डॉ. महेश परिमल
प्रेम पत्र! वही प्रेम पत्र जो शकुन्तला ने कदम्ब के पत्तों पर नाखून से लिखकर दुष्यंत को दिया. वाटिका में कंगन में पड़ रही परछाई में सीता ने पढ़ा और एकांत में बाँसुरी की मीठी तान में राधा ने सुना. वही प्रेम पत्र या प्रेम संदेश, जो कैस ने रेगिस्तान की गर्म रेत पर ऊँगलियों की पोरों से लैला को लिखा. पानी की डूबती-उतराती लहरों के साथ सोहनी ने महिवाल को दिया. खेत की हरी-हरी लहलहाती फसलों को पार करते रांझा ने हीर तक पहुँचाया.
यह थी भावनाओं और संवेदनाओं की एक अनोखी दुनिया, जहाँ प्रेम और अपनापे की गुनगुनी धूप पत्तों से छनकर धरा तक पहुँचती थी. हृदय से हृदय के तार जुड़े होते थे. तब पत्र में अक्षरों के बीच लिखने वाले की छवि उभरती थी. पत्र पढ़ते हुए कभी ऑंखें भर आती थी, तो कभी मन खुशी से झूम उठता था. बिन पंखों के मन मयूर कल्पनाओं की ऊँची उड़ानें भर लिया करता था. अपने प्रेमी या प्रेमिका के हाथों लिखा वह पहला खत तो आप भी नहीं भूले होंगे. कितने ही बार उसके नाम को ऊँगलियों के पोरों से सहलाया होगा. अपने होठों से चूमा होगा. पढ़ा तो इतनी बार होगा कि लिखावट ऑंखों में नहीं, दिल में बस गई होगी. पत्र सिर्फ प्रेमी या प्रेमिका का ही नहीं होता, पत्र माता-पिता, भाई-बहन, स्नेहीजन, मित्रों सभी को एक डोर में बांधे रखते हैं. माता-पिता के पत्रों में जहाँ संतान के लिए लाड़-दुलार और आशीर्वाद होता है, तो वहीं स्नेहीजनों के पत्र कुछ संदेश देते हैं, अपनापन लिए हुए होते हैं. माँ की प्यार भरी पाती पढ़ते हुए भला हम अपने बचपन से दूर कैसे रह सकते हैं? पाती पढ़ते हुए, शद्वों की पगडंडियों पर पैर रखते हुए मन का हिरण कभी कुलाँचे भरता है, तो कभी ऑंखें अनायास ही बचपन की यादों में खो जाती है.
सच-सच बताएँगे आप, कितने दिन हो गए आपने अपने प्रियजनों को एक चिट्ठी तक नहीं लिखी? काफी दिन हो गए ना. अब तो याद भी नहीं कि आखिरी बार कब चिट्ठी लिखी थी? अब तो सारी बातें फोन या मोबाइल पर हो ही जाती है. हाल-चाल मालूम चल जाता है. क्या जरूरत है चिट्ठी लिखने की? सच कहा आपने, आप कतई गलत नहीं हैं. फोन पर कितना भी बतिया लें, पर जो प्यार स्नेह भरे पत्रों में उमड़ता है, वह भला फोन की मीठी वाणी में कहाँ? इसे महसूस किया कभी आपने? हम कितने भी 'एडवांस' क्यों न हो जाएं, पत्रोें की पवित्रता को नकार नहीं सकते. पत्र हृदय का दर्पण होते हैं. उसकी लिखावट हमें एक आत्मिक संतोष देती है, उससे हम भलीभाँति परिचित होते हैं. लिखावट सामने आते ही डूब जाते हैं अतीत की सुखद स्मृतियों में. आज भी हमारे पास ऐसे कई पत्र होंगे, जो अनमोल धन की तरह सुरक्षित होंगे ही. उसका एक-एक अक्षर हमें याद होगा. फिर भी हम उसे बार-बार