गोपीनाथ कमेटी ने की थी। 2009-2010 में उस योजना के तहत 21 लाख, 631 हजार, 16 करोड़ रुपए इकट्‌ठा किए गए थे। बाद में पता चला कि यह योजना कालेधन को छिपाने का अड्‌डा बन गई है, तो इस बंद कर दिया गया। यह बात तीन साल पुरानी है। तब 2010-11 था, अब 2014-15 है। इन वर्षों के दौरान केवायसी ने सख्त कानून बनाया है। दूसरी तरफ मध्यमवर्ग निवेश के लिए विश्वसनीय और सुरक्षित योजनाओं की खोज में हैं, सरकार ब्याज नहीं बढ़ा रही है। इसलिए निवेशकों को अधिक ब्याज देने वाली योजनाओं के रूप में निवेशक शेयर बाजार और सोने की खरीदी की ओर प्रेरित हो रहे हैं। इसमें धन का भविष्य अनिश्चित होता है। दूसरी ओर किसान विकास पत्र से राशि दोगुनी हो ही जाती है। सरकार ने किसान विकास पत्र बाहर लाकर कोई तोप नहीं मारी है। किसान विकास पत्र से काला धन बाहर आएगा, यह सोच भी शेखचिल्ली की सोच है। कालाधन जमा करने वाले सोने और शेयर बाजार अधिक पसंद करते हैं। किसान विकास पत्र में तो फिक्स डिपाजिट से भी कम ब्याज मिल रहा है, अरुण जेटली जिसे इनोवेटीव आइडिया कह रहे हैं, वह वास्तव में महाबोगस योजना है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि सरकार शोर ही अधिक कर रही है, जमीनी हकीकत कुछ और ही है। उसके पास नई सोच नहीं है, जिसका प्रचार वह करती रही है। पुरानी सोच के सहारे देश तो पहले ही चल रहा था। लोगों ने भाजपा सरकार से जो उम्मीद जताई थी, उसे पूरा करने में वह विफल साबित हुई है। लोगों को एक बार तो भरमाया जा सकता है, पर बार-बार नहीं।
‎                डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

किस ऑफ लव’ का तमाशा

डॉ. महेश परिमल
भारत अपनी शालीन परंपराओं के कारण पूरी दुनिया में पहचाना जाता है। जहां भी संस्कारों की बात आती है, तो भारतीय परंपराओं की दुहाई दी जाती है। यह परंपरा आज भी देश में जारी है। पर अब इस परंपरा में दरार साफ दिखाई देने लगी है। पाश्चात्य संस्कृति ने देश के युवाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया है। कहते हैं कि अच्छी परंपरा का अनुसरण लोग या तो करते ही नहीं, या अनदेखा कर देते हैं, पर बुरी परंपरा को लोग जल्दी स्वीकार कर लेते हैं। पश्चिमी संस्कृति से हमने भले ही उनकी समय की पाबंदी को नहीं सीखा हो, पर उनके फैशन को अपनाने में हमने जरा भी देर नहीं की। इसके अलावा नशे को भी हमने अपनी जिंदगी में शामिल कर लिया। प्राचीन भारत में स्त्री-पुरुष संबंधों और यौन विषयक चर्चा खुले रूप में होती थी। इसके प्रमाण हमें खजुराहो और कोणार्क के मंदिर के बाहर के शिल्प में देखने को मिलता है। मुगल काल में भी स्त्रियों की सुरक्षा पर खास खयाल रखा जाता था। घूंघट एवं परदा प्रथा भी स्त्री सुरक्षा का एक आवश्यक अंग है। अब पश्चिमी संस्कृति ने विश्व के देशों में बीच और बिकिनी संस्कृति पैदा की है। इस विरोध तो हो ही रहा है, पर इसके समर्थक भी कम नहीं है। पिछले रविवार को मुम्बई और कोच्ची में दो संस्कृतियों के बीच की टक्कर ‘किस ऑफ लव’ के रूप में देखने को मिली।
मुम्बई के समुद्र तट और सूरत के बगीचों में कई युवा जोड़े में प्रेम लीला करते पाए जाते हैं। इस क्रिया में वे इतने अधिक मगन होते हैं कि दूसरों का खयाल तक नहीं रखते। वे यह भी नहीं देखते कि उनकी इन क्रियाओं पर कई लोगों की नजर है, जिसमें बच्चे भी शामिल हैं। कई बार लोग शरमा जाते हैं, पर युगल नहीं शरमाते। मायानगरी के बांद्रा बेंड स्टेंड क्षेत्र में समुद्री किनारे रहने वाले पॉश कॉलोनी के लोग पुलिस से यह शिकायत करते हैं कि उनके फ्लैट की खिड़की से युवाओं की प्रेमलीला के दृश्य आम हो गए हैं। इस आधार पर पुलिस उन युगलों को या तो परेशान करती है या फिर उनसे वसूली कर लेती है। मुम्बई में जहां रहने के लाले हैं, ऐसे में लोगों का एकांत नहीं मिलता, इसलिए वे सार्वजनिक स्थलों पर अपने प्रेम का इजहार करने लगे हैं। हाल ही में केरल के कालिकट (कोजीकोड) में प्रेम की खुलेआम अभिव्यक्ति की चर्चा जोरों पर है। कालिकट के एक कॉफी शॉप में कुछ युवक जब आधी रात को पार्टी का आनंद ले रहे थे, तब कुछ रुढिग्रस्त युवक वहां कैमरामेन को लेकर आ गए और उन्होंने युवकों से मारपीट शुरू कर दी। मारपीट का विरोध करने वाले कोच्ची के युवाओं ने फेसबुक पर ‘किस ऑफ लव’  नाम का एक समूह बनाया। रविवार को कोच्ची के मरीन ड्राइव क्षेत्र में खुलेआम चुम्बन करने का कार्यक्रम आयोजित किया। मुम्बई के आईआईटी कॉलेज में पढ़ने वाले विद्याíथयों ने इसमें दिलचस्पी ली और उन्होंने भी मुम्बई के केम्पस में ‘किस ऑफ लव’  का तमाशा शुरू कर दिया। इसकी जानकारी जब परंपरावादी युवाओं को मिली, तब उन्होंने इसका विरोध करने का आह्वान नागरिकों से किया। इस कारण आपाधापी का माहौल बन गया।
कोच्चि के मरीन ड्राइव में ‘किस ऑफ लव’  कार्यक्रम के आयोजन से जुड़ने के लिए फेसबुक का सहारा लिया। इससे वहां करीब 50 युगल पहुंच गए थे। इसका विरोध करने के लिए वहां शिवसेना ने अपना मोर्चा खोल दिया। शिवसेना के करीब 300 कार्यकर्ताओं ने वहां पहुंचकर हंगामा मचाया। इस विरोध प्रदर्शन में कई मुस्लिम संगठन भी शामिल हो गए। जिन्होंने ‘किस ऑफ लव’ का आयोजन किया था, उन्होंने इसके लिए बाकायदा पुलिस से इसकी अनुमति मांगी थी। पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। पुलिस ने इसलिए अनुमति नहीं दी कि इससे क्षेत्र की शांतिभंग होने का पूरा खतरा था। स्वाभाविक था कि ‘किस ऑफ लव’ के आयोजक इससे नाराज हुए। इसलिए वे पुलिस की परवाह न करते हुए आयोजन स्थल पर पहुंच गए। 50 युगलों की हरकत का विरोध करने के लिए 300 लोगों का हुजूम। तय था यातायात थम गया। कुछ अनोखा हो जाने की पूरी गुंजाइश थी। पर पुलिस ने स्थिति लाठीचार्ज से संभाल ली। युगलों के होंठ आपस में नहीं मिल पाए, उसके पहले ही भीड़ बिखर गई। युगलों को पुलिस वेन में ले जाया गया, वहां इन युगलों ने आपस में चुम्बन लेकर कार्यक्रम को सफल बनाने का संतोष प्राप्त किया।
कोच्ची के युगलों के समर्थन में मुम्बई के आईआईटी कॉलेज के विद्याíथयों द्वारा भी केम्पस में मॉरल पुलिस का विरोध करना चाहा। इसके लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। शिवसेना ने राजनैतिक कारणों से इसका विरोध शुरू किया। केम्पस में सुरक्षा के खास इंतजाम किए गए। व्यवस्था इतनी अधिक चुस्त थी कि कार्यक्रम स्थल पर न तो पत्रकारों को जाने दिया गया और न ही प्रेस फोटोग्राफरों को। इसलिए यह कार्यक्रम हुआ या नहीं, इसकी जानकारी भी लोगों को नहीं मिल पाई। पुलिस को भी लाठीचार्ज नहीं करना पड़ा। कोच्ची और मुम्बई में हुए ‘किस ऑफ लव’ के इस तमाशे को लोग कुछ समय बाद भूल जाएंगे। पर समाज के सामने यह सवाल एक दावानल के रूप में खड़ा होगा अपने प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए सार्वजनिक स्थल को चुनना क्या उचित है? आखिर समाज इसे कहां तक स्वीकार करेगा। इसका जवाब यही हो सकता है कि पाश्चात्य देशों में जिस तरह से इस तरह की हरकत को लोग अनदेखा कर देते हैं। ठीक हमें भी उसी तरह से हलका चुम्बन, आलिंगन आदि निर्दोष चेष्टाओं के प्रति सहिष्णु होना होगा। हमारे संविधान में इस तरह की हरकतों के लिए कोई धारा नहीं है। इन हरकतों से किसी को किसी भी प्रकार की सजा नहीं दी जा सकती। अभिव्यक्ति जब अश्लीलता की सीमाएं पार करने के पहले युवाओं को अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। सार्वजनिक स्थानों की भी अपनी सीमाएं एवं मर्यादा होती है। इन सीमाओं को लांघने वाले लोगों पर कार्रवाई के लिए पुलिसतंत्र है।
कई मामलों में जब हम विदेशों का अंधानुकरण कर रहे हैं, तो फिर इसमें क्या बुराई है। विदेशों से हमने जो कुछ अच्छा सीखा, वह समाज में दिखाई नहीं देता, किन्तु जो बुरा सीखा, वह समाज में साफ दिखाई दे रहा है। समाज में आज जो विकृति आ रही है, वह इसी का परिणाम है। आज युवा भटक रहे हैं। वे हर चीज को शार्टकट से हासिल करना चाहते हैं। फैशन में वे किसी से पीछे नहीं रहना चाहते। उनमें नई सोच और ऊर्जा की कतई कमी नहीं है, पर सही दिशा निर्देश न मिलने के कारण वे जो चाहते हैं, वे नहीं कर पा रहे हैं। अब उनकी समझ कम होती जा रही है, वे ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं, जिसमें उन्हें कोई रोकने वाला न हो। यदि कोई रोकना भी चाहे, तो वे अपनी हरकतों को नया रंग देने के लिए सार्वजनिक स्थानों का उपयोग करते हैं। समाज यह होने नहीं देगा। इसलिए ऐसी हरकतों का विरोध हो रहा है। इस पर युवाओं की अपनी सोच हो सकती है, जिसे उम्र का तकाजा कहा जा सकता है, पर समाज ने अपने लिए स्वयं ही एक लक्ष्मण रेखा खींच रखी है, जिसे पार करने का मतलब ही है कि समाज से विद्रोह करना। अच्छी परंपराओं को समाज स्वीकारता है, तो पुरानी रुढ़ीवादी परंपराओं को बाहर भी यही समाज करता है। इसलिए ‘किस ऑफ लव’ का विरोध होना ही चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 15 नवंबर 2014

