शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022

नए साल का इंतजार


दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित










नया साल: वे यहां, हम वहां

कदम दर कदम हम नए साल की ओर बढ़ रहे हैं। इसके लिए हम सब मानसिक रूप से तैयार भी हैं। हमारे देश में तो यह वर्ष में 5 बार मनाया जाता है। पर हमने उन्हें अभी तक भीतर से नहीं स्वीकारा है। हमारे लिए तो नया साल यानी 31 दिसम्बर की रात को मनाया जाने वाले जश्न ही है। इस जश्न को मनाने के लिए हम अनजाने में ही सारी स्वीकृतियां प्राप्त कर लेते हैं, जो हमें साल भर नहीं मिलती। इसे मनाने के लिए हम सारी हिदायतों को ताक पर रख देते हैं। पर हमसे सात समुंदर दूर बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें भारतीय संस्कृति से प्यार है। वे भले ही वहां रहते हो, पर उनका दिल भारत में ही धड़कता है। इसलिए वे अपनी संस्कृति और परंपरा को बचाए रखने के लिए ऐसा कुछ करते हैं, जो हम नहीं कर पाते हैं।

नए साल को हर कोई इसे अपने तरीके से मनाना चाहता है। कोई शपथ के साथ, कोई संकल्प के साथ, तो कोई वाणी के अनुसार। इसका कोई लाभ होता है, यह कभी वास्तविक जीवन में देखा नहीं गया। वास्तव में यह हमारा नया साल है ही नहीं। यह तो पाश्चात्य देशों के लिए नया साल हो सकता है। पर हमारे लिए न होते हुए भी यह बहुत कुछ है। इसके लिए हम साल भर इंतजार रहता है। हम दोगुने उत्साह से इसमें भाग लेते हैं। क्या कोई मान सकता है कि न कोई मूर्ति, न कोई आरती, न कोई गीत, न कोई तस्वीर, न कोई सरकारी छुट्टी, इसके बाद भी 31 दिसम्बर की रात लोग झूम पड़ते हैं। डांस करते हैं, अपने उत्साह को दोगुना करते हैं। आखिर इस 31 दिसम्बर की रात में ऐसा क्या है, जिसने युवाओं को इतना अधिक दीवाना बना रखा है। इस तरह से देखा जाए, आगामी वर्षों में 31 दिसम्बर की रात और भी ज्यादा रंगीन होती जाएगी। समाज सुधारकों के लिए यह एक खतरे की घंटी हो सकती है। इतना छलकता उत्साह तो हमारे धार्मिक त्योहारों में भी नहीं देखा जाता। इस रात को होने वाले आयोजनों में भी अब लगातार वृद्धि होती जा रही है। युवाओं को डांस करने का बहाना चाहिए, तो 31 दिसम्बर की रात को यह बहाना मिल जाता है। इस दौरान ऐसा बहुत कुछ हो जाता है, जिसे रेखांकित किया जाए, तो समाज की एक दूसरी ही तस्वीर सामने आएगी।

पर हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। 31 दिसम्बर की रात को बहुत कुछ ऐसा भी होने जा रहा है, जिसे हम उल्लेखनीय कह सकते हैं। हम यहां रहकर वहां की संस्कृति को अपनाते हुए वे सब कुछ करेंगे, जो हम करते आ रहे हैं, पर हमसे सात समुंदर दूर बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो वहां रहकर यहां की संस्कृति को जीवित रखने का पुरजोर प्रयास करेंगे। इसीलिए कहा गया है कि जो यहां हैं, वे वहां की संस्कृति को अपना रहे हैं और जो यहां हैं, वे यहां की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपनी ओर से कोशिशें कर रहे हैं।

यहां के वे लोग जो वहां हैं, वे अपनी समानांतर संस्कृति को बचाने के लिए 31 दिसम्बर को हिंदू संस्कृति के कार्यक्रम करने जा रहे हैं। इस तरह का प्रचलन वहां अब बढ़ने लगा है। अमेरिका में क्रिसमस का आयोजन बड़े जोर-शोर से होता है। पर वहां जो हिंदू हैं, चूंकि उनकी जड़ें भारत में हैं, इसलिए वे इस दिन वहां के अनेक मंदिरों में 31 दिसम्बर की रात को बारह बजने के आधे घंटे पहले ही हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर देंगे। इस तरह से वे हनुमान चालीसा की पंक्तियों के साथ नए वर्ष में प्रवेश करेंगे। इसके लिए सभी ने अपनों को बुलाया है। वे जो अपने हैं, जिनकी जड़ों में भारत बसता है। भले ही उनका दिल वहां धड़कता हो, पर आत्मा से वे सभी यहीं हैं, यहां की माटी को प्यार करते हैं। आज भी बड़े गर्व से वे अपनी माटी को माथे पर लगाते हैं। अपनों को बुलाने के लिए उनका आमंत्रण भी विशेष है। जहां क्लब कल्चर का बोलबाला हो, वहां यदि भारतीय अपनी पहचान को कायम रखने के लिए संस्कृति को जीवंत रखने का प्रयास करते हैं, तो इस सराहनीय ही कहा जाएगा।

हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी वाशिंगटन के वेलेव्यू हनुमान मंदिर में 31 दिसम्बर की रात सुंदर कांड का पाठ रखा गया है। रात 11.45 से 12 बजे तक हनुमान चालीसा का पाठ होगा। वर्जीनिया की श्री सत्यनारायण स्वामी सेवा सन्निधी में 31 दिसम्बर की रात 8 बजे से अखंड हनुमान चालीसा शुरू होगा। इसमें हजारों लोग शामिल होंगे। बारह बजे के बाद कोई खाना-पीना नहीं, पर काजू-बादाम का हलुआ प्रसाद के रूप में दिया जाएगा। ऑस्टिन(टेक्सास) में सांईबाबा टेम्पल में 12 बजे तक भजनों का कार्यक्रम है। नॉर्थ अमेरिका की श्री महावल्लभ गणपति मंदिर में 1000 दीये जलाए जाएंगे। इसे सभी ने अलंकारम का नाम दिया है।

अमेरिका में ओमिक्रोन के मामले में तेजी से बढ़ोतरी हुई, जिसके बाद प्रशासन ने नए साल पर होने वाली पार्टियों पर आंशिक रूप से प्रतिबंध लगाए हैं। नए वर्ष के स्वागत में हम लोग घर भी ही घुसे रहते हैं या फिर सड़कों पर मस्ती करते हैं। लोग इसे वेस्टर्न वे ऑफ लिविंग कहते हैं। हमारा नव वर्ष तो गुड़ी-पड़वा है। जिसे हम सब भूलने लगे हैं। वास्तव में गुड़ी-पड़वा में उपवास का भी प्रावधान है, जो हमें नागवार गुजरता है। हमें बहाना चाहिए, मस्ती करने का, जो वेस्टर्न कल्चर में बिंदास है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में नए साल में कई मंदिरों में भजन कार्यक्रम होंगे, पर उसमें कितने लोग कितनी श्रद्धा से शामिल होते हैं, इसे तो वहीं जाकर देखा जा सकता है। उन्माद की मूर्खता में हम यह भूल गए हैं कि हमारी भी कोई संस्कृति है। हम विदेशी संस्कृति के विकृत रूप को अपनाने में जरा भी देर नहीं करते, पर उस संस्कृति की कई चीजें हम नकार देते हैं। काम के प्रति जुनून, समय की पाबंदी, सफाई के प्रति संवेदनशील आदि कई ऐसी आदतें हैं, जो विदेशियों की हैं, जिसे हम अपनाना नहीं चाहते।

