डा. महेश परिमल
लो आ गई ठंड. कँपकँपाती ठंड, किटकिटाती ठंड, कड़कड़ाती ठंड. भीतर तक सिहराती और बाहर तक अलसाती ठंड. इस बार फिर ठंड की शुरुआत होते ही दीनू ने छमिया की ओर लाचारगी की नजरों से देखा है, क्योंकि नहीं कर पाया है, वह पिछले साल की तरह ही इस साल भी अपना रजाई बनवाने का वादा पूरा. नाक-भौं सिकुड़ते हुए छमिया ने फिर से पुराने संदूक से गरम कपड़े बाहर निकाले हैं और बैठ गई है, सूई-धागा लेकर उनकी मरम्मत के लिए. चेहरे पर कुछ उदासी भी है और गुस्सा भी. इसी गुस्से में सूई कई बार ऊँगलियों की पोरों पर चुभ रही है. आखिर बेमन से ही सही गरम कपड़ों और फटी कथरी को दुरस्त कर वह बाहर आती है और सिर पर हाथ रखे, हताश बैठे दीनू को देखती है. अपना सारा गुस्सा भूल कर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरती है और पिछली बार की तरह इस बार भी दीनू उसके पोरों को अपने होठों से छूकर उसकी सारी पीड़ा मिटाने का प्रयास करता है. इस तरह से होता है एक गरीब की झोंपड़ी में ठंड का प्रवेश. ऑंखों में पीड़ा और भीतर तक सिहरन भरने वाली यह ठंड हर बार न जाने कितने ही गरीब और लाचारों को कँपकँपाती है, फिर भी जीते हैं वे, हँंसते हैं वे, धूप के साथ खिलखिलाते हैं और ठंडी सनसनाती हवाओं के साथ शाम की गहराई में थोड़ा-सा मायूस भी हो लेते हैं.
कहते हैं बच्चों को ठंड कम लगती है, लेकिन जब उन्हें ठंड लगती है, तो बहुत लगती है. इसे हर कोई समझता है. फिर भी फुटपाथ पर हजारों बच्चे हर साल किसी तरह अपने हिस्से की ठंड काट ही लेते हैं. ठंड काटने के लिए माँ का ऑंचल ही काफी होता है. 'पूस की रात' का हलकू तो एक कु ?ो के सहारे ही रात काट लेता है. ऐसे कई हलकू हमारे आसपास ही बिखरे पड़े हैं. जब ये पूरी शिद्दत के साथ ठंड का सामना करने निकलते हैं, तो ठंड भी एक बार सिहर उठती है, इनकी हिम्मत के आगे. फिर भी ठंड तो अपना असर दिखाती ही है. रेल्वे स्टेशन, बस स्टैण्ड या अन्य कोई सार्वजनिक स्थान पर सोए पड़े लोगों के मुँह से किटकिटाते स्वर के साथ निकलती ही रहती है. ऐसे लोगों का दिन तो किसी तरह निकल ही जाता है. कभी इन्हें रात गुंजारते देखा है किसी ने. पिताजी हमें अक्सर कहा करते कि जब हमें हमारा दु:ख बहुत बड़ा लगने लगे, तब हमें उन लोगों की तरफ देख लेना चाहिए, जिनके दु:ख हमसे भी बड़े हैं. कोई किसी जानवर के पास सोया हुआ है, गोया जानवर की गर्मी उसे मिल रही हो. शायद ऐसा ही जानवर भी सोचता है कि मुझे इससे गर्मी मिल रही है. ठंड और गर्मी के इस झगड़े में रात कट जाती है. सुबह फिर वही ंजिंदगी मुस्कराती हुई सामने खड़ी होती है.ये है टूटी-फूटी ंजिंदगी का एक टुकड़ा. ये टुकड़ा लिहाफों से दिखाई नहीं देता. बहुत गर्मी देता है, शायद यह लिहाफ. तभी तो इससे छुटकारा पाते ही लोग खुद को आग के सामने खड़ा पाते हैं या फिर किसी हीटर के सामने. ठंड में गर्मी बटोरते ये लोग यह भूल जाते हैं कि ठंड में एक समाजवाद होता है. ठंड सभी को उतनी ही लगती है, लिहाफ ओढ़ लो, तो भी ठंड लगेगी, एक जीर्ण-शीर्ण कथरी को चार लोग मिलकर ओढ़ लें, तो भी ठंड उतनी ही लगेगी. ठंड का स्वभाव भी बड़ा जिद्दी है, इसे जितना दूर भगाओ, उतनी ही करीब आती है. यदि इसके सामने सीना तानकर खड़े हो जाएँ, तो यह कोसों दूर भाग जाएगी. पर ठंड का आना हमेशा से ही डरावना रहा है. इस बार भी ठंड आई है और चुपके-चुपके अपना असर दिखा रही है.
ठंड में एक बात और है कि ये ठंड भाईचारा बढ़ा देती है. दो भाई दिन में कितना भी झगड़ें, पर रात में दोनों को एक-दूसरे का साथ चाहिए. छोटा भाई तो जब तक बड़े भाई के गरम पेट पर हाथ नहीं रखता, उसे नींद नहीं आती. स्टेशन पर सब लोग बहुत ही करीब होकर सोते हैं. उनमें किसी प्रकार का भेदभाव उस वक्त दिखाई नहीं देता. यही वह मौसम होता है, जो लोगों की दरियादिली को भी बताता है. ठिठुरते मासूम को कोई इंसान अपने कंबल या फिर कोट, स्वेटर आदि ओढ़ाकर आगे बढ़ जाता है. लोग उसे देखते हैं, भीतर-ही-भीतर उसकी इस हरकत पर हँस भी देते हैें. लेकिन उसे तो आगे बढ़ना होता है, वह आगे बढ़ जाता है. लोग उसका नाम जानना चाहते हैं, पर वह तो निकल जाता है. इसी क्रियात्मक रचना-संसार में किसान की सुबह का रुपहला सूरज ऊगता है और इंद्रधनुषी संध्या ढलती है. इसी अवधि में वह जीवन में आगे बढ़ने की ऊर्जा प्राप्त करता है और अपनी जीवटता का परिचय देता है.
ये थी ठंड की बात. पर जो सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, वह है, हमारे भीतर की सिकुड़ती गर्मी, जो हमें यह अहसास ही नहीं कराना चाहती कि ठंड जानलेवा भी हो सकती है, इसे आपस में बाँट लें, तो शायद उन मासूमों की घिसटती ंजिंदगी मेें कुछ पलों के लिए ही सही, गर्मी का अहसास होगा. ठंड बच्चों और बुंजुर्गों का ज्यादा लगती है. क्या हम उन्हें अपने हिस्से की गर्मी नहीं दे सकते. जरूरी नहीं कि वह गर्म कपड़ों के रूप में हो. आशा और विश्वास के रूप में भी हो सकती है, यह गर्मी. हमारा प्यार भरा हाथ उन मासूमों के सर पर चला जाए, बस उनकी तो ंजिंदगी ही सँवर गई. इसी तरह बुंजुर्गों के पास जाकर केवल उनके दु:ख-दर्द ही सुन लें, उनसे प्यार से बातें ही कर लें, उनके लिए तो यही है, सिमटती ंजिंदगी का एक ठहरा हुआ सच.....
डा. महेश परिमल
शनिवार, 20 अक्तूबर 2007
टूटे वादों को याद दिलाती, लो आ गई ठंड...
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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