डॉ. महेश परिमल
हाल ही में गुजरात सरकार ने शिक्षण संस्थाओं के लिए छुट्टियों के लिए एक नियम बनाया है, जिसके अनुसार अब शिक्षण संस्थाओं में केवल 80 दिनों का ही अवकाश रहेगा और 248 दिनों तक पढ़ाई होगी. उसी गुजरात से कुछ समय पहले महात्मा गाँधी की पौत्री श्रीमती सुमित्रा कुलकर्णी ने सार्वजनिक रूप से देश में अनावश्यक रूप से दी जा रही छुट्टियों का विरोध किया था. उन्होंने हिम्मत दिखाते हुए गाँधी जयंती पर सार्वजनिक रूप से अवकाश दिए जाने का भी विरोध किया था. उनका मानना था कि अपने जन्म दिवस पर गाँधीजी कभी खाली नहीं बैठे. वे बिना काम के रह भी नहीं सकते थे. वास्तव में तो गाँधीजी का जन्म दिन तो 'वर्किंग डे' के रूप में होना चाहिए.
इसे यदि सरकारी कामकाज की दृष्टि से देखें तो स्पष्ट होगा कि कितने काहिल हो गए हैं, हम इस छुट्टियों के देश में! काम के प्रति अरुचि और छुट्टी ये दोनों ऐसी बातें हैं, जिससे मानव के मन में काम न करने के नित नए बहाने तैयार होते रहते हैं. आइए देखें हम एक वर्ष में कितनी छुट्टियाँ हमें प्राप्त होती हैं- रविवार 52, शनिवार 52, वार त्योहार की छुट्टियाँ 27, अर्जित अवकाश 30, आकस्मिक अवकाश 15, मेडिकल अवकाश 20, इस तरह से योग हुआ 196. इसके अलावा जब देश में कोई बड़ा नेता मर जाता है तब भी छुट्टी हो जाती है. हालांकि न तो किसी सरकारी कर्मचारी को शवयात्रा में शामिल होना होता है और न ही सरकारी कर्मचारी उस नेता के परिवार के शोक में शामिल होते हैं. ऐसे अवसरों पर केवल राष्ट्रीय ध्वज झुका देना ही पर्याप्त है. बात यहीं पर खत्म नहीं होती, आजकल नित नई-नई छुट्टियों की माँग उठती रहती है. कभी किसी महापुरुष के जन्म दिवस पर या उसके बलिदान दिवस पर छुट्टी करने की माँग धरने, आंदोलन होते रहते हैं.
कभी किसी सरकारी कार्यालयों में जाकर देखा जाए, तो हर क्लर्क की टेबल पर काँच के नीचे छुट्टियों का हिसाब-किताब लिखा होगा. कौन-सी छुट्टी गुरुवार को पड़ रही है, ताकि शुक्रवार का अवकाश लेकर पूरे चार दिन का अवकाश मनाया जाए. इसका पूरा गणित उनके पास होता है. यही नहीं छुट्टी लेने के रोज नए-नए बहाने उनके खुराफाती दिमाग में आते रहते हैं. कोई इनसे काम की बात करके तो देखे, इनकी भौहें कैसे तन जाती हैं? देखा जाए तो सरकारी कामकाज केवल उन बेबस और मजबूर बाबुओं द्वारा ही होता है, जो काम को ही पूजा समझते हैं. उनकी निष्ठा काम पर ही होती है. हालांकि ऐसे लोग दफ्तरों में इज्जत की नजरों से नहीं देखे जाते, ये हमेशा किसी न किसी तरह प्रताड़ित होते रहते हैं. अधिकारी भी अपने काम इन्हें ही सौंपते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि और किसी को देने से काम नहीं होगा. अनजाने में अधिकारी काम न करने वालों से डरने लगते हैं. इस तरह से काम न करने वाले कर्मचारी वर्षों तक पल जाते हैं.
यहाँ यह बता देना आवश्यक होगा कि दूसरे महायुध्द के बाद जापान और जर्मनी बुरी तरह से तबाह और बरबाद हो गए थे, सभी को लग रहा था कि अब ये देश शायद ही अपने पैरों पर खड़े हो पाएँगे. मगर उनकी मेहनत और लगन के बल पर वे सदैव आगे बढ़ते रहे. आज वे दोनों देश खुशहालियों की बुलंदियों पर हैं. इसके पीछे यही भावना है कि वे लोग काम को सफलता की कुंजी मानते हैं. वहाँ छुट्टियाँ कम होती हैं ओर काम अधिक होते हैं.
जो भुक्तभोगी हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि सरकारी कार्यालयों की क्या स्थिति होती है. वहाँ हर तीसरे दिन छुट्टी होती है. शेष दिनों में अधिकांश सरकारी कर्मचारी न तो समय पर दफ्तर आते हैं और न ही पूरा समय दफ्तर को दे पाते हैं. कुछ समय के लिए वे यदि वे अपनी कुर्सी पर बैठ भी जाएँ, तो उसमें भी अधिकांश समय चाय पीने और गपशप करने में निकल जाता है.