31 दिसम्बर की रात को थिरकते युवाओं को देखकर ऐसा लगता है कि आखिर ये किसकी खुशी मना रहे हैं। कैलेंडर का एक पेज ही तो बदला है। बीते हुए साल से क्या सीखा और आने वाले साल से क्या सीखना है, उसकी क्या योजना है, इस पर कोई नहीं सोचता। दिन-रात तो एक ही तरह से होते हैं, इसमें कैसा आयोजन और कैसी मस्ती? यही एक ऐसी रात होती है, जिसमें हर कोई नाचता ही दिखाई देता है। स्थान सड़क हो या फिर कोई क्लब, होटल, पार्टी। कड़कड़ाती ठंड भी इन युवाओं को रोक नहीं पाती। यह एक ऐसा स्वयंभू उत्सव है, जिसमें किसी भी तरह से किसी को आमंत्रित नहीं किया जाता। लोग खुद होकर इसमें शामिल होते हैं। नाचते-गाते हैं। ऐसा क्या है इस रात में कि युवा खो जाते हैं, नए साल के स्वागत में। देेखा जाए, तो ये युवा इसलिए उत्सव मनाते हैं, क्योंकि साल भर की दुश्वारियों के बीच वे जीवित हैं। उनके बेहद करीब साथी दुनिया छोड़ गए। उनमें अभी भी दम-खम है, संघर्ष का, इसलिए वे जिंदा रहने की खुशी में नए साल को उत्सव के रूप में देख रहे हैं। दूसरी ओर इसके पीछे वह गुप्त मार्केटिंग भी है, जो युवाओं को विदेशी कल्चर की तरफ आकर्षित करता है। हमें विदेश की बनी हर चीज से आकर्षित होते आए हैं, बस इसी का फायदा उठाया रहा है। युवाओं के अंतर्मन में यही बात है, जो उसे उत्सव प्रिय तो बनाती है, पर केवल विदेशी उत्सव के प्रति ही उसका लगाव दिखता है।

डॉ. महेश परिमल


 

मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

धनपतियों का पलायन


दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 19 दिसम्बर 2022 को प्रकाशित




 

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

 



29 नवम्बर 2022 को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित आलेख





इंसान के भीतर से छीजती हरियाली

डॉ. महेश परिमल

कुछ दिनों पहले एक स्कूल में बच्चों को अपनी पसंद का चित्र बनाने को कहा गया। चित्र का शीर्षक था पर्यावरण। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि बच्चों ने पर्यावरण के नाम पर जंगली जानवरों के चित्र बनाए, पर उनके चित्रों में पेड़-पौधे नदी, तालाब गायब थे। सोच की तरंगों ने विस्तार पाया, तो समझ में आया कि इस समय बच्चों की पहुंच से दूर हो गए हैं पेड़-पौधे। वे वनस्पतियों से अधिक जानवरों में रुचि लेते हैं। उनके खिलौनों में अत्याधुनिक कारों के छोटे-छोटे माँडल के अलावा रबर के जंगली जानवर तो मिल जाएंगे, पर पेड़-पौधे, नदी-तालाब नहीं मिलेंगे। शोध में आम व्यक्ति को जंगल का फोटो दिखाया गया। इसमें जानवर और पेड़-पौधे दोनों थे। उनसे पूछा गया कि फोटो में क्या दिखा। लोगों ने जानवर के बारे में बताया, लेकिन पेड़-पौधों को नजरअंदाज कर दिया। इसे ही कहते हैं प्लांट ब्लाइंडनेस।

सच भी है, हममें से न जाने कितने लोग ऐसे भी होंगे, जिन्होंने कई दिनों से न तो कोई पेड़ देखा होगा, न ही यह समझा होगा कि यह किसका पेड़ है। जिन्होंने पेड़ देख तो लिया होगा, पर उसे छूना पसंद नहीं किया होगा। पेड़ के प्रति इस बेरुखी को नाम दिया गया है प्लांट ब्लाइंडनेस। यह स्थिति साफ बता रही है कि हम सब पेड़ों के प्रति अपनी संवेदनाओं से दूर होते जा रहे हैं। आखिर क्या हो गया है हमें? इंसान और पेड़-पौधों के बीच क्यो आ रही है, इतनी दूरियां? क्या दोनों के बीच के रिश्ते अब रिसने लगे हैं? क्या इंसान अब पेड़ों से किसी प्रकार का रिश्ता रखना ही नहीं चाहता?

हाल ही में इस विषय पर एक शोध हुआ, जिसमें बताया गया कि लोगों में संवेदनाओं का अभाव पैदा हो गया। सीधी-सी बात है, संवेदनाओं से दूर होते इंसान के लिए अब सब-कुछ सामान्य है। इंसान पौधों से दूर हो रहा है, यानी प्रकृति से दूर हो रहा है। प्रकृति से दूर यानी शहरीकरण को पूरी तरह से अपनाना। अब घरों में आर्टिफिशियल पौधों और प्रकृति की तस्वीरों ने जगह ले ली है। पौधों से दूर होता इंसान पौधों से संबंधित हर सीधी गतिविधि से दूर हो रहा है। सड़क किनारे किसी पेड़ के करीब से गुजरते हुए वह यह भी जानने की कोशिश नहीं करता कि आखिर ये पेड़ किसका है? पेड़-पौधों के प्रति कुछ जानने की जिज्ञासा का खत्म होना ही यह दर्शाता है कि हमारे भीतर का हरियालापन ही नष्ट हो गया है। 1998 से 2020 तक प्रकाशित हुए 326 लेखों की पड़ताल कर वैज्ञानिकों ने पाया कि लोगों की रुचि पेड़ों के बजाए जानवरों में ज्यादा थी। वे उनके बारे में पौधों से ज्यादा जानकारी याद रखना पसंद करते थे। इसका प्रमुख कारण यह माना जा रहा है कि शहरी लोगों में प्रकृति के प्रति अरुचि दिखाई दे रही है।

लोगों की दिनचर्या से पेड़ अब गायब होते जा रहे हैं। हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्होंने काफी दिनों से न तो किसी पेड़ के पत्तों का ध्यान से निहारा होगा और न ही किसी पेड़ को अपनी पोरों से महसूस किया होगा। हमारे ही बीच के लोग पेड़-पौधों को इसलिए नहीं समझ पाते, क्योंकि उन्होंने कभी हरे-भरे इलाकों में अधिक समय बिताया ही नहीं है। इसके विपरीत सुदूर गांवों में कई लोगों का जीवन ही पेड़-पौधों पर निर्भर होता है। वे न केवल पेड़ को जीते हैं, बल्कि को अपने भीतर पालते-पोसते हैं। पेड़ उनका जीवन साथी होता है। कोई भी काम पेड़ को सामने रखकर ही करते हैं। कई बार पेड़ों को पूजा भी जाता है। इसमें पीपल-बरगद के पेड़ भी हैं, जिनकी पूजा की जाती है।

हिंदुओं में एक त्योहार मनाया जाता है आंवला अष्टमी। इस दिन लोग घर से खाना बनाकर ले जाते हैं और जंगल में किसी आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करते हैं। कई लोग जंगल जाकर वहीं खाना बनाकर खाते हैं। कहा जाता है कि उस विशेष दिन आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने से शरीर को कई तरह की ऊर्जा की प्राप्ति होती है। कई तरह की व्याधियां दूर होती हैं। शरीर निरोग होता है। आजकल इंसानों के भीतर का जंगल तो समाप्त हो चुका है, अब उस बियाबान में हिंसक पशु नहीं, बल्कि कटुता के पैने नाखून वाले जानवर निवास करने लगे हैं। नितांत अकेले रहकर इंसान के भीतर का अकेलापन अब कई रूपों में सामने में आने लगा है। पहले यही स्थिति चिंतन की ओर ले जाती थी, अब यह इंसान को सब-कुछ तबाह करने की प्रवृत्ति की ओर ले जा रही है। इंसान दिनों-दिन एकाकी होता जा रहा है। अब उसे दूसरों से कोई मतलब नहीं है। उसकी पूरी दुनिया मोबाइल में समा गई है, जहां से वह सब-कुछ पा लेता है, जिसकी वह कामना करता है। हथेली में समाए उस यंत्र में ही उसका संसार होता है।

अब तक हम पर्यावरण को हरियाली से जोड़कर देखते आए हैं, पर सच तो यह है कि पर्यावरण का सही अर्थ आसपास के वातावरण से है। पहले हमारे आसपास का वातावरण हरियाली से भरा होता था, जिससे हम प्रेरणा लेकर अपने भीतर के सूखेपन को हरियाला बनाते थे। अब बाहर का सूखापन भीतर के सूखेपन से मिलकर एक रेगिस्तान ही तैयार हो रहा है हमारे भीतर। यही रेगिसतान स्वभाव हमें प्रकृति से दूर कर रहा है, पेड़ों से दूर कर रहा है, हमें हमारे अपनों से दूर कर रहा है। इसलिए आज पेड़ उखड़ रहे हैं, इंसान तो पहले ही उखड़ चुका है। इन हालात में हमारा भविष्य कैसा होगा, सोचा आपने?

