बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

कोई मुझे थोड़ा-सा समय दे दे

डा. महेश परिमल
देश के किसी भी शहर का दृश्य ले लो, हर कोई भागा जा रहा है. तेंजी से भागा जा रहा है. आपाधापी मची है. किसी को इतनी फुरसत नहीें है कि थोड़ा रुककर साँस ले ली जाए. लोग ऐसे भाग रहे हैं, जैसे उनकी किस्मत ही भाग रही हो. यह तो तय है कि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता. इसे सब जानते-समझते हैं. फिर भी लोग हैं कि भागे ही जा रहे हैं. विज्ञान भी प्रतिदिन तेंज से तेंज भागने वाले वाहनों का आविष्कार कर रहा है, फिर भी आदमी इससे भी तेंज वाहन की तलाश में है. इस भागम-भाग में लोगों को यह भी याद नहीं रह जाता कि वे आखिर जा कहाँ रहे हैं.
आजकल किसी से मिलो, वह यही शिकायत करता मिलेगा कि उसके पास समय नहीं है. सच कहा जाए तो जो व्यक्ति यह कह रहा है, यह भी सुनने के लिए सामने वाले व्यक्ति के पास समय नहीें है. सचमुच आज समय किसी के पास नहीं है. पत्नी के लिए पति के पास समय नही है, पत्नी भी घर के काम में इतनी उलझ जाती है कि उसके पास भी पति के लिए समय नहीं है. पिता के पास भी अपने बच्चों के लिए समय नहीं है, बच्चों को होमवर्क से ही फुरसत नहीं कि वे खेलने के लिए समय निकाल सकें. टीचर के पास भी इतना समय नहीं है कि वह बच्चों को बता सके कि होमवर्क कैसे बेहतर कर सकें. बॉस के पास कभी जाओ, तो वे फोन या मोबाइल से इतने चिपके रहेंगे कि उनके पास सामने आए कर्मचारी की बात सुनने के लिए समय नहीं है. यदि कभी कर्मचारी से बात शुरू हो भी गई, तो पता चलता है कि उसे मालिक या चेयरमेन ने बुला लिया है. बात शुरू होने के पहले ही खत्म हो गई. याने कहीं भी किसी को सुनने के लिए समय नहीं है.
इस तरह की शिकायत हर किसी को हर किसी से है. लोगों के पास सब-कुछ है, पर समय नहीं है. आखिर बात क्या है? लोगों के पास आखिर समय क्यों नहीं है? कोई बता सकता है. शायद किसी को यह बताने के लिए भी समय नहीं है, या फिर इस सवाल को जवाब ढूँढ़ने के लिए किसी के पास समय नहीं है. क्या आप जानते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? अगर आपके पास कुछ मिनट हो, तो आओ इस पर विचार करें.
दरअसल देखा जाए तो हम सब में आधुनिकता समा गई है, हममें एक पूरा महानगर समा गया है. शायद यह बात आपके गले न उतरे, पर यह सच है कि हम सब शहरों के ंगुलाम हो गए हैं. हम अपने साथ पूरा एक महानगर लेकर चल रहे हैं. जब तक यह आधुनिकता और यह महानगर हमारे भीतर है, हमारे पास समय नहीं है. अभी कुछ ही दिन पहले भाई-दूज था. मेरी पत्नीे अपने भाई को फोन से कह रही थी, भैया दिन को तो नहीं, पर शाम को घर आ जाना, यही से हम सब ढाबे चलेंगे, वहीं भोजन कर लेंगे. मैंने अपना माथा पीट लिया. ये क्या हो रहा है? बहन अपने भाई को भोजन पर बुला रही है, अपने हाथ से खाना बनाना तो दूर, सीधे ढाबे ले जाकर खाना खिला रही है. विरोध करना तो मुश्किल था. मैं भी चला उनके साथ ढाबे. शहर से काफी दूर निकल आए हम सब. रास्ते में डूबता सूरज देखना मुझे ही नहीं, सबको अच्छा लगा. बच्चों के लिए तो यह सब अनोखा था. चटख लाल सूरज उन्होंने देखा तो था, पर इस तरह नहीं. वे खुश थे. एक बात विशेष रूप से यह थी कि यहाँ बिलकुल भी शोर न था. हम सब एक ढाबे में रुके, भोजन करते-करते वहाँ काफी वक्त निकल गया. इस बीच सबने वहाँ सुकून महसूस किया. एक तो हमारे साथ शहरी शोर न था, दूसरे हम बहुत दिन बाद एक साथ कहीं निकल पाए थे. हम सब बहुत दिनों बाद इस तरह मिल रहे थे. हमारे बीच कई गिले-शिकवे थे, जो उस दिन लंबी बातचीत में दूर हो गए. शहर से दूर जाकर हम सब काफी करीब आ गए थे.
लौटने के बाद मैंने महसूस किया कि आज क्या बात है, दिल इतना हलका क्यों लग रहा है? इतनी दूर जाकर आ जाने के बाद भी थकान नहीं है. सब कुछ सामान्य लग रहा था. कहाँ तो मैं परंपराओं से बँधकर पत्नी पर झुँझला रहा था और कहाँ अब ये राहत महसूस कर रहा हूँ. इसकी वजह केवल यही थी कि हम बहुत दिनों बाद साथ-साथ रहे. उस वक्त हमारे बीच न तो आधुनिकता थी और न ही एक पूरा महानगर. ढाबे पर जाकर भोजन करने को आप भले ही आधुनिकता कह लें, पर घर से बाहर जाने को आधुनिकता नहीं कह सकते.
उस दिन हम सबके पास समय था. हमारी छुट्टी थी. हमने शांत होकर दिन बिताने का उपाय ढूँढ़ा था. हमने परस्पर समय माँगा था, जो हमें मिला. हमें समय मिला, इसलिए हम करीब आए. हमने समय न माँगा होता, तो शायद हम करीब न आ पाए होते. उस दिन समय हम पर नहीं, हम समय पर हावी थे. बस यहीं हमने ढँढ़ लिया, हमारे भीतर भागने वाले व्यक्ति को. हम तो भागना नहीं चाहते थे, हमारे भीतर पसरा हमारा महानगर, हमारी आधुनिकता हमें हमसे ही दूर कर रही थी.
जिस तरह हर शहर का एक भूगोल होता है, उसी तरह हर शहर का अपना एक मिजाज होता है, उसे भागने वाले लोग ही पसंद हैं. वह स्वयं भी रुकना नहीं चाहता. वह भी भागना चाहता है. उसे भी आधुनिक बनना है. जितना अधिक वह आधुनिक होगा, उतने ही उसे भागने वाले लोग मिलेंगे. भागना उसकी प्रवृत्ति है और भागते रहना उसकी विवशता. इसी विवशता में डूब जाता है इंसान. तब फिर कहाँ रह पाता है, पल दो पल के लिए भी कुछ सोचने विचारने का समय. बहुत समय देते हैं हम अपने इस शहर को. कभी भीतर के गाँव को भी समय दो. यह वही गाँव है, जहाँ की माटी ने हमें इतना मंजबूत बनाया कि आज हम शहर से टक्कर ले रहे हैं. वह गाँव जो कभी अपना था, आज हमारे ही भीतर कहीं दुबक गया है, वह गाँव महानगर के आधुनिकता में दब गया है. अब कहाँ वह अमरैया और कहाँ खेत-खलिहान. अब तो कंक्रीट के जंगल हैं और ऊँची-ऊँची गगनचुम्बी इमारतें. हमारा गाँव इसी में तो दबा है. आओ आज हम उसे बाहर निकालें, उस खुली हवा में लाएँ, उसे अपने भीतर महसूस करें. फिर देखो हम सबके पास समय ही समय होगा. एक ऐसा समय जिसमें रहकर हम अपने आप से तो बात कर ही सकेंगे.
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2007

आओ समय को बोना सीखें

डा. महेश परिमल
भला समय को कभी बोया भी जा सकता है? तो मेरा मानना यह है कि जब समय को काटा जा सकता है, तो बोया क्यों नहीं जा सकता? काटा तो उसे ही जाता है ना, जिसे बोया गया हो. यह सच है कि समय को बोया भी जा सकता है. यह बात अलग है कि समय को बोने के लिए न मिट्टी-पानी की आवश्यकता होती है, न खाद की. फिर भी समय को बोया जा सकता है.
हम सभी यह भलीभाँति जानते हैं कि किसी के पास चौबीस घंटे से ज्यादा समय नहीं है. चाहे वह कितना भी अमीर क्यों न हो, या फिर ंगरीब. सभी के हिस्से में केवल चौबीस घंटे का ही गणित आता है. जो समय की कीमत पहचानते हैं, वे एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हैं, अर्थात समय भी खर्च करते हैं, तो सावधानी से. समय को सावधानी से खर्च करने की यही आदत जब लगती है, तो समझो समय बोने के लिए आपको बीज मिल गया.
इंसान जब धन खर्च करता है, तो एक-एक पैसे का हिसाब रखना चाहता है. बही-खाता मनुष्य की इसी प्रवृ?ाि की देन है. पर क्या कभी आपने समय का हिसाब लगाया है? नहीं ना! यह सच है कि समय खर्च करने के लिए ही होता है. यह अचल संप?ाि नहीं है, जिसे बचाकर रख दिया जाए तो समझो वह सुरक्षित है. संप?ाि भले ही सभी को बराबर न मिले, पर समय सबको बराबर मिलता है. इसे खर्च करना सबकी मंजबूरी है. इंसान लक्ष्मी याने धन को रोकने के सारे उपाय करता है, पर समय को रोक नहीं पाता. इसे खर्च तो करना ही है, पर कैसे? आज का दिन बीता हुआ कल बन जाए इसके पहले इसे खर्च करने में कंजूसी बरतें तो बेहतर होगा.
जो बात धन के साथ लागू होती है, वही समय के साथ भी. समय को व्यर्थ गवाँ देने वाले पछताते हैं. समय को कंजूसी के साथ खर्च करने वाले लोग जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करना चाहते हैं, उसे प्राप्त कर ही लेते हैं, किंतु जो समय को बोते हैं, उन्हें कभी भी किसी बात का अफसोस नहीं होता. समय को बोने वाले किसी से शिकायत भी नहीं करते. उनका जीवन अधिक से अधिक उन्नतशील होता जाता है. ऐसे लोगों को ही सच्चा संतोष प्राप्त होता है. धन की अपेक्षा समय का मोल अधिक है. क्योंकि जो धन आज खर्च किया, उसे पुन: प्राप्त भी किया जा सकता है, पर जो समय आपने आज खर्च किया, उसे जीवन में कभी भी पुन: प्राप्त नहीं किया जा सकता.
इसे ही जार्ज बर्नाड शॉ ने लाक्षणिक भाषा में कुछ इस तरह व्यक्त किया है- यौवन अपरिपक्व मनुष्य के ऊपर इस तरह बैठ जाता है कि उसकी मति भ्रमित कर देता है. मनुष्य जब जवान होता है तब उसकी समझ का कैनवास छोटा होता है. समय को किस तरह खर्च किया जाए, उसे इसकी समझ नहीं होती. किंतु जब उसमें यह समझ आती है, तब तक समय चला गया होता है. किसी ने समय की तस्वीर देखी है भला. मेरे बच्चे की पाठय पुस्तक में एक पाठ था, जिसका शीर्षक समय था. उसमें समय की तस्वीर भी थी, तस्वीर में एक बच्चा था, जिसका चेहरा बालों से ढँका था और पीछे की तरफ पंख थे. इसका अर्थ यह हुआ कि समय को कोई आगे से देख नहीं पाता, वह पीछे से पंख लगाकर उड़ जाता है. अर्थात् जब तक हम उसे समझने की कोशिश करते हैं, तब तक समय चला गया होता है. ऐसा न हो, इसका कोई उपाय है? उपाय तो एक ही है. आज और अभी हमारे पास जो समय है, उसे इस ढंग से खर्च करें कि उसे खर्च करने का हमें ंजरा-सा भी अफसोस न हो. इसे इस तरह बोयें कि भविष्य में जिस तरह से वृक्ष पर फल आते रहते हैं, उसी तरह उस समय किया गया खर्च हमें सुखद परिणाम सुस्वादु फल के रूप में मिलते रहें. समय को तो खर्च होना ही है, तो क्यों न हम इसे हमारी इच्छा के मुताबिक खर्च करें.
विचारक मुलिगन ने कहा है कि आज के दिन मैं जो कुछ कर रहा हूँ, वह मेरे लिए अत्यावश्यक है, क्योंकि उसके बदले में मैं अपने जीवन का एक दिन खर्च कर रहा हूँ. यह विचार हमें कब आता है, कभी ध्यान दिया आपने? धन खर्च करके कोई वस्तु आपने खरीदी, पर वह अच्छी नहीं निकली. आप कहेंगे कि मेरा धन व्यर्थ हो गया. पर कभी जीवन का एक पूरा दिन बेकार में खर्च हो गया और हाथ में कुछ नहीं आया, तो इसका खयाल कभी आपने किया?
जीवन का एक मूल्यवान दिवस बीत गया, पर कैसे बीता? बेकार की बातें करते हुए, गप्पबाजी करते हुए, परंनिंदा करते हुए, षडयंत्र रचते हुए, तोड़फोड़ या फिर आलस करते हुए, सोकर बीताते हुए, क्या मिला इससे आपको? शायद थोड़ी-सी शांति, थोड़ी राहत, बैर का ंजहर या किसी की हाय. इन उपल?धियों से आखिर हमारा फायदा क्या हुआ? एक मूल्यवान दिवस के बदले में ये कचरा! इसे ख्ररीदकर आपने अपना ही बोझ बढ़ाया है. यही बोझ भविष्य में हमें कुचलते हुए आगे ही बढ़ जाएगा.
सूर्योदय हुूआ है तो सूर्यास्त होगा ही. इसी कीमती दिन को हम मित्रों का भला करने में, स्नेहीजनों के कामकाज में हाथ बँटाने में, किसी के लिए अच्छे श?दों का प्रयोग करने में, किसी को सांत्वना देने में, किसी को निराशा से बचाने में, अच्छी किताब पढ़ने में, ज्ञान इकट्ठा करने में, संगीत सुनने में भी बिता सकते हैं. किसी को हमने धन दिया, जिसे उसने वापस नहीं किया, यह हमें हमेशा याद रहता है, पर ढेर सारे काम होते हुए भी कोई आपसे मिलने आया और आपका समय ले गया, यह आपको याद नहीं रहता. जिसने आपसे समय माँगा, उसे आप यह कह सकते हैं कि मेरे पास इतना समय नहीं है कि आपको अपना समय दे सकूँ, इसलिए मुझे क्षमा करें. यह कहने का साहस आपको रखना होगा. क्योंकि जीवन में हमें जो भी उपल?धि प्राप्त होगी वह इसी समय को खर्च करने के बदले में मिलेगी. यही विचार है, जो समय को बोने का काम करते हैं. तो आओ चलें, समय को बोने का आवश्यक काम पूर्ण करें.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 29 अक्तूबर 2007

बहुत याद आती है माँ के हाथ की रोटियाँ

डा. महेश परिमल
जीवन की गति बहुत तेज है. हम सब भाग रहे हैं. आपाधापी के इस युग में हमें किसकी तलाश है, हमें यह भी नहीं पता. हमारी दौड़ जारी है. सभी भाग रहे हैं, कोई नहीं बता पाता कि वह आखिर किसके लिए भाग रहा है. यह सच है कि इस दौड़ के पीछे कहीं न कहीं अर्थ का एक हिस्सा अवश्य है. अर्थ याने धन. यही धन की लालसा ही हमें भागने को विवश करती है. धनलिप्सा के कारण हमें आज चैन नहीं है. हम दुनिया के सारे ऐश्वर्य की वस्तुएँ पल में ले लेना चाहते हैं. आज के संसाधन भी ऐसे हो रहे हैं, जो इन सारी सुख-सुविधाओं को पल भर में आपके कदमों में बिछा देने का दंभ भरते हैं. यह एक मायावी दुनिया है, बिना परिश्रम के सब-कुछ मिल जाना एक धोखा है, अपने आप से. बिना परिश्रम के मिली वस्तु का हम उतना सम्मान नहीं कर पाएँगे, जितना हम मेहनत से प्राप्त किए गए धन और उससे खरीदी गई वस्तु का.
मेरे एक मित्र हैं, जो वर्ष में आठ महीने विदेश में रहते हैं और चार महीने महानगर में. जहाँ उसे दो दिन का अवकाश मिला, वे आ जाते हैं, अपने छोटे से शहर में. मुझे उनके आने का पता चल जाता है. घर पर फोन करो, तो उसकी माँ कहती है कि वह सो रहा है. ऐसा हर बार होता है. एक दिन मैंने उसे पकड़ लिया और पूछ ही लिया कि वह यहाँ सोने ही आता है या लोगों से मिलने? तब उसने जो मुझसे कहा वह किसी रहस्य से कम नहीं था. उसने बताया-मैंने ंगरीबी को समझा है. आज मैं भाग रहा हूँ, सचमुच भाग रहा हूँ, हर किसी को भागता देख रहा हूँ. चाहे वह महानगर हो या फिर विदेश का कोई शहर. यदि महानगर के लोग दौड़ रहे हैं, तो विदेश के लोग भाग रहे हैं. इन्हीं के साथ मैं भी कदमताल कर रहा हूँ, क्योंकि मैं बहुत-सा धन कमाना चाहता हूँ. इसके पीछे मेरा उद्देश्य यही है कि मेरे माता-पिता को किसी प्रकार का कष्ट न हो. इसी कारण मैंने शादी नहीं की. रही बात यहाँ आकर सोने की, तो भाई इस भाग दौड़ में मैं सो भी नहीं पाता. महानगर में काम के बाद यदि वक्त मिल गया, तो इधर-उधर जाकर कहीं कुछ खा लिया, सो खा लिया. मैं तो अवकाश की राह देखता रहता हूँ, इसलिए कि यहाँ आकर माँ के हाथ का खाना खा लूँ और लम्बी तान कर सो जाऊँ. चाहे महानगर में रहूँ, या विदेश में, माँ के हाथ का खाना हमेशा याद रहता है. उसे कभी भूल नहीं पाता. यहाँ आने का बस यही कारण है.
यह एक सच्चाई है. जमीन से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति की, जो अपनी माटी से प्यार करता है. माटी की सोंधी महक उसे पागल बना देती है. इतना पागल कि विदेश में रहते हुए यदि उसे अपनी माँ और माटी की याद आती है, तो बेग से अपने गाँव की माटी निकालकर उसमें पानी डालकर सूँघना शुरू कर देता है. इसे पागलपन नहीं कहेंगे, तो भला और क्या कहेंगे? यही है माटी का दर्द. अपनापन ना पाने का दर्द. आज कितने लोग इस दर्द को समझ पा रहे हैं? बाकी तो भाग रहे हैं, धन के लिए. लेकिन वह भाग रहा है, अपने वर्त्तमान के लिए. उसे धन की ं
बहुत सुख है माँ के हाथ की रोटियों में. इसे वहीं समझ सकता है, जिसने माँ को रोटी बनाते न केवल देखा है, बल्कि तवे और अंगार के बीच माँ को जूझते देखा है. उस वक्त हम भले ही जली हुई रोटी खाने से मना कर देते हों, पर आज जब उसकी याद आती है, तो ऐसा लगता है कि वही रोटी अभी सामने आ जाए, तो हम टूट पड़ें. उस वक्त चूल्हे पर माँ का रोटी बनाना, अंगारे पर रोटी को फूलते देखना, फिर उससे गर्म-गर्म भाप का निकलना, सब कुछ भला लगता है. इस दौरान यदि कहीं जलता हुआ कोयला रोटी के साथ आ जाए और अनजाने में माँ का हाथ उस पर पड़ जाए, तो हम कैसे सहम जाते थे. उस समय भी माँ हँसकर सब टाल देती थी. छोटे थे फिर पाँच-सात रोटियाँ खा ही लेते थे, इतना भी नहीं समझते थे कि माँ के लिए भला कुछ रोटियाँ बची हैं या नहीं. माँ हमें खिलाकर संतुष्ट होती थी. रात ढलती और माँ की लोरी सुनते-सुनते हम कब नींद की रंगीन दुनिया में पहुँच जाते, इसका पता ही नहीं चलता.
याद आता है, कभी हम बीमार पड़ गए, माँ सारी रात हमारी सेवा करती. बर्फ तो होता नहीं था, तो क्या हुआ ठंडे पानी की पट््टियाँ माथे पर रखकर उसे बदलती रहती. रात उसकी ऑंखों में ही कट जाती. सुबह फिर वही काम में व्यस्त. जिसने ऐसे दिन काटे हों, वह भला स्वर्ग में भी रहे, तो उसे वह दुनिया नहीं भाएगी. वह विदेश में ही क्यों न रहे, ये यादें उसे वहाँ भी आबाद रखेंगी. ऐसे लोग कभी दिल से दु:खी नहीं होते. उनके दु:ख का कारण होता है उनका अकेलापन. एक बार वह हिम्मत करके माता-पिता को अपने साथ विदेश ले गया. सौचा अब मंजा आएगा. माँ के हाथ की रोटियाँ रोंज मिलेगी. साथ ही ढेर सारी बातें भी होंगी. पर यह क्या? माँ अनमनी रहने लगी. पिता भी दु:खी रहने लगे. भाग-दोड़ के बीच जब भी बेटे ने देखा कि यहाँ आकर भी दोनों कुछ अनमने से हो गए हैं. माँ के भोजन में भी वह बात नहीं थी. खाना वह बनाती तो थीं, पर वह स्वाद नहीं होता था. आखिर क्या हो गया माँ को? वह सोच-सोच कर हैरान था, कि आखिर माता-पिता को आखिर यहाँ कष्ट क्या है? एक दिन माँ ने ही रहस्य खोला. बेटा तू सोच रहा होगा कि यहाँ आकर हमें आखिर किस तरह का कष्ट हो रहा है? तो बेटा सुन- यहाँ वह सब-कुछ नहीें है,जो हमारी माटी में है. यहाँ आकर मैं तेरी नहीं, एक अधिकारी की माँ बन गई. तू मुझमें गाँव वाली ढूँढ़ रहा है और मैं तुझमें अपना राजा बेटा ढूँढ़ रही हूँ. यहाँ न चूल्हा है, न भुँजी हुई दाल. ऐसे में मैं तुझे तेरे लायक भोजन कैसे बना दूँ? यही बात है बेटे- यहाँ आने से पहले यही सोचा था कि हम तुझे सुखी रख पाएँगे, पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. हमें अपनी माटी के पास पहुँचा दे बेटा!
ऐसा होता है माँ का हृदय. अमीर बेटे माँ को धन दौलत से अमीर करना चाहते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि माँ को कभी धन से खुश नहीं रखा जा सकता. आज भले ही आधुनिकता की दौड़ में माँ की फरमाइश कुछ अनोखी हो, पर माँ यह कभी नहीं चाहेगी कि उसके कदमों में रखी जाने वाली दौलत बेईमानी की हो. ईमानदारी की सूखी रोटी में वह सबको खुशी दे सकती है, पर बेईमानी के धन से वह छप्पन भोग देकर भी वह खुश नहीं हो पाएगी. यह सब माँ से दूर होने के बाद ही पता चलता है. प्यार की दौलत माँ से ही मिल सकती है. वे अभागे हैं, जिनकी माँ नहीं है.
डा. महेश परिमल