हद तो तब हो जाती है, जब देश या विदेश में कहीं क्रिकेट मैच चल रहा होता है. कार्यालय सूने हो जाते हैं, लोग या तो घर पर ही या फिर दफ्तर में ही टीवी के सामने या ट्रांजिस्टर के सामने पसरकर बैठ जाते हैं. इस दौरान काम की बात ही न पूछो. कुछ समय पहले तक इंदौर की एक संस्था सरकारी कार्यालयोें की छुट्टियाँ कम करने की माँग को लेकर हर वर्ष भोपाल आकर अपना विरोध दर्ज करती थी. उक्त संस्था लगातार कई वर्षों से छुट्टियाँ कम करने का आंदोलन चला रही है, पर उसकी माँग आज तक नहीं मानी गई.
आजकल निजीकरण का जमाना है. अखबार की दफ्तरों और टीवी चैनल के कार्यालयों में जहाँ कभी छुट्टी नहीं होती, वहाँ लोग जी-जान से अपने काम में लगे होते हैं. काम न करने वालों की यहाँ कोई जगह नहीं होती. काम, काम और केवल काम आजकल की निजी संस्थाओं का मंत्र बन गया है. इसके एवज में सरकारी कार्यालयों में काफी मजे हैं. अगर ये सरकारी कर्मचारी निजी संस्थाओं में काम करने लगे, तो एक दिन भी नहीं चल पाएँगे. यह सच है. निजी संस्था यदि किसी कर्मचारी को दस हजार रुपए वेतन दे रही है, तो तय है कि वह कर्मचारी से बीस हजार रुपए का काम ले रही है. लेकिन सरकारी कर्मचारियों की बात ही न पूछो, उन्हें चाहिए छुट्टी, छ्ट्टी और केवल छुट्टी.
छुट्टियों देश की प्रगति में बाधक हैं, यदि हमें सचमुच आगे बढ़ना है, तो देश में छुट्टियाँ कम होनी ही चाहिए. हमारा अथक श्रम ही इस देश को आगे बढ़ा सकता है. अगर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के देश में उनकी ही पौत्री यदि दो अक्टूबर को 'वर्किंग डे' के रूप में परिवर्तित करने की माँग करती है, तो उनकी यह माँग नक्कारखाने में तूती की आवाज सिध्द होगी.
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में गुजरात सरकार ने शिक्षण संस्थाओं के लिए छुट्टियों के लिए एक नियम बनाया है, जिसके अनुसार अब शिक्षण संस्थाओं में केवल 80 दिनों का ही अवकाश रहेगा और 248 दिनों तक पढ़ाई होगी. उसी गुजरात से कुछ समय पहले महात्मा गाँधी की पौत्री श्रीमती सुमित्रा कुलकर्णी ने सार्वजनिक रूप से देश में अनावश्यक रूप से दी जा रही छुट्टियों का विरोध किया था. उन्होंने हिम्मत दिखाते हुए गाँधी जयंती पर सार्वजनिक रूप से अवकाश दिए जाने का भी विरोध किया था. उनका मानना था कि अपने जन्म दिवस पर गाँधीजी कभी खाली नहीं बैठे. वे बिना काम के रह भी नहीं सकते थे. वास्तव में तो गाँधीजी का जन्म दिन तो 'वर्किंग डे' के रूप में होना चाहिए.
इसे यदि सरकारी कामकाज की दृष्टि से देखें तो स्पष्ट होगा कि कितने काहिल हो गए हैं, हम इस छुट्टियों के देश में! काम के प्रति अरुचि और छुट्टी ये दोनों ऐसी बातें हैं, जिससे मानव के मन में काम न करने के नित नए बहाने तैयार होते रहते हैं. आइए देखें हम एक वर्ष में कितनी छुट्टियाँ हमें प्राप्त होती हैं- रविवार 52, शनिवार 52, वार त्योहार की छुट्टियाँ 27, अर्जित अवकाश 30, आकस्मिक अवकाश 15, मेडिकल अवकाश 20, इस तरह से योग हुआ 196. इसके अलावा जब देश में कोई बड़ा नेता मर जाता है तब भी छुट्टी हो जाती है. हालांकि न तो किसी सरकारी कर्मचारी को शवयात्रा में शामिल होना होता है और न ही सरकारी कर्मचारी उस नेता के परिवार के शोक में शामिल होते हैं. ऐसे अवसरों पर केवल राष्ट्रीय ध्वज झुका देना ही पर्याप्त है. बात यहीं पर खत्म नहीं होती, आजकल नित नई-नई छुट्टियों की माँग उठती रहती है. कभी किसी महापुरुष के जन्म दिवस पर या उसके बलिदान दिवस पर छुट्टी करने की माँग धरने, आंदोलन होते रहते हैं.