डॉ. महेश परिमल 


मंगलवार, 22 नवंबर 2022

डेटिंग एप के धोखे से बचना आवश्यक

22 नवम्बर 2022 को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित





01 दिसम्बर 2022  को राजनांंदगाँव के सबेरा संकेत में प्रकाशित











 

डेटिंग साइट्स का बढ़ता प्रदूषण

डॉ. महेश परिमल

अपनी प्रेमिका श्रद्धा के 35 टुकड़े करने वाला आफताब देश भर में युवाओं का खलनायक बन गया है। चारों तरफ उसकी निंदा हो रही है। ऐसा माना जा रहा है कि आफताब ने जो कृत्य किया है, उसके पीछे एक ऐसा ऐप है, जो इस तरह की प्रवृत्ति को बढ़ाने का काम करता है। यह एक डेटिंग ऐप है। दिल्ली पुलिस ने जांच में आफताब की प्रोफाइल में इस डेटिंग ऐप बम्बल का जिक्र है। यह एप्स और वेबसाइब्स ऑनलाइन व्यभिचार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इतना ही नहीं यह वेबसाइब्स उपभोक्ता के लिए पार्टनर की भी व्यवस्था कर देती है।

हमारे देश में इस तरह के ऐप का प्रवेश 2014 में ही हो गया था। इंटरनेट से जुड़े इस ऐप के आज लाखों व्यसनी हमारे देश में हैं। लोग इसके पीछे अपना कीमती समय बरबाद करते देखे गए हैं। यही नहीं, इसके लिए काफी धन भी खर्च करते हैं। इन्हीं ऐप में से एक है बम्बल। इस मोबाइल डेटिंग एप्लिकेशन पर लोग घंटों तक अपना समय देते हैं। यहां आकर वे अपना मनचाहे पात्र की तलाश करते हैं। डेटिंग साइट, मेट्रोमोनियल साइट ओर इरोटिक साइट आदि एक ही वेवलेंथ पर डेवलप हुई है। सभी में फर्जी प्रोफाइल की भरमार है। इसमें रजिस्ट्रेशन मुफ्त में होता है। कुछ साइट्स पर किसी से सम्पर्क करना होता है, तो उसके लिए राशि का भुगतान करना होता है।

इस समय देश भर का खलनायक आफताब ने डेटिंग एप्लिकेशन बम्बल के माध्यम से अन्य युवतियों के सम्पर्क में था।  जांच में पता चला है कि जब उसके घर के फ्रिज में श्रद्धा का शव टुकड़ों में रखा था, तब भी वह बम्बल के माध्यम से सम्पर्क में आई युवतियां उससे मिलने आती थीं। आफताब को डेटिंग एप्लिकेशन का नशा था। नितांत अपरिचित लोगों के साथ हर तरह की सुविधाएं देने का प्रलोभन देने वाली ये डेटिंग साइट्स में कोई अपना मूल परिचय देना नहीं चाहता। ऐसी साइट्स यह भी खुलासा करती हैं कि हम अनजान लोगों के साथ अंतरंग संबंधों को प्रोत्साहन नहीं देते। अनजाने लोगों से सम्पर्क करने के पहले इनसे सावधान रहें, इस तरह की बातें शुरुआत में एग्रीमेंट में कही जाती हे। ये साइट्स अलग से चेट रूम की व्यवस्था भी कर देती है।

डेटिंग, यह हमारी भारतीय संस्कृति का विषय नही है। कामचलाऊ फ्रेंडिशिप, वन-साइट स्टैंड आदि विकृति फैलाने वाली प्रवृत्तियां हैं। लोग मेट्रोमोनियल साइट्स पर भी अपनी फर्जी तस्वीर और जानकारी देकर लोगों को ठगने का काम कर रहे हैं। शुरुआत में यह माना जा रहा था कि लोग अपनी जिज्ञासओं को शांत करने के लिए ही इस तरह की साइट्स में जाते हैं। परंतु हकीकत यह है कि अधिकांश लोग ऑनलाइन पार्टनर की तलाश करते हैं। जब दो अनजाने इस साइट में मिलते हैं, तो दोनों ही अपना परिचय नहीं देते। यहां तक कि नाम भी गलत बताते हैं। जबकि यह साइट्स कागजों पर अपना उद्देश्य यह बताती हैं कि यह साइट्स लोगों के स्वस्थ मनोरंजन के लिए है। इसके अलावा यह साइट्स प्रेम संबंध या विवाह के बाद होने वाले तनावों को दूर करने में सहायता करने का दावा भी करती है। किंतु यह सब एक औपचारिकता ही है। आजकल ये साइट्स अपनी कुंठित भावनाओं को व्यक्त करने और पार्टनर तलाशने का साधन बन गए हैं।  डेटिंग हर समय सभी के लिए खराब होती है, यह कहना गलत होगा। परंतु डेटिंग ऐप को डिजाइन करने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि इस साइट पर आने वाले आखिर चाहते क्या हैं? इसके लिए वे तगड़ा चार्ज भी करते हैं, जिसका भुगतान करने के लिए साइट पर आने वाले खुशी-खुशी करते हैं। डेटिंग ऐप काफी समझदारी से तैयार की जाती हैं। वे लोगों की चाहतों को भी अच्छी तरह से समझती हैं। सर्च के आंकड़े बताते हैं कि इस साइट में आने वाले बुजुर्ग युवतियों की तलाश करते हैं और युवा विधवा महिलाओं या बड़ी उम्र की सिंगल रहने वाली महिलाओं की तलाश करते हैं।

एक मान्यता यह है कि लाइफ पार्टनर को तलाशने के लिए डेटिंग साइट्स बहुत अच्छा माध्यम है। मेट्रोमोनियल साइट के बजाए यहां खुले विचारों के लोग अधिक आते हैं। विधुर लोगों के लिए यह दूसरी बार जीवनसाथी चुनने का अवसर देती हैं ये साइट्स। इसके बाद भी इसका दूसरा पहलू यही है कि यह लोगों की कुत्सित भावनाओं को उभारकर उसे प्रोत्साहन देने का काम भी करती है। अनजाने लोगों के साथ अंतरंग बातचीत करने में इंसान खुद को अधिक सुरक्षित महसूस करता है। इससे बात करते हुए वह अपनी मानसिक विकृति को भी सामने लाकर संतुष्ट होता है। कई बार इस तरह की साइट से अच्छी मित्रता भी हो जाती है, पर ऐसा कम ही हो पाता है। कुल मिलाकर ये साइट लोगों के भीतर की उठने वाली कुत्सित भावनाओं की तरंगों को शांत करने का काम करती हैं।