भारतीय टीम का चमकता सितारा: रोहित शर्मा

डॉ. महेश परिमल
सचिन तेंदुलकर की सेवािनवृत्ति के बाद शायद पहली बार क्रिकेट की किसी खबर ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है। सचिन जैसे सार्वकालिक महान खिलाड़ी को खेलता देखते हुए बड़ी हुई एक पूरी पीढ़ी को सचिन की निवृत्ति के बाद क्रिकेट की तरफ दिलचस्पी कम होने लगी थी। इस दौरान 13 नवम्बर को लोगों ने कोलकाता के ईडन गार्डन में रोिहत शर्मा को जब खेलते देखा, तो क्रिकेट में दिलचस्पी न रखने वाले भी टीवी के आगे नतमस्तक होकर उसका खेल देखने लगे। सन् 2010 के पहले तक वन डे क्रिकेट में दोहरा शतक लगाना एक सपने की तरह था। ऐसे में कोई खिलाड़ी एक वर्ष के अंदर ही वन डे में दो बार दोहरा शतक लगाए, तो इसे भारतीय क्रिकेट की एक उपलब्धि ही कहा जाएगा, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब सामने आस्ट्रेलिया या श्रीलंका जैसी मजबूत टीम हो। दूसरी बार में 264 रन के स्कोर को पार कर जाए, तो इस घटना को एक चमत्कार ही कहा जाएगा।
5 साल पहले तक वन डे में डबल सेंचुरी एक दुष्कर काम माना जाता था। तब रोहित शर्मा ने एक ही वर्ष में दो बार दोहरा शतक लगाकर देश का नाम गौरवान्वित किया है। वन डे में कुल 300 गेंदें फेंकी जाती हैँ। उसमें से एक खिलाड़ी के िहस्से में अधिकतम 150 गंेद ही आती हैं। स्ट्राइक लेने के कारण एक जैसी सरलता रहती है, तब दूसरी 25 गेंदें भी मिल जाती हैं। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने वाली प्रतिस्पर्धी टीम के धुआंधार बॉलर और फील्डर का सामना करते हुए प्रत्येक गेंद पर डेढ़ से दो रन का स्ट्राइक रेट रखना, ये कोई हंसी खेल नहीं है। इस तरह से रोहित शर्मा का रिकॉर्ड लम्बे समय तक अटूट रहेगा, ऐसा कहा जा सकता है।
 रोहित शर्मा में शर्मा उपनाम से लोग यही अंदाजा लगाते हैं कि उनका परिवार उत्तर प्रदेश का होगा। पर उनका परिवार तेलुगु ब्राह्मण है। मुम्बई में ही रहकर वे बड़े हुए। इसलिए उन्हें पक्का मुम्बइया कहा जा सकता है। उनका परिवार आज भी तेलुगु वातावरण अधिक पसंद करता है। अभी पिछले महीने ही एक रियालिटी शो के दौरान उनसे यह पूछा गया कि आपको किस तरह की लड़कियां पसंद हैं, तब रोहित का कहना था कि आप यह पूछें कि किस तरह की लड़कियां अच्छी नहीं लगती, यह पूछा जाए, तो तुरंत ही कह दूंगा कि अनुष्का शर्मा जैसे लड़कियां मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं। इस शो में रोहित ने न तो सचिन की तरह गोल-मोल बातें की और न ही धोनी की तरह अ... अ...कर कहीं अटके। उनके व्यक्तित्व में एक बेफिकरापन है, जो मैदान में भी साफ दिखाई देता है। विवियन रिचर्ड्स, सनत जयसूर्या, वीरेंद्र सहवाग की निजी जिंदगी में जो बेफिक्री और दूर तक न सोचने की झंझट से मुक्त होकर अपने तरीके से जीने का एक नैसर्गिक स्पर्श रोहित के खेल में दिखाई देता है। रोहित शर्मा में वे सभी विशेषताएं हैं, जो एक कुशल खिलाड़ी में होनी चाहिए। टीम के एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी होने के बाद भी उनके फार्म को लेकर हमेशा ऊंगलियां उठती रही हैं। 2007 से वे वन-डे के एक्सपर्ट बेट़समेन की तरह अपना स्थान जमा चुकने के बाद भी उसने केवल 7 टेस्ट मेच ही खेले हैं। पिछले वर्ष नवम्बर में ही उन्होंने ईडन गार्डन में वेस्ट इंडिज के खिलाफ टेस्ट कैरियर की शुरुआत की। पहले दो टेस्ट में दोहरा शतक जमाया। इसके बाद, वन डे और टी-ट्वंटी का फार्मेट उन्हें अधिक रास आता है। ओपनर बेट्समेन के रूप में या तो नैसर्गिक खिलाड़ी चलते हैं या फिर टेक्निकल साउंड खिलाड़ी। क्रिकेट के ऐसे स्ट्रेटेजिक फार्मेट में ऐसा काम्बिनेशन किसी भी टीम के लिए अनिवार्य माना जाता है। सचिन-सहवाग, तयसूर्या-संगकारा, जार्ज मार्श-डेविड बून इस प्रकार के यादगार काम्बिनेशन माने जाते हैं।
एक खिलाड़ी के रूप में रोहित शर्मा नैसर्गिक हैं और यह नैसर्गिक निश्चितता के साथ खेलते हैं, तब बेहद आक्रामक हो जाते हैं। इस तरह से कोच डंकन फ्लेचर ने उन्हें परखा और वन डे की ओपनिंग में भेजना शुरू किया। तीसरे-चौथे क्रम में जब वे खेलने आते थे, तब 81 इनिंग में उनकी लोकप्रियता का क्रम 26 था, जो ओपनिंग में बढ़कर 37 तक पहुंच गई। भारतीय टीम में अपना स्थान बनाना रोहित के लिए कभी सरल नहीं रहा। मीडिल ऑर्डर मं उनकी स्पर्धा सुरेश रैना के साथ होती थी, तो वन डाउन में उन्हें विराट कोहली के साथ मैदान में उतरना पड़ता। परिणामस्वरूप उत्कृष्ट प्रदर्शन होने के बाद भी टीम में उनका चयन कभी स्थायी रूप से नहीं हुआ। 2007 में पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ शानदार प्रदर्शन के बाद भी 2009 में तीव्र स्पर्धा के कारण उनका चयन नहीं हो पाया। उन्हें अनदेखा किया गया। एक तरह से उन्हें हाशिए पर ही धकेल दिया गया। 2010 में जिम्बाबवे और श्रीलंका के खिलाफ शतक जमाने के बाद भी 2011 के वर्ल्ड कप में उन्हें टीम में नहीं लिया गया। अंतत: 2011 के वेस्ट इंडिज के दौरे पर जाना उनके लिए शुभदायी रहा। जहां रोहित ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। सचिन, सहवाग और धोनी जैसे धाकड़ महारथियों की अनुपस्थिति में सुरेश रैना की कप्तानी के तहत खेली गई सीरीज में उन्हें मेन ऑफ द सीरीज के खिताब से नवाजा गया। इसके बाद उन्हें प्रोक्सी के बदल स्थायी खिलाड़ी के रूप में स्वीकृति मिली। दाएं हाथ के बेट्समेन के रूप में कितने ही अंशों में रोहित सचिन की तरह स्टेमना दिखाते हैं। गेंद जब काफी करीब पहुंच जाती है, तभी वे बेट उठाकर अपनी स्टाइल से कवर ड्राइव पर डाल देते हैं। तब ऐसा लगता है कि कहीं ये सचिन ही तो नहीं खेल रहे हैं। उनका जुनून सहवाग की तरह है, पर सहवाग की तरह स्टम्प खोेलकर खेेलने की गलती वे टी-ट्वंटी में तो करते ही नहीं। गांगुली की तरह लोफ्टेड शॉट खेलने के लिए वे अवश्य ललचाते हैं, परंतु गंेद को पहचानने की काबिलियत उन्हें सफल खिलाड़ी बनाती है।
13 नवम्बर को ईडन गार्डन में खेले गए मैच में रोहित से हर तरह के शॉट्स खेलकर अपनी कुशलता जाहिर कर दी। साथ ही नैसर्गिक खेल खेलते हुए इतना बड़ा स्काेर खड़ा कर रोहित ने यह आशा बंधा दी कि वन डे में एक खिलाड़ी 300 रन भी बना सकता है। माना यह जाता है कि सहजता से खेलने वाला खिलाड़ी अक्सर पिच पर अधिक समय तक नहीं टिक सकता। यह तर्क देने वाले श्रीकांत और सहवाग का नाम बताते हैं, ये दोनों खिलाड़ी प्रत्येक गेंद को बाउंड्री में भेेजने के चक्कर में अपना विकेट खोया है। रोहित शर्मा की गिनती भी ऐसे ही खिलाड़ी के रूप में होने लगे, इसके पहले उसे वर्ल्ड क्लास और वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम शामिल कर टीकाकारों के मुंह िसल दिए। 264 रन की उनकी इनिंग में रोहित ने कुल 173 बॉल पर 33 चौके और 9 छक्के लगाए। इसमें से केवल दो छक्के ही ऐसे थे, जिसमें उसने खतरा उठाया था। बाकी अधिकांश बाउंड्री तो उसने बहुत ही आराम से लगाई थी। फक्कड़ गिरधारी टाइप के बेट़समेन की छाप से अलग होकर विकेट बचाकर रन बनाने वाले परिपक्व खिलाड़ी के रूप में उनका यह खेल उन्हें एक नई पहचान देगा।
सचिन, द्रविड़, लक्ष्मण और गांगुली.... भारतीय क्रिकेट के फेब्यूलस फाेर के रूप पहचाने जाने वाले महान खिलािड़यों की निवृत्ति के बाद नई पीढ़ी की टीम आकार ले रही है। भविष्य के कप्तान के रूप में माने जाने वाले विराट कोहली 26 वर्ष के हैं, सुरेश रैना 27, शिखर धवन 28 और अजिंक्य रहाणे 26 वर्ष के हैं। 26-27 की यह ब्रिगेड में 26 वर्ष के रोहित शर्मा के लिए शुभदायी हो सकती है। एक बार बहुत अच्छा खेलकर दो वर्ष तक टीम में अपना स्थान सुरक्षित कर लेना ऐसा गावस्कर, कपिल या अजहर का जमाना अब नहीं रहा। आईपीएल टूर्नामेंट के कारण देश भर की प्रतिभाएं सामने आ रहीं हैं। ऐसे में प्रत्येक मेच में अपना स्थान बनाए रखना तलवार की धार पर चलने के समान है। रोहित शर्मा के रूप में भारतीय क्रिकेट टीम को एक ऐसा खिलाड़ी मिला है, जो आक्रामक होने के बाद भी लंबी इनिंग खेल सकते हैँ। ऐसे में यह आशा रखी जा सकती है कि रोहित शर्मा आगे के मेचों में अपनी प्रतिभा का इसी तरह प्रदर्शन करते रहेंगे। गुड लक इंडिया।
‎      डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

