बुधवार, 31 दिसंबर 2014

‘छिलपे’ का महत्व


डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले ही पड़ोस के घर में बढ़ई ने कुछ काम किया। तब वहां कचरे के
रूप में ‘छिलपा’ दिखाई दिया। साथियों के लिए यह कुछ नया नाम हो सकता है।
लकड़ी पर जब रंदा चलता है, तो लकड़ी का जो ऊपरी भाग निकलता है, उसे ‘छिलपा’
कहा जाता है। छिलपा मुझे अतीत में झांकने के लिए विवश कर देता है। पिताजी
बढ़ई थे, घर पर भी कभी-कभी कुछ काम कर ही लेते थे। अतएव ‘छिलपा’ निकलता ही
था। यह ‘छिलपा’ हमारे कई काम आता। कई बार तो इसकी डिजाइन इतनी सुंदर होती
कि उससे कुछ आर्ट भी तैयार हो जाता। जिस तरह से शार्पनर से पेंसिल छिलते
हुए जो छिलन निकलती है, बच्चे उस पर फेविकोल लगाकर कुछ आकृति बनाते हैं,
ठीक उसी तरह उन छिलको से हम भाई-बहन भी कुछ न कुछ बना ही लेते थे। यही
नहीं, ‘छिलपा’ अन्य कई काम भी आता। चूल्हे पर लकड़ी जलाने के पहले उसे भी
साथ जलाया जाता। ‘छिलपा’  जल्दी जलता, इससे लकड़ी आग जल्दी पकड़ती।

‘छिलपा’ हम भाई-बहनों के जीवन से जुड़ा हुआ है। अनजाने में वह हमें यह
प्रेरणा देता है कि लकड़ी पर रंदा जितना अधिक चलेगा, उससे न केवल लकड़ी
चिकनी होगी, बल्कि ‘छिलपा’ भी उतना ही साफ-सुथरा निकलेगा। यानी जीवन में
जितना अधिक संघर्ष होगा, जीवन उतना ही चमकदार बनेगा। यह तय है। अब जीवन
के चमकदार बनने से क्या होगा? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि
चमकदार जीवन आखिर किसके लिए प्रेरणास्पद होगा? इसे समझने के लिए हमें
लकड़ी की तासीर समझनी होगी। लकड़ी के फर्नीचर कितने सुंदर दिखाई देते हैं?
बरसों-बरस तक वैसे ही बने रहते हैं। उनमें ज़रा भी परिवर्तन दिखाई नहीं
देता। कभी गंदे दिखाई दें, तो गीले कपड़े से पोंछ देने पर वह फिर चमकदार
बन जाता है। इसके पीछे लकड़ी पर रंदे का चलना ही पर्याप्त नहीं होता, उस
पर पॉलिश की जाती है। जिससे उसकी चमक बढ़ जाती है।
‘छिलपा’ इसे हम लकड़ी की चमड़ी कह सकते हैं। चमड़ी निकलती जाती है, लकड़ी
निखरती जाती है। जिस तरह से साँप की केंचुल निकलती है। ठीक उसी तरह मानव
अपनी बुरी आदतों को छोड़ता जाए, तो उसे इंसान बनने में देर नहीं लगेगी।
वास्तव में इंसान यदि सुधरना चाहे, तो उसकी प्रत्येक गलती ही उसे सुधार
सकती है। ‘छिलपा’ तो एक प्रतीक है। सफाई का, गरीबों के ईंधन का। उनका
चूल्हा इसी से जलता है। आजकल लकड़ियां मिलती कहां हैं? वैसे तो ‘छिलपा’ भी
नहीं मिलता। पहले बढ़ई लोगों से ‘छिलपा’ ले जाने के लिए कहते थे, आज उसे
ही बेचते हैं। पहले जो उनके लिए कचरा था, आज आय का साधन है। गरीबी में जो
चीजें गरीब को अनायास मिल जाती थीं, आज उसी के लिए उसे मशक्कत करनी पड़ती
है। उसके लिए दाम देने होते हैं। गरीब को हर चीज के लिए दाम देने होते
हैं, पर जब बात गरीब को दाम देने की होती है, तो हर कोई यही चाहता है कि
उसे कम से कम दाम देना पड़े। कैसा अर्थशास्त्र है यह? गरीब पर ऊंगली उठने
में देर नहीं लगती। मानों उसे ईमानदारी से जीना आता ही नहीं। पर अमीर यह
भूल जाते हैं कि गरीब के बिना उनका जीवन संभव ही नहीं। ‘छिलपा’ गरीबी का
प्रतीक भले ही हो, पर उसमें स्वाभिमान की झलक दिखाई देती है। गरीब का
चूल्हा ही नहीं जलाता ‘छिलपा’, बल्कि गरीब के पेट की आग बुझाने में भी
सहायक होता है। हम सब ‘छिलपे’ में अपने स्वर्गीय पिता के परिश्रम के रूप
में देखते हैं। पिता से यही सीख मिली है, जो आज तक काम आ रही है।
डॉ. महेश परिमल

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