नेटफ्लिक्स में एक डाक्यूमेंट्री 'स्वींडलर' है, जिसमें ऑनलाइन डेटिंग का स्याह पहलू दिखाया गया है। इसके खतरनाक पहलू पर भी बात रखी गई है। आफताब जैसे लोग डेटिंग ऐप का लाभ उठाकर अपने भीतर के गंदे विचारों को अंजाम देते हैं। इसके लिए हमें सचेत होना होगा। देश में ऐसी साइट्स पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। लोगों का ध्यान कम से कम इस ओर जाए, इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। इस समय देश में एक ऐसे माहौल की जरूरत है, जिसमें इंसान अकेलपन में इस तरह की साइट से बचे। उस पर बुरे विचार हावी न हों। हर कोई उदार हो, किसी की भी भलाई करने में कोई पीछे न रहे। ऐसा तब संभव है, जब इंसान ही इंसान के भीतर के इंसान की पहचान कर ले।

डॉ. महेश परिमल 


मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

जानलेवा साबित होती निष्क्रिय जीवनशैली

 

17 अक्टूबर 2022 को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संसकरण में प्रकाशित




शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

गायब होती कुदरत की छाँव


एक अक्वृटूबर वृद्धजन दिवस पर जनसत्ता और सबेरा संकेत में आलेखों का प्रकाशन






 

बुधवार, 28 सितंबर 2022


सबेरा संकेत राजनांदगाँव में 25 सितम्प्रबर 22 को काशित




 




                                                                30 सितम्बर 22 को प्रकाशित




30 सितम्बर 22 को प्रकाशित

रविवार, 18 सितंबर 2022

बिखरती भावनाएँ, लुप्त होते कौवे

 


दैनिक सबेरा संकेत राजनांदगांव में 18 सितम्प्रबर 22 को प्रकाशित









लाकस्वर बिलासपुर में 18 सितम्बर 2022 को प्रकाशित


शुक्रवार, 9 सितंबर 2022

जानलेवा साबित होती लापरवाही











 

रविवार, 28 अगस्त 2022

राम की तरह वापस आना....

 



सबेरा संकेत में 28 अगस्त 2022 को प्रकाशित


दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 27 अगस्त 2022 को प्रकाशित

बुधवार, 20 जुलाई 2022

तंगहाली में दिन काटता हर्षद मेहता का परिवार

 



बदहाल हर्षद मेहता का परिवार कहते हैं कि चढ़ते सूरज को हर कोई सलाम करता है। आज जिसके पास धन-दौलत और प्रसिद्धि है, उसके साथ हजारों की भीड़ है। एक समय ऐसा भी था, जब बिगबुल के नाम से प्रसिद्ध हर्षद मेहता के साथ हजारों लोग थे। शेयर बाजार में उसकी तूती बोलती थी। मंत्री से लेकर संत्री तक उसके गुणगान करते थे। उसके साथ अनेक चाटुकार भी थे। पर समय के साथ-साथ सब कुछ बदल गया। आज हर्षद मेहता का परिवार तंगहाली और बदहाली में जी रहा है। पिछले दो दशक से उनका परिवार बिना बैंक एकाउंट के जी रहा है। हाल ही उनकी पत्नी ज्योति मेहता ने एक वेबसाइट शुरू की है, जिसमें उसने बताया कि हर्षद मेहता को एक घपलेबाज के रूप में प्रचारित किया गया है। उन पर कोई आरोप सिद्ध नहीं हुए हैं। उन पर फिल्म और वेबसीरीज भी बन गई। उनके नाम पर लाखों रुपए भी कमा लिए गए। पर किसी ने मेहता परिवार की सुध नहीं ली। ज्योति मेहता ने यहां तक कहा है कि हर्षद मेहता को जब जेल में अटैक आया, तो उन्हें समुचित इलाज नहीं मिला। हमने कई बार इस दिशा में सरकार का ध्यान आकृष्ट किया, पर न तो उनकी मौत की जांच हुई, न ही उनके शव का पोस्टमार्टम किया गया। शेयर बाजार से किस तरह कमाई की जा सकती है, इसे सिखाया हर्षद मेहता ने। एक समय उन्हें बिगबुल की रूप में पहचाना जाता है, आज उसे घपलेबाज बताया जा रहा है। आज भी जब कभी शेयर बाजार औंधे मुंह गिरता है, तो लोग हर्षद मेहता को ही याद करते हैं। उसके शाही ठाठ के खूब चर्चे थे। आज उनके परिवार की सुध लेने वाला कोई नहीं है। देश में आर्थिक उदारीकरण के दौर में सन 1990 के दशक में अरबों रुपयों का आर्थिक घोटाला प्रकाश में आया, तो उसके सूत्रधार के रूप में हर्षद मेहता का नाम सामने आया। बैंकों की असावधानी उसकी कमजोरी का पूरा लाभ उठाते हुए हर्षद मेहता ने बैंक के रुपए को बाजार में चलाया। जब यह घपला सामने आया, तब शेयर बाजार बुरी तरह से औंधे मुंह गिरा। इसका असर यह हुआ कि छोटे निवेशकर्ताओं की हालत ही खराब हो गई। इसके लिए हर्षद मेहता को दोषी माना गया। इसके बाद हर्षद मेहता अतीत का हिस्सा हो गए। बीस साल बाद उनकी पत्नी ज्योति ने एक वेबसाइट शुरू की। जिसमें उसने पति हर्षद मेहता की छवि को जानबूझकर खराब करने का आरोप लगाया। वेबसाइट में ज्योति ने लिखा है कि जब से हर्षद मेहता की मौत हुई है, तब से हमारी जिंदगी को मानों लकवा मार गया है। वेबसाइट में सुचेता दलाल का भी जिक्र किया गया है। सुचेता ने ऐसी तकनीक अपनाई थी कि उसका नाम कहीं भी न आए आए, तो घोटाले का पूरा ठीकरा हर्षद मेहता के सर पर फोड़ा जाए। वेबसाइट में ज्योति मेहता ने लिखा है कि मेरे पति हर्षद मेहता को 47 की उम्र में हार्ट अटैक से मौत हो गई। उन्हें पहली बार जब अटैक आया, तब डॉक्टर ने उन्हें सार्बीट्रेट के सिवाय और कोई दवा नहीं दी थी। उन्हें हॉस्पिटल में भी शिफ्ट नहीं किया गया। चार घंटे बाद जब उन्हें दूसरा अटैक आया, तब उन्हें थाणे के हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। जब उन्हें थाणे के हॉस्पिटल में लाया गया, तब उन्हें उनके कमरे तक चलाते हुए ले जाया गया। उन्हें व्हील चेयर मुहैया नहीं कराई गई। जब वे बुरी तरह से थक गए, तब उन्हें व्हील चेर पर बिठाया गया। वहीं उनकी मौत हो गई। तब हमने इसकी जांच कराने और शव का पोस्टमार्टम करने की मांग की। पर हमारी किसी ने नहीं सुनी। उनकी मौत की जानकारी उसी जेल में उसके बाजू वाली कमरे में कैद उनके भाई को भी नहीं दी गई। अब मेहता परिवार यह कहता है कि 1993 से हम टैक्स टेरिज्म के शिकार बने हैं। हमें बलि का बकरा बनाया गया है। जांच के दौरान हमने सरकार और जांच एजेंसी को पूरा सहयोग दिया है। इसके बाद भी हमें बदनाम किया गया है। अदालत द्वारा हर्षद मेहता को अपराधी साबित करने के पहले मीडिया ने उन्हें अपराधी घोषित कर दिया। उन्हें स्केम मास्टर के रूप में प्रचारित किया गया। उनकी मौत के बाद उन पर क्रिमिनल केस नहीं चलाना संभव नहीं था, उन पर कोई आरोप भी सिद्ध नहीं हो पाए थे। इसके बाद भी उन पर केंद्रित वेबसीरीज बनाई गई। जिसका टाइटल ही गलत है। हर्षद मेहता की पत्नी ज्योति ने 20 साल बाद मुंह खोला है। तब तक हर्षद मेहता के नाम पर बहुत कुछ बिक गया है। देश को आर्थिक रूप खोखला करने वाले बहुत से लोग हुए हैं। पर किसी के साथ हर्षद मेहता जैसा व्यवहार नहीं हुआ है। देश को बहुत से लोगों ने अपने-अपने तरीके से नुकसान पहुंचाया है। पर आज वे सभी सम्मानपूर्वक जीवन जी रहे हैं। पर हर्षद मेहता का परिवार आज किस हालत में है, इसे कोई जानना नहीं चाहता। उनके नाम पर बनने वाली फिल्म और वेबसीरीज को सभी ने सराहा, पर मूल पात्र के परिवार की हालत कैसेी है, यह जानने की फुरसत किसी को नहीं है। देश में एक से एक भ्रष्ट लोग हैं, जिसमें अधिकांश राजनीति में हैं, पर सभी बेदाग माने जाते हैं। जिसने बैंकों की कमजोरी का फायदा उठाकर उसकी राशि से अपना बिजनेस बढ़ाया, आज उसका परिवार तंगहाली और बदहाली में जी रहा है। इसे क्या कहा जाए? डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