शनिवार, 27 अक्तूबर 2007

शांति दूत बनते भारतीय चिकित्सक

डा. महेश परिमल
भला डाक्टर भी कभी शांतिदूत बन सकते हैं? यह प्रश्न भले ही अटपटा लगे, लेकिन यह सच है कि चिकित्सक भी दो देशों को करीब लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. कहा तो यह जाता है कि विदेशों में अच्छा इलाज होता है. यह सच हो सकता है, लेकिन ऐसा इलाज केवल वही लोग पा सकते हैं, जो ऐश्वर्यशाली हों, या फिर हमारे देश के नेता हों. आम आदमी को भला ऐसे महँगे इलाज कैसे प्राप्त हो सकते हैं? इसका दूसरा पहलू यह है कि पिछले कुछ माह से यह खबर बार-बार पढ़ने को मिली कि पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल जैसे विकासशील देशों के कुछ मासूमों का इलाज भारतीय डाक्टरों ने किया, उनका यह ऑपरेशन सफल रहा. भारतीय डाक्टरों ने इस तरह से अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिया. इन सफल ऑपरेशनों से यह सिध्द होता है कि अगर सुविधा और साधन मिले, तो भारतीय चिकित्सक भी विदेशी चिकित्सकों से लोहा ले सकते हैं.
यदि आज के कांन्वेंटी शिक्षा प्राप्त कर रहे किसी बच्चे को उसकी दादी गणेश जी की कथा सुनाए, और बताए कि शिवजी ने पहले क्रोध में आकर गणेश का मस्तक धड़ से अलग कर दिया और फिर पार्वती का रोना देखकर एक हाथी का मस्तक उस धड़ से जोड़ दिया. निश्चित ही यह सुनकर वह बच्चा अपनी दादी की खिल्ली उड़ाएगा. वह इस कहानी को कोरी गप्प समझेगा. लेकिन पुराणों में घटित यह घटना कोरी गप्प तो कतई नहीं है. हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास में कई ऐसी घटनाएँ हैं, जो चिकित्सकीय जगत के लिए आज भी हैरत में डालने वाली हैं. पुराणों में जो कुछ बताया गया है, आज उसका एक अंश ही प्रयुक्त हो रहा है. आज भी हमारे देश में कई ऐसी चिकित्सा पध्दति काम में लाई जा रही है, जिससे लोग लाभान्वित हो रहे हैं. मिट्टी, फूल, रंग, आदि प्राकृतिक चिकित्सा आज भी कई स्थानों में प्रचलित हैं.
कुछ वर्षों पहले पूर्वी भारत के एक हृदय विशेषज्ञ डा. बरुआ ने सूअर का हृदय मानव के शरीर में प्रत्यारोपित करने का अर्धसफल प्रयास किया था. अभी पिछले दिनों ही चेन्नई के डाक्टरों ने मात्र 32 दिनों के एक मासूम के हृदय में भैंस के गले की एक नस को प्रत्यारोपित कर उसे एक नया जीवन दिया. यह पूरी घटना हमें भले ही अवास्तविक लगती हो, किंतु यह बिलकुल सच है कि डाक्टरों ने उस मासूम को नया जीवन देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
पेलेस्टाइन के एक बच्चे को चेन्नई लाया गया, उस समय वह केवल 20 दिनों का ही था. उस बच्चे को 'ट्रंक्स आर्टेरियस' नामक गंभीर बीमारी थी. ऐसी बीमारी दस हजार बच्चों में से एक को होती है. उसके हृदय के स्थिति काफी गंभीर थी. उसके फेफड़ों तक पर्याप्त आक्सीजन और खून नहीं पहुँच पा रहे थे. फलस्वरूप बच्चा लगभग मृतप्राय था. बीस दिन के बच्चे की कल्पना कीजिए, कितना नाजुक होगा उसका शरीर. मक्खन के गोले जैसा मुलायम. उसकी हार्ट सर्जरी करना याने लोहे के चने चबाना जैसा था. परंतु डाक्टर चेरियन ने यह चुनौती स्वीकार कर ली. उन्होंने भैंस के गले की रक्तवाहिनी (नेक वेन विथ वाल्व) लेकर उसे बच्चे के शरीर पर प्रत्यारोपित किया गया, इससे उस मासूम को नया जीवन मिला.
इस संबंध में डा. चेरियन ने बताया कि ट्रंक्स आटर्ेरियस से ग्रस्त मरीज के हृदय में शुद्ध-अशुध्द रक्त का मिश्रण हो जाता है. फ्रंटियर लाइफ लाइन अस्पताल और मीट प्रोडक्ट्स ऑफ इंडिया के बीच एक समझौता हुआ हे. मीट प्रोडक्ट्स ऑफ इंडिया के इस कतलखाने में रोज 30 सूअर और 300 दुधारु पशु (केटल) हलाल किए जाते हैं. यहाँ से अस्पताल को जानवरों के विभिन्न अंग प्राप्त हो जाते हैं. यदि किसी को वाल्व या किसी नस की आवश्यकता है, तो वहाँ से उक्त अंग लेकर अस्पताल की लेब में पूरी तरह से साफ और जंतुरहित कर उसका उपयोग मरीजों के अंगों में प्रत्यारोपित कर किया जाता है. यूरोप में भैंस के गले की रक्तवाहिनी का वाल्व 80 हजार रुपए से एक लाख रुपए में प्राप्त होता है, वही वॉल्व उन्हें यहीं भारत में 25 हजार रुपए में प्राप्त हो जाता है.
ऐसे ही एक अति विकट मामले में कोलंबो में रहने वाले भारतीय चिकित्सकों ने पाकिस्तान के एक मुस्लिम बच्चे को नया जीवन दिया. कराँची के खिजार रंजा के साथ कुदरत ने एक क्रूर मंजाक किया. एक तो उसका हृदय दाहिने तरफ था, दूसरा उसके हृदय में दो के बजाए एक ही चेम्बर था. इससे भी गंभीर बात यह थी कि उसके हृदय और फेफड़ोंके बीच सम्पर्क नहीं था. इससे खिजार की ंजिंदगी जोखिमभरी हो गई थी. इस मामले में चेन्नई और कोलंबो के अपोलो अस्पताल के चिकित्सकों ने वीडियो कांफ्रेंस की. इसके बाद ऑपरेशन का निर्णय लिया. चार घंटे तक चले इस ऑपरेशन के बाद खिजार को नई ंजिंदगी मिली. खिजार रंजा के पिता की ऑंखें हर्ष के ऑंसुओं में डूब गई. धर्म के नाम पर खून की होली खेलने वाले आतंकवादी क्या इस बात को समझ पाएँगे?
भारतीय चिकित्सकों की इस उपलव्धि को देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारे देश में भी चिकित्सकों में भी प्रतिभा है. वे भी कुछ अनोखा कर सकते हैं. बस उन्हें तलाश है चुनौतियों की. विदेशों जैसी सुविधा उन्हें भी मिल जाए, तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं. डाक्टर को लोग भगवान का दूसरा रूप मानते हैं, लेकिन डाक्टर चेरियन और उसके साथियों ने जो कुछ किया, वह तो उससे भी बढ़कर है. उनके सामने तो मरीज केवल मरीज के रूप में था, अपनी जाति को लेकर कोई मरीज उनके सामने नहीं आया. इस आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय पुराणों में जो कुछ लिखा गया है, वह कतई गलत नहीं है. आज भले ही वह साहित्य हमारे देश में उपलव्ध न हो, पर यह सच है कि कभी भारतीय चिकित्सा पध्दति की शालीन परम्परा कायम थी.
डा. महेश परिमल,

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

सरेआम नग्नता का प्रदर्शन: एक चिंतन

डा. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले अखबारों में एक साथ हजारों लोगों की नग्न तस्वीर देखने को मिली थी. इससे लोगों को कतई आश्चर्य नहीं हुआ. आजकल नग्नता हमारे समाज में इस कदर बिखरी पड़ी है कि काई भी अश्लील दृश्य अब अश्लील नहीं लगता. आजकल कला और विरोध के नाम पर नग्नता का ही बिंदास प्रदर्शन हो रहा है. सात हजार लोगों को निर्वस्त्र कर उनकी तस्वीर लेने वाले अमेरिकन फोटोग्राफर स्पेंसर टयूनिक की आजकल खूब चर्चा है. दूसरी ओर युध्द और प्राणियों पर होने वाली क्रूरता के विरोध में भी लोग नग्न होकर सड़कों पर उतरने लगे हैं. ये सभी नग्नता को कुदरत की देन मानते हैं, नग्नता को लेकर हर किसी के अपने-अपने विचार हैं. एक समय वह था, जब किसी फिल्म में सुरैया का ऑंचल ढलक गया था, तो मामला काफी विवादास्पद हो गया था. लेकिन आज ऑंचल ढलकने की बात ही नहीं होती. अब तो ईश्वर प्रद?ा सब कुछ सामने है. शरीर का कोई भी अंग छिपा नहीं है.
कला और नग्नता का हमेशा से ही करीब का संबंध रहा है. खजुराहो के शिल्प में कहीं कोई आवरण नहीं है. विश्व के अनेक बड़े कलाकारों ने कभी न कभी, कहीं न कहीं नग्नता का चित्रण किया ही है. इन कलाकारों का मानना है कि दुनिया में कहीं कोई सहज सहज है, तो वह नग्नता है. इंसान ने कपड़े का आविष्कार किया, लेकिन अपने पर उसके अलावा दंभ का आवरण भी ओढ़ लिया. इनका मानना है कि पशु-पक्षी भी तो नग्न होते हैं,जब इन्हेें देखकर किसी को वीभत्स नहीं लगता, तो फिर मानव को नग्न देखकर क्यों वीभत्सता का अहसास होता है? नग्नता को लेकर आज पूरे विश्व में मत-मतांतर हैं और उनके मत कैसे भी हों, विवादास्पद हो ही जाते हैं.
भारत समेत विश्व के अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में स्थापित फाइन आट्र्स फैकल्टी में 'क्ले मॉडलिंग' के आधार पर कला का अभ्यास कराया जा रहा है. कहीं-कहीं तो कलाकारों के झुंड के बीच युवती अथवा युवा संपूर्ण निर्वस्त्र हालत में बैठते हैं. फाइन आट्र्स के विद्यार्थी उन्हें इस हालत में देखकर कोई शिल्प अथवा चित्र बनाते हैं. दिल्ली के एक विद्यार्थी ने इस संबंध में बताया कि यदि आपकी दृष्टि में सच्चाई है, तो ये एक सामान्य प्रक्रिया है, पर दृष्टि खराब है, तो कुछ नहीं कहा जा सकता. नग्नता का विरोध करने वाले यह कहते हैं कि ये सब कलाकार ही नहीं हैं.
कुछ समय पहले ही हमारे देश में असम में सैनिकों द्वारा किए गए दाुचा की खबर सुर्खियाँ बनी थी. इसके विरोध में कई महिलाओं ने पूरी तरह से निर्वस्त्र होकर सड़कों पर उतर आई थीं. इनके हाथ में बैनर थे, जिन पर लिखा था 'कम आन सोल्जर, रेप अस'. महिलाओं द्वारा किया गया इस तरह का विरोध लोगों को खलबला गया. दूसरी ओर जर्मनी के विएना शहर के एक म्युजियम के संचालक ने घोषणा की कि उनके म्युजियम में जो दर्शक पूरी तरह से निर्वस्त्र होकर आएँगे, उनसे प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाएगा. लोगों ने इसके भी मजे उठाए और निर्वस्त्र होकर म्युजियम का अवलोकन किया.
इस म्युजियम में आई एक निर्वस्त्र युवती ने कहा कि प्रवेश शुल्क माफ हो जाए, इसलिए मैंने कपड़े नहीं उतारे हैं, बल्कि मैं ऐसा मानती हूँ कि निर्वस्त्र होने के बाद इंसान दंभी नहीं रहता. नग्नता विश्व का शाश्वत सत्य है. मानव वस्त्रों, अलंकारों और विभिन्न साधनों के माध्यम से दंभ और अहंकार के पैबंद लगा लेता है. जब मानव इस संसार में नग्न ही आया है और नग्न ही जाएगा, तो फिर नग्नता को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों?
अपने कैमरे के सामने कई लोगों को निर्वस्त्र करने का माद्दा रखने वाले स्पेंसर टयुनिक की आजकल बड़ी चर्चा है. अपने वेबसाइट पर वे लोगों से एक अपील ही करते हैं कि उनके सामने हजारों लोग अपने कपड़े उतारने के लिए विवश हो जाते हैं. अभी सितम्बर में ही फ्रांस के लियो शहर में सुबह चार बजे स्पेंसर टयूनिक के आग्रह पर कपड़े उतारकर तस्वीर खिंचाने के लिए लोगों ने लम्बी कतार लगाई. सुबह की पहली किरण के साथ स्पेंसर ने हजारों निर्वस्त्र लोगों की तस्वीर ली. लोगों ने भी शौक से अपनी तस्वीरें खिंचवाई. लोगों को निर्वस्त्र कर तस्वीर लेने के लिए स्पेंसर टयूनिक को महारत हासिल है.
नग्न लोगों की तस्वीर खींचने की भी स्पेंसर के पास अनोखी ट्रिक है. वे एक के्रन मँगाते हैं और उस पर चढ़कर माइक से लोगों को संबोधित करते हुए बताते हैं कि उन्हें किस तरह का पोज देना है. लियो शहर में स्पेंसर की एक सूचना पर करीब डेढ़ हजार लोगों ने अपने कपड़े उतार दिए थे. निर्वस्त्र होने वालों में दस वर्ष से लेकर 80 वर्ष तक के लोग थे. इसमें युवतियाँ भी शामिल थी. स्पेंसर ने इस तरह के कारनामे न्यूयार्क, बेल्जियम, वार्सीलोना, ब्राजील, लंदन, साओ पोलो और मेलबोर्न समेत विश्व के अनेक देशों के बड़े शहरों में किए हैं. अपनी इस करतूत के कारण स्पेंसर को कई बार लोगों के विरोध का सामना भी करना पड़ा है. यही नहीं इस कारण उसे ंजेल भी जाना पड़ा है.
अमेरिका के न्यूयार्क शहर में एक बार एक रोड पर स्पेंसर सैकड़ों लोगों की नग्न तस्वीर खींच रहे थे, तब पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था. उस पर यातायात अवरुध्द करने और वीभत्स हरकत करने का आरोप लगाया गया. बाद में कला के नाम पर उसे रिहा भी कर दिया गया. अमेरिका में इस तरह से खुलेआम नग्न लोगों की तस्वीर खींचने पर स्पेंसर पर प्रतिबंध भी लगाया गया है. दूसरी ओर स्पेंसर इस तरह की खींची गई अपनी तस्वीरों की प्रदर्शनी भी लगाते रहे हैं, इस प्रदर्शनी का भी कहीं-कहीं जोरदार विरोध होता है, तो कहीं उसे कला के नाम पर स्वीकार भी किया जाता है. कई बार प्रदर्शनी बंद करने की भी नौबत आई है.
जून 2003 में स्पेंसर टयूनिक ने वार्सीलोना के लोगों को बुलाया तो सबसे अधिक सात हजार लोग इकट्ठे हो गए. यहाँ निर्वस्त्र होने वाले लोगों ने बड़ी ही सहजता से कहा कि एक अलग ही अनुभव को बटोरने के लिए वे निर्वस्त्र होने को तैयार हुए. जब ब्रिटेन में स्पेंसर टयूनिक ने नग्न लोगों की तस्वीर खींचने की घोषणा की, तब सुबह चार बजे कड़कड़ाती ठंड में करीब 1700 लोगों ने अपने कपड़े उतारे और तस्वीर खिंचवाई. ये तस्वीर उसने रोड पर स्थित एक मोल में खींची थी. बाद में इन तस्वीरों का प्रदर्शन 'नेकेड सिटी' के नाम से किया गया. इस संबंध में फोटोग्राफर स्पेंसर कहते हैं कि मेरा यह काम पारम्परिक, राजनैतिक और सामाजिक परंपराओं के सामने एक चुनौती है. मेरी तस्वीरों के माध्यम से मैं लोगों को हलका होने और दंभ त्यागने का संदेश देता हूँ. तस्वीर के इस कार्यक्रम में शामिल होने आई एक 30 वर्षीय कैली डेनियल ने कहा कि नग्नता और सेक्स में बहुत अंतर है, नग्न युवती से कहीं अधिक वीभत्स तो कम कपड़े पहनने वाली युवती लगती है. कोई इंसान अपने कमरे में रोज ही निर्वस्त्र होता है, तब तो उसे वीभत्स नहीं लगता, तब फिर सरेआम यदि वह निर्वस्त्र होता है, तो इसे किस तरह से वीभत्स कहा जाए?सबसे बड़ी आश्चर्य की बात यह है कि स्पेंसर टयूनिक ने जब भी फोटो सेशन किया, तब कहीं से भी कोई छेड़छाड़ की घटना नहीं हुई. इसके बाद भी जब कभी फोटोग्राफर स्पेंसर का नाम आता है, तो कई लोग आज भी नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं.
वैसे तो धर्म के नाम पर भी हमारे देश में सरेआम नग्नता का प्रदर्शन होता है. इस वर्ष पहले ही जूते के एक विज्ञापन में मधु सप्रे और मिलिंद सोमण ने निर्वस्त्र होकर पोज दिया था. उनके शरीर को एक अजगर ने ढाँक रखा था. यह विज्ञापन काफी विवादास्पद हुआ था. आजकल फिल्मों में भी जो कुछ परोसा जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि देश में सेंसर नाम की कोई चीज है ही नहीं. नग्नता बताने के लिए ये फिल्म वाले न जाने कैसी-कैसी हरकतें करते रहते हैं. कई धार्मिक क्रियाएँ भी नग्नता से जुड़ी हुई है. जूनागढ़ के पास गिरनार की तराई में आयोजित शिवरात्रि के मेले में आधी रात को नागा बाबाओं का जुलूस सदियों से निकल रहा है. इस जुलूस में बहुत ही कम वस्त्रों में साध्वियाँ भी शामिल होती हैं. इस जुलूस के बारे में यह मान्यता है कि इसमें स्वयं शिव भगवान भी शामिल होते हैं. किंतु यह केवल एक मान्यता ही है. हमारे देश के कर्नाटक राज्य में बेंगलोर से 280 किलोमीटर दूर स्थित एक गाँव मेें नग्न पूजा की परंपरा थी. हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष एक नदी में स्नान करके नग्नावस्था में स्थानीय देवी रेणुका की पूजा करते थे. पिछले कई वर्षों से सरकार ने इस पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया है, फिर भी यह छुटपुट रूप से आज भी जारी है.
कुछ समय पहले स्पेन में सांडों की दौड़ पर प्रतिबंध लगाने की माँग 'द पीपुल फार द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल' द्वारा की गई थी. इसमें सैकड़ों लोगों ने निर्वस्त्र होकर स्पेन की सड़कों पर दौड़ लगाई थी. ईराक में अमेरिकी हमले का साथ देने के लिए जब ऑस्ट्रेलिया ने अपनी तैयारी दिखाई, तो इसका विरोध करने के लिए वहाँ 700 महिलाओं ने खुले आम निर्वस्त्र होकर अपना विरोध जताया था. सिडनी से 700 किलोमीटर दूर न्यू साउथ वेल्स में इन निर्वस्त्र महिलाओं ने दिल आकार बनाया था, जिसके बीच में लिखा था 'नो वार'.
कला के नाम से होने वाली इन विकृतियों से समाजशास्त्री भी चिंतित हैं. उनके लिए यह एक पेचीदा प्रश्न है कि कला के नाम पर लोग किस तरह से निर्वस्त्र हो जाते हैं. कलाकारों का इस संबंध में मानना है कि नग्नता एक प्राकृतिक सौंदर्य है, किंतु इसे देखने के लिए एक उदार दृष्टि की आवश्यकता है. इसका विरोध करने वाले कहते हैं कि यदि सबके पास ऐसी उदार दृष्टि हो जाए, तो कपड़े पहनने की ही क्या आवश्यकता है? नग्नता को लेकर हर किसी के अपने-अपने तर्क हैं, अपनी-अपनी मान्यता है, यह विवाद तो बरसों तक चलता ही रहेगा. पर इसके लिए सभी को उनके विचारों के लिए मुबारकबाद दी जाए, तो ही बेहतर है.
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2007