पढ़ना चाहेंगे, आखिर क्यों? याद करो, जब हमें अपनी प्रेयसी या प्रेमी का पहला प्यार भरा, खुश्बू में सराबोर पत्र मिला था, तब मन में कितनी उमंगें थीं. आज भले ही वह पत्र ढूँढ़े न मिल रहा हो, पर उसकी खुश्बू से आप अब भी महक जाते होंगे. पत्र पाते ही उसे चूमा तो होगा ही. सहलाया भी होगा. रात में तकिये के नीचे रखकर सुखद नींद भी ली होगी. खैर छोड़ो, कभी जीवन के क्षेत्र में विफलता भी प्राप्त की होगी, तब माँ-पिताजी, भैया या भाभी, दीदी या छोटी बहना या किसी प्यारे से दोस्त का सांत्वना भरा पत्र तो मिला ही होगा आपको? सच बताएँगे, संबल देने वाले उस पत्र को पढ़ते हुए क्या आपकी ऑंखे नहीं डबडबाई होंगी? कोई गरीब माँ अपने अमीर बेटे को पत्र लिखती होगी या लिखवाती होगी, तो पत्र पाते ही बेटा स्वयं को व्यस्त बताते हुए पत्नी के सामने खीजते हुए कुछ रुपए मनीऑर्डर करने के लिए कह देता होगा, पर रात को चुपचाप अकेले में माँ की अनगढ़ लिखावट को गीली ऑंखों से चूमते हुए उस बेटे को देखा है भला? उस समय पत्र की संवेदना सीधे माँ-बेटे के बीच होती है. उस वक्त माँ से दुलार पाता है बेटा. तब बेटे को लगता होगा कितना गरीब हूँ मैं, चाँदी के इन चंद सिक्कों के बीच और कितनी अमीर है मेरी माँ, इन अनगढ़ अक्षरों के साथ. क्या आज ई-मेल, एसएमएस या चेटिंग के माध्यम से संवेदनाओं के तार इस तरह से जुड़ सकते हैं भला?
पत्र आत्मा की आवाज होते हैं, पत्र जीवन बदल देते हैं, पत्रों में केवल विचार ही नहीं होते, उसमें कोमल भावनाएँ भी होती हैं, जो संवेदनाओं के माध्यम से हमारे भीतर तक पहुँचती है. पत्र का एक-एक शद्व हमारे लिए मोती हो जाता है, जब वह किसी बेहद अपने का होता है. पत्र खोलते ही प्रेषक की जानी-पहचानी तस्वीर भी सामने आ जाती है. क्या एक जाने-अनजाने पत्र ने हमें तस्वीरों का चितेरा नहीं बना दिया? कई बार पत्र चुनौती देते से लगते हैं. उसका एक-एक शद्व हमें मुँह चिढ़ाता-सा लगता है. आवेश में हम उसे फाड़कर निकल भी पड़ते हैं, चुनौती को पूरा करने के लिए. शाम हताश हो कर लौटते हैं, देर रात चुपचाप पत्र के एक-एक टुकड़े को जोड़ने का प्रयास करते हैं, शद्वों की इबारत समझने की कोशिश करते हैं, पत्र में प्यार ढूँढ़ते हैं.
ऐसा केवल पत्रों में ही संभव है. पत्र में प्यार छुपा होता है, ममता की घनी छाँव होती है, माँ का दुलार होता है, पिता का आशीष, भैया का स्नेह, दीदी का प्यार और छोटे भाई-बहनों की चंचलता भी छिपी होती है. रही बात प्रेयसी या प्रेमी के पत्रों की, तो उसमें छलकता है, प्यार-प्यार और केवल प्यार. क्या आप भी आना चाहेंगे पत्रों की इस प्यार भरी दुनिया में? तो आइए .. स्वागत है. तो उठाइए कलम और लिखें एक पाती प्यार भरी.