व्यक्तित्व में छिपा आभामंडल

 



12 जुलाई 2022 को जनसत्ता में प्रकाशित


11 जुलाई 2022 को दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित



व्यक्तित्व दर्शाता है आभामंडल

आपने कभी ध्यान दिया कि कोई व्यक्ति हमें बहुत अच्छा लगता है। कोई बिलकुल भी नहीं सुहाता। किसी के पास बैठना ही बहुत भला लगता है, तो किसी के चेहरा ही हमारे भीतर वितृष्णा जगा देता है। कभी किसी की आवाज ही सुन लो, तो मन को शांति मिलती है। कभी अचानक ही कोई याद आ जाए, तो मन में बुरे विचार आने लगते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? यह जानने की कोशिश की आपने? नहीं ना? इसका सीधा-सा संबंध है, सामने वाले की मानसिकता पर। अगर हमें कोई अच्छा लगता है, तो इसका आशय यही है कि उसके शरीर से निकलने वाली ऊर्जा हमें कुछ नया करने के लिए प्रेरित कर रही है। कुछ लोग हमें बिलकुल भी नहीं भाते, तो इसका आशय यही है कि उसके भीतर की पूरी नकारात्मकता हमारे भीतर प्रवेश करने लगती है।

मनुष्य का चेहरा उसके व्यक्तित्व का आईना होता है। उसके चेहरे के पीछे होता है आभामंडल। यह आभामंडल व्यक्ति का लेखा--जोखा होता है। इसे हम बैंलेंस सीट भी कह सकते हैं। व्यक्ति के प्रत्येक अच्छे कार्य से आभामंडल का निर्माण होता है। इसके विपरीत प्रत्येक बुरे कार्य से वह कमजोर होता है। जो लोग निरंतर प्रेम, दया और स्नेह भाव से दुनिया को चालते हैं, उनके आभामंडल की ज्योति लागतार बढ़ती जाती है। ऐसे लोगों से मिलकर हमें असीम शांति की प्राप्ति होती है। बुरे आचारण वाले व्यक्ति का आभामंडल होता तो है, पर उसमें किसी भी तरह का आकर्षण नहीं होता।  हमने अपने देवी-देवताओं की तस्वीरें देखीं होंगी। जिसमें उसके सिर के पीछे एक चमकता हुआ गोला दिखाई देता है। इसे हम आभामंडल कहते हैं। हमारे आराध्यों के साथ ही ऐसा कई महापुरुषों के साथ भी देखा गया है। गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरुनानक की तस्वीर देख लो, तो वे हमें आशीर्वाद देते दिखाई देते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि मानों उनका एक हाथ हमें आशीर्वाद दे रहा हो। वास्तव में यह आभामंडल ही है, जो हमें सदैव कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करता है। यह आभामंडल केवल देवी-देवताओं, संतों में ही नहीं, बल हम सबके साथ होता है। देवी-देवताओं से हमारी भावनाएं जुड़ी होती हैं, इसलिए उनका आभामंडल हमें दिखाई देता है, पर जिन व्यक्तियों का सान्निध्य पाकर हम निहाल हो जाते हैं, निश्चित रूप से उनका आभामंडल हमें प्रेरित करता है, अच्छे कार्यों के लिए। यह कहा गया है कि जिस व्यक्ति का आभामंडल जितना तेजस्वी होता है, वह व्यक्ति उतना ही समर्थ माना जाता है। 

ज़रा अपने बचपन की ओर लौटे, जब हमें सात रंगों के बारे में समझाया जाता था। इसका हमें एक सूत्रशब्द रटाया जाता था। "बैनीआहपीनाला" इसका आशय यह हुआ कि बैंगनी, नीला, आसमानी, पीला, नारंगी और लाल। इस सूत्र को यदि विस्तार से देखें, तो यह सीधे अध्यात्म से जुड़ जाता है। अध्यात्म के उपासकों के अनुसार हम सभी के शरीर में सात चक्र स्थित हैं। इस सातों चक्रों के साथ ये सात रंग सम्बद्ध हैं। इसीलिए सच्चे साधु-संतों के सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति एक प्रकार की मानसिक शांति प्राप्त करता है। इसकी वजह यही है कि संतों की ऊर्जा इतनी सघन होती है कि वे यदि केवल आशीर्वाद की मुद्रा में अपना हाथ सिर पर रख दें, तो हमारे सारी पीड़ाओं का अंत हो जाता है। 

सवाल यह उठता है कि व्यक्ति अपनी आभामंडल का विस्तार किस तरह से कर सकता है? तो इसका सीधा-सा उपाय है, ध्यान, सकारात्मक विचार, सत्साहित्य का अध्ययन, सात्विक आहार और निर्व्यसन से हम अपने आभामंडल को शक्तिशाली बना सकते हैं। एक बार यह आभा सशक्त हो जाए, तो उसके बाद जीवन के हर क्षेत्र में इसका प्रभाव बढ़ता है। वह जिस क्षेत्र में हो, वहां उपलब्धियां हासिल करता रहता है। मेडिकल साइंस में होने वाले शोध से यह पता चला है कि इस आभामंडल के माध्यम से भविष्य में होने वाली बीमारियों का भी पता लगाया जा सकता है। अध्यात्म में रचे-बसे व्यक्तियों के अनुसार हर व्यक्ति के आसपास चार से आठ इंच तक की आभा फैली होती है। मस्तक के नीचे ब्रह्मरंध्र में सहस्रार चक्र का रंग बैंगनी होता है। तो सबसे नीचे जननांगों के पास मूलाधार चक्र का रंग लाल होता है। हर आभा के साथ गूढ़ अर्थ जुड़ा है। उदाहरण के लिए संतों या देवी-देवताओं के आभामंडल का रंग आसमानी होता है। जिनकी आभा का रंग पीला होता है, ऐसे लोगों में नेतृत्व क्षमता होती है। नारंगी रंग के आभामंडल वाले लोग संवेदनशील होते हैं। लंबवत आकार वाली आभा में एक दरार दिखाई देती है। यह आभा खंडित होती है। इस भविष्य मउसे होने वाली बीमारी का जानकारी मिलती है। हाल ही में एक दक्षिण भारतीय किशोरी के बारे में पता चला है, जो सामने वाले व्यक्ति की आभा को देख सकती है। यह उसके लिए प्रकृति से प्राप्त वरदान है। किशोरी यह बता सकती है कि सामने वाले व्यक्ति की आभा कैसी है। बहुत ही कम लोगों में यह क्षमता होती है। यदि इस शक्ति का उपयोग सकारात्मक रूप से हो, तो यह समाज के लिए बहुत ही उपयोगी साबित हो सकती है। बहरहाल किशोरी के माता-पिता अपनी बेटी की इस क्षमता का अधिक प्रचार-प्रसार नहीं करना चाहते। उनका मानना है कि बेटी अभी केवल पढ़ाई करे, ताकि उसका भविष्य संवर सके।