खुशियाँ मनाओ, हम खुश खुशमिजाज हैं

डा. महेश परिमल
खुश होना एक अच्छी आदत है, पर इतनी सारी खुशियाँ आखिर हम लाएँ कहाँ से कि हम हर पल खुश रह सकें. खुशियाँ कहीं बाजार में तो मिलती नहीं, जिसे चाहे जिस भाव में खरीद लिया. यह तो स्वस्फूर्त प्रक्रिया है, यह हमारे भीतर से आती है. इसे पाने के लिए हमें कहीं जाना नहीं पड़ता. इस स्थिति में हम कैसे निकालें, हमारे भीतर की खुशियाँ? खुशी एक मानवीय संवेदना है, जो कभी हँसी के रूप में, कभी आंसू के रूप में, तो कभी खिलखिलाहट के रूप में हमारे सामने आती है.
जी.एस.के.एन.ओ.पी. नाम की एक संस्था मार्केटिंग के लिए शोध करने वाली एक जानी-मानी संस्था है. इसके संचालक निक चेरेली है. इस संस्था ने दुनिया के 30 देशों के 30,000 घरों में रहने वाले व्यक्तियों से मुलाकात कर उनके सुखी होने के विषय पर सर्वे किया है.
इस सर्वे में प्रत्येक व्यक्ति को यह पूछा गया कि वे लोग जो जीवन जी रहे हैं, क्या वे उससे संतुष्ट हैं? इस प्रश्न के उ?ार में दुनिया भर के 20 प्रतिशत लोगों ने वे 'बहुत सुखी हैं' ऐसा जवाब दिया. जबकि वे जैसा जीवन जी रहे हैं, उससे पूरी तरह से संतुष्ट हैं, सुखी हैं, ऐसा जवाब देने वाले 62 प्रतिशत थे. दस प्रतिशत ऐसे लोग थे, जो अपने र्व?ामान जीवन से बिलकुल भी खुश नहीं थे. मात्र चार प्रतिशत लोग तो ऐसे थे, जो अपने आपको पूरी तरह से दु:ख के सागर में गोते लगाने वालों में शामिल कर रहे थे.
भारत में यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुम्बई, पूना, बेंगलोर और कानपुर में किया गया. इन शहरों के चयन मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि ये सर्वेक्षण पूरी तरह से सच्चे हैं. फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारत में खुश रहने वालों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है. इसके पीछे भले ही भारत की धर्म परायणता,भाग्यवादिता, कर्मण्यता आदि भाव हों, पर सच यही है कि भारतीयों में आज भी यह मान्यता प्रचलित है कि 'कम खाओ, बनारस में रहो'.
ये जो सर्वेक्षण कराया गया, उसमें भारत के 34 प्रतिशत लोग अपने आप को सुखी मानते हैं. इस तरह से दुनिया के 30 देशों में भारत ने चौथा स्थान प्राप्त किया. 36 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले इजिप्त का स्थान तीसरा है. दूसरे नम्बर पर अमेरिका 40 प्रतिशत और पहले स्थान पर 46 अंक पाने वाला देश है ऑस्ट्रेलिया. इस देश के सबसे सुखी होने का कारण है यहाँ की जलवायु, समुद्री किनारा और प्राकृतिक वातावरण. यहाँ के लोग खुशी पाते ही नहीं, बल्कि खुशियों को इस तरह से बाँटते हैं कि वह दोगुनी होकर उनके पास पहुँच जाती है.
खुद को दुखी मानने वालों में जो देश हैं, उनमें हंगरी, रुस, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका और पोलैण्ड का समावेश होता है. सुखी माने जाने वाले देशों में भारत के बाद क्रमश: इंग्लैण्ड, केनेडा और स्वीडन का नम्बर आता है. 13 से 19 वर्ष की आयु वाले अपने आपको बहुत सुखी मानते हैं. वैसे भी यह उम्र ऐसी होती है, जिसमें कोई तनाव नहीं होता, इनका सारा खर्च माता-पिता उठाते हैं. ये नौकरी भी नहीं करते, केवल पढ़ाई और मस्ती ही इनका लक्ष्य होता है. अत: ये लोग कभी-कभी ही दु:खी हो सकते हैें. दु:ख का अहसास इंसान को 30 से 55 वर्ष की आयु में होता है. यह बात इस सर्वे के दौरान सामने आई.
सर्वेक्षण के अनुसार 50 से 59 वर्ष की आयु वर्ग के लोग कम से कम सुखी होने की बात कहते हैं. इनमें से केवल 16 प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जो अपने को सुखी मानते हैं. वैसे सुखी होना और सुखी मानना दोनोें ही अलग बात है. जो दु:खी होते हैं, वे भी कभी-कभी खुशी के पल चुरा लेते हैं. उन्हें खुशी के बहाने की ही जरुरत होती है. इससे कहा जा सकता है कि सुख और दु:ख एक दूसरे के पूरक हैं.
सर्वेक्षण में प्राप्त कुछ रोचक तथ्य:-
· धन ही सब कुछ नहीं है, इससे हटकर भी कुछ है.
· पहला सुख स्वास्थ्य है.
· दूसरा सुख नारी है.
· तीसरा सुख संतान है.
· चौथा सुख निजी मकान है.
· पाँचवाँ सुख अपने आप पर काबू रखना है.,
· छठा सुख आर्थिक सुरक्षा है.
· सातवाँ सुख मनपसंद व्यवसाय है.
आश्चर्य इस बात का है कि इन सुखों में कार, फ्रिज, एसी, परिधान आदि का कोई स्थान नहीं है. हमारे पूर्वजों ने जो जीवन जीने के जो गुर सिखाए हैं, वे इससे काफी हद तक मिलते हैं. सादा जीवन उच्च विचार इस सुख का आधार है. स्वयं को कम सुखी मानने वाले समूह में अल्प आय वाले, बेरोजगार लोग शामिल हैं, लेकिन इन्हें आतंकवाद, शिक्षा और संक्रामक बीमारियों की अधिक ंचिंता है.
सुखी लोग आशावादी होते हैं, यह बात भी सर्वेक्षण में सामने आई. जो सुखी हैं, उनमें से 37 प्रतिशत लोगों ने माना कि वे आने वाले एक वर्ष में इससे भी अधिक सुखी रहेंगे. अपने आप को सुखी अनुभव करने वाले लोगों में उनका व्यक्तित्व, भरपूर नींद, श्रध्दा, विश्वास आदि लक्षण देखने में आए. शराबखोरी और फास्ट फुड को उस सुख का आधार कतई नहीं माना गया है.
इसके साथ ही एक और सर्वे सामने आया है. इकोनामिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट नाम की संस्था ने विश्व के 128 शहरों का सर्वे करके यह पाया कि दुनिया में ऐसे बहुत से शहर हैं, जो रहने के लायक हैं, इसके बाद ऐसे भी शहरों का पता चला, जो रहने के लायक नहीं हैं. दुनिया के टॉप टेन शहरों में सुखी ऑस्ट्रेलिया के कई शहर शामिल हैं. केवल रहने के लिए ही अनुकूल शहरों में पश्चिम यूरोप और उ?ारी अमेरिका के शहरों का समावेश है. रहने के अनुकूल टॉप टेन शहरों के नाम इस प्रकार हैं-
वेनकुँवर, मेलबोर्न, विएना, जिनेवा, पर्थ, एडिलेड, सिडनी, ज्यूरिख, टोरंटो और केलगिरी. एशिया और अफ्रीका के कई शहर रहने लायक नहीं हैं. जिन शहरों को अनुकूल माना गया है, वे शहर आतंकवादी गतिविधियों से दूर और उनके निशाने से भी काफी दूर माने गए हैं. र्व?ामान में लोग ऐसे शहरों में रहना चाहते हैं, जो आतंकवाद की छाया से दूर हैं. ऐसे शहरों की सूची में अंतिम दस शहरो के क्रम में कराची, ढाका, तेहरान और हरारे शामिल हैं.
इस तरह से देखा जाए तो भारतीय अपने विशाल हृदय और सदाशयता के कारण अपने आप में अनूठा है, बल्कि इस तरह से वह अन्य देशों के लिए एक आदर्श है. आतंकवाद की चपेट में होने के बाद भी यहाँ के लोगों की जिजीविषा कम नहीं हुई है. भीतर से लड़ने वाले संकट के समय सब एक होने का माद्दा रखते हैं. विप?ाियाँ इन्हें अपने पथ से डिगाती नहीं. हर मुश्किल उन्हें और भी जूझने की शक्ति देती है. बाधाएँ इन्हें तपाती हैं, लेकिन ये तपकर और भी निखर जाते हैं. इसमें सहायक होती है यहाँ की हरियाली, वातावरण और शस्य श्यामला धरती...
डा. महेश परिमल

बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

हिमालय भी थर्रा उठेगा भावी भूकम्प से.....
डा. महेश परिमल
भूकंप ने हमारे देश ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के माथे पर तबाही की इबारत लिखी है. देश-देशांतर में भूकंप जब भी आया, तबाही ही लाया. यह एक ऐसा दुश्मन है, जो हमेशा बिना निमंत्रण के आ धमकता है. इंसान इस विषय पर कुछ सोचे, इसके पहले ही उसका समूचा अस्तित्व ही बिखरकर रह जाता है. उसके सपने जमींदोज हो जाते हैं. रह जाती हैं, केवल कुछ स्मृतियाँ, खंडहर के रूप में. लेकिन अभी तक इंसान न तो लातूर से, न ही भुज से और न ही हाल ही में भारत-पाकिस्तान की सीमा पर आए भूकंप से कुछ सीख पाया है. वह तो यह सोचता है कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, ऊँची इमारतों पर नहीं रहना है. पर जब शहर में बाढ़ का पानी एक-दो माले तक पहुँच जाता है, तब वह फिर कहता है, इससे तो अच्छा है, ऊँची से ऊँची इमारतों में ही रहा जाए. मानव की इसी प्रवृत्ति के सामने प्रकृति भी अपना खेल खेलती है.
मानव नहीं मालूम कि हिमालय पर्वत क्षेत्र में एक प्रचंड भूकंप का खतरा मँडरा रहा है. भारत और ति?बत हर साल दो सेंटीमीटर करीब आ रहे हैं. जमीन में होने वाली इस हलचल के कारण हिमालय के गर्भ में भारी उथल-पुथल हो रही है. धरती के भीतर दबाव लगातार बढ़ रहा है. ये दबाव भूकंप के रूप में हमारे सामने आएगा. तब होगी भारी तबाही. लाखों मौत वाली तबाही. क्षति का अंदाजा लगाते-लगाते ही सालों बीत जाएँगे. यह हम नहीं कह रहे हैं, अमेरिका की 'साइंस' पत्रिका में इस तरह की चेतावनी दी गई है. पिछले तीस वर्षों से भूकंप पर शोध करने वाले कॉलराडो युनिवर्सिटी के प्रोफेसर रोजर बिलहैम ने यह बताया है कि हिमालय की उत्प?ाि ही भूकंप के कारण हुई है.
भूकंप के बारे में यह कहा जाता है कि वह कुछ ही देर का मेहमान होता है, लेकिन ंजिंदगी भर की कसर निकाल लेता है. भूकंप के बाद जो लोग बच जाते हैं, उनकी पीड़ा को समझना आसान नहीं है, क्योंकि उन्होंने ही देखा है एक पल में हँसते-खेलते परिवार को मिट्टी में मिलते. जिस मकान को बनाने में उम्र निकल जाती है, वही कुछ ही क्षणों में मिट्टी और पत्थर के ढेर में त?दील हो जाता है. कितना मुश्किल होता है, इस तरह का जीना. शायद इसे ही कहते हैं जीते-जी मरना. इस पीड़ा की इबारत आज लातूर, कच्छ और भारत-पाकिस्तान की सीमा पर देखी जा सकती है. भुज में आज जहाँ एक ओर खंडहर अपनी तबाही की कहानी कह रहे हैं, वहीं नई बनी हुई ऊँची-ऊँची इमारतें यही कहती हैं कि जिजीविषा कभी समाप्त नहीं होती.
आइए अब हिमालय के बारे में बात करें. हिमालय का इतिहास ऐसा है कि आज से साढ़े पाँच करोड़ वर्ष पहले भारतीय और आस्ट्रेलियन धरती की सतह अलग हो गई थी. इसमें से एक सतह यूरेशिया की सतह से टकराई थी, इसी प्रचंड टक्कर के कारण हिमालय की उत्प?ाि हुई. हिमालय को दूसरी तरह से देखें, तो यह कहा जा सकता है कि हिमालय ऐसे स्थान पर है, जहाँ धरती की दो सतह आपस में मिल गई है. हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में भूकंप के छोटे-छोटे झटके लगते ही रहते हैं. इससे होने वाले कंपन के कारण ही ऐसा कहा जाता है कि हिमालय पर्वत की ऊँचाई में घट-बढ़ हो रही है, यह एक विवाद का विषय है. पिछले 100-125 वर्षों के दौरान हिमालय के क्षेत्र में पाँच से छह बड़े भूकंप आए हैं. हिमालय क्षेत्र के शिलांग में 1897 ईस्वी में एक जबर्दस्त भूकंप आया था, उसके बाद 1905 में काँगड़ा, 1934 में बिहार-नेपाल सीमा क्षेत्र में और 1950 पूर्वो?ार आसाम में बड़े भूकंप आए थे.
हिमालय में आने वाले प्रचंड भूकंप के बारे में प्रोफेसर रोजर बिलहैम कहते हैं कि भारत और ति?बत हर साल दो सेंटीमीटर करीब आ रहे हैं. इसका सीधा असर जमीन के अंदर हो रहा है. फलस्वरूप हिमालय के भीतर दबाव बढ़ रहा है. ये दबाव जब बहुत अधिक बढ़ जाएगा, तब थर्रा उठेगा समूचा हिमालय. इस भूकंप की सही अवधि किसी को नहीं मालूम, पर सभी जानते हैं कि वह आएगा अवश्य. यह एक-दो वर्ष में भी आ सकता है और तीस-चालीस साल में. अमेरिका की 'साइंस' पत्रिका की कवर स्टोरी मेें यह स्पष्ट कहा गया है कि इस भूकंप से दो लाख लोगों की मौत होगी. इसके बाद हिमालय क्षेत्र का नक्शा ही बदल जाएगा. पर्यावरण का तो नुकसान होगा ही, पर भौगोलिक रूप से हिमालय ऋतु चक्र को भी बदल देगा.
रुड़की में देश का एकमात्र भूकंप इंजीनियरिंग सेंटर है. इस सेंटर के वैज्ञानिक भी हिमालय पर आने वाले भूकंप की बात का समर्थन करते हैं. यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि भूकंप का असर इंसानों पर कम से कम हो, इसका अभी तक एक छोटा सा भी प्रयास नहीं हुआ है. यह सर्वविदित है कि धरती के अंदर होने वाले रासायनिक बदलाव के कारण ही भूकंप आते हैं. इसी बदलाव के कारण धरती की सतह ठंडी और गरम होती रहती है. धरती की सतह पर दबाद बढ़ता है और इसी दबाव को दूर करने के लिए प्रकृति के पास एक ही समाधान है, वह है भूकंप.
भूकंप में दो बातें महत्वपूर्ण है पहला है भूकंप का एपी सेंटर. एपी सेंटर याने भूकंप का मुख्य केंद्र. इस केंद्र के पास सबसे अधिक कंपन उत्पन्न होता है. केंद्र के आसपास आने वाले अधिकांश गाँव जमींदोज हो जाते हैं, इसके बाद दसूरी महत्वपूर्ण बात यह हे कि इस दौरान धरती के अंदर से प्रचंड ऊर्जा फूटती है, इसी कारण धरती के कंपन में घट-बढ़ होती है. यदि ऊर्जा का प्रवाह अधिक हो, तो अधिक समय तक कंपन महसूस किया जाता है. भूकंप का केंद्र धरती के अंदर कहाँ तक है, उस पर भूकंप की तीव्रता आधारित होती है. भूकंप दो रूपों में हमारे सामने आता है. सामान्य रूप से भूकंप धरती के नीचे 30 से 100 किलोमीटर के अंदर होता है. जबकि दूसरे रूप में 100 से 650 किलोमीटर नीचे होता है. भूकंप के समय उसका केंद्र बिंदु अधिक नीचे न होने पर नुकसान की संभावना अधिक होती है. फिर भी भूकंप के नुकसान से कोई भी बच नहीं पाया है.
भूकंप आता है तो वह अपने आगमन की सूचना अवश्य देता है. पर अभी तक इंसान ही इस सूचना को समझ नहीं पाया है. हाँ पशु-पक्षियों के स्वभाव में होने वाले परिर्व?ान से यह पता लगाया जा सकता है कि भूकंप आने वाला है. यही नहीं साँप को भी पता चल जाता है कि भूकंप आने वाला है. उसके शरीर की बनावट ही ऐसी है कि धरती के कंपन को सबसे पहले वही महसूस करता है. इसके बाद पशु-पक्षियों में इसका असर होता है. वे सभी सुरक्षित स्थान पर चले जाते हैें. भूकंप के बारे में इतने वर्षों से शोध करने वाले क्या पशु-पक्षियों और साँपों पर शोध नहीं कर सकते. क्या यह विद्या ये पशु-पक्षी अपने साथ ही ले जाएंगे? अभी भी समय है इंसान यदि इसी तरह प्रकृति से छेड़छाड़ करता रहा, तो उसकी यह हरकत पीढ़ी-दर-पीढ़ी भोगती रहेगी, यह तय है.