डायबिटीज का बढ़ता खतरा


आज हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

कालाधन बना सरकार की दुविधा

डॉ. महेश परिमल
विदेशों में जमा कालेधन पर सरकार की नीयत साफ नहीं लगती। कालेधन पर सरकार ने ऐसा हौवा खड़ा किया है, मानो जिसका खाता विदेश के किसी बैंक में हो, वह अपराधी है। बात ऐसी बिलकुल भी नहीं है। विदेशी बैंकों में खाता होना अपराध नहीं है, बल्कि बिना टैक्स के विदेशी बैंकों में धन जमा कराया है, तो यह अपराध है। पहले सरकार ने कहा था कि वह स्विस बैंकों में धन जमा कराने वाले 31 नामों को उजागर करेगी, बाद में उसने केवल 8 नाम ही जाहिर किए। इससे उसकी नीयत का ही पता चलता है। अब वह कह रही है कि वह धीरे-धीरे नामों को जाहिर करेगी। इससे साफ है कि वह नहीं चाहती कि उनके किसी समर्थक का नाम जाहिर हो। इस पर कांग्रेस ने दृढ़ता से कहा है कि सरकार को नाम जाहिर करना हो, तो दावे के साथ करे। नाम जाहिर करने के नाम पर भयादोहन न करे। इसके पहले भी लोकसभा चुनाव के दौरान के दौरान नरेंद्र मोदी गरज रहे थे कि वे 100 दिन के अंदर विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत ले आएंगे। बाद में सरकार ने यू टर्न लेते हुए यह कहा कि कितने ही देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते के अनुसार नामों को जाहिर नहीं किया जा सकता। तब प्रजा में काफी ऊहापोह मच गई। इससे सरकार नाम जाहिर करने के लिए आगे आई। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि जिन्हें काला धन प्राप्त करना आता है, वे उसे खपाना भी जानते हैं। ऐसे लोगों के पास चार्टर्ड एकाउंटेंट की पूरी फौज होती है, जो लोग काले धन को ठिकाने लगाने के गुर जानते हैं। प्रजा तो यही चाहती है कि किसी भी तरह से देश का लूटा हुआ माल देश में आ जाए।
स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक के एक भूतपूर्व कर्मचारी ने 2006 में बैंक के डाटा की चोरी कर फ्रेंच सरकार को बेच दिया था। इस डाटा में स्विस बैंक के 628 भारतीय खाताधारकों के नाम भी थे। सन् 2011 में फ्रांस की सरकार ने भारत सरकार को यह सूची सौंपी थी। उसमें कई कांग्रेसी एवं यूपीए के नेताओं के नाम होने के कारण सूची को जाहिर नहीं किया गया। तब यूपीए सरकार ने यह बहाना बनाया था कि सन् 1994 में भारत ने स्विस सरकार से यह समझौता किया था कि उनकी बैंकों के भारतीय खाताधारकों के नाम जाहिर नहीं किए जाएंगे। स्विस बैंक की तरह यूरोप में भी लिफ्टेनस्टीन की एलजीटी बैंक के 26 भारतीय खाताधारकों के नाम भी जर्मन सरकार द्वारा भारत को सौंपे गए थे। इन 26 में से 18 खाताधारकों के खिलाफ भारतीय कानून के तहत कार्यवाही की गई थी। इन नामों को सुप्रीमकोर्ट को भी दिया गया था। तब भी यह प्रश्न उठा था कि सरकार बाकी नामों को क्यों जाहिर नहीं कर रही है। आखिर उन्हें किस आधार पर संरक्षण दिया जा रहा है। केंद्र में एनडीए सरकार सत्ता पर काबिज हुई, तो उसके हाथ में विदेशी बैंकों के 628 में से 26 भारतीय खाताधारकों के नाम और उनकी विस्तृत जानकारी प्राप्त हो गई थी। पर सरकार ने उन नामों की घोषणा करने में टालमटोल की। इसका कारण था कि भाजपा के साथ संबंध रखने वाले कितने ही उद्योगपतियों के नाम उसमें शामिल थे। आखिर सुप्रीमकोर्ट ने जुलाई 2011 में एक आदेश में केंद्र सरकार से कहा था कि वे सारे नाम जाहिर करे। पर यूपीए सरकार एक के बाद एक नए बहाने बताकर नामों को जाहिर करने से बचती रही। अब एनडीए सरकार ने सुप्रीमकोर्ट से यह विनती की है कि वह 2011 के आदेश में थोड़ा बदलाव करे, ताकि नामों को जाहिर करने में उसे परेशानी न हो। करचोरों को सजा से बचाने में यूपीए और एनडीए सरकार एक जैसी साबित हुई है।
इधर यह कहा जा रहा है कि विकीलिक्स ने धमाका करते हुए कितने ही भारतीयों के नाम जाहिर किए हैं, जिनके खाते विदेशी बैंकों में हैं। ये सभी स्विटजरलैंड की एचएसबीसी बैंक में खातेदार हैं। नामों करे गंभीरता से नहीं लिया गया, क्योंकि इसके पर्याप्त सुबूत नहीं थे। फ्रांस की सरकार के पास से केंद्र सरकार को जो 628 नाम मिले थे, उसकी जांच करते समय यह खयाल आया कि 628 में से केवल 418 के ना के आगे सरनेम मिल रहे हैं। इन्हें नोटिस भेजा जाता, इसके पहले इनमें से 136 ने यह स्वीकार कर लिया कि हमारे खाते उक्त बंक में हैं। केंद्र सरकार 136 में से 50 की जानकारी स्विस बैंक के अधिकारियों को जांच के लिए भेजी है। यूपीए की तरह एनडीए की विलंब नीति से यह शंका उत्पन्न होती है कि कहीं सरकार कर चोरों को संरक्षण तो नहीं दे रही है। यह बाबा रामदेव की बात मानें, तो उनके अनुसार भारत का 60 लाख करोड़ रुपया काला धन है। अभी जो एचएसबीसी बैंक के 628 खाताधारकों की बात चल रही है, उसमें स्विस अधिकारियों के मुताबिक करीब 14 हजार करोड़ रुपए का कालाधन है। सवाल यह उठता है कि बाकी का काला धन कहां है? उसे भारत वापस लाने के लिए क्या नरेंद्र मोदी सरकार किस तरह के कड़े कदम उठा रही हैं? यह जानने का अधिकार प्रजा को है। यदि खाताधारकों में नेताओं के नाम हैं, तो उनके खिलाफ कड़े कदम उठाने से सरकार की विश्वसनीयता बढ़ेगी। प्रजा को सरकार के तर्क और सुप्रीमकोर्ट की लताड़ से कोई मतलब नहीं है, वह तो यही चाहती है कि देश का काला धन देश में वापस आ जाए, बस।
स्विस बैंकों में देश का काला धन रखने वाले लोगों की सूची बाहर करने की बात पर सरकार अब फंस गई है। पहले उसने 13 नाम जाहिर करने की बात की थी, पर बाद में केवल 3 नाम ही जाहिर किए थे। इससे सरकार की फजीहत हुई। उसके पास कोर्ट ने भी सरकार से यही कहा कि वह खाताधारकों की सूची अदालत को सौंपे। वास्तव में सरकार पसोपेश में है। विदेशी बैंकों में केवल नेताओं के ही खाते नहीं हैं, बल्कि कई कापरेरेट कंपनियों के नाम भी हैं। डाबर कंपनी के प्रदीप बर्मन का नाम जाहिर होते ही डाबर के शेयरों की कीमत 9 प्रतिशत घट गई। सरकार को इस तरह की दिक्कतों के लिए भी तैयार रहना होगा। जैसे-जैसे नाम जाहिर होते जाएंगे, वैसे-वैसे देश की राजनीति करवट लेने लगेगी। देश में आजकल गलत लोगों का साथ देने के लिए कई लोग तैयार है। आसाराम जेल में हैं, पर उनके समर्थकों का विश्वास अभी भी कायम है। इसी तरह यदि लालू यादव का नाम आ जाए, तो उनके समर्थक इसकी आक्रामक प्रतिक्रिया देंगे, यह भी तय है। इसलिए सरकार को यह कदम सोच-समझकर उठाना होगा। अब सरकार को भी यह समझ में आ गया है कि चुनाव में जो वादे किए जाएं, उसे पूरा करने में कितनी दिक्कत होती है। 100 दिन में कालाधन लाने का दावा करने वाली सरकार अब अपने ही जाल में उलझ गई है।
सरकार ने कोर्ट को तीन सीलबंद लिफाफे सौंपे हैं। इनमें से पहले लिफाफे में दूसरे देशों के साथ हुई संधि के कागजात हैं। दूसरे लिफाफे में विदेशी खाताधारकों के नाम हैं, जबकि तीसरे लिफाफे में जांच की स्टेटस रिपोर्ट है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि इसमें साल 2006 तक की एंट्री है। इसकी वजह यह है कि स्विस अधिकारियों ने इस बारे में जानकारी देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि ये इनपुट्स चोरी की जानकारी के आधार पर हासिल किए गए हैं। खाताधारकों की लिस्ट में सबसे ज्यादा रकम वाला अकाउंट 1.8 करोड़ डॉलर वाला है, जो देश के दो नामी उद्योगपतियों के नाम से है। इस लिस्ट में सबसे ज्यादा नाम मेहता और पटेल सरनेम के साथ हैं। 
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

कुछ चिंतन

हमारी वनश्री
वनश्री का आशय होता है वनलक्ष्मी यानी वन संपदा। किसी भी देश के वन हों, सभी वन संपदा से परिपूर्ण होते हैं। ऐसा कोई वन होता ही नहीं, जहाँ वन संपदा न हो। वन का दूसरा आशय हरियाली भी है। भला किसे अच्छी नहीं लगती, हरी-हरी वसुंधरा, यहाँ से वहाँ तक हरितिमा की फैली हुई चादर, आँखों को राहत देने वाले लुभावने दृश्य। जब भी हम प्रकृति के संग होते हैं, एक अजीब सी राहत महसूस करते हैं। हमें ऐसा लगता है, जैसे हम प्रकृति की गोद में हैं। जहाँ वह हमें माँ की तरह दुलार कर रही है। प्रकृति की इस रंगत को वनों से सहारा दिया है। जहाँ वन होंगे, वहाँ भूमि का कटाव नहीं होगा। वहाँ सघन पेड़ होंगे। यही सघन पेड़ बादलों को लुभाते हैं और बारिश के लिए लालायित करते हैं। इसलिए यह पर्यावरण बचाना है, तो वनों को संरक्षित रखना होगा। वन सुरक्षित रहेंगे, तभी हमारी वन संपदाएँ भी सुरक्षित रहेंगी। वन संपदाओं पर ही मानव स्वास्थ्य निर्भर है।
वनों से हमें शुद्ध वायु ही नहीं, बल्कि कई जड़ी-बूटियाँ भी प्राप्त होती हैं। पूरा आयुर्वेद वनों से प्राप्त जड़ी-बूटियों पर आश्रित है। हमारे देश के वनों में वन संपदा के रूप में प्रचूर मात्रा में जड़ी-बूटियाँ हैं। इसी से हमारे स्वास्थ्य की रक्षा होती है।् हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वनों में वायु होती है, यही वायु हमारी आयु में वृद्धि करती है। आज लोगों को स्वच्छ वायु ही नही मिल रही है, ऐसे में वन हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हो जाते हैं। वन संपदा का संरक्षण एक समस्या है, क्योंकि लगातार घटते वन क्षेत्रों के कारण वन संपदा का भी दोहन हो रहा है। वनों को लेकर हमारी आवश्यकताएँ बढ़ रहीं हैं, इसलिए वन संपदा की रक्षा के लिए अधिक से अधिक पौधरोपण करना आज की महती आवश्यकता है। वन रहेंगे, तभी मानव जीवन संभव है। बिना वनों के मानव जीवन की कल्पना करना बेमानी है। दोनों ही परस्पर निर्भर हैं। वनों को लेकर अब हमारी चिंता बढ़ी है। सरकार ने भी इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, जिसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। वन नीति के सख्ती से अमल में लाए जाने के कारण बन संपदा के दोहन पर रोक लगी है। यही नहीं औषधीय पौधों के संरक्षण और नए पौधे उगाने की दिशा में भी सार्थक प्रयास हो रहे हैं।
दुनिया भर में जंगलों की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने वाली नई तकनीक से पता चलता है कि भविष्य में वनों की हालत को लेकर जो चिंता जताई गई है, स्थिति उतनी भी ख़राब नज़र नहीं आती है। शोधकर्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने कहा है कि उन्होंने जंगलों की पहचान के बारे में जो अध्ययन किया है उससे पता चलता है कि दुनिया भर में वनों की कमी वाली स्थिति से बेहतरी की तरफ अब कोई पड़ाव नजर आने वाला है। इस अध्ययन में दुनिया भर में लकड़ियों के भंडार और वन संपदा का अनुमान लगाने की कोशिश की गई है यानी अध्ययन में सिफऱ् उस इलाक़ों का अध्ययन भर ही नहीं किया गया जो पेड़ों से ढँके हुए हैं। इस अध्ययन के परिणाम अमरीकी पत्रिका प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकैडेमी ऑफ़ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।
वनों को लेकर हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। वन से हम जब भी कुद लें, तो उसे कुछ देने के बारे में भी सोचें। निश्चित रूप से वन को हम जो कुछ भी देंगे, वह दोगना होकर हमें मिलेगा। तपती गर्मी में किसी घने पेड़ की छाया मानव को जो राहत देती है, वह किसी संपदा से कम नहीं होती। वनों के आसपास निवास करने वाले आदिवासी वनों पर ही आश्रित होते हैं। कई मामलों में ये वन की रक्षा भी करते हैं। वनों से प्राप्त होने वाली जड़ी-बूटियों का इन्हें ज्ञान होता है। अपना घरेलू इलाज वे वनों से प्राप्त औषधियों से ही कर लेते है।
अंत में यही कि जिस तरह से हम लक्ष्मी को लुभाने का यथासंभव प्रयास करते हैं। ठीक उसी तरह हमें हमारी वनश्री को भी बचाए रखने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।  वनों को नष्ट करने की हर कोशिश को नाकाम करें। तभी बच पाएगी हमारी वनश्री।