समय के साथ--साथ आभामंडल में लगातार अभिवृद्धि होती रहती है। जो व्यक्ति जितना अधिक अतीत का हिस्सा होगा, उसका आभामंडल उतना ही सघन होता है। हमारी जिसमें असीम श्रद्धा होगी, तभी हम उनका आभामंडल देख पाएंगे। हृदय की शुद्धता का आभामंडल का सीधा संबंध है। यह धार्मिक व्यक्तियों पर अधिक लागू होता है। एक सघन आभामंडल वाले व्यक्ति के सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों का भी आभामंडल तैयार होता रहता है। वे भी धीरे--धीरे अपने क्षेत्र में विकास करते रहते है। कुल मिलाकर आशय यही है कि यदि हम अपने आसपास के व्यक्तियों पर एक दृष्टि डालें, तो हमें समझ में आ जाएगा कि किस व्यक्ति का आभामंडल कैसा है? फिर हम अपनी दिनचर्या पर ध्यान दें कि किसके करीब होने से हमें सब-कुछ अच्छा लगता है। ऐसे लोगों के बीच जाकर उनसे लगातार सम्पर्क करेंगे, तो हमें उनसे ऊर्जा मिलेगी। हम जीवन की चुनौतियों का सामना बेहतर तरीके से कर पाएंगे। जिनके पास बैठकर हमें कुछ भी अच्छा न लगता हो, जिनके पास जाने की इच्छा ही न हो, ऐसे लोगों से दूर ही रहा जाए। जब दो व्यक्ति मिलते हैं, तो वास्तव में उनकी आभाएं मिलती हैं। जो परस्पर प्रेरणा लेती हैं। दो आभामंडल का मिलन यह दर्शाता है कि शक्ति का प्रकाशपुंज अब और विस्तार पाकर शक्तिशाली हो रहा है।

डॉ. महेश परिमल



रविवार, 10 जुलाई 2022

कंगना-अमृता की 'हाय' से डूबी सरकार

 



लोकाेत्तर भोपाल में 9 जुलाई 2022 को प्रकाशित




लोकस्वर बिलासपुर में 8 जुलाई 2022 को प्रकाशित


दो महिलाओं की बद्दुआओं से डूबी महाराष्ट्र सरकार

हमें बचपन से यही सिखाया गया है कि कभी किसी की "हाय" मत लो। यह "हाय" उस समय तो असर नहीं दिखाती, पर कालांतर में उसका असर होता है, तो बहुत ही बुरा होता है। जब भी कोई किसी की मजबूरी का भरपूर फायदा उठाता है, तो वह दिल से उसे बद्दुआ देता है। बद्दुआ देने वाला जानता है कि उसकी बद्दुआ का असर अभी नहीं होगा, फिर भी वह उसके बारे में खूब बुरा बोलता है। उसकी इस हरकत पर कोई ध्यान नहीं देता। पर कुछ समय बाद जब वक्त बोलता है, तब उस मजबूर की बद्दुआ असर दिखाती है। उस समय लोग कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है। वह अपने होने का असर दिखा ही देता है। आखिर उस मजबूर की बद्दुआ ने अपना काम कर दिखाया।

हम सभी को याद होगी 9 सितम्बर 2020 की वह घटना, जब फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौट के कार्यालय पर बुलडोजर चला दिया गया था। तब कंगना ने उद्धव ठाकरे को संबोधित करते हुए कहा था कि आज मेरी ऑफिस टूटी है, कल तेरा शासन(घमंड) टूटेगा। उस समय किसने सोचा था कि कंगना की यह बात सच साबित हो जाएगी। तब तो हालात यह थे कि उद्धव ठाकरे के खिलाफ कुछ बोलना भी अपराध था। पूरी मायानगरी में अकेली कंगना ही वह मर्द थी, जिसने जो भी कहा, खुलकर कहा। अब हालात बदल गए हैं। उस समय उद्धव पर कांग्रेस और राजजीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार का वरदहस्त था। आज वहां इन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं है।

महाराष्ट्र के बागी नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में जब सूरत पहुंचे थे, तब महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस की पत्नी अमृता फड़नवीस ने ट्विट किया था, जिसमें परोक्ष रूप से उसने लिखा था कि एक था कपटी राजा। अमृता ने यह ट्विट उस घटना को लेकर उद्धव ठाकरे पर कटाक्ष करते हुए किया था, ढाई साल पहले जब उनके पति एक बार फिर मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे ही थे, कि सब कुछ बदल गया। भारतीय राजनीति में सत्ता पलट की यह कोई पहली घटना नहीं है। हर राज्य में कोई एकनाथ शिंदे, एकाध ज्योतिरादित्य सिंधिया या सचिन पायलट होते ही हैं। इन सबके भीतर महत्वाकांक्षाओं का सागर उमड़ता रहता है। जो किसी ने किसी तरीके से बाहर आता है। वास्तव में उन्हें सत्ता का नशा होता है। वे मंत्री या मुख्यमंत्री पद के पीछे के ऐश्वर्यशाली जीवन को जीना चाहते हैं। उनकी यही चाहत उन्हें ऐसा करने को विवश करती है। दो महिलाओं की "हाय" ही है, जिसने महाराष्ट्र की राजनीति को एक नई दिशा दी।

आज एकनाथ शिंदे भले ही यह कहते रहे कि उन्होंने हिंदुत्व को सामने रखकर बगावत की है। परंतु सभी जानते हैं कि उनका निशाना उद्धव ठाकरे ही थे। अनजाने में वे भी मुख्यमंत्री पद की लालसा रखते थे। जिसे उन्होंने भाजपा को साथ लेकर पूरा कर दिया। महाराष्ट्र की राजनीति की उपजाऊ जमीन पर शिदे ने अपने सपने को बोकर उसे साकार कर दिखाया। बाला साहब ठाकरे भले ही सक्रिय राजनीति में न हो, उन्होंने अपने जीवन में कोई राजनीतिक पद भी स्वीकार नहीं किया। पर अपने विशाल व्यक्तित्व के कारण उन्होंने माहौल ही ऐसा बनाया कि बड़े से बड़े नेता उनके घर पहुंचकर उन्हें प्रणाम करते थे।

सत्ता का हाथ से अचानक फिसल जाना बहुत ही विस्मयकारी होता है। नेताओं के लिए यह किसी हादसे से कम नहीं है। इसे बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहे होंगे उद्धव ठाकरे और उनके मंत्री। महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार की भूमिका सुपर चीफ मिनिस्टर के रूप में होती रही है। कई लोगों ने उन्हें राजनीति का चाणक्य भी कहा है। किंतु इस बार हुई उथल-पुथल में उन्होंने एक दांव भी नहीं चला। सभी की नजर शरद पवार पर थी। पर उन्होंने अपनी तरफ से ऐसी एक भी कोशिश नहीं की, जिससे उद्धव ठाकरे की सरकार बच पाती। इधर उद्धव की सरकार डूबी, उधर शरद पावर की सुपर चीफ मिनिस्टर की भी नाव डूब गई।

अब शरद पवार कितना भी कह लें कि यह सरकार अधिक नहीं टिक पाएगी, महाराष्ट्रवासी मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार रहें, तो उनकी इस बात को कोई मानने वाला भी नहीं है। ये बात वे खुद को राजनीति में टिके रहने के लिए कह रहे हैं। सोमवार को जो कुछ हुआ, वह फड़नवीस के अनुसार ही हुआ। उद्धव सरकार में जो हैसियत शरद पवार की थी, अब वही हैसियत एकनाथ शिंदे सरकार में देवेंद्र फड़नवीस की होगी, इसमें कोई दो मत नहीं। इस तरह से देखा जाए, तो दो महिलाओं की "हाय" और सरकार में अपनों की ही उपेक्षा से उद्धव सरकार का पतन हो गया, जो नई सरकार बनी है, उसे अभी कई चुनौतियों का सामना करना है। यह विश्वास किया जा सकता है कि ये सरकार न तो अपनों की अनदेखी करेगी और न ही किसी की "हाय" लेगी।

