गुरुवार, 4 अक्तूबर 2007

अब न ऐसी फिल्में न ऐसे भक्ति गीत

डा. महेश परिमल
एक बार सुबह-सुबह ही कहीं जाना हुआ। तब एक स्कूल के सामने से गुंजरते हुए सामूहिक रूप से प्रार्थना सुनाई दी. प्रार्थना के श?दों ने मन मोह लिया. यह एक फिल्मी गीत था, जिसके श?द थे- तू प्यार का सागर है....। इसी तरह कई फिल्मी गीत ऐसे हैं, जिसे गाकर हमें गर्व होता है। आज भी कई शालाओं में कई फिल्मी गीत प्रार्थना के रूप में गाए जाते हैं। जिन्हें गाते हुए मन में कई तरह के संकल्प और संवेदनाओं का प्रसार होता है। इन गीतों को सुनना भी एक सुखद अनुभूति है। मन की शांति या फिर किसी नए काम की शुरुआत में इस तरह की प्रार्थना का असर भी होता है, इसीलिए आज हर अच्छे काम की शुरुआत प्रार्थना से ही होती है।
पर आज के गीतों में वह बात नहीं रही, आज के गीत तो तुरंत भुलाए जाने वाले हो गए हैं। इन गीतों को मात्र कुछ ही दिनों तक गुनगुनाया जा सकता है, इनमें वह क्षमता ही नहीं है कि मन को शांति दे। अभी पिछले दिनों ने पाश्व्र गायक मन्ना डे ने एक साक्षात्कार में कहा कि आज गीत हें ही कहाँ? संगीत कहाँ है? के वल कोलाहल के सिवाय और कुछ नहीं है। मुम्बई के कोलाहल से दूर आजकल बेंगलोर में बसने वाले मन्ना दा की बातों में दम है। उनकी बात सत्य के धरातल के करीब है। जी टीवी के कार्यक्रम 'सारेगामापा' या इंडियन आइडियल कार्यक्रम में सुनो, अनु कपूर के लगभग 11 वर्ष से चलने वाले कार्यक्रम अंत्याक्षरी को याद करें, तो देखने को मिलेगा कि उसमें शामिल होने वाले कलाकार भी पुरानी फिल्मों की गीतों को बड़े ही चाव के साथ गाते हैं। विशेषकर 1950 से 1970 के दौरान जारी हुए गीत आज भी आम आदमी के काफी करीब के लगते हैं। जानकर आश्चर्य होगा कि न जाने कितनी मिशनरी कांवेंट स्कूलों में आज भी पुरानी हिंदी फिल्मों के भक्ति गीत प्रार्थना के रूप में बच्चों से गवाए जाते हैं।
कुछ ऐसे ही भक्ति गीतों की बात करें, आपको याद होगा, कुछ समय पहले संसद और विधानसभाओं में बंदे मातरम् गीत गाने को लेकर हंगामा हुआ था। बंकिमचंद्र चटोपाध्याय द्वारा लिखित यह गीत पहली बार फिल्म 'आनंदमठ' में शामिल किया गया, इसमें मातृभूमि को नमन् करने की भावना है। संस्कृत साहित्य में परम कृपालु परमात्मा को संबोधित एक श्लोक है- त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम देवदेव! इस श्लोक को केंद्र में रखकर फिल्म 'मैं चुप रहूँगी' (सुनील द?ा-मीनाकुमारी) में एक गीत था- तुम्ही हो माता पिता तुम्हीं हो, तुम्हीं हो बंधु सखा तुम्हीं हो। चित्रगुप्त के मधुर संगीत से सजा यह भक्ति गीत कांवेंट स्कूलों में हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, पारसी सभी बच्चे बड़े ही मनोयोग से गाते हैं। इस गीत को स्वर दिया है लता मंगेशकर ने।
इसी तरह का एक और भक्ति गीत फिल्म 'सीमा' में था, जिसके बोल हैं 'तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम, लौटा जो दिया तूने चले जाएँगे जहाँ से हम'. आज भी यह गीत कई कांवेंट स्कूलों में सुबह की प्रार्थना के रूप में गाया जाता है। फिल्म सीमा को रिलीज हुए करीब 45 साल हो चुके हैं, बलराज साहनी, नूतन, शंकर-जयकिशन में से आज कोई भी हमारे बीच नहीं है, इस गीत में आत्म निवेदन और शरणागति की जो भावना है, उसका कोई विकल्प नहीं है। इससे भी अधिक एक और फिल्मी गीत विशेष रूप से प्रचलित हुआ। वी. शांताराम की फिल्म 'दो ऑंखें बारह हाथ' का वह अमर गीत- ऐ मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हों हमारे करम, नेकी पर चलें और बदी से टलें, ताकि हँसते हुए निकले दम। भरत व्यास द्वार लिखे और वसंत देसाई द्वारा संगीतबध्द इस गीत को लता मुगेशकर और साथियों ने गाया। यह गीत उस समय भी काफी लोकप्रिय हुआ और आज भी स्कूलों में गाई जाने वाली प्रार्थना का स्थान रखती है।
इस गीत के बारे में वसंत देसााई ने विविध भारती से प्रसारित कार्यक्रम जयमाला में कहा है कि इस गीत को भरत व्यास ने किन परिस्थितियों में लिखा, मुझे नहीं मालूम, लेकिन यह सच है कि इस गीत के संगीत की रचना मैंने होश-हवाश में नहीं की है। इस गीत का संगीत आज यदि किसी को भाता है, तो इसका श्रेय ईश्वर को दिया जाना चाहिए, क्योंकि इस गीत की संगीत रचना में मेरा कोई योगदान नहीं है, मैं तो एक निमि?ा मात्र हूँ। मुझसे इस गीत की संगीत रचना सीधे ईश्वर ने कराई है, मैं तो इसकी रचना कर ही नहीं सकता,
इस तरह के गीतों की बात करें, तो मन्ना दा की बात में दम नजर आता है। अब तो इस तरह के गीतों की रचना एक सपना बनकर रह गई है। आजकल के गीतों को सुनकर भूत आने लगे हैं, ऐसा एक गीत को लेकर हाल ही में समाचारपत्रों में पढ़ा था। लेकिन अभी करीब बीस वर्ष पूर्व ही एक फिल्म आई थी 'अंकुश', जिसमें अभिलाष द्वारा लिखित एक गीत है- इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमजोर हो ना, हम चलें नेक रस्ते पर हमसे भूलकर भी कोई भूल हो ना। यह गीत भी आजकल भक्ति गीत के रूप में लोकप्रिय है। इसे गाने से सचमुच मन की शांति तो मिलती ही है। इसी तरह जया भादुड़ी की पहली फिल्म 'गुड्डी' में भी एक गीत था, जो आज भी कई शालाओं में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है. गीत के बोल हैं:- हमको मन की शक्ति दे, आज भी यह गीत सुनने में बहुत ही भला लगता है.
आज न तो वे गीत हैं, ना ही वे संगीत. शोर और केवल शोर को ही संगीत कहना ही आज की परंपरा बन गई है। लेकिन यह सब कुछ क्षणिक है, कुछ समय बाद हम सब फिर लौंटेंगे अपनी परंपरा को जीवित रखने वाले मधुर गीतों की ओर ......
डा. महेश परिमल

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