सोमवार, 22 अक्तूबर 2007

भाग उपभोक्ता, तेरी बारी आई....

डा. महेश परिमल
आजकल सरकारी माध्यमों द्वारा उपभोक्ताओं को जाग्रत करने के कई उपाय किए जा रहे हैं. प्रसार माध्यमों में यह कहा जा रहा है कि उपभोक्ता जागो, तुम्हें ठगा जा रहा है. तुम सचेत हो जाओ. तुम्हें सचेत होना ही होगा. उपभोक्ताओं को तो ऐसे कहा जा रहा है मानों वे सचेत हैं ही नहीं. पर एक सचेत उपभोक्ता यदि इस दिशा में कुछ करना चाहे, तो सरकारी तंत्र इतना सबल हैं कि उसकी पुकार अनसुनी ही रह जाती है.
अब आप ही बताएँ कि जब आप कोई वस्तु खरीदना चाहें, तो वह आपके सामने होती है, आप उसे छूकर उसकी गुणव?ाा पर विश्वास कर लेंगे, उसके रंग से भी अच्छी तरह वाकिफ हो जाएँगे. सचेत उपभोक्ता का प्रदर्शन करते हुए आप ने व्यापारी से खरीदी हुई वस्तु का बिल भी माँग लिया. ताकि वस्तु यदि खराब निकले तो बिल दिखाकर उसे वापस किया जा सके. यह सब तो बिल के कारण हो सकता है. पर आज भी हमारे सामने कई सवाल हैं, जिसका जवाब हमें नहीं मिलता. हमारी पूरी जागरुकता के बाद भी. क्या आप भी जानना चाहेंगे कि हम रोज ही किसी न किसी तरह से ठगे जा रहे हैं. हमारी जागरुकता भी हमारे काम नहीं आ रही है. हमारी कहीं सुनवाई नहीं है. हमारे सवालों का जवाब सरकार के पास भी नहीं है. कहीं-कहीं तो सरकार भी लाचार है. उपभोक्ताओं को जगाकर वह स्वयं भी परेशान होगी, यह तय है.
आइए कुछ ऐसे बिंदुओं की ओर ध्यान दें, जिसके कारण हम ठगे जा रहे हैं-
· आप जो पेट्रोल खरीद रहे हैं, वह किस रंग का है?
· क्या आप विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि जो पेट्रोल आपने खरीदा, उसका माप सही है?
· क्या आपको यह भी विश्वास है कि उसकी गुणव?ाा और मात्रा सही है?
· हर पेट्रोल पंप पर आपको नोजल के पीछे का पाइप काले रंग का ही दिखाई देगा. इससे आपको यह भी पता नहीं होता कि पाइप से किस रंग का पेट्रोल आ रहा है, कहीं घासलेट तो नहीं आ रहा है?
· आप यदि दो लीटर पेट्रोल की माँग करते हैं, तो पम्प में क्या दो लीटर का माप है?
· इलेक्ट्रॉनिक मीटर पर आप कहाँ तक भरोसा कर सकते हैं?
· हमें जिन कर्मचारियों से पेट्रोल प्राप्त होता है, उनका वेतन बहुत ही कम होता है. अनजाने में मालिक द्वारा उन्हें छूट मिल जाती है कि वे हमें पेट्रोल देते हुए अपनी आय बढ़ा सकते हैं.
· पेट्रोल पंप पर जब आप पहुँचे, तब आपके आगे कोई अन्य उपभोक्ता नहीं है, तो कर्मचारी ने नोजल सीधे आपके वाहन के टैंक के मुहाने पर रखा और शुरू कर दिया पेट्रोल देना. आप शायद भूल गए कि शुरू में कुछ देर तक उससे पेट्रोल नहीं, हवा ही निकली है. मीटर ने सही बताया, आपने बिल लिया और आगे बढ़ गए. मतलब आपने पेट्रोल की कीमत पर हवा खरीदी!
· पेट्रोल पंप पर आपके वाहन में भरी जाने वाली हवा मुफ्त में मिलती है, लेकिन हवा भरने वाला आपसे रुपए माँगता है. क्या यह उचित है?
· अगर आपको दिए गए पेट्रोल पर आपको शक है और आप उसकी जाँच करवाना चाहते हैं, तो क्या आपको मालूम है कि वह पेट्रोल कहाँ जाएगा? शायद नहीं. चूँकि सरकार के पास अपनी प्रयोगशाला नहीं है, इसलिए वह पेट्रोल जाँच के लिए उसी कंपनी की प्रयोगशाला में जाएगा, जिस कंपनी का वह पेट्रोल है!
· मानक माप के लिए हर पेट्रोल पंप पर केवल पाँच लीटर का ही माप रखा हुआ है. उससे केवल पाँच लीटर पेट्रोल मापा जा सकता है. अभी तक सरकार ने इससे कम पेट्रोल का माप बनाया ही नहीं. यह परंपरागत माप है, जो हम सब बरसों से देखते आ रहे हैं. इन मापों के तलों में फेरफार करके काफी पेट्रोल बचाया जा रहा है.
· सरकार के इस संबंध में नियम कायदे इतने पेचीदा हैं कि साधारण उपभोक्ता उसे समझ नहीं सकता. उसके बाद उसकी कार्यप्रणाली भी इतनी ही पेचीदा है कि उसे पूरी करने में उपभोक्ता का समय और श्रम ही बरबाद होगा.
· अभी तक किसी पेट्रोल पंप मालिक पर ऐसी कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई, जिससे अन्य पेट्रोल पंप मालिकों पर प्रभाव पड़े.
· अंत में यही बात कि पेट्रोल पंपों की जाँच करने वाले नाप-तौल विभाग के कर्मचारियों को कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है, इससे वे इलेक्ट्रॉनिक मीटर में होने वाली गड़बड़ी से अनजान होते हैं.
· पेट्रोल के बाद अब यदि आप बाजार चले जाएँ, तो वहाँ स?जी वालों के तराजुओं पर ंजरा भी विश्वास न किया जाए, तो ही ठीक है. क्योंकि ये तराजू हमेशा से ही त्रुटिपूर्ण होते हैं. इनकीजाँच समय-समय पर होती है, पर केवल उनकी, जिनके पास मानक तराजू हैं. बाकी तो छापे के पहले ही भाग जाते हैं. थोड़ी देर बाद वे फिर आ जाते हैं.
· अंत में एक महत्वपूर्ण बात. अपने घर पर आने वाले बिजली बिल का संपूर्ण अध्ययन कर क्या आप बता सकते हैं कि आप पर किस तरह का चार्ज किस कारण लिया गया?
ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो आम उपभोक्ता नहीं जानता. यदि यह सब जान जाएगा, तो सरकार और उसके विभाग को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा. इन पंक्तियों के लेखक ने मध्यप्रदेश के नियंत्रक नाप तौल से विस्तार से बात की, उन्होंने एक आम उपभोक्ता की तरह उपभोक्ता के अधिकारों को बताया, पर सच कहा जाए, तो वे अधिकार भी इतने पेचीदा हैं कि उस पर अमल करना भी मुश्किल होगा. एक शिकायत के बाद सारी मशक्कत उपभोक्ता को ही करनी होगी. सच तो यह है कि आज किसी उपभोक्ता के पास इतना समय नहीं है कि अपने सारे काम छोड़कर शिकायत और उसकी तमाम कार्रवाइयों की जानकारी में लगाए. आम उपभोक्ता की इसी कमजोरी का लाभ उठाते हुए आज हर जगह उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है. एक जागरुक उपभोक्ता यह तो देख रहा है कि उसने पेट्रोल लेने के पहले ही 0 देख लिया है, उसके बाद भी यदि उसे पेट्रोल कम मिलता है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? एक किलो स?जी के बजाए उसे मात्र 900 ग्राम ही मिलती है. इसका जवाबदार कौन है? जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहेगा क्योंकि पूरे मध्यप्रदेश में एक ऑंकड़े के अनुसार नाप तौल विभाग के 600 कर्मचारी हैं और उपभोक्ता 6 लाख.
इसके सुझाव के रूप में कुछ बातों का समावेश किया जाए, तो स्थिति काफी हद तक नियंत्रित हो सकती है-
· यदि सभी उपभोक्ता अपने साथ प्लास्टिक या एक्रेलिक का माप रखें और उसी से पेट्रोल प्राप्त करें, तो उन्हें कम से कम पूरी मात्रा में पेट्रोल मिलेगा.
· नोजल के पीछे का पाइप पारदर्शी किया जाए, इससे उपभोक्ता को पता तो चलेगा ही कि वह पेट्रोल ले रहा है या हवा. जब गोली की मार झेलने वाला पारदर्शी कवच बन सकता है, तो पारदर्शी पाइप क्यों नहीं बनाया जा सकता?
· हर पेट्रोल पंप पर पेट्रोल की जाँच करने वाला यंत्र उपल?ध हो, जिससे तुरंत जाँच हो सके.
· सरकार इस काम में वाहन बनाने वाली कंपनियों का सहयोग ले सकती है, जिन्हें हमेशा यह शिकायत मिलती है कि उनका वाहन सही एवरेज नहीं देता. यह सभी जानते हैं कि एवरेज सही इसलिए नहीं मिलता, क्योंकि उन्हें पेट्रोल या डीजल ही सही माप का नहीं मिलता. वाहन कंपनियों के आगे आने से उपभोक्ताओं को इस तरह की परेशानी से मुक्ति मिल जाएगी.
· पेट्रोल पंप पर ऐसी व्यवस्था की जाए, जिसमें उपभोक्ता पहले बिल प्राप्त करे, बाद में उसे पेट्रोल मिले. इससे हर उपभोक्ता को बिल तो मिल ही जाएगा, फिर उसे शिकायत करने में सुविधा होगी. अभी तो माँगने पर ही बिल मिलता है, या फिर 'बाद में ले लेना' कहकर टाल दिया जाता है. इससे पंप मालिक को ही लाभ होता है.
· सारी व्यवस्था उपभोक्ता की परिस्थितियों को देखते हुए की जाए, क्योंकि आज किसी के पास इतना समय नहीं है कि बिल लेने के लिए भी दो मिनट खड़ा रहे. उसे वे दो मिनट भी भारी पड़ते हैं.
· पेट्रोल पंप पर आवश्यक फोन नम्बर की सूची में नियंत्रक नाप तौल का भी नम्बर हो, ताकि शिकायत करनी हो, तो उनसे सम्पर्क किया जा सके.
· जिन पेट्रोल पंपों पर छापे पड़े हों और उन पर कार्रवाई हुई हो, तो उनके नाम शहर के चौराहों पर अंकित किए जाएँ, जिससे उपभोक्ता उन पेट्रोल पंपों पर जाने के पहले सचेत हो जाएँ.
· उपभोक्ता कई बार कम पेट्रोल मिलने की शिकायत इसलिए नहीं कर पाता, क्योंकि जब उसके वाहन में पहले से ही कुछ पेट्रोल था, उस पर पेट्रोल डाला गया, इससे पूरा पेट्रोल नहीं मापा जा सकता. आखिर इसका भी तो कोई उपाय होना चाहिए.
डा. महेश परिमल

शनिवार, 20 अक्तूबर 2007

टूटे वादों को याद दिलाती, लो आ गई ठंड...

डा. महेश परिमल
लो आ गई ठंड. कँपकँपाती ठंड, किटकिटाती ठंड, कड़कड़ाती ठंड. भीतर तक सिहराती और बाहर तक अलसाती ठंड. इस बार फिर ठंड की शुरुआत होते ही दीनू ने छमिया की ओर लाचारगी की नजरों से देखा है, क्योंकि नहीं कर पाया है, वह पिछले साल की तरह ही इस साल भी अपना रजाई बनवाने का वादा पूरा. नाक-भौं सिकुड़ते हुए छमिया ने फिर से पुराने संदूक से गरम कपड़े बाहर निकाले हैं और बैठ गई है, सूई-धागा लेकर उनकी मरम्मत के लिए. चेहरे पर कुछ उदासी भी है और गुस्सा भी. इसी गुस्से में सूई कई बार ऊँगलियों की पोरों पर चुभ रही है. आखिर बेमन से ही सही गरम कपड़ों और फटी कथरी को दुरस्त कर वह बाहर आती है और सिर पर हाथ रखे, हताश बैठे दीनू को देखती है. अपना सारा गुस्सा भूल कर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरती है और पिछली बार की तरह इस बार भी दीनू उसके पोरों को अपने होठों से छूकर उसकी सारी पीड़ा मिटाने का प्रयास करता है. इस तरह से होता है एक गरीब की झोंपड़ी में ठंड का प्रवेश. ऑंखों में पीड़ा और भीतर तक सिहरन भरने वाली यह ठंड हर बार न जाने कितने ही गरीब और लाचारों को कँपकँपाती है, फिर भी जीते हैं वे, हँंसते हैं वे, धूप के साथ खिलखिलाते हैं और ठंडी सनसनाती हवाओं के साथ शाम की गहराई में थोड़ा-सा मायूस भी हो लेते हैं.
कहते हैं बच्चों को ठंड कम लगती है, लेकिन जब उन्हें ठंड लगती है, तो बहुत लगती है. इसे हर कोई समझता है. फिर भी फुटपाथ पर हजारों बच्चे हर साल किसी तरह अपने हिस्से की ठंड काट ही लेते हैं. ठंड काटने के लिए माँ का ऑंचल ही काफी होता है. 'पूस की रात' का हलकू तो एक कु ?ो के सहारे ही रात काट लेता है. ऐसे कई हलकू हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं. जब ये पूरी शिद्दत के साथ ठंड का सामना करने निकलते हैं, तो ठंड भी एक बार सिहर उठती है, इनकी हिम्मत के आगे. फिर भी ठंड तो अपना असर दिखाती ही है. रेल्वे स्टेशन, बस स्टैण्ड या अन्य कोई सार्वजनिक स्थान पर सोए पड़े लोगों के मुँह से किटकिटाते स्वर के साथ निकलती ही रहती है. ऐसे लोगों का दिन तो किसी तरह निकल ही जाता है. कभी इन्हें रात गुंजारते देखा है किसी ने. पिताजी हमें अक्सर कहा करते कि जब हमें हमारा दु:ख बहुत बड़ा लगने लगे, तब हमें उन लोगों की तरफ देख लेना चाहिए, जिनके दु:ख हमसे भी बड़े हैं. कोई किसी जानवर के पास सोया हुआ है, गोया जानवर की गर्मी उसे मिल रही हो. शायद ऐसा ही जानवर भी सोचता है कि मुझे इससे गर्मी मिल रही है. ठंड और गर्मी के इस झगड़े में रात कट जाती है. सुबह फिर वही ंजिंदगी मुस्कराती हुई सामने खड़ी होती है.ये है टूटी-फूटी ंजिंदगी का एक टुकड़ा. ये टुकड़ा लिहाफों से दिखाई नहीं देता. बहुत गर्मी देता है, शायद यह लिहाफ. तभी तो इससे छुटकारा पाते ही लोग खुद को आग के सामने खड़ा पाते हैं या फिर किसी हीटर के सामने. ठंड में गर्मी बटोरते ये लोग यह भूल जाते हैं कि ठंड में एक समाजवाद होता है. ठंड सभी को उतनी ही लगती है, लिहाफ ओढ़ लो, तो भी ठंड लगेगी, एक जीर्ण-शीर्ण कथरी को चार लोग मिलकर ओढ़ लें, तो भी ठंड उतनी ही लगेगी. ठंड का स्वभाव भी बड़ा जिद्दी है, इसे जितना दूर भगाओ, उतनी ही करीब आती है. यदि इसके सामने सीना तानकर खड़े हो जाएँ, तो यह कोसों दूर भाग जाएगी. पर ठंड का आना हमेशा से ही डरावना रहा है. इस बार भी ठंड आई है और चुपके-चुपके अपना असर दिखा रही है.
ठंड में एक बात और है कि ये ठंड भाईचारा बढ़ा देती है. दो भाई दिन में कितना भी झगड़ें, पर रात में दोनों को एक-दूसरे का साथ चाहिए. छोटा भाई तो जब तक बड़े भाई के गरम पेट पर हाथ नहीं रखता, उसे नींद नहीं आती. स्टेशन पर सब लोग बहुत ही करीब होकर सोते हैं. उनमें किसी प्रकार का भेदभाव उस वक्त दिखाई नहीं देता. यही वह मौसम होता है, जो लोगों की दरियादिली को भी बताता है. ठिठुरते मासूम को कोई इंसान अपने कंबल या फिर कोट, स्वेटर आदि ओढ़ाकर आगे बढ़ जाता है. लोग उसे देखते हैं, भीतर-ही-भीतर उसकी इस हरकत पर हँस भी देते हैें. लेकिन उसे तो आगे बढ़ना होता है, वह आगे बढ़ जाता है. लोग उसका नाम जानना चाहते हैं, पर वह तो निकल जाता है. इसी क्रियात्मक रचना-संसार में किसान की सुबह का रुपहला सूरज ऊगता है और इंद्रधनुषी संध्या ढलती है. इसी अवधि में वह जीवन में आगे बढ़ने की ऊर्जा प्राप्त करता है और अपनी जीवटता का परिचय देता है.
ये थी ठंड की बात. पर जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह है, हमारे भीतर की सिकुड़ती गर्मी, जो हमें यह अहसास ही नहीं कराना चाहती कि ठंड जानलेवा भी हो सकती है, इसे आपस में बाँट लें, तो शायद उन मासूमों की घिसटती ंजिंदगी मेें कुछ पलों के लिए ही सही, गर्मी का अहसास होगा. ठंड बच्चों और बुंजुर्गों का ज्यादा लगती है. क्या हम उन्हें अपने हिस्से की गर्मी नहीं दे सकते. जरूरी नहीं कि वह गर्म कपड़ों के रूप में हो. आशा और विश्वास के रूप में भी हो सकती है, यह गर्मी. हमारा प्यार भरा हाथ उन मासूमों के सर पर चला जाए, बस उनकी तो ंजिंदगी ही सँवर गई. इसी तरह बुंजुर्गों के पास जाकर केवल उनके दु:ख-दर्द ही सुन लें, उनसे प्यार से बातें ही कर लें, उनके लिए तो यही है, सिमटती ंजिंदगी का एक ठहरा हुआ सच.....
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007