कभी किसी सरकारी कार्यालयों में जाकर देखा जाए, तो हर क्लर्क की टेबल पर काँच के नीचे छुट्टियों का हिसाब-किताब लिखा होगा. कौन-सी छुट्टी गुरुवार को पड़ रही है, ताकि शुक्रवार का अवकाश लेकर पूरे चार दिन का अवकाश मनाया जाए. इसका पूरा गणित उनके पास होता है. यही नहीं छुट्टी लेने के रोज नए-नए बहाने उनके खुराफाती दिमाग में आते रहते हैं. कोई इनसे काम की बात करके तो देखे, इनकी भौहें कैसे तन जाती हैं? देखा जाए तो सरकारी कामकाज केवल उन बेबस और मजबूर बाबुओं द्वारा ही होता है, जो काम को ही पूजा समझते हैं. उनकी निष्ठा काम पर ही होती है. हालांकि ऐसे लोग दफ्तरों में इज्जत की नजरों से नहीं देखे जाते, ये हमेशा किसी न किसी तरह प्रताड़ित होते रहते हैं. अधिकारी भी अपने काम इन्हें ही सौंपते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि और किसी को देने से काम नहीं होगा. अनजाने में अधिकारी काम न करने वालों से डरने लगते हैं. इस तरह से काम न करने वाले कर्मचारी वर्षों तक पल जाते हैं.
यहाँ यह बता देना आवश्यक होगा कि दूसरे महायुध्द के बाद जापान और जर्मनी बुरी तरह से तबाह और बरबाद हो गए थे, सभी को लग रहा था कि अब ये देश शायद ही अपने पैरों पर खड़े हो पाएँगे. मगर उनकी मेहनत और लगन के बल पर वे सदैव आगे बढ़ते रहे. आज वे दोनों देश खुशहालियों की बुलंदियों पर हैं. इसके पीछे यही भावना है कि वे लोग काम को सफलता की कुंजी मानते हैं. वहाँ छुट्टियाँ कम होती हैं ओर काम अधिक होते हैं.
जो भुक्तभोगी हैं, वे यह अच्छी तरह से जानते हैं कि सरकारी कार्यालयों की क्या स्थिति होती है. वहाँ हर तीसरे दिन छुट्टी होती है. शेष दिनों में अधिकांश सरकारी कर्मचारी न तो समय पर दफ्तर आते हैं और न ही पूरा समय दफ्तर को दे पाते हैं. कुछ समय के लिए वे यदि वे अपनी कुर्सी पर बैठ भी जाएँ, तो उसमें भी अधिकांश समय चाय पीने और गपशप करने में निकल जाता है.
हद तो तब हो जाती है, जब देश या विदेश में कहीं क्रिकेट मैच चल रहा होता है. कार्यालय सूने हो जाते हैं, लोग या तो घर पर ही या फिर दफ्तर में ही टीवी के सामने या ट्रांजिस्टर के सामने पसरकर बैठ जाते हैं. इस दौरान काम की बात ही न पूछो. कुछ समय पहले तक इंदौर की एक संस्था सरकारी कार्यालयोें की छुट्टियाँ कम करने की माँग को लेकर हर वर्ष भोपाल आकर अपना विरोध दर्ज करती थी. उक्त संस्था लगातार कई वर्षों से छुट्टियाँ कम करने का आंदोलन चला रही है, पर उसकी माँग आज तक नहीं मानी गई.
आजकल निजीकरण का जमाना है. अखबार की दफ्तरों और टीवी चैनल के कार्यालयों में जहाँ कभी छुट्टी नहीं होती, वहाँ लोग जी-जान से अपने काम में लगे होते हैं. काम न करने वालों की यहाँ कोई जगह नहीं होती. काम, काम और केवल काम आजकल की निजी संस्थाओं का मंत्र बन गया है. इसके एवज में सरकारी कार्यालयों में काफी मजे हैं. अगर ये सरकारी कर्मचारी निजी संस्थाओं में काम करने लगे, तो एक दिन भी नहीं चल पाएँगे. यह सच है. निजी संस्था यदि किसी कर्मचारी को दस हजार रुपए वेतन दे रही है, तो तय है कि वह कर्मचारी से बीस हजार रुपए का काम ले रही है. लेकिन सरकारी कर्मचारियों की बात ही न पूछो, उन्हें चाहिए छुट्टी, छ्ट्टी और केवल छुट्टी.
छुट्टियों देश की प्रगति में बाधक हैं, यदि हमें सचमुच आगे बढ़ना है, तो देश में छुट्टियाँ कम होनी ही चाहिए. हमारा अथक श्रम ही इस देश को आगे बढ़ा सकता है. अगर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के देश में उनकी ही पौत्री यदि दो अक्टूबर को 'वर्किंग डे' के रूप में परिवर्तित करने की माँग करती है, तो उनकी यह माँग नक्कारखाने में तूती की आवाज सिध्द होगी.
डॉ. महेश परिमल