पानी को पानीदार रखें
देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जिसे प्रकृति उसके लायक पानी न देती हो, लेकिन आज दो घरों, दो गांवों, दो शहरों, दो राज्यों और दो देशों के बीच भी पानी को लेकर एक न एक लड़ाई हर जगह मिलेगी। मौसम विशेषज्ञ बताते हैं कि देश को हर साल मानसून का पानी निश्चित मात्रा में नहीं मिलता, उसमें उतार-चढ़ाव आता रहता है, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि प्रकृति पानी बांटने वाली पनिहारिन नहीं है। तीसरी-चौथी कक्षा से हम सब जलचR पढ़ते हैं। अरब सागर से कैसे भाप बनती है, कितनी बड़ी मात्रा में वह ‘नौतपा’ के दिनों में कैसे आती है, कैसे मानसून की हवाएं बादलों को पश्चिम से, पूरब से उठाकर हिमालय तक ला जगह-जगह पानी गिराती हैं, हमारा साधारण किसान भी जानता है। ऐसी बड़ी, दिव्य व्यवस्था में प्रकृति को मानक ढंग से पानी गिराने की परवाह नहीं रहती। फिर भी आप पाएंगे कि एकरूपता बनी रहती है। हमने विकास की दौड़ में सब जगह एक सी आदतों का संसार रच दिया है, पानी की एक जैसी खर्चीली मांग करने वाली जीवनशैली को आदर्श मान लिया है। अब सबको एक जैसी मात्रा में पानी चाहिए और जब नहीं मिल पाता तो हम सारा दोष प्रकृति पर, नदियों पर थोप देते हैं।
जल संकट प्राय: गर्मियों में आता था, अब वर्ष भर बना रहता है। ठंड के दिनों में भी शहरों में लोग नल निचोड़ते मिल जाएंगे। इस बीच कुछ हज़ार करोड़ रुपए खर्च करके जलसंग्रह, पानी-रोको, जैसी कई योजनाएं सामने आई हैं। वाटरशेड डेवलपमेंट अनेक सरकारों और सामाजिक संगठनों ने अपनाकर देखा है, लेकिन इसके खास परिणाम नहीं मिल पाए। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अकाल, सूखा, पानी की किल्लत, ये सब कभी अकेले नहीं आते। अच्छे विचारों और अच्छे कामों का अभाव पहले आ जाता है। हमारी धरती सचमुच मिट्टी की एक बड़ी गुल्लक है। इसमें 100 पैसा डालेंगे तो 100 पैसा निकाल सकेंगे। लेकिन डालना बंद कर देंगे और केवल निकालते रहेंगे तो प्रकृति चिट्ठी भेजना भी बंद करेगी और सीधे-सीधे सज़ा देगी। आज यह सज़ा सब जगह कम या ज्यादा मात्रा में मिलने लगी है। पानी अभी भी हमारे लिए राशन जितना महत्वपूर्ण नहीं हो पाया है, लेकिन जब यही पानी पेट्रोल से भी महँगा मिलेगा, तब शायद हमें समझ में आएगा कि सचमुच यह पानी को हमारे चेहरे का पानी उतारने वाला सिद्ध हुआ। हमारे देखते-देखते ही पानी निजी हाथों में पहुँचने लगा। पानी का निजीकरण पहले यह बात हम सपने में भी नहीं सोच पाते थे, लेकिन आज जब सड़कों के किनारे पानी की खाली बोतलें, पॉलीथीन आदि देखते हैं, तब समझ में आता है कि यह पानी तो सचमुच कितना महँगा हो रहा है।
यह सच है कि पानी का उत्पादन कतई संभव नहीं है। कोई भी उत्पादन कार्य बिना पानी के संभव नहीं। जन्म से लेकर मृत्यु तक पानी की आवश्यकता बनी रहती है। पानी को प्राप्त करने का एकमात्र उपाय वर्षा जल को रोकना। इसे रोकने के लिए पेड़ों का होना अतिआवश्यक है। जब पेड़ ही नहीं होंगे, तब पानी जमीन पर ठहर ही नहीं पाएगा। अधिक से अधिक पेड़ों का होना यानी पानी को रोककर रखना है। दूसरी ओर हमारे पूर्वजों ने जो विरासत के रूप में हमें नदी, नाले, तालाब और कुएँ दिए हैं, उन्हीं का रखरखाब यदि थोड़ी समझदारी के साथ हो, तो कोई कारण नहीं है कि पानी न ठहर पाए।
जल ही जीवन है, यह उक्ति अब पुरानी पड़ चुकी है, अब यदि यह कहा जाए कि जल बचाना ही जीवन है, तो यही सार्थक होगा। मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है। कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते। हाँ, मौका पड़ने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते। अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा। पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है। संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं। हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं माँगता। हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है। पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं।

वृक्ष बोलते हैं
सर जगदीश चंद्र बोस ने यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्ष में भी जान होती है, वे भी सुख-दु:ख और संवेदनाओं को समझते हैं। यह भी तय हो गया कि वृक्ष इंसानों की भाषा समझते हैं। प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो गया है कि मानव यदि रोज अपने बगीचे के पेड़-पौधों में पानी डालते हुए उनसे अच्छी-अच्छी, प्यारी-प्यारी बातें करे, तो वे उसकी बात मानते हैं। बस यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि वृक्ष बोलते हैं। यह सिद्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि खामोशी की कोई आवाज नहीं होती। वृक्ष जो कुछ भी सोचते हैं, उसे हम तक पहुँचाने की पूरी कोशिश भी करते हैं। हम ही हैं, जो वृक्ष की भाषा नहीं समझ पाते। यहाँ आकर मानव पंगु बन जाता है कि जब वृक्ष हमारी भाष समझते हैं, तो मानव उनकी भाषा क्यों नहीं समझ पाता?
कभी किसी एकांत में या फिर जंगल में जाकर सुनो, एकांत का संगीत, इसी संगीत में कहीं आवाज आएगी कि कोई कुछ बोल रहा है। आवाज की गहराई पर जाकर पता चलेगा कि अरे! ये तो वृक्ष की आवाज है। कुछ समय तक लगातार इस तरह का प्रयोग जारी रहा, तब आप वृक्ष की आवाज पहचानने लग जाएँगे। तब आपको पता चलेगा कि वृक्ष आजकल दु:खी हैं। कई बार हमने पेड़ से लगातार पानी रिसते देखा होगा। लोग कहते हैं कि पेड़ रो रहा है। इसके वैज्ञानिक कारण जो भी हो, पर जब हम यह जानते हैं कि पेड़ों में जान होती है, तो फिर उनकी सारी प्रक्रियाएँ भी मानव की तरह होंगी। इसलिए जब पेड़ बोलते हैं, तब हमें उनसे बातें करनी चाहिए। आज यदि हम उनकी भाषा समझने लग जाएँ, तो उनकी पीड़ाओं को शब्द दे पाएँगे।
पेड़ उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं, जो प्रकृति प्रेमी होते हैं। क्योंकि यही तो हैं, जिनसे पेड़ बचे हुए हैं। पौधरोपण एक यज्ञ है, पेड़ों की संख्या बढ़ाने का। जो इस यज्ञ को करता है, वही वास्तव में पेड़ों का सच्च साथी है। अपने साथियों की लगातार कम होती संख्या से आजकल वृक्ष द़:खी हैं। देखते ही देखते उनके सामने से सागौन, बबूल, शीशम, देवदार, चीड़, आम आदि के पेड़ गायब हो गए। कुछ तो रातों-रात कट गए, कुछ बेमौते मारे गए। इनके दु:ख का कारण यही है। आलीशान घरों, हवेलियों में बनने वाले फर्नीचर के रूप में ये पेड़ ही हैं, जो हमारे सामने विभिन्न आकार में होते हैं।  कभी कुर्सी, कभी डायनिंग टेबल, कभी पलंग, कभी दीवान आदि रूप होते हैं, इन्हीं पेड़ों के। कभी हवाओं के साथ मस्ती से झूमने वाले आज यही पेड़ बंद कमरों में खामोश जिंदगी बिता रहे हैं।
यह मानव की भूख ही है, जो पेड़ों को इस तरह से बरबादी के कगार पर खड़े कर रही है। वृक्ष आज हमसे यही कह रहे हैं कि हमें मत काटो। हम आपको प्राणवायु देते हैं। यह प्राणवायु मानव कभी बना नहीं सकता। हम पर ही निर्भर है आपका जीवन। हम नहीं रहेंगे, तो खतरे में पड़ जाएगा मानव जीवन। हम जब मानव से कुछ नहीं लेते, तब फिर मानव हमारा नाश क्यों करना चाहता है? थोड़ी-सी सुख-शांति के लिए मानव हमारा ही नाश कर रहा है। हमारा उद्देश्य ही है मानव जीवन के लिए काम आना। पर आज मानव तेजी से हमारा ही नाश कर रहा है। इसे मानव ही रोक पाएगा। यदि उसमें वसुधवकुटुम्बकम् की भावना है, तो उसे हमारा संरक्षण करना ही होगा। इस तरह से वह हमारा नहीं अपना ही संरक्षण करेगा। हम मानव जाति के दुश्मन नहीं है, हमारी रक्षा से मानव की रक्षा है।
डॉ. महेश परिमल