बेहतर ंजिंदगी के उसूल 3

मुसीबतों का स्वागत करना सीखें
डा. महेश परिमल
यह मानव कुछ अजीब ही प्रवृत्ति का है. हीरे को तो पसंद करता है, लेकिन हीरे के बनने की प्रक्रिया से दूर भागता है. शायद इसे ही कहते हैं, 'गुड़ से प्यार और गुलगुले से परहेज.' संतान की चाहत हर किसी को होती है. पर हर कोई प्रसव वेदना को स्वीकार करना नहीं चाहता. मनुष्य के साथ ऐसा ही है. जिसमें उसका स्वार्थ सधा होता है, उसके लिए वह सब कुछ करने को तैयार रहता है. इसीलिए जब कभी उसके जीवन में मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है, तब वह विचलित हो जाता है. वह निराशा के अंधकार में घिर जाता है. उसे कोई रास्ता नहीं सूझता. ऐसे लोग सदैव विफल रहते हैं.
सीधी सी बात है, जब आप गुलाब को प्यार करते हैं, तो भला उसके काँटों से क्यों दूर रहना चाहेंगे? जीवन के हर पहलू को सहजता से स्वीकार करना चाहिए. जैसा आप चाहेंगे, क्या सभी कुछ वैसा ही होता जाएगा? हमें प्रकृति के साथ चलना चाहिए. ऋतुएँ बदलती हैं, उसके अनुसार मानव स्वयं को ढालता है. गर्मी में अपनी छत पर सोता है. ठंड में गरम कपड़े पहनकर बाहर निकलता है, और बारिश मेें बरसते पानी का मजा लेने के लिए वह घर से बाहर निकलता है. यदि इंसान बारिश में गर्मी की चाहत करे, तो क्या यह संभव है? शायद बिलकुल नहीं.
इंसान मुसीबतों से घबराता है. कुछ ऐसे भी लोग होते हैं,जो मुसीबतोें को अपने आप बुलाते हैं, क्योंकि उन्हें शाँक होता है मुसीबतों के बीच रहने का. कोई एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचना चाहता है, तो कोई दक्षिणी धु्रव पहुँचकर वहाँ के जीवन के बारे में जानना चाहता है. आखिर ऐसा क्यों? वह भी अपने घर पर बैठकर अपना काम करता. क्या पड़ी थी उसे ठिठुरती ठंड में जाने की? लेकिन ऐसा नहीं है. ये सभी मुसीबतों को अपना साथी मानते हैं. उन्हें यह अच्छी तरह से पता है कि सुख के दिन छोटे होते हैं. पल भर में ही बीत जाते हैं. लेकिन मुसीबतों के दिन भले ही छोटे हों, पर लंबे लगते हैं. क्यों न इसे भी खुशियों के साथ बिताया जाए? वास्तव में देखा जाए, तो मुसीबतें इंसान की परीक्षा लेने के लिए आती हैं. मुसीबत आई है इसका मतलब यही है कि आप किसी बहुत बड़ी सफलता के करीब हैं. मुसीबत के रूप में आपके सामने यह आखिरी अवरोध है. अवरोध पार करते ही आप सफलता की सीढ़ियों पर होंगे. पर इंसान इस मुसीबत रूपी सफलता को अपने जीवन का अवरोध मान लेता है और हार कर बैठ जाता है. यहीं उससे चूक हो जाती है.
इसीलिए हमें सिक्के के दोनों पहलुओं को ध्यान में रखना होगा. यदि आप कहें कि मुझे तो गर्मी का मौसम ही अच्छा लगता है और मैं हमेशा इसी मौसम में रहना चाहता हूँ, तो संभव है आपके लिए वही मौसम अप्राकृतिक रूप से तैयार भी कर दिया जाए. लेकिन आपकी यह जिद आपको प्रकृति से दूर कर देगी. आप समय से काफी पीछे चले जाएँगे. मुसीबतों से घबराना नहीं चाहिए. वह निश्चित ही हमें बल देने आती हैं. जब मुसीबतों का स्वागत करेंगे, तभी खुशियों को गले लगाने का अधिकार आपको प्राप्त होगा. याद रखें रात जितनी घनी और काली होगी, सुबह का सूरज उतने ही उजास के साथ आपके सामने होगा. इसी रोशनी आप पाएँगे जीवन की ऊर्जा और खुशियों का संदेश.
जीवन हमें हर पल अपने ढंग से कुछ न कुछ सिखाता रहता है. उसका अपना तरीका है. हमें उसके तरीके को समझना है, ताकि अपना ही नहीं अपनों का भी जीवन सँवार सकें. याद रखे किस्मत केवल एक बार ही इंसान का दरवाजा खटखटाती है, और बदकिस्मती बार-बार. अतएव अवसर को समझो और उसके अनुसार अपने जीवन को सँवारने का प्रयास करो.

बेहतर ंजिंदगी के उसूल 2

हमारे ही भीतर हैं, खुशियों के पल
डा. महेश परिमल
आज हर किसी को खुशियों की तलाश है. हर कोई इसीलिए भागा जा रहा है. उसकी दौड़ तेज से तेजतर होती जा रही है. उसका मानना है कि खुशियाँ धन-दौलत से ही आती हैं. इसी से ही बटोरी जा सकती है, जीवन की खुशियाँ. पर सच यह नहीं है, सच तो वह है, जिसे आप जानना ही नहीं चाहते. क्योंकि सच को जान जाएँगे, तो खुशियों के लिए इस तरह नहीं भागेंगे. पर सच आपसे उतनी ही दूर है, जितनी दूर आपकी एक ऑंख दूसरी ऑंख. पर उसे देखना आपके लिए तब तब संभव नहीं, जब तक आप यह न जान जाएँ कि खुशियाँ कहते किसे हैं. आपका दो महीने का मासूम पहले रोता है, आप थोड़ा नाराज हो जाते हैं. उसके बाद उसकी माँ उसे दूध पिलाती है, तब वह हँसने लगता है. उसकी हँसी से आपको भी हँसी आने लगती है. उसकी खिलखिलाहट से मानो फूल झरते हों. उसकी हँसी सबकी खुशी का पर्याय बन जाती है. अब भला बताएँ कि उस मासूम की हँसी के लिए आपको कितना धन खर्च करना पड़ा? आप कहेंगे-कुछ भी तो नहीं. तो यही था खुशियों का रंग. जिसे पाने के लिए आप यह सोचते हैं कि वह तो केवल धन से ही प्राप्त होगा.
खुशियाँ कहीं निश्चित स्थान पर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है. हम पागलपन की हद तक बढ़ जाते हैं, उसे पाने के लिए. यह स्थिति बिलकुल उस मृग की तरह है, जो किसी खास सुगंध के लिए न जाने कहाँ-कहाँ कुलाँचे भरता रहता है. वह तो उसके भीतर ही होती है.
शायद इसीलिए ही कहा गया है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'. यदि हमारे भीतर सच्ची खुशियों को पाने की चाहत ही नहीं है, तो हम बेकार ही खुशियों को ढूँढ़ने का ढोंग करते हैं. शायद हमें वास्तविक खुशियाँ नहीं चाहिए. हमारी ऑंखों में तो ऐश्वर्यशाली खुशियों की चाहत है. पर जो ऐश्वर्यशाली खुशियों के बीच जीते हैं, कभी उनका जीवन भी देखा है? कैसे तडपते हैं वे एक अच्छी नींद के लिए् माँ के हाथ की जली रोटी खाने के लिए किस तरह मचलते हैं वे. अपने गाँव की माटी में लोटना चाहते हैं वे. पर क्या उनकी यह चाहत कभी पूरी हो सकती है भला? आप कहेंगे कि यह तो उनके लिए बहुत आसान है. पर कितना आसान है, यह तो कोई उनसे ही पूछे भला.
आप छोटी-छोटी खुशियों को ढूँढ़ें, उसी में छिपा है जीवन का सार. छोटी खुशी बहुत ही ज्यादा सुकून देती है. इसके लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं करना पड़ता. एक मासूम बच्चे के साथ खेलते हुए, बड़े-बुजुर्गों से बातचीत करते हुए भी खुशियाँ प्राप्त की जा सकती हैं. अधिक दूर जाने की जरूरत ही नहीं, कोई भी दो बच्चों को खेलता हुआ देखते रहें, बस उसी से मिल जाएँगी आपको खुशियाँ. उनके खेलने का ढंग, मचलने का तरीका, फिर मनाने का उपक्रम, मेरा ये विश्वास हे कि ये सब देखकर आप हँसे बिना नहीं रह पाएँगे. ऐसे ही बटोरी जाती है जीवन के सागर की गहराई से खुशियों की सीप.
यह सच है कि खुशी को हम तभी पहचान पाएँगे, जब हम खुशी को जानेंगे. वरना बच्चे हँसते रहें, बुंजुर्ग बतियाते रहें, आपको हँसी नहीं आएगी. खुशियों को प्राप्त करने के लिए पहले खुशियाँ बाँटना सीखा जाएँ. हम जितना बाँटेंगे, उससे कही अधिक ही पाएँगे. खुशियाँ मीरा के कृष्ण प्रेम की तरह हैं, कबीर के ज्ञान की तरह है और रहीम के रस की तरह है. इसमें सुरदास की भक्ति, तुलसी की आध्यात्मिकता भी है. अतएव खुशियाँ पाना चाहते हो, तो पहले उसे पहचानें, फिर बाँटें, उसके बाद जो खुशियाँ आपको प्राप्त होंगी, वह किसी अमोल धन से कम नहीं होगा. एक बार बस एक बार खुश होकर तो देखो.
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2007

बेहतर जिंदगी के उसूल 1

अपने आप को जानना सीखें
डा. महेश परिमल
लोग दुनिया को जानने की बात तो करते हैं, पर स्वयं को नहीं जानते. जानते ही नहीं, बल्कि जानना ही नहीं चाहते. खुद को जानना ही दुनिया की सबसे बड़ी नियामत है. जो खुद को नहीं जानता, वह भला दूसरों को कैसे जानेगा? दूसरों को भी जानने के लिए पहले खुद को जानना आवश्यक है. इसलिए बड़े महानुभाव गलत नहीं कह गए हैं कि जानने की शुरुआत खुद से करो.
एक महात्मा का द्वार किसी ने खटखटाया. महात्मा ने पूछा-कौन? उत्तर देने वाले ने अपना नाम बताया. महात्मा ने फिर पूछा कि क्यों आए हो? उत्तर मिला- खुद को जानने आया हूँ. महात्मा ने कहा-तुम ज्ञानी हो, तुम्हें ज्ञान की आवश्यकता नहीं. ऐसा कई लोगों के साथ हुआ. लोगों के मन में महात्मा के प्रति नाराजगी छाने लगी. एक बार एक व्यक्ति ने महात्मा का द्वार खटखटाया- महात्मा ने पूछा-कौन? उत्तर मिला-यही तो जानने आया हूँ कि मैं कौन हूँ. महात्मा ने कहा-चले आओ, तुम ही वह अज्ञानी हो, जिसे ज्ञान की आवश्यकता है? बाकी तो सब ज्ञानी थे.
इस तरह से शुरू होती है, जीवन की यात्रा. अपने आप को जानना बहुत आवश्यक है. जो खुद को नहीं जानता, वह किसी को भी जानने का दावा नहीं कर सकता. लोग झगड़ते हैं और कहते हैं- तू मुझे नहीं जानता कि मैं क्या-क्या कर सकता हूँ. इसके जवाब में सामने वाला भी यही कहता है. वास्तव में वे दोनों ही खुद को नहीं जानते. इसलिए ऐसा कहते हैं. आपने कभी जानने की कोशिश की कि खुदा और खुद में ज्यादा ंफर्क नहीं है. जिसने खुद को जान लिया, उसने खुदा को जान लिया. पुराणों में भी कहा गया है कि ईश्वर हमारे ही भीतर है. उसे ढूँढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं.
सवाल यह उठता है कि अपने आप को जाना कैसे जाए? सवाल कठिन है, पर उतना कठिन नहीं, जितना हम सोचते हैें. ंजिंदगी में कई पल ऐसे आएँ होंगे, जब हमने अपने आप को मुसीबतों से घिरा पाया होगा. इन क्षणों में समाधान तो क्या दूर-दूर तक शांति भी दिखाई नहीं देती. यही क्षण होता है, खुद को पहचानने का. इंसान के लिए हर पल परीक्षा की घड़ी होती है. परेशानियाँ मनुष्य के भीतर की शक्तियों को पहचानने के लिए ही आती हैं. मुसीबतों के उन पलों को याद करें, तो आप पाएँगे कि आपने किस तरह उसका सामना किया था. एक-एक पल भारी पड़ रहा था. लेकिन आप उससे उबर गए. आज उन क्षणों को याद करते हुए शायद सिहर जाएँ. पर उस वक्त तो आप एक कुशल योध्दा थे, जिसने अपने पराक्रम से वह युध्द जीत लिया.
वास्तव में मुसीबतें एक शेर की तरह होती हैं, जिसकी पूँछ में समाधान लटका होता है. लेकिन हम शेर की दहाड़ से ही इतने आतंकित हो जाते हैं कि समाधान की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं जाता. लेकिन धीरे से जब हम यह सोचें कि अगर हम जीवित हैं, तो उसके पीछे कुछ न कुछ कारण है. यदि शेर ने हमें जीवित छोड़ दिया, तो निश्चित ही हमारे जीवन का कोई और उद्देश्य है. उस समय यदि हम शांति से उन परिस्थितियों को जानने का प्रयास करें, तो हम पाएँगे कि हमने उन क्षणों का साहस से मुकाबला किया. यही से हमें प्राप्त होता है आत्मबल और शुरू होता है खुद को जानने का सिलसिला.
हम याद करें उन पलों के साहस को. कैसी सूझबूझ का परिचय दिया था हमने. आज भी यदि मुसीबतें हमारे सामने आईं हैं, तो यह जान लीजिए कि वह हमें किसी परीक्षा के लिए तैयार करने के लिए आईं हैं. हमें उस परीक्षा में शामिल होना ही है. याने खुद की शक्ति को पहचान कर हमें आगे बढ़ना है. जीवन इसी तरह आगे बढ़ता है.
यह बात हमेशा याद रखें कि जिसने परीक्षा में अधिक अंक लाएँ हैं, उन्हें और परीक्षाओं के लिए तैयार रहना है. जो फेल हो गए, उनके लिए कैसी परीक्षा और काहे की परीक्षा? याद रखें मेहनत का अंत केवल सफलता नहीं है, बल्कि सफलता के बाद एक और कड़ी मेहनत के लिए तैयार होना है. बस....
डा. महेश परिमल

बुधवार, 17 अक्तूबर 2007

नारी देह विक्रय व्यवसाय में भारत काफी आगे....