डॉ. महेश परिमल


शनिवार, 2 जुलाई 2022

दबे पाँव आती महँगाई की पदचाप


लोकोत्तर में 2 जुलाई 2022 को प्रकाशित





 लोकस्वर में 2 जुलाई 2022 को प्रकाशित


दबे पांव आती महंगाई की पदचाप

रूठ गई बारिश, बढ़ी महंगाई की आशंका

जुलाई का महीना शुरू हो गया है, अभी तक देश के कई हिस्सों में बारिश का नामो-निशान नहीं है। कुछ राज्यों ने मानसून ने दस्तक दी, उसे भिगोया, पर बाद में न जाने कहां चला गया। महाराष्ट्र, गुजरात और मध्यप्रदेश के कई हिस्सों में दलहन की बुवाई तक नहीं हुई है। ऐसे में महंगाई बढ़ेगी, यह तो तय है, साथ ही दलहन की फसल कम होने पर दलहन के भावों में और तेजी आएगी। यह सब ऋतुचक्र के बिगड़ने के कारण हुआ है। ऋतुचक्र लगातार टूट रहा है, इसे समझने को कोई तैयार नहीं है। पानी की बचत को लेकर सरकार के सारे दावे खोखले नजर आ रहे हैं। किसान आशाभरी दृष्टि से आकाश की ओर देखते हैं, फिर निराश हो जाते हैं। निराशा के इस अंधेरे में आशा की कोई एक हल्की-सी किरण भी दिखाई नहीं दे रही है। अब हम सब सुनने लगे हैं दबे पांव आती महंगाई की पदचाप।

बारिश के आने में हर साल देर होने लगी है। कुछ साल पहले तक जून में ही ठंडी हवाएं शुरू हो जाती थीं। दस जून तक बारिश सभी को भिगो देती थी। फिर यह तारीख 15 जून हो गई। धीरे-धीरे 30 जून तक बारिश के आसार नहीं दिखने लगे हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। मानसून कहीं अटक जाता है, तो कभी भटक जाता है। सब कुछ सामान्य रहा, तो कोई न कोई चक्रवात उसे ऐसी जगह पर ले जाता है, जहां से आना कुछ सप्ताह तक संभव नहीं हो पाता। इस तरह से आकाश से काले बादलों की आवाजाही बंद हो जाती है। लोग उमस से परेशान होने लगते हैं। किसान बुवाई की पूरी तैयारी में होते हैं। पर बारिश ऐसी रूठती है कि उसे मनाया भी नहीं जा सकता। इस हालत ने कई राज्यों को चिंतित कर दिया है, यदि इस बार बारिश ने जल्द ही नहीं भिगोया, तो संभव है हालात बेकाबू होने लगे।

अब बाजार में आवश्यक जिंसों के भाव बढ़ने लगे हैं। पिछले एक सप्ताह में अरहर की दाल के भाव में 5 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। उड़द दाल में चार प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गई है। 24 जून तक देश के 36 प्रतिशत हिस्से में दलहन की बुवाई हुई है। पिछले साल इन्हीं दिनों तक 55 प्रतिशत हिस्से में बुवाई हुई थी। दलहन का उत्पादन मध्य और उत्तर भारत में अधिक होता है। इन स्थानों में बारिश न होने के कारण दलहन के भावों में तेजी आना स्वाभाविक है। सरकारी बांध भी अब सूख चुके हैं। वे भी खेतों की प्यास बुझाने में नाकाम साबित हुए हैं। ऋतु चक्र टूटने को लेकर विश्वव्यापी चिंताएं तो होती हैं, पर उसके कुछ अच्छे परिणाम सामने नहीं आते। 

इधर किसानों की आंखें तरस रही हैं, उधर असम में बाढ़ के हालात है। वहां के 17 जिलों में जलप्लावन की स्थिति है। इन हालात में देश की नदियों को जोड़ने वाली परियोजना की याद आती है। नदियों की आपस में जोड़ने का आइडिया अंगोजों के जमाने से चला आ रहा है। पहली बार इस पर 109 साल पहले 1919 में चर्चा हुई थी। स्वतंत्रता के बाद हुई राजनीतिक उथल-पुथल के कारण इस पर ध्यान नहीं दिया गया। इस समय इस विषय पर कभी-कभी चर्चा हो जाती है, पर उसके परिणाम सामने नहीं आते। एक महत्वाकांक्षी योजना किस तरह से हाशिए पर चली जाती है, यह इस योजना से जाना जा सकता है। अभी भी न तो सरकार और न ही नागरिकों ने बारिश के पानी के संग्रह की दिशा में गंभीरता से कुछ सोचा है।

हालात दिनों-दिन बेकाबू होते जा रहे हैं। लोग उमस से त्रस्त हैं। मानसून हर साल धोखा दे रहा है। अकेले मानसून में ही वह ताकत है, जो समृद्ध राष्ट्र के बजट को एक झटके में प्रभावित कर सकता है। देश के राज्यों की हालत भी इतनी अच्छी नहीं है कि देर से होने वाली बारिश के पहले कुछ विकल्प की तलाश कर ले। गलती हमारी ही है, हमने ही मानसून का स्वागत करना नहीं सीखा। उसके आने के संकेत से ही हमें बहुत कुछ जान लेना चाहिए। मानसून क्या चाहता हे, इसे जानने की कोशिश हमने कभी नहीं की। अब तो लगता है कि मानसून नहीं, बल्कि आज मानव ही भटक गया है। मानसून देर से ही सही आएगा ही, धरती को सराबोर कर देगा। पर यह जो मानव है, वह कभी भी अपने सही रास्ते पर अब नहीं आ सकता। इतना पापी हो गया है कि धरती भी उसे स्वीकार नहीं कर पा रही है। हमारे पूर्वजों का जो पराक्रम रहा, उसके बल पर हमने जीना सीखा, हमने हरे-भरे पेड़ पाए, झरने, नदियां, झील आदि प्रकृति के रूप में प्राप्त किया।आज हम भावी पीढ़ी को क्या दे रहे हैं, कांक्रीट के जंगल और हरियाली से बहुत दूर उजाड़ स्थान। देखा जाए, तो मानसून ही महंगाई का बड़ा स्वरूप है। ये भटककर महंगाई को और अधिक बढ़ाएगा। इसलिए हमें और भी अधिक महंगाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए। इसलिए मानसून को मनाओ, महंगाई दूर भगाओ। मानसून तभी मानेगा, जब धरती का तापमान कम होगा। धरती का तापमान कम होगा, पेड़ो से पौधों से, हरियाली से और अच्छे इंसानों से। यदि आज धरती से ये सब देने का वादा करते हो, तो तैयार हो जाओ, एक खिलखिलाते मानसून का, हरियाली की चादर ओढ़े धरती का, साथ ही अच्छे इंसानों का स्वागत करने के लिए। 

डॉ. महेश परिमल



शुक्रवार, 24 जून 2022

इंटरनेट एक्सप्लोरर की विदाई

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 23 जून को प्रकाशित





हिमाचल प्रदेश जनसम्पर्क विभाग के अखबार गिरिराज में 22 जून 22 को प्रकाशित







 

मंगलवार, 21 जून 2022

झुर्रियों की अहमियत

 











फादर्स डे पर 19 जून को मेरा एक आलेख 3 अखबारों में ्रपकाशित हुआ। बिलासपुर के लोकस्वर, भोपाल के लोकोत्तर और रायपुर के चैनल इंडिया में 