फिर तो बच जाएंगे कई खूंखार


दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख 


फिर तो बच जाएंगे कई खूंखार
        डॉ. महेश परिमल
सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी की सजा प्राप्त 15 कैदियों की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया है। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कारण दिए हैं, वह देश की न्याय व्यवस्था पर ऊंगली उठाता है। कोर्ट ने यह कहा है कि फांसी की सजा में अधिक समय नहीं लगाया जाना चाहिए। यह सच है कि फांसी देने में वक्त नहीं लगाया जाना चाहिए, पर आखिर इतना अधिक समय क्यों लगता है? इस पर भी विचार होना चाहिए। फांसी जैसी गंभीर सजा के लिए भी हमारे यहां कोई टाइम लाइन नहीं है। तारीख पर तारीख के बाद भी बरसों तक मामला लटका रहता है। आखिर मामला लटका क्यों रहता है? इस पर सरकार भले ही जवाब न दे पाए, पर सच तो यह है कि इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ राजनीति का है। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले को भी राजनैतिक दृष्टि से देखा जा रहा है।
दयायाचिका रद्द होने के 14 दिनों बाद फांसी दे देनी चाहिए। सजा देने में देर नहीं होनी चाहिए। इस तर्क के साथ देश की बड़ी अदालत ने फांसी की सजा पाए 15 कैदियों की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है। ये 15 कैदी और उसके परिजन सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले से राहत की सांस ले रहे होंगे। इसके सहारे वे कैदी भी बच जाएंगे, जिन्हें फांसी की सजा मुकर्रर हुई है। पर सच्ची बात यही है कि फांसी की सजा में देर नहीं होनी चाहिए। इसके लिए तयशुदा कानून है या नहीं? यदि है, तो उस पर अमल क्यों नहीं हो रहा है? जिन 15 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला गया है, इसके आधार पर देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी की सजा भी उम्रकैद में तब्दील हो सकती है। खालिस्तान की मांग को लेकर देविंदर ने कार को बम से उड़ा दिया था। इस बम विस्फोट में 11 लोगों की मौत हो गई थी। यदि भुल्लर को फांसी दी जाती है, तो पंजाब में हिंसा फैलेगी, वैसी ही हिंसा जो अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद कश्मीर में हुई थी। यही कारण है कि भुल्लर की फांसी की सजा को मुल्तवी रखा गया था। सुप्रीमकोर्ट के फैसले को राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन लोगों में यही धारणा है कि चुनाव आ रहे हैं, इसलिए भुल्लर की फांसी को उम्रकैद में तब्दील कर दिया गया है। इस फैसले से आगामी चुनाव में पंजाब में कांग्रेस को निश्चित रूप से फायद होगा। इसी तरह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने में तमिलनाड़ु की राजनीति आड़े आ रही थी।
राजीव गांधी के हत्यारे मुरुगन, संथानम और पेरारिवलन को फांसी की तारीख मुकर्रर हो भी गई थी। वह तारीख थी 9 सितम्बर 2011। यह दिन उनकी जिंदगी का आखिरी दिन था, क्योंकि राष्ट्रपति ने इनकी दया याचिका भी रद्द कर दी थी। फोंसी के दस दिन पहले ही तमिलनाड़ु विधनसभा में ऐसा विधेयक लाया गया, जिसमें तीनों की दया याचिका पर पुनर्विचार करने का प्रावधान था। इस विधेयक के कारण तीनों की सजा को आठ सप्ताह के लिए मुल्तवी कर दी गई। इसके बाद यह मामला आज भी लटका हुआ है। राजीव गांधी की हत्या के 23 वर्ष पहले 21 मई 1991 को पेरुम्बदूर में एक चुनावी सभा में की गई थी। उस समय मानव बम बनी धन्नू ने राजीव गांधी को हार पहनाने के बहाने उन तक पहुंची, धमाका हुआ और राजीव गांधी समेत अनेक लोग मारे गए। इस घटना क्रम को अंजाम दिया लिट्टे ने। आज 23 वर्ष बाद भी इस मामले में न्याय प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ पाई है। बल्कि जेल में एक लव स्टोरी सामने आ गई। राजीव गांधी की हत्या के आरोपी मुरुगन और नलिनी ने जेल में रहने के दौरान ही शादी कर ली। इसके बाद नलिनी ने एक बच्ची को जन्म दिया। बच्ची के जन्म के बाद नलिनी ने फांसी की सजा माफ कर उसे उम्रकैद में तब्दील कर दी गई। नलिनी की सजा माफ करने के लिए सोनिया गांधी ने खुद सिफारिश की थी। इतना ही नहीं, किसी को पता न चले, इसलिए प्रियंका गांधी ने जेल में नलिनी से मुलाकात की।
राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी की सजा देने के फैसले को सुप्रीमकोर्ट ने भी मंजूर किया। इसके बाद राष्ट्रपति के पास इनकी दया याचिका पहुंची। इस याचिका  राष्ट्रपति भवन में पूरे 11 वर्ष तक दबाए रखा गया। यदि इस पर विचार हो जाता, तो उसके 14 दिन बाद फांसी की सजा दे दी जाती। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर राष्ट्रपति भवन में दया याचिका को कितने समय तक लम्बित रखा जा सकता है? अभी भी वहां न जाने कितनी दया याचिकाएं पड़ी हैं, जिन्हें राष्ट्रपति के फैसले का इंतजार है। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी देने में भी राजनीति ही आड़े आ रही है। अब इन्हें भी फांसी की सजा से मुक्ति मिल जाएगी। इसके पीछे यही राजनीति है कि इससे कांग्रेस को तमिलनाड़ु में फायदा होगा। वहां कांग्रेस करुणानिधि की डीएमके के साथ अब तक चुनाव लड़ती आ रही है। श्रीलंका के मामले पर डीएमके ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। अब वहां  मुख्यमंत्री जयललिता की पार्टी एआईडीएमके, करुणानिधि की डीएमके और कांग्रेस के बीच टक्कर होगी। राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दी जाती है, तो तमिल नाराज हो जाएंगे, इससे कांग्रेस की हार होगी। यही कारण है कि हमारे देश में फांसी की सजा पर भी राजनीति होती है और मामले लटक जाते हैं। आज भी 400 लोग अभी भी सजा का इंतजार कर रहे हैं। 2001 से 2012 तक 1560 लोगों को फांसी दी जा चुकी है। इनमें से 395 उत्तर प्रदेश के हैं, 144 बिहार और 106 लोग तमिलनाड़ु से हैं।
हमारे देश में आखिरी बार 9 फरवरी 2013 को संसद पर हमला करने के आरोप में अफजल गुरु को दी गई थी। इसके पहले 21 नवम्बर 2012 को मुम्बई पर हमला करने वाले एकमात्र जीवित आरोपी अजमल कसाब को फांसी दी गई थी। अगस्त 2004 में कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी की सजा दी गई थी, उस पर एक युवती से बलात्कार के बाद हत्या का आरोप था। पिछले आठ वर्षो में कई अदालतों ने फांसी की सजा सुनाई है, इन सबका क्या होगा? क्या इन्हें फांसी होगी? यह सवाल आज भी सबके सामने खड़ा है। अदालत ने अपने निर्णय में यह भी कहा है कि मानसिक रूप से अस्वस्थ गुनाहगार को फांसी देना उचित नहीं। हकीकत यह है कि फांसी की सजा सुनने के बाद ही व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाता है। यदि उसमें विलम्ब हुआ, तो वह बुरी तरह से अवसाद से घिर जाता है। उसे हमेशा फांसी का फंदा ही दिखाई देता है। जिन 15 लोगों की फांसी की सजा उम्रकैद में तब्दील हुई है, उन्होंने मौत के साये में अपने दिन गुजारे हैं। तारीख तय होने के बाद अंतिम क्षणों में फांसी की सजा के कुछ समय पहले सजा न होने देने के मामले केवल हमारे देश में ही देखने में आते हैं। आखिर एक गुनाहगार को कब तक ऐसे ही बिना निर्णय के जेल की सलाखों के पीछे रखा जाएगा? गुनाहगारों को यदि इसी तरह न्याय प्रक्रिया की लापरवाही या राजनीति के कारण बचाया जाता रहा, तो अपराध कम तो होंगे ही नहीं। इसमें और भी इजाफा होगा। अपराधी से अपराधी की तरह ही निपटना चाहिए, इसमें यदि राजनीति का समावेश हो जाता है, तो इससे देश का कानून ही शर्मिदा होता है।
  डॉ. महेश परिमल


जहर परोसती पाठ्य पुस्तकें


डॉ. महेश परिमल
इन दिनों पाठ्यपुस्तकों में कुछ ऐसा लिखा जा रहा है, जिससे बच्चे दिग्भ्रमित हो रहे हैं। उन्हें पालकों ने अब तो जो भी बताया, पाठ्यपुस्तकें उसे गलत बता रही हैं। बालपन में इस तरह की दिग्भ्रमण की स्थिति उनके मानसिक विकास को प्रभावित करती है। सरकार बदलने के साथ ही पाठ्यपुस्तकों में भी बदलाव लाया जाता है। पुस्तकों में यह बताया जाता है कि किन विद्वानों ने इसे तैयार करने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान किया है। पर किताबें जब बाहर आती हैं, तब ऐसा नहीं लगता है कि ये किताबें विद्वानों की नजर से भी गुजरी हैं। किताबों का लेखन एक अलग ही विषय है, पर जब उसे बच्चों को पढ़ाया जाता है, तब उसमें निहित गलत जानकारी बच्चों के बालसुलभ मन में विकृतियां पैदा करती हैं। हाल ही में यह खबर आई है कि पश्चिम बंगाल में बच्चों को पढ़ाया जा रहा है कि खुदीराम बोस आतंकवादी थे। बंगाल की पावन भूमि, जिसे रत्न प्रसविनी भी कहा जा सकता है, वहां के क्रांतिकारी को यदि आतंकवादी बताया जाए, तो यह पूरी बंगाल की विद्वता पर सवाल खड़े करता है। विद्वानों की भूमि से इस तरह का संदेश जा रहा है, यह देश के लिए खतरनाक है, साथ ही बच्चों के भविष्य के लिए उउसे भी अधिक खतरनाक है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूरे भारत में पाठ्यपुस्तकों की संरचना विदेशी एजेंसियों की गाइड लाइन के अनुसार तैयार होती है। अंग्रेज भारत से चले गए, पर हमारी शिक्षा आज भी उनकी गुलाम है। इसका उदाहरण यही है कि हमने आज तक ऐसी शिक्षा नीति ही तैयार नहीं की, जिससे युवा आत्मनिर्भर बनें। यही कारण है कि आज नेशनल काउंसिल फॉर एजुकेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) नाम की सरकारी एजेंसी द्वारा पहली से बारहवीं कक्षा के लिए जो पाठ्य पुस्तकें तैयार की गई हैं, उसमें यह पढ़ाया जा रहा है:-
-भगवान महावीर 12 वर्ष तक जंगल में भटकते रहे, इस दौरान उन्होंने कभी स्नान भी नहीं किया और न ही अपने कपड़े बदले।
-सिखों के गुरु तेगबहादुर आतंकवादी थे और लूटपाट करते थे।
-श्रीराम और श्रीकृष्ण हिंदुओं की कथाओं के हीरो हैं, इनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है।
-सिखों के गुरु गोविंद सिंह मुगलों के दरबार में मुजरा करते थे।
-औरंगजेब जिंदाबाबा (पीर) था।
-लोकमान्य तिलक, बिपीन चंद्र पॉल, वीर सावकरकर, लाला लाजपतराय और अरविंद घोष चरमपंथी नेता थे।
-मां दुर्गा तामसिक प्रवृत्ति की देवी थी, वे शराब के नशे में चूर रहती थी, इसलिए उनकी आंखें हमेशा रक्तरंजित रहती थीं।
-प्राचीन काल में भारत की स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था, वे धार्मिक क्रियाओं में भी शामिल नहीं हो सकती थीं।
- आर्य भारत के मूल निवासी नहीं, पर मुस्लिम और ईसाई भी बाहर से आए हैं।
ये सभी बातें कपोल-कल्पित हैं और वह जैन, सिख और वैदिक धर्म के बाद भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले क्रांतिकारियों के लिए भी अपमानजनक है। प्रसिद्ध दिल्ली विश्वविद्यालय में आज की तारीख में भी विद्यार्थियों को जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें निम्नलिखित विकृत और कपोल-कल्पित बातों को भी पढ़ाया जाता है:-
-गांधीजी का धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का कोई मनोवैज्ञानिक आधार नहीं था। रामराज्य के रूप में स्वराज्य की उनकी व्याख्या भारत के मुस्लिमों को उत्साहित नहीं कर पाई।
-सरदार पटेल आरएसएस का साथ देकर सांप्रदायिकता को बढ़ाने में शर्मनाक भूमिका निभाई थी।
-हनुमान एक छोटा सा वानर था, वह कामुक व्यक्ति था, लंका के घरों का शयन कक्ष देखा करता था।
- ऋग्वेद में कहा गया है कि स्त्री का स्नान कुत्ते के समान है।
-स्त्रियों का एक वस्तु समझा जाता था, उसे खरीदा जा सकता था और बेचा भी जा सकता था।
इस प्रकार की विकृत मानसिकता को दर्शाने वाले तथ्य असावधानीवश पाठच्यपुस्तकों में शामिल नहीं किए गए हैं, इसे जानबूझकर पाठच्यपुस्तकों में शामिल गया है। ताकि देश का भविष्य हमारे क्रांतिकारी नेताओं, महापुरुषों आदि के बारे में अपने विचार हल्के रखें। इससे वे अपने धर्म-संस्कृति से विमुख होकर दूसरे धर्मो की तरफ आकर्षित हो। मेकाले का भी यही उद्देश्य था कि उनकी पद्धति के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने वाले हमेशा अंग्रेजों के गुलाम बनें रहें। वह सब कुछ इस तरह के विकृत तथ्यों वाली किताबों के माध्यम से ही हो सकता है। देश में जब अंग्रेजों का राज था, तब हमारी संस्कृति में सतियों की पूजा करना और बाल विवाह आम बात थी। इसके खिलाफ राजा राममोहन राय ने एक अभियान चलाया। उनके इसी अभियान के कारण ही लॉर्ड बेंटिक ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया। आज शालाओं में पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से जो कुछ पढ़ाया जा रहा है, उसमें राजा राममोहन राय की प्रशंसा की जा रही है, पर उन्होंने भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने की कोशिश् की थी, यह नहीं पढ़ाया जाता।
वेस्ट बंगाल में आठवीं कक्षा के बच्चे देश के लिए जान देने वाले नौजवानों को आतंकवादियों के रूप में देख रहे है। दरअसल आठवीं कक्षा की इतिहास की किताबों में खुदीराम बोस, प्रफुल्ला चाकी और जतींद्र मुखर्जी जैसे अमर शहीदों को रिवॉल्यूश्नरी टेररिज्म चैप्टर के अंदर जगह मिली है। अगर रिवॉल्यूश्नरी टेरेरिज्म पाठ को हिंदी में अनुवाद किया जाए तो यह क्रांतिकारी आतंकवाद कहलाता है. क्या कहना है इतिहासकारों का। पश्चिम बंगाल सरकार के इस कदम की देश के प्रमुख इतिहासकारों ने घोर भत्र्सना की है। इतिहासकारों के अनुसार यह तथ्य ब्रिटिश शासन के हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों के प्रति रवैए को मान्यता देता है. गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन ने हिंदुस्तानी देशभक्तों को आतंकवादी कहा था. इसके साथ ही इतिहासकारों ने कहा है कि अगर खुदीराम बोस एक क्रांतिकारी आतंकवादी हैं तो राज्य सरकार सुभाषचंद्र बोस को सरकार किस शब्द से पुकारेंगे? इस पर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को पाठ्यपुस्तकों में शब्दों का चुनाव काफी देख समझ कर करना चाहिए. यहां पर यह बात भी देखने लायक है कि ममता बनर्जी ने सत्ता संभालने के 10 महीने के अंदर ही हायर सेकेंडरी एजुकेशन के पाठच्यक्रम से कार्ल मार्क्‍स से संबंधित पाठ हटवा दिए थे। समझ में नहीं आता कि बात-बात पर ब्रेंकिंग न्यूज देने वाला  मीडिया इस बात को क्यों नही उठाता? इन विकृत तथ्यों का विरोध होना चाहिए। जन आंदोलन होने चाहिए, तभी हमारी भावी पीढ़ी बच पाएगी। अभी गुजरात की 42 हजार शालाओं में दीनानाथ बत्रा की 7 पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं। जब इन किताबों की खरीदी हुई, तो कई लोगों को झटका लगा। वे यह प्रचार करने लगे कि यदि विद्यार्थियों ने इन किताबों को पढ़ा, तो वे अंधश्रद्धा और वहम के कायल हो जाएंगे। वास्तविकता यह है कि दीनानाथ बत्रा की किताबें भारतीय संस्कृति कितनी भव्य और महान है, बच्चे इसे पढ़कर अपने जीवन में किस तरह का बोधपाठ ले सकते हैं, इसका वर्णन बहुत ही सरल भाषा में किया गया है।
1947 में जब देश आजाद हुआ, तब से लेकर अब तक शालाओं में अंग्रेजों और उनके चमचों द्वारा तैयार किया गया इतिहास ही पढ़ाया गया है। यह इतिहास अनेक विकृतियों से भरा पड़ा है। कई बार पाठ्यपुस्तकों के गलत और विकृत तथ्य हमारे सामने आते हैं, पर कुछ दिनों बाद सब कुछ भूला दिया जाता है। आखिर इस दिशा में मीडिया सचेत क्यों नहीं होता। यह भी एक तरह का अपराध ही है, जो बच्चों में देश के प्रति नफरत  के बीज बो रहा है। यह सब कुछ एक सोची-समझी साजिश के तहत हो रहा है। इस पर अंकुश आवश्यक है। अन्यथा संभव है बच्चों के मन में बचपन से ही देश के प्रति दुराग्रह फैल जाए और वह अपनी मातृभूमि को ही हर बात पर कोसने लगे?
डॉ. महेश परिमल