डा. महेश परिमल
çßश्व का सबसे पहला अपराध क्या है? आज यदि इस पर शोध किया जाए, तो एक ही बात सामने आएगी, वह है लाचारी या विवशता में एक नारी द्वारा अपने शरीर का विक्रय करना. आज इसे सभी लोग वेश्यावृ?ाि के धंधे के रूप में जानते हैं. नारी शरीर ने पुरुषों को सदैव आकर्षित किया है. इसी कारण एक ओर नारी के रूप के जाल में फँसकर कई अपना जीवन होम कर देते हैं, वहीं नारी के इसी सौंदर्य का सहारा लेकर कई उसे बेचने के काम में लग जाते हैं. इस तरह से लाचारी, मंजबूरी, विवशता, पापी पेट, बच्चों की परवरिश या फिर घर की आर्थिक स्थिति को सँवारने के नाम पर आज यह व्यवसाय समाज में बेखौफ चल रहा है. चूँकि इस कार्य में हमेशा कुछ सफेदपोशों का वरदहस्त होता है, इसलिए इस व्यवसाय पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लग पाया. आज वेश्यावृ?ाि के व्यवसाय में भारत का नाम काफी ऊपर है.
हाल ही में पाकिस्तान में आए भूकंप के बाद कई हालात ऐसे आए, जिसमें भूकंप से प्रभावित होकर असहाय युवतियों या महिलाओं को विविध प्रलोभन देकर उन्हें वेश्यावृ?ाि के व्यवसाय में धकेल दिया गया. इस तरह की खबरें छन-छनकर मीडिया के माध्यम से बाहर आई. उधर संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इस व्यवसाय में होने वाले इजाफे पर ंचिंता जाहिर की है. वेश्यावृ?ाि कराने वाले देशों के नाम हाल ही में जारी किए गए हैं. इसमें भारत का नाम सर्वोपरि है. जानकारी के अनुसार भारत में वेश्यावृ?ाि के लिए बड़ी संख्या में युवतियों और महिलाओं धकेला जा रहा है. ऑंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 20 हजार युवतियों को इस धंधे में धकेल दिया जाता है, जिनमें से 61 प्रतिशत युवतियाँ 16 से 20 वर्ष की होती हैं और 45 प्रतिशत 16 वर्ष से कम आयु की होती हैं.
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस धंधे के मुखिया या डॉन की आय प्रति वर्ष डेढ़ करोड़ रुपए से अधिक होती है. यह आय मादक द्रव्यों की तस्करी और शस्त्रों की हेराफेरी से होने वाली आय के बराबर है. बांगलादेश और नेपाल की युवतियों को भारत के वेश्यागृहों में 25 से 30 हजार रुपयों में बेच दिया जाता है. उसी तरह तमिलनाड़, आंध्रप्रदेश, आसाम, उ?ारप्रदेश और राजस्थान की युवतियों को दिल्ली, मुम्बई और बेंगलोर के बाजारों में बेच दिया जाता है. इस धंधे में वे युवतियाँ या महिलाएँ शामिल होती हैं, जो अपने जेबखर्च के लिए या फिर घर से दु:खी होकर बाहर निकल जाती हैं. अपनी चौकस निगाहों के कारण इस व्यवसाय में लगे लोग उन युवतियों और महिलाओं को आसानी से पहचान जाते हैं. पहले तो ये उन्हें अपने अच्छे व्यवहार से आश्वस्त करते हैं कि वे अब अकेली नहीं है. उन्हें अच्छी सी नौकरी दिला दी जाएगी. मुसीबत के इन लम्हों में उन भटकी हुई युवतियों और महिलाओं को यह सहारा भी बहुत बड़ा लगता है. वे इस भुलावे में आ जाती हैं. पर उन्हें नहीं मालूम होता कि ये एक मृग-मरीचिका है. कई मामलों में इस व्यवसाय में फँसने वाली युवतियाँ गलत तरीके से आ जाती हैं, इसलिए पकड़े जाने के डर से फरियाद भी नहीं कर पातीं. उन्हें इस व्यवसाय में लाने वाले कथित असामाजिक तत्व भी उन्हें ?लेकमेल करते हैं. इस धंधे पर रोक लगाने के लिए पुलिस महकमा इतना निरीह है कि यह विभाग चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता, क्योंकि हमारे देश में एक हजार लोगों के लिए मात्र 120 पुलिसकर्मी हैं. जो नाकाफी हैं. इसके कारण ये दलालों को इनका भय नहीं होता और वे गाँवों में जाकर अपना शिकार तलाश लेते हैं. फिर पुलिस विभाग में वेतन इतना कम होता है कि उन्हें अतिरिक्त आय के लिए कुछ और संसाधन अपनाने होते हैं. इसलिए कई बार वे भी इसमें शामिल हो जाते हैं या फिर इनकी शह पर यह धंधा बेखौफ चलता रहता है.
युवतियों को वेश्यावृ?ाि में फँसाने वाला यह धंधा पूरे विश्व में बेखौफ चल रहा है. शर्म की बात यह है कि इस कार्य में अब भारत का नाम काफी ऊपर चल रहा है. इस व्यवसाय में एक बात सामान्य रूप से सामने आती है कि बड़े ग्राहकों को अपने ही देश की युवतियाँ अमूमन पसंद नहीं आती, इसलिए बहुत सी जगहों पर एशिया की युवतियों की माँग होती है, तो कई स्थानों पर यूरोप की युवतियों की बोली लगाई जाती है. इसमें मेट्रो सिटी में बड़ी होटलों में चलने वाली वेश्यावृ?ाि को शामिल नहीं किया गया है. इन होटलों में यदा-कदा मारे जाने वाले छापों मेें जो युवतियाँ पकड़ी जाती हैं, वे अच्छे घरों की होती हैं या फिर मध्यम घरों की. जो शौक और धन के कारण इस व्यवसाय से जुड़ जाती हैं. अधिकांश मामलों में यह देखा गया है कि इसमें युवतियाँ शौक से नहीं, अपितु हालात उन्हें इस व्यवसाय में शामिल होने के लिए मंजबूर करते हैं. होटलों या गेस्ट हाउसों में चलने वाली इस वेश्यावृ?ाि का कोई ऑंकड़ा बाहर नहीं आता. यहाँ यह काम इतनी साफगोई से होता है कि समाज में इसकी भनक तक नहीं लगती. इन स्थानों पर सब काम समय के अनुसार इतने व्यवस्थित तरीके से चलता है कि किसी को पता ही नहीं चलता.
आजकल ?यूटी पॉर्लर इस व्यवसाय में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. यह एक ऐसी जगह है, जहाँ हर तरह की युवतियाँ आती हैं. यहाँ काम करने वाली युवतियाँ बातों ही बातों में अपने ग्राहक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का पता लगा लेती हैं, फिर उन्हें कई तरह का प्रलोभन देती हैं और पैसा कमाने का आसान रास्ता बताती हैं. जरुरतमंद युवतियाँ इनके बहकावे में आ जाती हैं. फिर शुरू होता है, नौकरी देने के नाम पर इन्हें बरबाद करने का सिलसिला. फिर तो ऑफिसों, क्लबों और अन्यत्र युवतियों की आपूर्ति का यह एक मुख्य केंंद्र बन जाता है. बंगलादेश की जब एक साथ सौ युवतियों को नौकरी या विवाह का लालच देकर मुम्बई जैसे सपनों की नगरी में लाया जाता है, तब वहाँ पहले से ही तैनात इस व्यवसाय के जानकार कथित असामाजिक तत्व इनकी पहचान कर लेते हैं और इन्हें अपने जाल में फँसा लेते हैं. यहीं से शुरू होता है इनका नारकीय जीवन. ये युवतियाँ 40-45 साल तक तो इस व्यवसाय में आराम से अपने दिन काट लेती हैं, लेकिन बाद में ये एड्स और विभिन्न खतरनाक संक्रामक रोगों से ग्रस्त हो जाती हैं. उम्र के साथ-साथ यह रोग बढ़ता जाता है और आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण सही इलाज भी नहीं हो पाता, फलस्वरूप ये सभी अकाल मौत का शिकार होती हैं. कई स्वैच्छिक संस्थाएँ इनकी मदद के लिए आगे आई हैं, इनके बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा की ओर कदम बढ़ाए गए हैं. पर ये कार्य ऊँट के मुँह में जीरे के समान हैं. आज भी कई युवतियाँ और महिलाएँ इस दुष्चक्र में इस कदर फँस गई हैं कि सामाजिक संस्थाओं के प्रयास से वे वेश्यावृत्ति का धंधा छोड़ तो देती हैं, लेकिन इनकी पूरी देखभाल न होने के कारण ये फिर इस व्यवसाय से जुड़ जाती हैं.
इस व्यवसाय पर लगाम तभी लग सकती है, जब समाज में युवतियों और महिलाओं की स्थिति को सुधारा जाए. उन्हें केवल उपभोग की वस्तु न माना जाए. इसके लिए समाज को संकीर्णता के दायरे से निकलना होगा. नारी केवल आवश्यकता के लिए ही है, यह विचार त्यागना होगा. नारी माँ है, नारी पूजनीय है, नारी शक्ति है, नारी में संपूर्ण विश्व है, इन विचारों के साथ यदि नारी को सम्मान से देखना का एक छोटा सा प्रयास किया जाए और इन्हें वेश्यावृ?ाि के दलदल में घकेलने वालों को कड़ा से कड़ा दंड मिले, तभी इस पर रोक लगाई जा सकती है.

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2007

....तो हाथी भी नामशेष हो जाएँगे

डा. महेश परिमल
हमारे देश में कई तरह के चिंतक हैं. किसी को देश की गरीबी की चिंता है, किसी को देश विदेशियों के हाथों बिकने की चिंता है, किसी को पानी के गिरते स्तर की चिंता है, तो किसी को पर्यावरण की चिंता है. इधर हमारे देश में बाघों की संख्या तेजी से कम हो रही है, इस बात की भी ंचिंता होने लगी है. पर हमारे ही देश में आहिस्ता-आहिस्ता हाथियों की संख्या भी बहुत ही तेजी से कम हो रही है, इस बात की चिंता शायद किसी को नहीं है. हमारे यहाँ हाथियों की संख्या बढ़ाने की दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं हो रहा है, इसलिए अब वह दिन दूर नहीं, जब हाथी भी नामशेष को रह जाएँगे.
अगर सरकारी ऑंकड़ों पर विश्वास करें, तो हमारे देश में हाथियों की संख्या 1977 में 25, 877 थी, वह बढ़कर 2002 में 26,413 हो गई है. इसके बाद भी देश के दक्षिण और ईशान के राज्यों में हाथियों की संख्या में कमी आई है. विशेषज्ञों के अनुसार सौ साल पहले हमारे देश में एक लाख हाथी थे, परन्तु हाथियों एवं मानवों के बीच संघर्ष में हाथियों की संख्या क्रमश: घटती रही है. कर्नाटक में हाथियों की संख्या 6077 से घटकर 5737, असम में 5312 से घटकर 5246 और अरुणाचल प्रदेश में 1800 से घटकर 1607 हो गई है. नागालैण्ड में 158 के बदले अब मात्र 145 हाथी ही रह गए हैं. मणिपुर में उनकी संख्या 30 से घटकर 12 हो गई है. त्रिपुरा में 70 से घटकर 40 हो गई है. पालतू हाथियों की संख्या अंदाजन 70 थी, वह पिछले पाँच वर्षों में कमजोर आरोग्य और पोषण के अभाव में खत्म हो गए हैं.
केरल के एलिफेंट स्टडी सेंटर के जेकब वी.चीरन के अनुसार हाथियों की संख्या में चिंताजनक रूप से कमी आ रही है. अलबत्ता, बाघों की संख्या जिस प्रकार घट रही है, उतनी खराब स्थिति तो नहीं है, पर यदि हाथियों के शिकार पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो परिस्थितियों को विपरीत होने में समय नहीं लगेगा. हाथियों का शिकार आज दुगुने स्तर पर किया जा रहा है. इसका एक कारण है जनसंख्या बढ़ने के कारण मनुष्य के रहने के लिए जंगलों का कटाव और दूसरा कारण है वन विस्तार के समीप के गाँवों में हाथियों की घुसपैठ. ईशान राज्यों के निकटवर्ती गाँवों में हाथियों के हमले के डर से उन्हें मार दिया जाता है. अकेले असम में ही पिछले पाँच वर्षों में 200 हाथियों को मार डाला गया है.
कहा जाता है कि चावल में से बनती शराब की गंध से आकर्षित होकर हाथी गाँव में घुस कर लोगों को अपने पैरों तले रौंद डालते हैं और आदिवासियों के घरों को भी नुकसान पहुँचाते हैं, अपनी धुन में दौड़ते ये हाथी लहलहाती फसलों को भी नुकसान पहुँचाते हैं. यही परिस्थिति छत्तीसगढ़ के पत्थलगाँव के आसपास, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और झारखंड में है. हाथियों का हमला होते ही गाँववासी ढोल बजाकर, पटाखे फोड़कर और जलती मशालों को लेकर इनका पीछा करते हैं और उन्हें गाँव से बाहर खदेड़ने का प्रयास करते हैं. अब उन्होंने हाथियों को ंजहर देने का रास्ता अपनाया है और इससे अब तक 122 हाथियों का खात्मा हो चुका है.
केन्द्र के पर्यावरण एवं वन विभाग के अध्यक्ष ए. राजा के अनुसार ईशान के राज्यों में हाथियों की संख्या में कमी आने का मुख्य कारण उनके रहने के स्थानों में आई कमी, गैरकानूनी तरीके से उनका शिकार और मनुष्य तथा हाथियों के बीच की अस्तित्व की लड़ाई है. ईशान के राज्यों की कुछ आदिवासी जातियाँ कभी पारंपरिक कारणों से तो कभी अनिवार्य रूप से हाथियों का शिकार करती हैं. परिणाम स्वरूप हाथियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है. दक्षिण राज्यों में और पूर्वी एशिया में हाथी को पवित्र माना जाता है और धार्मिक उत्सवों में या शाही सवारी के लिए उसका अधिक महत्व होता है.
वाइल्ड लाईफ प्रोटेक्शन ऑफ इंडिया के अनुसार इस वर्ष हाथियों के गैरकानूनी शिकार के 15 मामले सामने आए हैं. पिछले वर्ष इस प्रकार के मामलों में 23 हाथियों के शिकार की बात सामने आई थी. पुलिस ने 169 किलोग्राम हाथीदांत और दो दंतशूल बरामद किए थे. यह संख्या ही दर्शाती है कि कितने बड़े स्तर पर हाथियों का शिकार किया जा रहा है, यह जानकारी सोसायटी के एक अधिकारी ने दी. हाथीदांत के वैश्विक व्यापार पर प्रतिबंध के बावजूद इस व्यापार में लगातार वृध्दि हो रही है. इन कारणों से नर हाथियों का अंधाधुंध शिकार होने से नर एवं मादा हाथियों के प्रमाण में भी भारी अंतर आया है. तामिलनाडू की नीलगिरी की पहाड़ियों पर यह अंतर विशेष ध्यान खींचता है, जहाँ 6000 से 10,000 हाथी बसते हैं.
देश में बाघों के 27 अभयारण्य होने के बावजूद बाघों की संख्या तेजी से घट रही है और सारिस्का में तो एक भी बाघ शेष नहीं है. ऐसा ही हाथियों के मामले में भी हो, इसके पहले ही हमें सावधान हो जाना होगा. गैरकानूनी शिकार और हाथीदाँत के अवैध व्यापार से अपनी रोटी सेंकने वाले स्वार्थी लोगों को पकड़ कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाने की आवश्यकता है.
हाथी के विशेष गुण
यह तो सभी जानते हैं कि हाथी की याददाश्त बहुत तेज होती है, इसके अलावा उसमें और भी कई विशेषताएँ होती हैं, जिनमें उसकी सूंघने और सुनने की शक्ति प्रमुख है. बहुत लम्बे समय बाद भी वह अपने पालक को मात्र सूंघ कर और उसकी आवाज से पहचान जाते हैं. इसी प्रकार वह अपने शत्रु को भी पहचान लेते हैं. किंतु हाल ही में केन्या के प्राणी संग्रहालय के संचालकों ने बताया कि हाथी अलग-अलग तरह की आवाजों का अंतर जानने के साथ-साथ उसकी नकल भी कर सकते हैं. जंजीर से बंधे होने के बाद भी वे दो मील दूर से गुजरने वाले ट्रक की आवाज सुन कर उसकी हूबहू नकल कर सकते हैं. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हाथी एक-दूसरे से अलग होकर भी परस्पर संवाद कायम रख सकते हैं. वैसे तो हाथी झुंड में ही रहना पसंद करते हैं, किंतु संदेश व्यवहार की उनकी अलग ही पध्दति होती है. झुंड के हाथी एक-दूसरे के आवाज की नकल कर अपने संगठन के मजबूत होने की पुष्टि करते हैं. आवाज का अनुकरण करने की शक्ति प्राय: पक्षियों, दरियाई स्तनपायी जीवों, चमगादड़ और बंदरों में तो देखने को मिलती है, पर हाथी भी ऐसा कर सकते हैं, यह अजीब बात है. यह सारी जानकारी हाल ही में हुए एक शोध से सामने आई है.
डा. महेश परिमल

सफलता के लिए आवश्यक है व्यवहार कुशलता

कहा जाता है कि कल और आज के बीच की ंजिदगी को जो अच्छी तरह से जी गया, वही असली इंसान है. ऐसे क्षणों में वह ऐसा यादगार काम कर जाता है कि एकांत के पलों में उसे खुद को ही अपने इस काम पर आश्चर्य होता है. बस ंजरूरत है, समय के उस पल के महत्व को समझने की. जिसने उस पल का मूल्य जान लिया, वह समय के सागर से सफलता के मोती चुन लाया और जिसने इसका महत्व नहीं समझा, वह सागर के किनारे की रेत को पैरों तले सरकता हुआ महसूस करता रहा या मुट्ठी में बंद रेत की तरह समय को सरकता हुआ देखता रहा. समय बीत जाने के बाद किया गया पछतावा भविष्य में कुछ कर दिखाने का सबक ंजरूर देता है, किंतु उस वक्त ऑंखों से छलके पश्चाताप के ऑंसुओं का खारापन सागर के खारेपन से भी कहीं अधिक होता है.
यहाँ प्रश्न यह उठता है कि हम पश्चाताप के ऑंसुओं का या उसके खारेपन का स्वाद चखें ही क्यों? क्यों न हम समय को एक चुनौती के रूप में स्वीकारें और सफलता के पथ पर आगे बढ़ें! सफलता के मूल मंत्रों में अनेक बिंदु ह,ैं किंतु यहाँ हम सबसे पहले मुख्य दो बिंदुओ की चर्चा करेंगे, जो कि सफलता की शुरुआत में अपनी मुख्य भूमिका निभाते हैं. ज्ञान और व्यवहार कुशलता का मेल सफलता के मार्ग में व्यक्ति को आगे ले जाता है.
जीवन की तंग और छोटी गलियों में कई उलझनों में से होकर गुजरने के बाद भी ज्ञानी कई बार वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं, जबकि व्यवहार कुशल अपनी चालाकी और चपलता की छड़ी थामे, कूदते-फाँदते कुछ ही समय में बहुत आगे निकल जाते हैं.
अनुभव यह दर्शाता है कि ज्ञानवान व्यक्ति की अपेक्षा व्यवहार कुशल व्यक्ति जीवन में अधिक सफल होते हैं, क्योंकि वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि सामने वाले से अपना काम किस तरह निकलवाना है. जबकि ज्ञानवान व्यक्ति तो इस संबंध में केवल सोचता ही रह जाता है. इसे इस तरह समझा जा सकता है - एक बार एक प्रतियोगिता हुई, जिसमें एक अंडे को खड़ा रखना था. वह भी बिना किसी सहारे. कई लोग आए और उसे विभिन्न तरीके से खउा करने की कोशिश करने लगे. पर अंडे को खड़ा नहीं होना था सो वह नहीं हुआ. अब क्या किया जाए? सभी ऐसा सोच ही रहे थे, कि एक व्यक्ति आया और उसने अंडे को फोड़कर खड़ा कर दिया. उसने प्रतियोगिता जीत ली. लोगों ने कहा- ऐसा तो हम भी कर सकते थे. ये सभी ज्ञानवान थे, जो अंडे को विभिन्न तरीके से अपना ज्ञान लगाकर खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे. पर जिसने अंडे को फोड़कर खड़ा किया, वह व्यवहार कुशल था. उसने अंडे को खड़ा करने में अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं किया, बल्कि उसने व्यावहारिकता बताई और प्रतियोगिता जीत ली. वहाँ जितने भी लोग से वे अंडे को खड़ा करने में अपना ज्ञान लगा रहे थे, पर इस व्यवहार कुशल व्यक्ति ने अपनी बुद्धि का परिचय दिया.
इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ज्ञानवान है, किंतु व्यवहार कुशल नहीं, वह अपनी इस कमी के कारण जीवन में पीछे रह सकता है. उसी प्रकार व्यवहार कुशल व्यक्ति भी अपने ज्ञान क्षेत्र की कमी के कारण पीछे रह सकता है, लेकिन इसके अवसर बहुत ही कम होते हैं, क्योंकि व्यवहार कुशल व्यक्ति यदि थोड़ा सा भी सजग हो, तो अपनी बुध्दि और चतुरता से ज्ञान प्राप्त कर दोनों को अपना सकता है. दूसरी ओर ज्ञानवान व्यक्ति में इस तरह के चातुर्य का अभाव होता है, क्योंकि उसका अहम् इसमें आड़े आता है. इसी अहं भाव के कारण वह व्यवहार में पिछड़ जाता है. यह सच है कि ज्ञान की दूरदर्शिता की जहाँ-जहाँ ंजरूरत होती है, वहाँ-वहाँ उस व्यक्ति को याद अवश्य किया जाता है, किंतु व्यवहार कुशलता के अभाव में एवं अपने अहं के कारण वह अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाता. तब बीता हुआ समय फिर उसे देता है - पश्चाताप के ऑंसुओं का खारापन.