झुर्रियों की अहमियत
मेरे एक बुजुर्ग साथी हैं, उनकी उम्र है 80 साल। वे आज भी पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पिछले 20 सालों से वे एक कॉलेज में कानून पढ़ा रहे हैं। बेडमिंटन-टेबल-टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी हैं। बातचीत में जोशीले हैं। कई विषयों में अच्छा दखल रखते हैं। उनके पास आने वालों में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है, जो जीवन के संघर्षों से जूझ तो रहे हैं, पर उन्हें कोई मंजिल नहीं मिल रही है। एक तरह से हताश-निराश लोगों के लिए वे एक वरदान हैं। हर समस्या का समाधान उनके पास है। अभी तक उनके पास से कोई निराश नहीं लौटा। भलाई के कई ऐसे काम उनके द्वारा हुए हैं, जिनकी जानकारी उनके अपनों को भी नहीं है। धाराप्रवाह हिंदी-अंगरेजी में अपनी बात कहने वाले मेरे बुजुर्ग साथी दिल के बहुत ही साफ हैं। आशा की एक छोटी-सी किरण पाने की आस में उनके पास आने वाला व्यक्ति विश्वास से भरा-पूरा एक सूरज अपने साथ ले जाता है। उनका प्रखर व्यक्तित्व हर किसी को आकर्षित करता है।
मेरे ये साथी पूरे 11 साल तक दूसरे शहर नहीं जा पाए। क्योंकि उनकी पत्नी इन वर्षों में व्हील चेयर पर रहीं। पिछले साल ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। अब उनके पास समय काफी था। कॉलेज में गर्मी की छुटि्टयां लगीं, तो उन्होंने अपने गृह राज्य जाने का फैसला किया। अभी उनकी यात्रा शुरू ही नही हुई थी कि उनके परिवार के अन्य सदस्यों ने अपने पास आने की गुहार लगानी शुरू कर दी। हर कोई उन्हें अपने पास बुलाना चाहता था। सीमित अवकाश में सबके पास जाना संभव ही नहीं था। पहले तो वे सीधे अपने गृह राज्य पहुंचे। काफी बरसों बाद पहुंचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। बड़े परिवार के कई सदस्य उनसे मिलने आए। वे सभी से पूरे अपनेपन के साथ मिलते। चाहे छोटा हो या बड़ा, सभी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। उनके व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण था। अपनी सहजता से वे कुछ ही पलों में सभी को अपना बना लेते।
इस दौरान एक बात देखी गई। उनके आने से शहर में ही रहने वाले परिवार के वे सदस्य जो साल में केवल दो-तीन बार मिल पाते, कुछ ही दिनों में बार-बार मिलने लगे। इससे उनके बीच तो थोड़ी-बहुत कटुता थी, वह दूर हो गई। गलतफहमियां का कुहासा छंट गया। लोग और करीब आने लगे। उनके पास जो भी आता, कुछ न कुछ सबक लेकर ही जाता। कई युवाओं को उन्होंने ऐसी समझाइश दी, जिससे उनके काम की बाधाएं दूर हो गई। वे परिवार के ऐसे सदस्यों से भी मिले, जो अपने परिवार वालों से दूर हो गए थे। स्वयं को परिवार में उपेक्षित महसूस करने वाले सदस्यों से जब वे बुजुर्ग मिले, तो उनकी आंखों में पश्चाताप के आंसू थे। साथी जहां भी गए, अपनेपन की खुशबू बिखेर गए।
परिवार की तीसरी पीढ़ी के लिए वे किसी एलियन से कम नहीं थे। कोई उनके पोपले मुंह का मजाक उड़ाता, तो कोई उनके सफेद बालों का। ये पीढ़ी उन्हें पिज्जा-बर्गर खिलाना चाहती, जिसे वे सहजता से खा भी लेते। मोबाइल पर वीडियो बनाती, उनसे हुई बातचीत को रिकॉर्ड करती। इनसे मिलकर इस पीढ़ी ने उम्र के दायरे को भी पाट दिया। वे सभी के लिए अपने थे, प्यारे थे, अपनापन बिखेरने वाले एक दादा थे। उस परिवार में कुछ ऐसे भी थे, जो उनसे भी बड़े थे। अपने से तीन साल बड़ी बहन के लिए तो वे अभी भी छोटू ही थे। उनसे मिलने पर बहन कुछ कह तो नहीं पाईं, पर उनकी आंखों से सब-कुछ कह दिया। वे केवल अपने छोटू का हाथ पकड़कर सिसकती रही, यादों की जुगाली करती रहीं।
परिवार में उनके छोटे भाइयों के बेटे-बहू और उनके बच्चों के लिए बुजुर्ग का आना किसी उत्सव से कम नहीं था। हर कोई उन्हें अपने घर ले जाना चाहता था। सबके घर जाना संभव नहीं था, तो किसी एक घर में मजमा लग जाता। जहां खूब सारी बातें होती, मस्ती होती और कई बार गंभीर समस्याओं के समाधान तलाशे जाते। इन पूरे दिनों न तो वे किसी एक घर में एक से अधिक रात रूक पाए, न हीं एक घर में दूसरी बार भोजन कर पाए। अगली बार आने का पक्का वादा करने के बाद ही परिवार के सदस्यों ने उन्हें वापस जाने की अनुमति दी।
तो ऐसा था, एक बुजुर्ग के अपने परिवार के सदस्यों के बीच जाने का यह रोचक मामला। आज जहां परिवार टूट रहे हैं, लोग परस्पर बात करने को तैयार नहीं है। वहां इस बुजुर्ग साथी ने अपनों से बात की। उनसे बात कर परिवार के सदस्य निहाल हो गए। उन्हें इस बात का दिलासा मिला कि कोई तो है, जो उनकी बात सुनता है। आजकल किसी की बात को सुन लेना ही बहुत बड़ी बात है। क्योंकि दर्द की गठरी लिए हर कोई तैयार है अपनी सुनाने के लिए। कोई अपनी बात सुनाना शुरू की करता है, तो दूसरा अपनी बात शुरू कर देता है। इस तरह से कोई किसी की बात नहीं सुन पाता। मेरे बुजुर्ग साथी पेशे से वकील रह चुके हैं, इसलिए उन्हें दूसरों की बातें सुनना अच्छा लगता है। इसीलिए वे अपनों की बातें सुनकर लोगों के और करीब आ गए। 80 वसंत देखने वाले मेरे इस साथी के अनुभवों का पूरा एक संसार ही है। जहां वे अपने अनुभवों के आधार पर लोगों को अपनी राय देते हैं, जो सामने वालों को अच्छी लगती है।
घर में आजकल झुर्रियों की अहमियत घट रही है। खल्वाट चेहरे अब सहन नहीं हो रहे हैं। उनके अनुभवों के विशाल खजाने का कोई लाभ नहीं उठाना चाहता। उनके पोपले मुंह से निकलने वाली दुआओं को कोई समझने को तैयार नहीं है। अपने बच्चों का दादा से अधिक मिलना-जुलना अब किसी पालक को अच्छा नहीं लगता। इसलिए अनुभवों का यह चलता-फिरता संग्रहालय आजकल वृद्धाश्रमों में कैद होने लगा है। जहां उनकी तरह अन्य कई लोग रहते हैं। कुछ विशेष अवसरों पर यहां चहल-पहल बढ़ जाती है, जब मदर्स डे-फादर्स डे पर बच्चे सेल्फी लेने आते हैं। कुछ बच्चे यहां आकर यह भी देख लेते हैं कि जब मेरे मम्मी-पापा यहां रहने लगेंगे, तो कैसा लगेगा? इस सोच को अमलीजामा पहनाने के लिए कुछ बच्चे वृद्धाश्रम से विदा लेते हैं। आप बताएं...क्या उनकी सोच को किनारा मिलना चाहिए?
डॉ. महेश परिमल


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