मंगलवार, 21 जून 2022

झुर्रियों की अहमियत

 











फादर्स डे पर 19 जून को मेरा एक आलेख 3 अखबारों में ्रपकाशित हुआ। बिलासपुर के लोकस्वर, भोपाल के लोकोत्तर और रायपुर के चैनल इंडिया में 


झुर्रियों की अहमियत
मेरे एक बुजुर्ग साथी हैं, उनकी उम्र है 80 साल। वे आज भी पूरी तरह से चुस्त-दुरुस्त हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पिछले 20 सालों से वे एक कॉलेज में कानून पढ़ा रहे हैं। बेडमिंटन-टेबल-टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी हैं। बातचीत में जोशीले हैं। कई विषयों में अच्छा दखल रखते हैं। उनके पास आने वालों में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है, जो जीवन के संघर्षों से जूझ तो रहे हैं, पर उन्हें कोई मंजिल नहीं मिल रही है। एक तरह से हताश-निराश लोगों के लिए वे एक वरदान हैं। हर समस्या का समाधान उनके पास है। अभी तक उनके पास से कोई निराश नहीं लौटा। भलाई के कई ऐसे काम उनके द्वारा हुए हैं, जिनकी जानकारी उनके अपनों को भी नहीं है। धाराप्रवाह हिंदी-अंगरेजी में अपनी बात कहने वाले मेरे बुजुर्ग साथी दिल के बहुत ही साफ हैं। आशा की एक छोटी-सी किरण पाने की आस में उनके पास आने वाला व्यक्ति विश्वास से भरा-पूरा एक सूरज अपने साथ ले जाता है। उनका प्रखर व्यक्तित्व हर किसी को आकर्षित करता है।
मेरे ये साथी पूरे 11 साल तक दूसरे शहर नहीं जा पाए। क्योंकि उनकी पत्नी इन वर्षों में व्हील चेयर पर रहीं। पिछले साल ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। अब उनके पास समय काफी था। कॉलेज में गर्मी की छुटि्टयां लगीं, तो उन्होंने अपने गृह राज्य जाने का फैसला किया। अभी उनकी यात्रा शुरू ही नही हुई थी कि उनके परिवार के अन्य सदस्यों ने अपने पास आने की गुहार लगानी शुरू कर दी। हर कोई उन्हें अपने पास बुलाना चाहता था। सीमित अवकाश में सबके पास जाना संभव ही नहीं था। पहले तो वे सीधे अपने गृह राज्य पहुंचे। काफी बरसों बाद पहुंचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। बड़े परिवार के कई सदस्य उनसे मिलने आए। वे सभी से पूरे अपनेपन के साथ मिलते। चाहे छोटा हो या बड़ा, सभी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित थे। उनके व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण था। अपनी सहजता से वे कुछ ही पलों में सभी को अपना बना लेते।
इस दौरान एक बात देखी गई। उनके आने से शहर में ही रहने वाले परिवार के वे सदस्य जो साल में केवल दो-तीन बार मिल पाते, कुछ ही दिनों में बार-बार मिलने लगे। इससे उनके बीच तो थोड़ी-बहुत कटुता थी, वह दूर हो गई। गलतफहमियां का कुहासा छंट गया। लोग और करीब आने लगे। उनके पास जो भी आता, कुछ न कुछ सबक लेकर ही जाता। कई युवाओं को उन्होंने ऐसी समझाइश दी, जिससे उनके काम की बाधाएं दूर हो गई। वे परिवार के ऐसे सदस्यों से भी मिले, जो अपने परिवार वालों से दूर हो गए थे। स्वयं को परिवार में उपेक्षित महसूस करने वाले सदस्यों से जब वे बुजुर्ग मिले, तो उनकी आंखों में पश्चाताप के आंसू थे। साथी जहां भी गए, अपनेपन की खुशबू बिखेर गए।