डॉ. महेश परिमल
प्रेम पत्र! वही प्रेम पत्र जो शकुन्तला ने कदम्ब के पत्तों पर नाखून से लिखकर दुष्यंत को दिया. वाटिका में कंगन में पड़ रही परछाई में सीता ने पढ़ा और एकांत में बाँसुरी की मीठी तान में राधा ने सुना. वही प्रेम पत्र या प्रेम संदेश, जो कैस ने रेगिस्तान की गर्म रेत पर ऊँगलियों की पोरों से लैला को लिखा. पानी की डूबती-उतराती लहरों के साथ सोहनी ने महिवाल को दिया. खेत की हरी-हरी लहलहाती फसलों को पार करते रांझा ने हीर तक पहुँचाया.
यह थी भावनाओं और संवेदनाओं की एक अनोखी दुनिया, जहाँ प्रेम और अपनापे की गुनगुनी धूप पत्तों से छनकर धरा तक पहुँचती थी. हृदय से हृदय के तार जुड़े होते थे. तब पत्र में अक्षरों के बीच लिखने वाले की छवि उभरती थी. पत्र पढ़ते हुए कभी ऑंखें भर आती थी, तो कभी मन खुशी से झूम उठता था. बिन पंखों के मन मयूर कल्पनाओं की ऊँची उड़ानें भर लिया करता था. अपने प्रेमी या प्रेमिका के हाथों लिखा वह पहला खत तो आप भी नहीं भूले होंगे. कितने ही बार उसके नाम को ऊँगलियों के पोरों से सहलाया होगा. अपने होठों से चूमा होगा. पढ़ा तो इतनी बार होगा कि लिखावट ऑंखों में नहीं, दिल में बस गई होगी. पत्र सिर्फ प्रेमी या प्रेमिका का ही नहीं होता, पत्र माता-पिता, भाई-बहन, स्नेहीजन, मित्रों सभी को एक डोर में बांधे रखते हैं. माता-पिता के पत्रों में जहाँ संतान के लिए लाड़-दुलार और आशीर्वाद होता है, तो वहीं स्नेहीजनों के पत्र कुछ संदेश देते हैं, अपनापन लिए हुए होते हैं. माँ की प्यार भरी पाती पढ़ते हुए भला हम अपने बचपन से दूर कैसे रह सकते हैं? पाती पढ़ते हुए, शद्वों की पगडंडियों पर पैर रखते हुए मन का हिरण कभी कुलाँचे भरता है, तो कभी ऑंखें अनायास ही बचपन की यादों में खो जाती है.
सच-सच बताएँगे आप, कितने दिन हो गए आपने अपने प्रियजनों को एक चिट्ठी तक नहीं लिखी? काफी दिन हो गए ना. अब तो याद भी नहीं कि आखिरी बार कब चिट्ठी लिखी थी? अब तो सारी बातें फोन या मोबाइल पर हो ही जाती है. हाल-चाल मालूम चल जाता है. क्या जरूरत है चिट्ठी लिखने की? सच कहा आपने, आप कतई गलत नहीं हैं. फोन पर कितना भी बतिया लें, पर जो प्यार स्नेह भरे पत्रों में उमड़ता है, वह भला फोन की मीठी वाणी में कहाँ? इसे महसूस किया कभी आपने? हम कितने भी 'एडवांस' क्यों न हो जाएं, पत्रोें की पवित्रता को नकार नहीं सकते. पत्र हृदय का दर्पण होते हैं. उसकी लिखावट हमें एक आत्मिक संतोष देती है, उससे हम भलीभाँति परिचित होते हैं. लिखावट सामने आते ही डूब जाते हैं अतीत की सुखद स्मृतियों में. आज भी हमारे पास ऐसे कई पत्र होंगे, जो अनमोल धन की तरह सुरक्षित होंगे ही. उसका एक-एक अक्षर हमें याद होगा. फिर भी हम उसे बार-बार पढ़ना