नई ऊर्जा और सोच से लबालब आज के युवा

पिछले कुछ महीनों से देश की प्रगति में जिस तरह से बदलाव आया है, उसे देखकर लगता है कि समय ने एक नई करवट ली है। हरियाणा-महाराष्ट्र में हाल ही में हुए चुनाव का प्रतिशत बढ़ा है। अब लोग अपने मताधिकार को लेकर भी सचेत होने लगे हैं। पेट्रोल के दाम कम हुए हैं, डीजल के दाम कम होने वाले हैं। महंगाई दर पिछले 5 वर्षो में सबसे नीचे है। लोगों को ऐसा लग रहा है कि अब निश्चित रूप से अच्छे दिन आने वाले हैं। ऐसी सोच रखने वाले आज के युवा भी कुछ नए संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। देश का भविष्य युवाओं के हाथों में है। युवा देश की दिशा और दशा बदलने में सक्षम हैं।
बातें जब युवा की हो, तो सबसे पहले सवाल यह सामने आता है कि युवा माना किसे जाए। उम्र से या अनुभव है। मेरी दृष्टि में युवा वे हैं, जो युवा सोच रखते हैं। एक शतायु बुजुर्ग भी यदि बाधा दौड़ में प्रथम स्थान प्राप्त करते हैं, तो उन्हें युवा कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए। इसलिए युवा देश का भविष्य तभी बदल सकते हैं, जब उनके पास नई सोच, नई ऊर्जा और नए विचार हों। इसे साबित करने के लिए उनमें एक जुनून भी हो, तभी उनकी सोच काम कर पाएगी। इसलिए परंपरावादी युवाओं के पास अपने निजी विचार नहीं होते। युवा का आशय यह भी है कि निरंतर नई ऊर्जा के साथ कुछ नया सोचते रहना। उनके आइडिया यदि किसी का जीवन बदल सकते हैं, तो इसे युवा शक्ति की सार्थकता कहा जाएगा। इसलिए जब यह कहा जाता है कि क्या देश की प्रगति या विकास में भारत के युवाओं के बढ़ते चरण कारगर साबित होंगे, तो इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि जी हाँ आज के युवाओं में वह बात है, जो देश को कुछ नया दे सकते हैं। आज देश के शीर्ष पदों को सुशोभित करने वाले लोग युवा सोच रखते हैं। चाहे वह मुकेश अंबानी हो, अनिल अंबानी हों, या फिर रतन टाटा, यह सूची काफी लम्बी हो सकती है। पर यक सभी युवा सोच के साथ ही आगे बढ़ रहे हैं।
हमारा देश युवा सोच रखने वालों का देश है। देश का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जिसमें युवाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित न किया हो। इसलिए यह कहा जा सकता है कि देश के विकास में हमारे युवा अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

शीश न झुकाने की सजा


हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख
शीश न झुकाने की सजा
डॉ. महेश परिमल
कहते हें कि हार इंसान को कुछ न कुछ सबक सिखाती ही है। यदि इंसान अपनी हार से यह सबक सीख ले कि अब यह गलती नहीं दोहरानी है, तो बाकी के रास्ते आसान हो जाते हैं। इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी तरह से हार हुई, पर कांग्रेस ने इससे कोई सबक नहीं सीखा। इसके विपरीत वह ऐसी गलतियां करती जा रही है, जिससे यह साबित हो गया है कि उसके भीतर का दंभ अभी गया नहीं है। शशि थरुर से कांग्रेस ने केवल इसलिए प्रवक्ता पद छीन लिया, क्योंकि उन्होंने कुछ मामलों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की थी। शशि को शीश न नवाने की सजा मिली है, यह सभी जानते हैं। पर कांग्रेस इस बात को समझने के लिए तैयार ही नहीं है, उसने कोई गलती की है। इसके पहले भी कांग्रेस के खिलाफ जिसने भी मुंह खोला, उसे दरकिनार कर दिया गया। अपनी इस गलती का कांग्रेस को अभी यह आभास नहीं है कि उसे कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। पर सच तो यही है कि आज व्यक्ति केंद्रित कांग्रेस को यह बताने के लिए भी कोई नहीं बचा कि उसने कब, कहां, कौन सी गलती की है?
हाल ही में हुदहुद ने तमिलनाड़ु में तबाही मचाई। पूरी सतर्कता के बाद भी करीब 30 लोगों की मौत हो गई। टीवी माध्यमों के कारण सभी ने तबाही का लाइव प्रसारण देखा। इस बार हमारे मौसम विभाग की दाद देनी होगी कि उसने हुदहुद को लेकर जो भी भविष्यवाणी की थी, वह सच साबित हुई। इस बार तो उसने नासा को भी पीछे छोड़ दिया। ठीक इसी तरह शशि थरुर को लेकर पूर्व में जो भी भविष्यवाणी की थी, वह भी सच साबित हुई। सभी कह रहे थे कि शशि को शीश न झुकाने की सजा मिलेगी या फिर मोदी प्रेम उन्हें अपने पद पर नहीं रहने देगा। हुआ भी वही। पत्नी सुनंदा पुष्कर की अकाल मौत के बाद शशि थरुर की दशा ठीक नहीं है। सुनंदा की मौत की फोरेंसिक रिपोर्ट कहती है कि उनकी मौत का कारण जहर है। इससे शशि सामाजिक रूप से बदनाम हो गए हैं। मोदी प्रेम के कारण वे वैसे ही बदनाम थे। दो बदनामी मिलकर एक बड़ी मुसीबत बन गई है। सुनंदा की शंकास्पद मौत के बाद ही कांग्रेस यदि शशि से प्रवक्ता पद छीन लेती तो उचित रहता। पर जैसे कांग्रेस की आदत बन गई है कि तुरंत निर्णय न लेना। पर जब पूरी नाव ही डूबने लगी, तो उसने मल्लाह से ही पतवार छीन ली। देर से लिया गया यह निर्णय कांग्रेस के लिए घाटे का सौदा साबित होगा, क्योंकि कांग्रेस के पास हाजिरजवाब देने वाले प्रवक्ताओं की कमी है। कांग्रेस जिस तरह के युवा चेहरे को सामने लाने का प्रयास कर रही है, उसमें शशि थरुर का नाम सबसे पहले आता है।
यदि इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनती, तो निश्चित रूप से शशि थरुर विदेश मंत्री बनते। शशि से न केवल सोनिया गांधी बल्कि राहुल गांधी भी प्रभावित थे। वे तो उनसे प्रवक्ता पद छीनना ही नहीं चाहते थे, पर मोदी भक्ति उन्हें भारी पड़ी। शशि बुद्धिवादी हैं, यही उनकी खासियत भी है और बुराई भी। कांग्रेस के अन्य प्रवक्ताओं की अपेक्षा वे अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं। उनके विचार तर्कसम्मत होते हैं। ऐसे लोग बड़ी मुश्किल से राजनीति में आगे आते हैं। यूपीए सरकार में जब शशि विदेश राज्य मंत्री थे, तब विदेश मंत्री के रूप में एस.एस. कृष्णा आसीन थे। ये दोनों उस समय सुर्खियों में आए, जब लोगों को पता चला कि इस समय वे जिस फाइव स्टार होटल में रह रहे हैं, उसका दैनिक किराया 20 हजार रुपए है। एक लम्बे विवाद के बाद दोनों को 5 स्टार होटल का रुम छोड़ना पड़ा। पहले दो विवाद कर चुके शशि की तीसरी पत्नी थी सुनंदा पुष्कर। दोनों की जोड़ी एक आदर्श युगल के रूप में देखी जाती थी। अचानक सुनंदा की मौत के बाद उन दोनों के बीच तनाव की बात सामने आ गई। कांग्रेस को शायद यह डर है कि सुनंदा की मौत जहर से हुई, तो इसके बाद शशि की धरपकड़ होगी। इससे कांग्रेस की ही बदनामी होगी, इसलिए उन्हें पहले ही कांग्रेस के प्रवक्ता पद से अलग कर दिया जाए। केवल शशि ही नहीं, बल्कि सुनंदा भी पहले मोदी की प्रशंसा कर चुकी थी। तब कांग्रेसियों ने शशि को घेरे में लिया था। सुनंदा की अचानक मौत से शशि एक बार फिर बदनाम हो गए। शशि का भविष्य इस समय भाजपा के हाथ में है। भाजपा के पास इस समय केरल में ऐसा कोई प्रभावी नेता नहीं है, जो वोट बटोर सके। उसकी नजर शशि पर है। इसलिए शशि पर कांग्रेस की टेढ़ी नजर से भाजपा खुश है। उसने शशि के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं, आज नहीं तो कल शशि को उसी रास्ते से भाजपा में आना ही है।
जब शशि थरुर से प्रवक्ता पद छीना गया, तो उन्होंने इस कदम को सर आंखों में लिया था। परंतु यह भी कहा था कि मुझे स्पष्टीकरण का मौका ही नहीं दिया गया। राजनीति के विशेषज्ञ मानते हैं कि उनके पास खामोश रहने के अलावा और कोई चारा ही नहीं है। जब भी गांधी परिवार किसी से नाराज होता है, तो उस समय खामोश रहने में ही सबकी भलाई होती है। यह शशि भी अच्छी तरह से जानते हें। सुनंदा की मौत का रहस्य अभी तक सुलझा नहीं है। यही रहस्य शशि को उलझन में डाल रहा है। लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस फिर से अपने पांव पर खड़े होना चाहती है। वह संगठन में बदलाव करने वाली है। महाराष्ट्र में यदि वह अच्छा प्रदर्शन करती है, तो उसमें एक नया जोश देखने को मिलेगा। उधर हरियाणा में उसे हुड्डा पर भरोसा है। कांग्रेस हर हालत में थके-हारे कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा भरना चाहती है। पर महराष्ट्र में एनसीपी ने उसका खेल बिगाड़ दिया है। शशि से प्रवक्ता पद छीनकर कांग्रेस यह बताना चाहती है कि वह अभी भी सक्रिय है। उस पर त्वरित कार्रवाई न करने का आरोप लगाया जाता है, जो गलत है। वह यह साबित करना चाहती है कि शशि को सुनंदा के मामले को लेकर नहीं, बल्कि मोदी प्रेम के कारण हटाया है। अब सब कुछ महाराष्ट्र-हरियाणा चुनाव के परिणाम पर निर्भर करता है कि कांग्रेस को अब क्या करना है? हमारे देश में आजकल जैसी राजनीति चल रही है, उसमें शशि थरुर जैसे लोगों को इस तरह की प्रतिक्रिया के लिए पहले से तैयार रहना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2014