जो व्यक्ति सफल हैं, निश्चित ही वह असफलता का सामना कर चुका है. तभी वह सफलता के मुकाम तक पहँच पाया है. वह जब-जब अपनी असफलता को भुलता है, तब-तब सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए वह क्षण भर के लिए अटक जाता है. इसीलिए किसी को अपने असफलता के दिन और उन दिनों में किए गए प्रयत्नों को भुलना नहीं चाहिए. यदि असफलता के दिनों में किए गए प्रयत्न उसके दिलो-दिमाग में छाए होंगे, तो वह निश्चित ही सफलता के मार्ग पर अटकेगा नहीं. उसका यह लगातार प्रयास उसे एक ऐसे शिखर पर पहँचाएगा, जहाँ उसकी एक अलग पहचान होगी.
आज का युवाजोश से भरा हुआ है. उनमें उमंग और उल्लास भरा हुआ है. वे हर पल कुछ नया कर गुजरने की तमन्ना रखते हैं और जीवन में आई हर चुनौती को एक टाइम-पास के रूप में स्वीकारते हैं. यही कारण है कि हर परेशानियों से वे अपनी व्यवहार कुशलता से बाहर निकल आते हैं. जब वे व्यवहार कुशलता में थोड़े से भी पीछे रह जाते हैं, तो प्रतिस्पर्धा में से ही बाहर हो जाते हैं. आज के दौर में समय बेलगाम घोड़े की तरह सरपट नहीं भागता, बल्कि चीते की तरह बियाबान पार करता है, या बाज की तरह आकाश चूमता है. यह मशीनी युग है और इस युग में जिसने भी समय के साथ चलने में थोड़ी सी भी लापरवाही या आलस किया, वह समय के हाथों इतनी दूर पछाड़ खा कर गिरता है कि यदि वह प्रतिस्पर्धा के मैदान से ही पूरी तरह आऊट हो जाए, या कर दिया जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
बुध्दिमता और व्यवहार कुशलता यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. इन दोनों की समानता ही व्यक्ति को सफलता के मार्ग पर आगे ले जाती है. जिस प्रकार ईश्वर द्वारा रचित प्रकृति और पुरुष एक नई रचना के द्वारा इस संसार को आगे बढ़ाते हैं, उसी प्रकार मनुष्य के स्वप्रयत्नों के द्वारा रचित बुध्दिमता और व्यवहार कुशलता सफलता को जन्म देती है और जीवन को आगे बढ़ाती है.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

अपने विचारों को अपना अभिन्न मित्र किस तरह बनाओगे?

डा. महेश परिमल
मैं लाख कोशिश करता हूँ, पर मनमाफिक फल नहीं मिलता, मुझे लगता है कि मैं अकेला हो गया हूँ। ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है। कोई मेरा साथ क्यों नहीं देता। एक निराश व्यक्ति के मुख से निकली ये बात उसकी असफलता को तो दर्शाती ही है, साथ ही उसके अकेलेपन को भी सामने लाती है।
वास्तव में यदि आदमी को अपने अकेलेपन से या असफलता से बचना हो, तो अपने विचारों को ही अपना अभिन्न मित्र बनाना चाहिए। प्राय: व्यक्ति आधा-अधूरा सोचकर ही अपनी बात कह देता है, इतना ही नहीं, वह जो भी कहता है, उसमें उत्साह का रंग, आनंद की अमृत बूँदे और आत्मीयता की उष्मा की कमी होती है। जब उसके श?द केवल होठों को छूकर निकलते हैं, तो उसमें दंभ या अहं का भाव दिखाई देता है और जब ये ही श?द हृदय से निकलते हैं, तो सामने वाले व्यक्ति को अपनत्व से भिगो देते हैं। ये अपनापन श?दों में कब समाएगा? उसी समय जब व्यक्ति बोलने से पहले विचार करेगा, उन्हें अपना अभिन्न मित्र बनाएगा।
व्यक्ति दूसरों के विचारों को पढ़ने में तो कुशल होता है। एक बार में ही अंदाजा लगा लेता है कि सामने वाला उसके बारे में क्या सोच रहा है। या फिर फलां व्यक्ति की सोच फलां व्यक्ति के लिए क्या है, ये सारे समीकरण वह अपने भीतर हल कर लेता है, किंतु जब स्वयं को जानने का समय आता है, तो वहाँ वह निष्फल हो जाता है। स्वयं के बारे में कोई अंदाजा नहीं लगा पाता। व्यक्ति को दूसरों के विचार पढ़ने से पहले अपने विचारों को पढ़ना सीखना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने ध्येय की पूर्ति के लिए अपने अंदर एक दृष्टिकोण विकसित करना होता है। एक प्रेरणादायी मनोचिकित्सा, जो ध्येय प्राप्ति में सहायक होती है। जब हम भीतर से खाली होंगे और दुनिया को अपने विचारों से भर देने की कोशिश करेंगे तो हमारे सारे प्रयास व्यर्थ चले जाएँगे। हमारे भीतर से उफनते उत्साह का प्रपात ही दूसरों में उत्साह के फव्वारे की रचना करेगा। यदि हम स्वयं को एकदम तुच्छ समझेंगे, तो दूसरे भी हमारी उपेक्षा करने में जरा भी देर नहीं करेंगे। हमारे भीतर कार्य करने की, सफलता प्राप्त करने की, उसे सँभाले रखने की और उसकी श्रेष्ठता को क्रमश: विकसित करने की अद्भुत शक्ति छिपी हुई है, इस विचार के साथ जो समर्पित भाव से हर कार्य की तैयारी करता है, वह कभी असफल नहीं होता और अपने लक्ष्य पर पहुँचकर ही दम लेता है।
व्यक्ति को अपने जीवन में हर मोड़ पर दो रास्ते मिलते हैं। उसे उनमें से किसी एक को चुनना होता है। विकल्प हमेशा हमारे साथ होता है। बस तय करना है कि हमें उनमें से किसे चुनना है। इन दो रास्तों में एक छोटा रास्ता होता है, जो समय कम लेता है और आसान होता है, लेकिन यह रास्ता आगे चलकर परेशानियाँ ही देता है तथा उस रास्ते पर चलकर सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। दूसरा रास्ता कठिन होता है, उसमें समय भी अधिक लगता है, लेकिन यही वह रास्ता होता है, जिस पर चलने से सफलता प्राप्त होती है, सुकून मिलता है। इस रास्ते पर चलने वाले को देर से ही सही, पर मंजिल मिल ही जाती है और वे मील का पत्थर साबित होते हैं।
इसे ही दूसरे श?दों में इस तरह से कहा जा सकता है कि जो डूबना जानते हैं, सफलता का मोती उन्हें ही मिलता है। सागर किनारे केवल लहरों को देखकर या पानी में पाँव डालकर बैठे रहने से सागर की गहराई नहीं नापी जा सकती। इसके लिए तो गहराई में उतरना ही पड़ता है। इसी तरह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होना हो तो, उस क्षेत्र की सारी जानकारी अपने पास रखनी चाहिए, उस क्षेत्र से जुड़ी जितनी अधिक जानकारियाँ आपके पास होंगी, आपकी सफलता उतनी ही मजबूत होगी। याद रखे जीवन में वे ही लोग सफल होते हैं, जो ऊर्जा से भरे होते हैं। निराश और हताश लोग सारे काम को बोझ मानकर करते हैं, इसलिए विफल हो जाते हैं। जो काम दिल से किया जाता है, वह काम काम न होकर ईश्वर की सच्ची पूजा की तरह होता है, जो हमें सफलता दिलाता है। जब भी किसी से मिलें, तो सामने वाले को लगना चाहिए कि उससे कोई मिल रहा है, तो दिल से मिल रहा है, कुछ कहें तो आपके होठों से नहीं दिल से आवाज निकलनी चाहिए। आभार प्रदर्शन हो या फिर अभिनंदन के उद्गार, यदि उसमें उत्साह, उष्मा, आनंद और उल्लास न हो, तो वह सब एक औपचारिकता मात्र ही रह जाती है।
इंसान किसी काम का श्रेय लेने के लिए सबसे आगे होता है, पर किसी और को श्रेय देने में काफी देर कर देता है। हर कोई सोचता है कि उसे महत्वपूर्ण माना जाए, उसकी पूछ-परख बढ़े, हर कोई उसका सम्मान करे। पर इंसान को इस स्थिति तक आने में काफी समय लग जाता है, इसके लिए उसे कई समझौते करने पड़ते हैं। इस स्थान तक पहुँचने वाले किसी भी व्यक्ति के जीवन में यदि झाँकने का प्रयास किया जाए, तो एक बात स्पष्ट होगी कि उन्होंने जिसकी भी प्रशंसा की, दिल खोलकर की, प्रशंसा करने में उन्होंने न कभी देर की और न ही श?दों को खर्च करने में कंजूसी बरती। कई बार अच्छा काम करने वाला व्यक्ति केवल इसलिए निराश हो जाता है कि उसे जो प्रतिसाद मिला, उसमें मंजा नहीं आया, लोगों ने प्रशंसा तो की, पर अधिकांश ने अपने विचार व्यक्त करने में कंजूसी बरती। कुल मिलाकर उसे अच्छा काम करने के बाद भी सही प्रोत्साहन नहीं मिला, इसलिए उसका निराश होना स्वाभाविक होता है। यदि किसी बच्चे ने अपना सबक अच्छे से कर लिया और उसके पालक ने उसे शाबासी दी, तो वह आगे भी अपना सबक अच्छे से कर लेता है, पर यदि उसे शाबासी नहीं मिलती,तो उसका निराश होना स्वाभाविक है।
यह संसार आनंद की लहलहाती फसल काटने के लिए जितना उतावला और उत्साहित होता है, यदि ये ही उत्साह वह आनंद की फसल ऊगाने में दिखाए, तो आज पूरे संसार में संबंधों की हरितिमा छा जाती। साधु-संत दान के भूखे होते हैं, अमीर व्यक्ति शान का भूखा होता है और एक आम आदमी अपने से बड़ों के मान का भूखा होता है। प्रशंसा के दो श?द इंसान के कमाऊ पुत्र की तरह होते हैं, इससे इंसान को बहुत सारा ऐसा धन प्राप्त होता है, जिसे जितना अधिक खर्च करो, वह उतना ही बढ़ता है। धन से किसी को आकर्षित तो किया जा सकता है, पर इसका आकर्षक बहुत जल्द खत्म भी हो जाता है, दूसरी ओर धन में सच्चा प्रेम, सच्चा मान और सच्ची आत्मीयता पैदा करने की क्षमता नहीं है। ओढे हुए मान-सम्मान और स्वस्फूर्त मान में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
जिन्हें मन की शांति चाहिए, उन्हें धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें तो अपने भीतर के अपार स्नेह को सेवा के माध्यम से लुटाना पड़ता है, तभी मिलती है मन की शांति। आज प्रकृति मानव को उच्च कोटि का मानव बनाने के लिए आतुर है, किंतु अपनी वैचारिक संकीर्णता के कारण यही मानव आज निम्न कोटि की कतार में खड़ा हो गया है। इसके बाद भी यदि मानव ने खुद को ही अपना मित्र नहीं बनाया, तो उसे अकेलेपन के सिवाय और कुछ भी नहीं मिलेगा।
डा. महेश परिमल

जारी है प्रतिभावानों की खोज

डा. महेश परिमल
ये प्रतिस्पर्धा का युग है. यहाँ हर पल जहाँ हैं, उससे आगे बढने की कवायद की जा रही है. हर कोई यही सोच रहा है कि किस तरह आगे बढ़ा जाए. हममें से न जाने कितने लोग ऐसे हैं, जो प्रतिभा सम्पन्न होने के बाद भी जहाँ हैं, वहाँ से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाए हैं. पर कुछ ऐसे भी हैं, जिनमें प्रतिभा न होते हुए भी अपनी वाक् पटुता के कारण बहुत आगे हैं. कभी सोचा आपने कि ऐसे कैसे हो गया? आपको शायद समझ में न आए, पर यह सच है कि आज ऐसे व्यक्तियों की खोज लगातार जारी है, जो कंपनी को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दें. इसके लिए विभिन्न कंपनियों की जासूसी निगाहें प्रतिभावान लोगों पर टिकी हैं. इसलिए जो प्रतिभावान हैं, वे कदापि निराश न हों, क्योंकि अब समय आ गया है कि उनकी प्रतिभा की कद्र होगी और वे भी आगे बढ़ने में सक्षम होंगे.
इन दिनों आधुनिक मैनेजमेंट की बड़ी चर्चा है. ये क्या होता है, आप जानते हैं? शायद नहीं. आइए आपको बताएँ कि ये क्या होता है. आधुनिक मैनेजमेंट याने ऐसे कर्मठ लोगों का समूह, जो निष्ठावान होकर कंपनी को आगे बढ़ाने में अपना अमूल्य योगदान दे. अब ऐसा समूह तैयार कैसे हो? तो ऐसे लोगों को खोज-खोजकर इकट्ठा किया जाता है, जो प्रतिभावान हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो रहा है. वे छटपटा रहे हैं अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए. या फिर वे अपनी प्रतिभा का पूरा इस्तेमाल कर तो रहे हैं, लेकिन उसका पूरा प्रतिफल उन्हें नहीं मिल पा रहा है. सारा लाभ कंपनी को हो रहा है. ऐसे लोगों को इकट्ठा कर उनसे काम लेना ही आधुनिक मैनेजमेंट है. तो ऐसे प्रतिभावान लोगों के निराश होने के दिन लद गए, अब तो वे विभिन्न कंपनियों की जासूसी और खोजी निगाहों से बच नहीं सकते. उनकी प्रतिभा निश्चित ही रंग लाएगी.
उद्योग जगत में आजकल एक लतीफा विशेष रूप से प्रचलित है, जिसमें यह कहा जाता है कि यदि आपको रिलायंस में अच्छे पद पर नौकरी चाहिए, तो मुकेश या अनिल अंबानी के मित्रों का मित्र बनना होगा. इस पर यदि गहराई से विचार करें, तो यह केवल लतीफा ही नहीं, बल्कि एक सच्चाई है. आशय यह है कि अंबानी बंधुओं का एक विशाल मित्र समुदाय है. ये लोग लगातार अपने विविध क्षेत्रों के मित्रगणों से विभिन्न तरह की सलाह लेते रहते हैं. कई मामलों में उनसे मशविरा भी लेते हैं. इससे यह बात विशेष रूप से उभरकर आती है कि किस क्षेत्र में कौन व्यक्ति अधिक प्रतिभावान है. उसके बाद मशक्कत शुरू होती है, उस व्यक्ति को अपनी कंपनी से जोड़ने की. आपने साथियों को यह कह दिया जाता है कि उसकी चाहे जो भी कीमत हो, उसे हमारी कंपनी में होना चाहिए. इस तरह से शुरू होता है, प्रतिभा के सही मूल्यांकन का सिलसिला. आजकल रिलायंस और हिंदुस्तान लीवर का नाम इस क्षेत्र में विशेष रूप से लिया जा रहा है. यह कंपनियाँ अपनी कर्मचारी की क्षमता के विषय में अधिक चिंतित रहती है, क्योंकि ये जानती हैं कि इनकी क्षमता पर ही कंपनी की प्रगति टिकी हुई है. अतएव क्षमतावान व्यक्ति ही इस कंपनी को संभाल सकते हैं.
रिलायंस कंपनी का मापदंड व्यक्ति की दूरदर्श्ािता और जोखिम उठाने की उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति है. ऐसे व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में हों, उसे किसी भी हालत में अपने स्टॉफ में लेकर ही दम लेती है. दोनों ही कंपनियों की कार्यपद्यति अलग-अलग है. जहाँ एक ओर रिलायंस साहसिकता पर जोर देती है, वहीं हिंदुस्तान लीवर व्यावसायिकता पर. हिंदुस्तान लीवर भी प्रतिभावान कर्मचारियों को अपने यहाँ लाने में किसी भी हद तक जा सकती है, किंतु केवल शुरुआत में ही. क्योंकि वह उस कर्मचारी को अपने यहाँ लाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाती, बल्कि उसे अपने यहाँ लंबे समय तक सेवाएँ लेने के लिए प्रशिक्षित करती है. ताकि उसकी प्रतिभा को और अधिक तराशा जा सके.
दुनिया में जिस कंपनी ने आधुनिक मैनेजमेंट की यह पद्यति अपनाई, उसे निश्चित रूप से सफलता मिली और उसने प्रगति के कई सोपान तय किए. ऐसा नहीं है कि इसका लाभ केवल कंपनी को ही मिला, बल्कि कर्मचारी वर्ग भी इस सफलता से अछूता नहीं रहा. यह वर्ग भी इतना बलशाली हो गया कि कंपनी कंपनी के शेयर लेने में भी पीछे नहीं रहा. आज सफलता का यही मूलमंत्र है. अच्छी कंपनी को अच्छे व्यक्ति चाहिए और निश्चित रूप से अच्छे व्यक्ति को अच्छी कंपनी की ही चाहत होती है. अब वह जमाना गया जब कोई व्यक्ति पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही कंपनी से जुड़ा रहता था. अब तो घाट-घाट का पानी पीने वाला व्यक्ति अनुभवी माना जाता है.
प्रतिभावान व्यक्ति उस सूरज के समान है, जिसे हर हालत में अपनी रोशनी बिखेरनी ही है. उसे नौकरी खो जाने का दु:ख नहीं होता. वह निश्चिंत हो कर अपना काम करता रहता है. उसके लिए हर काम एक चुनौती है और हर रास्ता एक चौराहा है. प्रतिभा कहाँ खींच ले जाए, इसका उसे भी भान नहीं होता. ऐसे लोग तभी आगे बढ़ पाते हैं, जब उन्हें उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हो.
सवाल यह है कि आखिर ऐसी प्रतिभा आती कहाँ से है? और उसका विकास कैसे होता है? तो यह प्रतिभा शुरूआत में एक सद्गुण के रूप में व्यक्ति में मौंजूद रहती है, जो धीरे-धीरे पुष्पित और पल्लवित होती है. जो व्यक्ति छोटी-छोटी भूलों की ओर ध्यान दे कर उसे न दोहराने का संकल्प लेता है, वह प्रगति के पथ पर सबसे तेज कदमों से आगे बढ़ता है. केवल अपनी ही नहीं, बल्कि दूसरों की भूलों से भी सीखने वाला व्यक्ति और महान होता है. ऐसे लोगों के पास अनुभव का ंखजाना भरा होता है. ऐसे लोगों के पास केवल एक ही कमी होती है, वह है- खुद को प्रकाशित न कर पाना. अर्थात अपनी मार्केटिंग न कर पाना. ऐसे लोगों के जीवन में हताशा का दौर काफी लम्बा होता है. लेकिन पारखी निगाहें उन्हें ढूंढ ही लेती है.
हीरे का ही उदाहरण लें. जमीन के भीतर न जाने कितनी गहराई में कितने दबाव में वह पड़ा होता है. वर्षों तक उसी स्थिति में रहता है. एक घनघोर लम्बी प्रतीक्षा के बाद वह स्थिति आती है, जब उसकी पहचान होती है, उसका वजन होता है, उसका मूल्यांकन होता है, फिर शुरू होता है उसे तराशने का काम. यह काम इंसान के हाथों होता है और हीरा निखर उठता है. संघर्ष का एक लंबा दौर, जिसे गुमनामी का दौर भी कहा जा सकता है, हर किसी के जीवन में आता ही है, पर इस जीवन से न घबराकर यदि पूरे संयम के साथ अपने भीतर ऊर्जा समेट ली जाए, तो समय आने पर वही ऊर्जा काम आती है. धैर्य की कोई उम्र नहीं होती. यदि आपने यह तय कर ही लिया है कि पानी को काटना ही है, उसके बर्फ बनने तक तो प्रतीक्षा करनी ही होगी. हीरे को तो निकलना ही है, ठीक प्रतिभा की तरह. आज भले ही उसका न हो, पर कल निश्चित रूप से उसका होता है.
तो एक बार फिर उन साथियों को एक संदेश यही है कि प्रतिभा है तो निराश न हों. इसे तो उभरना ही है, पर थोड़े धैर्य के साथ उन क्षणों की प्रतीक्षा करें. क्योंकि खोजी निगाहों से वे बच नहीं सकते. अपने पर विश्वास रखें और पूरी ईमानदारी से अपना काम करते रहें, बस एक क्षण होगा और आप अपने को बहुत ही अच्छी स्थिति में पाएँगे.
डा. महेश परिमल