चाहेंगे, आखिर क्यों? याद करो, जब हमें अपनी प्रेयसी या प्रेमी का पहला प्यार भरा, खुश्बू में सराबोर पत्र मिला था, तब मन में कितनी उमंगें थीं. आज भले ही वह पत्र ढूँढ़े न मिल रहा हो, पर उसकी खुश्बू से आप अब भी महक जाते होंगे. पत्र पाते ही उसे चूमा तो होगा ही. सहलाया भी होगा. रात में तकिये के नीचे रखकर सुखद नींद भी ली होगी. खैर छोड़ो, कभी जीवन के क्षेत्र में विफलता भी प्राप्त की होगी, तब माँ-पिताजी, भैया या भाभी, दीदी या छोटी बहना या किसी प्यारे से दोस्त का सांत्वना भरा पत्र तो मिला ही होगा आपको? सच बताएँगे, संबल देने वाले उस पत्र को पढ़ते हुए क्या आपकी ऑंखे नहीं डबडबाई होंगी? कोई गरीब माँ अपने अमीर बेटे को पत्र लिखती होगी या लिखवाती होगी, तो पत्र पाते ही बेटा स्वयं को व्यस्त बताते हुए पत्नी के सामने खीजते हुए कुछ रुपए मनीऑर्डर करने के लिए कह देता होगा, पर रात को चुपचाप अकेले में माँ की अनगढ़ लिखावट को गीली ऑंखों से चूमते हुए उस बेटे को देखा है भला? उस समय पत्र की संवेदना सीधे माँ-बेटे के बीच होती है. उस वक्त माँ से दुलार पाता है बेटा. तब बेटे को लगता होगा कितना गरीब हूँ मैं, चाँदी के इन चंद सिक्कों के बीच और कितनी अमीर है मेरी माँ, इन अनगढ़ अक्षरों के साथ. क्या आज ई-मेल, एसएमएस या चेटिंग के माध्यम से संवेदनाओं के तार इस तरह से जुड़ सकते हैं भला?
पत्र आत्मा की आवाज होते हैं, पत्र जीवन बदल देते हैं, पत्रों में केवल विचार ही नहीं होते, उसमें कोमल भावनाएँ भी होती हैं, जो संवेदनाओं के माध्यम से हमारे भीतर तक पहुँचती है. पत्र का एक-एक शद्व हमारे लिए मोती हो जाता है, जब वह किसी बेहद अपने का होता है. पत्र खोलते ही प्रेषक की जानी-पहचानी तस्वीर भी सामने आ जाती है. क्या एक जाने-अनजाने पत्र ने हमें तस्वीरों का चितेरा नहीं बना दिया? कई बार पत्र चुनौती देते से लगते हैं. उसका एक-एक शद्व हमें मुँह चिढ़ाता-सा लगता है. आवेश में हम उसे फाड़कर निकल भी पड़ते हैं, चुनौती को पूरा करने के लिए. शाम हताश हो कर लौटते हैं, देर रात चुपचाप पत्र के एक-एक टुकड़े को जोड़ने का प्रयास करते हैं, शद्वों की इबारत समझने की कोशिश करते हैं, पत्र में प्यार ढूँढ़ते हैं.
ऐसा केवल पत्रों में ही संभव है. पत्र में प्यार छुपा होता है, ममता की घनी छाँव होती है, माँ का दुलार होता है, पिता का आशीष, भैया का स्नेह, दीदी का प्यार और छोटे भाई-बहनों की चंचलता भी छिपी होती है. रही बात प्रेयसी या प्रेमी के पत्रों की, तो उसमें छलकता है, प्यार-प्यार और केवल प्यार. क्या आप भी आना चाहेंगे पत्रों की इस प्यार भरी दुनिया में? तो आइए .. स्वागत है. तो उठाइए कलम और लिखें एक पाती प्यार भरी.
डॉ. महेश परिमल