धूम मचाएगी विनोद राय की किताब

डॉ. महेश परिमल
जिन्होंने वाणिज्य विषय का अध्ययन किया है,उन्हें काम्प्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (केग) नाम से अधिक परिचित नहीं होते। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि यह पद कितना पॉवरफुल है। बरसों से ऐसा ही चलता आ रहा है। जिस तरह से टी.एन. शेषन के चुनाव आयुक्त बनने पर लोगों ने जाना कि देश में चुनाव आयोग भी कोई सत्ता होती है, जिसके पास अपरिमित सत्ता होती है। ठीक उसी तरह केग को भी लोगों ने 2008 में ही जाना। देश को तब पता चला कि इस देश में पिछले 150 साल से ऐसी भी कोई संस्था है, जिससे सरकार भी डरती है।  वाणिज्य विषय पढ़ने वाले छात्रों को भी इसके बारे में कम ही जानकारी होती है। पूरा काम एक ही र्ढे पर चल रहा था। सन् 2008 में जब नए केग प्रमुख की नियुक्ति की जानी थी, तब केंद्र सरकार में अपना दबदबा रखने वाले वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने अपने सेक्रेटरी के रूप में असाधारण क्षमता वाले विनोद राय को केग बनाने की सलाह दी, तो सरकार ने इसके लिए स्वीकृति भी दे दी। बस उसके बाद विनोद राय ने अपने कामों से बता दिया कि केग को बंदर समझकर सरकार उसे नचा नहीं सकती। केग के अधिकार इतने व्यापक हैं कि वह सरकार को भी हिला सकती है।
केग प्रमुख के रूप में सुप्रीम कोर्ट के जज के समकक्ष अधिकार रखने वाले इस अत्यंत महत्वपूर्ण पद के लिए सरकार अपने ही किसी खास वफादार अधिकारी को ही नियुक्त करती आई है। वित्त मंत्री के रूप में चिदम्बरम जब कभी परेशानी में होते, विनोद राय उनके तारणहार बन जाते। परिणामस्वरूप जब विनोद राय की नियुक्ति केग प्रमुख के रूप में की गई, तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य तो तब हुआ, जब विनोद राय ने ऐसे फैसले लिए, जिससे यह सिद्ध हो जाता है कि वे सत्ता की बागडोर से नहीं, बल्कि संविधान से बंधे हुए हैं। केग में आकर राय ने इतिहास ही बदल दिया। उन्होंने यह तय किया कि सत्तारूढ़ दल का पिछलग्गू बनने से अच्छा है कि संविधान के प्रति निष्ठावान रहो। इसलिए इसे ही गाइडलाइन मानकर उन्होंने अपना काम शुरू किया। अब तक इस पद पर जो कोई भी होता, उसे वॉचडॉग ही समझा जाता था। केग, चुनाव आयोग, विजिलेंस कमिशन आदि संस्थाओं में नियुक्ति सरकार के वॉचडॉग के रूप में ही होती। पर सत्ता पर आते ही सरकार इन वॉचडॉग के गले पर पट्टा पहनाकर अपने पर्सनल डॉग की तरह रखती। 11 वें केग प्रमुख के रूप में आकर विनोद राय ने सबसे पहले कॉमनवेल्थ गेम के घोटाले को सामने लाया। इससे सरकार हिल उठी। इससे विनोद राय को लोग जानने लगे। सरकार को लगा कि नए-नए आए हैं, इसलिए शायद काम करने का उत्साह कुछ ज्यादा ही है। अभी भले ही वे कुछ घोटालों को सामने ला दें, फिर बाद में वही करेंगे, जो सरकार कहेगी। सरकार की इस धारणा को राय ने झूठा साबित कर दिया। इसके कुछ समय बाद अपनी 75 पृष्ठ की रिपोर्ट में 1.75 लाख करोड़ रुपए का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले सामने लाया। इसके बाद तो नरेगा में धांधली, कोल ब्लॉक आवंटन, खाद पर सबसिडी घोटाला, सेना में हथियारों की खरीदी, गैस रिजर्व के आवंटन में पक्षपात आदि घोटाले भी एक के बाद एक सामने आने लगे। हर घोटाला सरकार को किसी झटके से कम नहीं लगता। ऐसे में विनोद राय पर यह आरोप लगाया गया कि वे अपना काम द्वेषपूर्ण तरीके से कर रहे हैं। पर हर कोई जानता था कि सरकार का यह आरोप मनगढंत है। क्योंकि जैसे-जैसे घोटालों की जांच होती गई, सरकार की पोल खुलने लगी। इससे हुआ यह कि सरकार के कुछ मंत्रियों को इस्तीफे देने पड़े और कुछ तिहाड़ जेल की शोभा बन गए।
इतना ही नहीं, अपने पद पर रहते हुए विनोद राय जब विदेश गए, तो वहां अपने भाषण में उन्होंने यह भी जाहिर कर दिया कि सरकार केग को केवल अपना मुनीम बनाकर रखना चाहती है। इस पर सरकार के दो जाँबाज नेता दिग्विजय और मनीष तिवारी ने राय पर यह आरोप लगा दिया कि वे मर्यादा की सीमा लांघ रहे हैं। अपने कार्यकाल के दौरान विनोद राय ने यह विश्वास दिला दिया कि केग भी गलती करने वाली सरकार के कान मरोड़ सकती है। उसके बाद सरकार ने विवादास्पद अधिकारी शशिकांत शर्मा को राय के स्थान पर नियुक्त कर दिया। वे कुछ कर पाते, इसके पहले ही अपने घोटालों के कारण सरकार ही चली गई। अभी तक नई सरकार ने ऐसा कुछ किया ही नहीं है, जिससे शर्मा कुछ कर सकें। उन्हें अभी समय लगेगा। विनोद राय केग प्रमुख नहीं रहे, तो क्या हुआ। अपने केग के अनुभव को संजोकर वे अपनी किताब लेकर आ रहे हैं। नॉट जस्ट अन एकाउंट: द डायरी ऑफ द नेशंस कांसियश कीपर। नाम के अनुरूप किताब से राय यह साबित करना चाहते हैं कि केग सरकारी हिसाब रखने वाली मुनीम जैसी संस्था नहीं है, इसके अलावा भी बहुत कुछ है।
हमें यह याद रखना होगा कि केग के पॉवरफुल होने का कारण विनोद राय ही थे। केग की स्थापना हुई, तब से उसके पास जो अधिकार हैं, उसमें किसी प्रकार की बढ़ोत्तरी विनोद राय के कार्यकाल में नहीं हुई। परंतु राय के पहले तो अधिकांश केग अधिकारी सरकार के इशारे पर ही चलते आए थे। इसी कारण अपरिमित सत्ता होने के बाद भी केग का असरकारक उपयोग नहीं हुआ। राय ने सारे कानूनी प्रावधानों का सही रूप में इस्तेमाल किया, इससे लोगों को केग की असली क्षमता के दर्शन हुए। पुस्तक तो अब बाजार में आएगी, परंतु मार्केटिंग के रूप में किताब के कुछ चटपटे प्रकरण जाहिर कर दिए गए हैं। इन जाहिर प्रकरणों में विनोद राय द्वारा दिए गए साक्षात्कार में यह बताया गया है कि यूपीए सरकार किस तरह से काम करती थी। डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होने के बाद भी कोई भी साधारण सा सांसद उन पर दबाव डालता था।
विनोद राय का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में आर्मी से जुड़े परिवार में हुआ। पिता सेना में होने के कारण घर में सदैव अनुशासन दिखाई देता, यही अनुशासन विनोद राय के काम में दिखाई देने लगा। पिता का तबादला होते रहता, इसलिए राय की पढ़ाई कई स्थानों में हुई। जब वे स्कूल की पढ़ाई कर रहे थे, तो एक समय ऐसा भी था, जब गर्मी की छुट्टियों में बोर्डिग स्कूल खाली हो जाता, पर वे अकेले ही वहां अपना खाना स्वयं बनाकर रहते थे। स्कूल में वे क्रिकेट टीम के केप्टन थे और सबसे अधिक अनुशासित विद्यार्थी के रूप में उनकी गिनती होती। नागरिकों की सम्पत्ति का हिसाब किस तरह से रखा जाए, यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को विनोद राय से सीखना पड़ा। पर राय दिल्ली में मनमोहन सिंह के विद्यार्थी भी रह चुके हैं। राय दिल्ली यूनिवर्सिटी की दिल्ली स्कूल ऑफ इकानामिक्स में पढ़ते थे, तब अर्थशास्त्र के अध्यापक के रूप में मनमोहन सिंह उन्हें पढ़ाते थे। 1972 में आईएएस हुए,तब उनके सहपाठी रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर सुब्बाराव सहित कई अधिकारी थे। राय की पहली पोस्टिंग भी सुदूर नागालैंड में हुई थी। वे जब वहां पदस्थ थे, तब नक्सलियों ने नागालैंड के कलेक्टर की हत्या कर उनकी लाश ऐसे स्थान पर फेंक दी थी, जहां जाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। पर राय ने अकेले ही वहां जाकर कलेक्टर की लाश को लेकर आए। लाश लाने के लिए जाते समय उनके ड्राइवर ने भी जाने से मना कर दिया था। 1990 में उनकी पहली पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद गीता नामक एक विधवा से उन्होंने दूसरी शादी की। कुछ समय बाद उसका भी देहांत हो गया। टेनिस खेलने का शौक रखने वाले विनोद राय को जब अवकाश मिलता है, तो वे पोलो या फिर क्रिकेट देखना पसंद करते हैं। पर्वतारोहण उनका शौक है। पर केग प्रमुख होने के दौरान उन्होंने पर्वतों की चढ़ाई नहीं की, बल्कि सरकार को ही गिराने में अहम भूमिका निभाई। भारत सरकार के ऑडिटर होने के अलावा वे संयुक्त राष्ट्रसंघ की अंतरराष्ट्रीय ऑडिटरों की समिति के चेयरमेन भी थे। उनकी यह किताब की प्रतीक्षा भारत के अलावा संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकारियों को भी है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