परिवार की तीसरी पीढ़ी के लिए वे किसी एलियन से कम नहीं थे। कोई उनके पोपले मुंह का मजाक उड़ाता, तो कोई उनके सफेद बालों का। ये पीढ़ी उन्हें पिज्जा-बर्गर खिलाना चाहती, जिसे वे सहजता से खा भी लेते। मोबाइल पर वीडियो बनाती, उनसे हुई बातचीत को रिकॉर्ड करती। इनसे मिलकर इस पीढ़ी ने उम्र के दायरे को भी पाट दिया। वे सभी के लिए अपने थे, प्यारे थे, अपनापन बिखेरने वाले एक दादा थे। उस परिवार में कुछ ऐसे भी थे, जो उनसे भी बड़े थे। अपने से तीन साल बड़ी बहन के लिए तो वे अभी भी छोटू ही थे। उनसे मिलने पर बहन कुछ कह तो नहीं पाईं, पर उनकी आंखों से सब-कुछ कह दिया। वे केवल अपने छोटू का हाथ पकड़कर सिसकती रही, यादों की जुगाली करती रहीं।
परिवार में उनके छोटे भाइयों के बेटे-बहू और उनके बच्चों के लिए बुजुर्ग का आना किसी उत्सव से कम नहीं था। हर कोई उन्हें अपने घर ले जाना चाहता था। सबके घर जाना संभव नहीं था, तो किसी एक घर में मजमा लग जाता। जहां खूब सारी बातें होती, मस्ती होती और कई बार गंभीर समस्याओं के समाधान तलाशे जाते। इन पूरे दिनों न तो वे किसी एक घर में एक से अधिक रात रूक पाए, न हीं एक घर में दूसरी बार भोजन कर पाए। अगली बार आने का पक्का वादा करने के बाद ही परिवार के सदस्यों ने उन्हें वापस जाने की अनुमति दी।
तो ऐसा था, एक बुजुर्ग के अपने परिवार के सदस्यों के बीच जाने का यह रोचक मामला। आज जहां परिवार टूट रहे हैं, लोग परस्पर बात करने को तैयार नहीं है। वहां इस बुजुर्ग साथी ने अपनों से बात की। उनसे बात कर परिवार के सदस्य निहाल हो गए। उन्हें इस बात का दिलासा मिला कि कोई तो है, जो उनकी बात सुनता है। आजकल किसी की बात को सुन लेना ही बहुत बड़ी बात है। क्योंकि दर्द की गठरी लिए हर कोई तैयार है अपनी सुनाने के लिए। कोई अपनी बात सुनाना शुरू की करता है, तो दूसरा अपनी बात शुरू कर देता है। इस तरह से कोई किसी की बात नहीं सुन पाता। मेरे बुजुर्ग साथी पेशे से वकील रह चुके हैं, इसलिए उन्हें दूसरों की बातें सुनना अच्छा लगता है। इसीलिए वे अपनों की बातें सुनकर लोगों के और करीब आ गए। 80 वसंत देखने वाले मेरे इस साथी के अनुभवों का पूरा एक संसार ही है। जहां वे अपने अनुभवों के आधार पर लोगों को अपनी राय देते हैं, जो सामने वालों को अच्छी लगती है।
घर में आजकल झुर्रियों की अहमियत घट रही है। खल्वाट चेहरे अब सहन नहीं हो रहे हैं। उनके अनुभवों के विशाल खजाने का कोई लाभ नहीं उठाना चाहता। उनके पोपले मुंह से निकलने वाली दुआओं को कोई समझने को तैयार नहीं है। अपने बच्चों का दादा से अधिक मिलना-जुलना अब किसी पालक को अच्छा नहीं लगता। इसलिए अनुभवों का यह चलता-फिरता संग्रहालय आजकल वृद्धाश्रमों में कैद होने लगा है। जहां उनकी तरह अन्य कई लोग रहते हैं। कुछ विशेष अवसरों पर यहां चहल-पहल बढ़ जाती है, जब मदर्स डे-फादर्स डे पर बच्चे सेल्फी लेने आते हैं। कुछ बच्चे यहां आकर यह भी देख लेते हैं कि जब मेरे मम्मी-पापा यहां रहने लगेंगे, तो कैसा लगेगा? इस सोच को अमलीजामा पहनाने के लिए कुछ बच्चे वृद्धाश्रम से विदा लेते हैं। आप बताएं...क्या उनकी सोच को किनारा मिलना चाहिए?
डॉ. महेश परिमल


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