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

कितने अत्याचारी हो गए हैं हम

डॉ. महेश परिमल
मेरी सात साल की बिटिया के साथ परेशानी यही है कि वह रोज सुबह सोकर उठने में कोताही करती है. सुबह से ही शुरू हो जाता है उसे लेकर पत्नी का बड़बड़ाना. इस कारण सुबह से ही सबका मूड खराब होना स्वाभाविक है. ऐसे में हमें एक उपाय सूझा, क्यों न इसे सोने ही दिया जाए, देखते हैं बिटिया कितनी देर तक सोती है? एक दिन वही फार्मूला अपनाया. हमने देखा कि बिटिया सुबह पूरे सवा नौ बजे तक सोती रही. रोज सुबह साढ़े छह बजे सोकर उठने वाली बिटिया यदि बेफिक्री से सोये, तो वह ढाई घंटे तक और सो सकती है. याने अपनी रोजमर्रा की नींद से भी अधिक. उस दिन वह स्कूल तो नहीं गई, पर सोकर न उठने और स्कूल न जाने का दु:ख उसे बहुत हुआ.
उस नन्हीं जान को सोता देखकर मुझे लगा कि कितना अत्याचारी हो गया हूँ मैं. अपने बच्चों को स्वाभाविक नींद भी नहीं दे पाया. यह भारत का भविष्य सोना चाहता है, हम उसे सोने नहीं देना चाहते. हम यह अच्छे से जानते हैं कि उसके इस तरह से सोने से उसकी पढ़ाई का हर्जा हो रहा है, पर हमें उसकी स्वाभाविक जीवन का ंजरा भी खयाल नहीं है. एक मशीन की तरह रोज सुबह उठना, तैयार होना, स्कूल जाना और दोपहर में बस्ते के बोझ के साथ होमवर्क का बोझ लिए हुए बच्ची जब घर आती है, तब उसकी तकलीफ को देखने के लिए हम घर पर नहीं होते. वह वक्त हमारी नौकरी का होता है. इसलिए जान भी नहीं पाते कि आखिर उसकी तकलीफ क्या है. शाम को घर आकर हम उसे सोता हुआ पाते हैं, उसके उठते ही उससे पूछते हैं कि कितना होमवर्क मिला, पहले उसे पूरा करो, फिर खेलने जाना. बच्ची हमारी आज्ञा का पालन करती है.
सोचता हूँ कितने निष्ठुर हो गए हैं, आज के पालक, इस शिक्षा के आगे. आज की शिक्षा उसे ज्ञानी बना रही है, इसमें कोई शक नहीं, पर यह भी सच है कि उसे व्यावहारिक नहीं बना पा रही है यह शिक्षा. इसे आजमाना हो, तो उसे ंजरा पास की दुकान भेजकर देखो, कुछ सामान खरीदने. गणित में सौ में से नम्बर लाने वाले बच्चे को दुकानदार सामान कम देकर और कुछ रुपए की गफलत करके कैसे लूट लेता है?
हम पालक यह भूल गए हैं कि आज की शिक्षा के पीछे मैकाले का गणित किस तरह काम कर रहा है. मैकाले सचमुच का दूरद्रष्टा था, तभी तो उसने कह दिया था कि भारत की भावी पीढ़ी जन्म से भारतीय होगी, लेकिन उसकी सोच मेें ऍंगरेजियत होगी. वह पीढ़ी वही सोचेगी जो ऍंगरेज चाहेंगे. आज उसकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है. कितने गुलाम हो गए हैं, हम आज ऍंगरेजी के. इसके बिना जीवन का कोई काम भी संभव नहीं है. इस तरह से देश की मातृभाषा हिंदी को अच्छी तरह समझने वाले व्यक्ति को अपने बच्चे से ही पूछना पड़ता है कि सरकार के इस नोटिस में आखिर क्या लिखा है? विडम्बना यह है कि बच्चे को कभी हिंदी सही ढंग से समझने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इसलिए वह अपने पालक या पिता से हिंदी के बारे में कुछ भी नहीं पूछता. जबकि पिता चाहता है कि बच्चा उससे हिंदी के बारे में कुछ पूछे, पर यह स्थिति कभी नहीं आती, अलबत्ता पिता को बार-बार बच्चे से कुछ न कुछ पूछने की नौबत आती ही रहती है.
आज अगर बच्चा हिंदी में कमजोर है, तो किसी पालक को कोई चिंता नहीं होती. कोई फर्क नहीं पड़ता, यह सोच काम करने लगती है. पर यदि वही बच्चा ऍंगरेंजी में कमजोर हो जाए, तो पालक किसी अच्छे टयूटर की तलाश में लग जाते हैं. जहाँ देखो, वहाँ ऍंगेरंजी की घुसपैठ. इस पर तुर्रा यह कि ऍंगरेजी के अलावा आपको कितनी भारतीय भाषाएँ आती हैं. इसमें भारतीय भाषा का मतलब हुआ कि कितनी क्षेत्रीय भाषाढँ या बोलियाँ आती हैं. गोया इसमें हिंदी तो कहीं लगती ही नहीं.
हम तो इस ऍंगरेंजी के गुलाम हो ही गए, पर हमने अपने बच्चों को भी नहीं दोड़ा, वे तो पूरी तरह से इस भाषा में रच-बस गए. इससे हमारी तकलीफ बढ़ गई, हम उसे भारतीय संस्कृति के माध्यम से कुद बताना चाहते हैं, पर उसे वह ऍंगरेंजी माध्यम से समझना चाहता है. ऍंगरेंजी कितनी संस्कारवान भाषा हे, इसे तो बताने की आवश्यकता नहीं. इसी ऍंगरेजी के मोह में पड़कर हमने अपने बच्चों का बचपन छीन लिया है. आज वे न तो भारतीय संस्कृति को समझ पाए हैं और न ही पाश्चात्य संस्कृति. दो पाटों के बीच रहकर उनकी स्थिति की कल्पना शायद हम नहीं कर सकते, इसकी पीड़ा वे ही समझते हैं. पर वे अपनी इस पीड़ा को कहें भी तो किससे? उनका सारा समय तो स्कूल, होमवर्क, टयूशन और खेल में ही बीत जाता है. यदि थोड़ा समय बचता भी है, तो उसे हमारे घर के बुध्दू बक्से ने ले लिया है. यह बक्सा उसे इस तरह से शिक्षित कर रहा है कि उसे कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है. वह खूब समझता है.
श्राध्द पक्ष के दौरान आने वाले हिंदी दिवस को हम याद तो कर ही लेते हैं. इस तरह से मानो उसी का श्राध्द मना रहे हों. ऐसा केवल हिंदी के लिए ही देखा-सुना गया है कि एक भाषा के लिए हमें दिवस मनाने की आवश्यकता पड़ती है. इस ऍंगरेंजी ने हमें कहीं का नहीं रखा, हम इसके शिक्षारूपी शिकंजे में लगातार कसते जा रहे हैं, हमारी छटपटाहट किसी काम की नहीं. हमारी संतान हमारी पीड़ा को नहीं समझ सकती, क्योंकि हमने उसे जो माहौल दिया है, उसमें संवेदनाओं की कोई जगह नहीं है.
शिक्षा बुरी नहीं होती, कदापि बुरी नहीं होती, अगर कुछ ंगलत है तो वह है हमारी सोच. हमारी अपेक्षाएँ. जिसके कारण आज हम किसी के भी नहीं हो पा रहे हैं. किसी के क्या हम तो स्वयं अपने भी नहीं हो पाए. बच्चों की पीड़ा उनकी है, हमने नहीं समझा या समझना ही नहीं चाहा, पर अपनी पीड़ा किससे कहें? है किसी के पास इसका जवाब?
डॉ. महेश परिमल

सौंदर्य प्रसाधनों पर आश्रित नहीं है सुंदरता

भारती परिमल
सुंदरता सभी को अच्छी लगती है और सुंदरता का सानिध्य भी. जब बाहरी सौंदर्य को अधिक महत्व दिया जाता है, तब यह बात विचारणीय हो जाती है कि क्या सफल और लोकप्रिय होने के लिए सुंदर होना ंजरुरी है? सही मायनों में सुंदरता, सौंदर्य प्रसाधनों पर निर्भर नहीं रहती. आज खूबसूरती की परिभाषा बदल गई है. केवल सुंदर नैन-नक्श, गोरा रंग, ऊँचा कद, पतली कमर ही सुंदरता की परिधि में नहीं आते. आज सुंदरता का पैमाना आकर्षक व्यक्तित्व, बुध्दिमता, हांजिर जवाबी, आत्मविश्वास आदि को माना जाता है. ंजरुरी नहीं कि ये सभी गुण व्यक्ति में जन्म से ही हो. लेकिन यह भी सच है कि इन सभी गुणों को अपने अंदर प्रयासों से विकसित किया जा सकता है. यहाँ हम कुछ ऐसे उपाय दे रहे हैं, जिन्हें अपनाकर साधारण नैन-नक्श वाले भी बिना सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग के सभी के बीच आकर्षण का केन्द्र बन सकते हैं-
1. आपका व्यक्तिगत दृष्टिकोण-सबसे पहले आप स्वयं के बारे में अपना एक दृष्टिकोण बनाएँ. फिर कल्पना करें कि आप अपने आप में क्या परिवर्तन देखना चाहते हैं. अपने मस्तिष्क में स्वयं की एक छवि बना लें, उसके बाद उसे साकार करने का प्रयत्न करें. किसी अभिनेत्री या मॉडल से प्रेरित होकर कभी भी स्वयं के विषय में ऐसी कल्पना न करें, जो संभव ही न हो. हमेशा यथार्थ के धरातल पर रहते हुए सटीक कल्पना करें. जैसे यदि आप मोटी हैं, तो छरहरी काया की, और साँवली हैं, तो निखरी त्वचा की कल्पना कर सकती हैं, क्योंकि यह सभी प्रयत्नों के द्वारा संभव है.
2. दर्पण बढ़ाए प्रोत्साहन - दर्पण में वास्तविकता झलकती है. कहा भी जाता है कि दर्पण झूठ न बोले. आप जैसे हैं, आपका प्रतिबिम्ब वैसा ही दर्पण में स्पष्ट झलकता है. दर्पण आपकी कल्पना को साकार करने में आपका सच्चा मित्र साबित हो सकता है. जब भी दर्पण में अपना चेहरा देखें, स्वयं मे किए जा सकने वाले परिवर्तनों की कल्पना करें. इसकी सहायता से ही आप स्वयं में हुए सकारात्मक परिवर्तनों के बारे में जान सकते हैं. यह भी ध्यान रखें कि कभी भी विकृत, धव्बेयुक्त या टूटे हुए दर्पण का प्रयोग न करें, क्योंकि इसमें बनने वाला प्रतिबिम्ब भी विकृत ही होगा. परिणामत: आप स्वयं के बारे में वैसी ही धारणा मन में बिठा लेंगे. आपके आत्मविश्वास में भी कमी आएगी और उसी के अनुरूप आपके व्यवहार और विचारों में नकारात्मकता आएगी.
3. स्वयं के लिए समय निकालें- आप चाहें कामकाजी हो, या गृहिणी. सप्ताह में एक दिन स्वयं के लिए समय अवश्य निकालें. कभी बालों को हिना करें, कभी मेनिक्योर, पेडिक्योर या फेशियल, वेक्सिंग करें. कभी चेहरे पर लेप लगाकर सूखने तक ऑंखें बंद कर आराम करें. इस प्रकार आप अपने दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर स्वयं को देंगी, तो निश्चित ही आपके सौंदर्य के साथ-साथ आत्मविश्वास में भी वृध्दि होगी. सुंदरता आपके अंदर ही छिपी होती है. आवश्यकता है, केवल उसे निखारने की. आपका आकर्षक लगना यह साबित करता है कि आप अपने शरीर एवं त्वचा का कितना ध्यान रखती हैं.
4. आत्मविश्वासी बनें- आप जो भी पहनें, जैसा भी पहनें, परंतु अपने भीतर आत्मविश्वास की कमी न आने दें. यदि आप समयाभाव या अन्य किसी कारण से कपड़ो पर प्रेस करना भूल गए हों, परिधान के अनुरूप श्रृंगार न कर पाए हों, तो इसके लिए अधिक व्यग्र होने की ंजरूरत नहीं. आपकी व्यग्रता से दूसरों का ध्यान सहज ही आपकी ओर केंद्रित हो जाएगा. इसकी अपेक्षा यदि आप इस ओर ध्यान न देते हुए अपना काम पूरे आत्मविश्वास के साथ करेंगे, तो लोगों को अपनी ईमानदारी से आकर्षित कर पाएंगे और प्रशंसा के पात्र भी बनेंगे. दूसरों के द्वारा प्राप्त प्रशंसा को दिल से स्वीकारें, क्योंकि यह प्रशंसा आपके आत्मविश्वास को बढ़ाती है, इसके विपरित यदि आप अपनी प्रशंसा सुनकर उसे अनसुनी कर देंगें, तो सामने वाला इसे अपना अपमान समझेगा और भविष्य में आपकी प्रशंसा करना तो दूर, आपसे दो बातें करने में भी दो पल सोचेगा. इससे बेहतर है कि अपनी प्रशंसा सुनकर हल्की मुस्कराहट के साथ उसका धन्यवाद करें और इस गरिमामय प्रशंसा को स्वीकार करें. आत्मविश्वास की राह में प्रशंसा एक सीढ़ी का काम करती है. इस पर चढ़कर आपको अहंकार को नहीं छूना है, वरन् सौम्यता को अपने व्यवहार में स्थान देकर एक नया सफर तय करना है.
5. प्रतिदिन एक कार्य आत्मसंतोष के लिए करें- किसी असहाय की मदद करना, बीमार की सेवा करना, भूखे को खाना खिलाना, निरीह पशु-पक्षी का ध्यान रखना आदि छोटे-छोटे कामों में असीम आनंद एवं संतोष मिलता है. इसके अतिरिक्त ज्ञानवर्धक पुस्तक पढ़ना या अपनी अभिरुचि के अनुसार नृत्य, संगीत, पेंटिंग या ऐसा कोई काम जो आपको आत्मिक संतोष देता हो, उसे करें. दूसरों की भावनाओं का ध्यान तो रखें ही साथ ही अपनी भावनाओं को भी ठुकराएँ नहीं. दूसरों की तरह आपका भी अस्तित्व है, यह बात कभी न भूलें. इसलिए ऐसे काम दिन में कोई एक अवश्य करें, जिससे स्वयं को आत्मसंतोष मिलें. उपर बताए गए तरीकों में से आप जो भी चुनें, उसे अपनाकर स्वयं में होने वाले परिवर्तनों को, भावनाओं को और अनुभवों को डायरी मेें कलमबध्द करना न भूलें. फिर देखें आपके चेहरे पर आत्मसंतोष का कैसा निखार आता है.
6. सहयोगी मित्र बनाएँ- ऐसे सहयोगी मित्रों की तलाश करें, जो आपको यह बताने में बिल्कुल न झिझकें कि किस प्रकार के वस्त्र, आभूषण आदि आप पर खिलते हैं और किस प्रकार के नहीं. यदि आप स्वयं में कुछ नया परिवर्तन करना चाहें, तो आपको हतोत्साहित करने की अपेक्षा प्रोत्साहित करें. साथ ही आपकी तारीफ में दो शद्व कहने से भी न चूकें. उनके द्वारा की गई प्रशंसा से प्रोत्साहित हो कर आप नए सिरे से स्वयं को निखारने का प्रयत्न करें. यह प्रशंसा आपके लिए एक उत्प्रेरक का कार्य करेगी और आपके लक्ष्यप्राप्ति में सहायक होगी. ध्यान रखें, ऐसा ही व्यवहार सहयोगी मित्र के प्रति आप भी अपनाएं.
7. अपने अंतर्मन की आवाज सुनें- प्रत्येक व्यक्ति,अपनी आत्मा की आवाज सुन सकता है. यही आवाज उसे सही और गलत में भेद समझाकर सही दिशा में प्रेरित करती है, किंतु या तो हमारे पास इस आवाज को सुनने का समय नहीं होता, या हम उसे नजरअंदाज कर देते हैं. यदि हम इसे सुनें तो कभी भी स्वयं के प्रति लापरवाह नहीं हो सकते. उदाहरणस्वरूप - आइस्क्रीम, वेफर्स, फास्टफुड, कोल्डड्रिंक, नशीले पदार्थ आदि हमारे शरीर के लिए नुकसानदायक हैं. यह हम अच्छी तरह से जानते हैं. कई बार हमारी अंतरात्मा हमें इससे रोकती भी है, किंतु हम इसकी आवाज को जिव्हा लोलुपता के कारण अनसुनी कर देते हैं. परिणामत: मोटापा, बैडोल शरीर, मधुमेह, केन्सर आदि अनेक व्याधियों के शिकार बन जाते हैं. इसीलिए अंतर्मन की आवाज को कभी अनदेखा नहीं करना चाहिए. हमेशा उससे प्रेरित होकर सही मार्ग चुनें.
8. सुंदरता को व्यक्त करना सीखें- स्वयं के प्रति आप जैसी भावना रखेंगे, वैसी ही भावना अन्य लोग के मन में आपके प्रति उत्पन्न होगी. यदि आप स्वयं को सुंदर और आकर्षक महसूस करेंगे, तो दूसरे भी आपके प्रति ऐसा ही सोचेंगे और यदि आप स्वयं को बदसूरत एवं आकर्षणहीन समझेंगे, तो निश्चित ही यही भाव सामने वाले के मन में आपके प्रति उत्पन्न होंगे. इसलिए स्वयं को दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करने का तरीका बदलें. स्वयं को नया और बेहतर लुक देने के लिए हमेशा कुछ अलग हटकर और नया करने का प्रयास करें. कभी अपना हेयर स्टाइल बदलें, परिधान में कभी रंगों का चयन अलग हो. स्वयं के लिए मन में कभी नकारात्मक विचार न आने दें. कहीं निकलने के पूर्व एक क्षण को रूकें, स्वयं को दर्पण में निहारें, ऑंखें बंद करके गहरी साँस लें और स्वयं को दिनभर के लिए ऊर्जावान महसूस करें, फिर आत्मविश्वास के साथ निकल पड़े लक्ष्य की ओर.
व्यक्तित्व निखार के ये टिप्स आप में एक नई ऊर्जा भर देंगे, यह मानकर चलें कि बदसूरती हमारे ही भीतर होती है, उसे हमारा आत्मविश्वास ही खूबसूरत बनाता है. इन टिप्स को अपनाकर आप लोगों के बीच खूबसूरती की एक नई परिभाषा देंगे.
भारती परिमल

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