महँगी पड़ती ऑनलाइन शॉपिंग

दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख


 हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

यहॉं लोग मरने जाते हैं


 

21 सितम्‍बर 2014 के दैनिक भास्‍कर के रविवारीय अंक रसरंग के पेज चार पर प्रकाशित मेरा आलेख

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

ग्रेट ब्रिटेन के साथ स्‍कॉटलैंड की व्‍यथा


हरिभूमि के संंपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

ग्रेट ब्रिटेन का सूर्य अस्ताचल की ओर

डॉ. महेश परिमल
कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है। भारत को विभाजित करने वाला और भाई-भाई को हमेशा के लिए दुश्मन बनाने वाला ग्रेट ब्रिटेन स्वयं विभाजन की राह पर खड़ा है। भारत-पाकिस्तान के बीच विभाजन की जवाबदार अंग्रेज सरकार थी। समय चक्र ऐसा चला कि साढ़े छह दशक बाद वह स्वयं ही उसी स्थिति में है। बहुत ही जल्द ग्रेट ब्रिटेन से ग्रेट शब्द हट जाएगा। ग्रेट ब्रिटेन के स्काटलैंड ने स्वयं को अलग करने का फैसला कर लिया है। वह भी यूरोप के अन्य देशों की तरह अलग होकर अपना अलग ही अस्तित्व बनाना चाहता है। स्वयं को स्वतंत्र करने के लिए स्कॉटलैंड काफी समय से संघर्ष कर रहा था। अब 18 सितम्बर को 42 लाख लोग वोट देकर यह तय करेंगे कि स्कॉटलैंड को ब्रिटेन के साथ रहना है या नही।
इतिहास पर एक नजर डालें, तो यह स्पष्ट होता है कि 1707 में स्कॉटलैंड और इंग्लंड का एकीकरण हुआ था। इसके बाद वह यूनाइटेड किंगडम के रूप में जाने जाने लगा। इसमें इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, आयरलैंड और वेल्स का समावेश हुआ था। स्कॉटलैंड जब से इंग्लैंड के साथ मिला है, तब से स्थानीय लोग इसका विरोध करते आ रहे हैं। बरसों बीत गए, पर विरोध का सुर बदला नहीं। यही विरोधी सुर अब बलवे के रूप में सामने आने लगा है। आज स्कॉटलैंड की स्थिति यह है कि उसकी खुद की सरकार है। शिक्षा-स्वास्थ्य आदि सेवाओं का संचालन भी वह स्वयं करता है। रेलवे जैसी आवश्यक व्यवस्थाएं केंद्रीय स्तर पर ब्रिटेन द्वारा संचालित की जा रही है। स्कॉटलैंड के न जाने कितने ही राष्ट्रभक्तों ने यह अभियान चलाया था। स्कॉटलैंड इसलिए अलग होने की हिम्मत कर रहा है, क्योंकि इंग्लैंड के आर्थिक क्षेत्र में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। इस समय इंग्लैंड मंदी के दौर से गुजर रहा है। आर्थिक विशेषज्ञ कहते हैं कि स्कॉटलैंड की आय के कारण ही इंग्लैंड का दिल धड़क रहा है। इस कारण मूल रूप से स्कॉटलैंड के लोग गरीब होने लगे। अपनी आय होने के बाद भी प्रजा यदि गरीब है, तो यह स्कॉटलैंड को सहन नहीं हो रहा था। इसलिए जब स्कॉटलैंड से स्वतंत्र होने की बात कही, तो इंग्लैंड चौंक उठा था। उधर ब्रिटेन की राजशाही भी टूट के कगार पर है। इसके बाद भी उनकी राजशाही का खर्च गरीब प्रजा को भारी पड़ रहा था। मंदी के कारण इंग्लैंड का काफी धन राजशाही में ही खर्च हो रहा था। स्कॉटलैंड के लोगों का कहना था कि उनकी आवक उनके उद्धार पर खर्च की जानी चाहिए।
स्कॉटलैंड ने जब स्वयं को स्वतंत्र करने की बात की, तो पहले इंग्लैंड ने इसे असंवैधानिक करार दिया। पर बाद भी स्कॉटलैंड में इसका उग्र विरोध हुआ, तो ब्रिटेन सरकार ने ऐसा समाधान खोज निकाला, जिसमें स्कॉटलैंड के सभी लोगों को स्वतंत्र नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में इंग्लैंड सरकार जनमत संग्रह के लिए तैयार हो गई। जैसे-जैसे जनमत संग्रह की तारीख करीब आती गई, ब्रिटेन का राज परिवार और प्रधानमंत्री डेविड केमरून दोनों ही घबराने लगे। केमरुन ने स्कॉटलैंड की प्रजा से आग्रह किया कि कोई भी अलग होने के लिए मतदान न करे। उन्होंने यह भी कहा कि 307 साल से चल रहा यह संबंध यदि टूटता है, तो यह दोनों के लिए नुकसानदेह साबित होगा। उन्होंने समाधान की दिशा में एक यह रास्ता भी निकाला, वह स्कॉटलैंड को और अधिक स्वायत्तता देने को तैयार है। निश्चित रूप से स्कॉटलैंड की मांग करने वालों को यह बात उचित नहीं लगी। ब्रिटेन के भूतपूर्व प्रधानमंत्री गार्डन ने भी स्कॉटलैंडवासियों से अलग न होने की अपील की है। यहां भी ब्रिटेन अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। जिस तरह से ब्रिटेन ने भारत में फूट डालो और राज करो, की नीति अपनाई थी, ठीक उसी तरह उसने स्कॉटलैंड में भी यही किया। लेकिन उसकी यह चाल नाकाम साबित हुई।
मतदान पूर्व जब लोगों के बीच जाकर यह सर्वेक्षण किया गया कि आखिर जनता चाहती क्या है, तो स्पष्ट हुआ कि स्वतंत्र स्कॉटलैंड के लिए 51 प्रतिशत लोग तैयार हैं। यदि स्कॉटलैंड ब्रिटेन से अलग होता है, तो ब्रिटेन की आय बुरी तरह से कम हो जाएगी। मंदी और भी तेज होकर हमला करेगी। दूसरी तरफ राजशाही ठाठ का खर्चा भी संभालना मुश्किल हो रहा है। इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन की साख पर निश्चित रूप से आंच आएगी। ब्रिटेन के सामने सबसे बड़ा संकट बिजली का होगा। इस समय ब्रिटेन के लिए 90 प्रतिशत बिजली स्कॉटलैंड से आपूर्ति की जा रही है। जब भी किसी देश का विभाजन होता है, तब वह आर्थिक रूप से कमजोर हो जाता है। विश्व के इतिहास पर देखें, तो भारत में मुगलों का शासन खत्म होगा, ऐसा किसी ने सोचा भी नहीं था। ठीक इसी तरह भारत में व्यापारी बनकर आए अंग्रेजों को कभी यहां से जाना होगा, ऐसा भी किसी ने नहीं सोचा था। दुनिया का सबसे बड़ा शक्तिशाली देश सोवियत संघ भी कभी बिखर सकता है, ऐसा भी किसी ने नहीं सोचा था। लेकिन वही हुआ, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। यदि ब्रिटेन टूटता है, तो अपनी फूट डालो और राज करो की नीति के कारण ही टूटेगा।
गुरुवार को स्कॉटलैंड के 42 लाख लोग फैसला करेंगे कि इंग्लैंड के साथ 307 साल पुराना संबंध कायम रखें या उस खत्म कर दें। ऐसी रिपोट़र्स हैं कि स्कॉटलैंड अलग होने का फैसला कर चुका है और अटकलें लगाई जा रही हैं कि क्या यह ब्रिटिश यूनियन के प्रतीक ध्वज का अंत होगा और क्या स्कॉटलैंड ब्रिटेन की महारानी और करेंसी पाउंड को मान्यता देता रहेगा। भले ही जनमत संग्रह में हां का बहुमत होते ही स्कॉटलैंड अलग हो जाएगा, लेकिन अभी भी आधारभूत चीजें तय नहीं हैं कि नए देश की करेंसी क्या होगी, शासक कौन होंगे, संविधान क्या होगा, स्कॉटलैंड यूरोपीय संघ का सदस्य होगा या नहीं? इस पूरे मामले में एक चीज अभी तक साफ नहीं है कि ब्रिटेन और स्कॉटलैंड के बीच मुद्‌दा क्या है। भाषा का कोई झगड़ा नहीं है।
 कौन करेगा वोट?
 स्कॉटलैंड में 42 लाख लोग वोट के लिए रजिस्टर्ड किए गए हैं, जो यह फैसला करेंगे कि उन्हें ब्रिटेन के साथ बने रहना है या नहीं। इसके लिए पूरे स्कॉटलैंड में %यस और नो कैम्पेन चलाया जा रहा है। अगर हवा बहने की बात करें तो पूरा स्कॉटलैंड एकजुट हो चुका है। 1707 तक स्कॉटलैंड एक स्वतंत्र देश था। लेकिन इसके बाद इंग्लैंड ने इस पर आधिपत्य जमा कर ग्रेट ब्रिटेन में मिला लिया। इसी तरह से नॉर्दर्न आयरलैंड भी इसी का हिस्सा है।  अगर फैसला हां हुआ तो क्या स्कॉटलैंड आजाद हो जाएगा? ऐसा नहीं है। जनमत संग्रह को पूरी तरह से कानूनी शक्ति नहीं है। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने स्कॉटलैंड के लोगों से वादा किया है कि अगर वो अलग होने के पक्ष में वोट देते हैं, तो वह उन्हें आजाद कर देगा। अलग होने की प्रRिया मार्च 2016 तक पूरी होगी।
 स्कॉटलैंड कौन सी करेंसी का उपयोग करेगा?
 इस पर विवाद है। लेकिन यह यूरो नहीं होगी। स्कॉटलैंड की सरकार चाहती है कि बैंक ऑफ इंग्लैंड से जुड़ी करेंसी पाउंड स्टलिर्ंग का इस्तेमाल करे। फिर भी ब्रिटेन ने चेतावनी दी है कि बाकी बचा यूके इसके लिए तैयार नहीं होगा। अगर स्कॉटलैंड अलग होगा तो उसे खुद की करेंसी बनानी होगी।
 कौन है आजादी कैम्पेन के पीछे
नेशनल स्कॉटिश पार्टी के नेता और स्कॉटलैंड के पहले मंत्री एलेक्स सेल्मंड पूरे स्कॉटलैंड में यस कैम्पेन चला रहे हैं। वे स्कॉटिश आजादी के सबसे पहले समर्थकों में से एक हैं। उन्हें 21वीं सदी का बहादुर दिल वाला व्यक्ति कहा जा रहा है। उन्होंने कहा कि अब स्कॉटलैंड के इतिहास को नए सिरे से बनाने की जरूरत है। सेल्मंड को एक बार उन्हीं की पार्टी से निलंबित किया जा चुका है। राजनेता से पहले वे इकोनॉमिस्ट के रूप में काम कर चुके हैं। कहा जाता था कि ग्रेट ब्रिटेन का सूर्य कभी अस्ताचल की ओर नहीं जाता। वह भी कभी टूटने के कगार पर आ खड़ा हो सकता है, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। स्कॉटलैंड ने ब्रिटेन से जुड़ी इस मान्यता को झूठा साबित कर दिया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि ब्रिटेन का सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है।
डॉ. महेश परिमल

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