बुधवार, 24 अक्तूबर 2007

हिमालय भी थर्रा उठेगा भावी भूकम्प से.....
डा. महेश परिमल
भूकंप ने हमारे देश ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के माथे पर तबाही की इबारत लिखी है. देश-देशांतर में भूकंप जब भी आया, तबाही ही लाया. यह एक ऐसा दुश्मन है, जो हमेशा बिना निमंत्रण के आ धमकता है. इंसान इस विषय पर कुछ सोचे, इसके पहले ही उसका समूचा अस्तित्व ही बिखरकर रह जाता है. उसके सपने जमींदोज हो जाते हैं. रह जाती हैं, केवल कुछ स्मृतियाँ, खंडहर के रूप में. लेकिन अभी तक इंसान न तो लातूर से, न ही भुज से और न ही हाल ही में भारत-पाकिस्तान की सीमा पर आए भूकंप से कुछ सीख पाया है. वह तो यह सोचता है कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, ऊँची इमारतों पर नहीं रहना है. पर जब शहर में बाढ़ का पानी एक-दो माले तक पहुँच जाता है, तब वह फिर कहता है, इससे तो अच्छा है, ऊँची से ऊँची इमारतों में ही रहा जाए. मानव की इसी प्रवृत्ति के सामने प्रकृति भी अपना खेल खेलती है.
मानव नहीं मालूम कि हिमालय पर्वत क्षेत्र में एक प्रचंड भूकंप का खतरा मँडरा रहा है. भारत और ति?बत हर साल दो सेंटीमीटर करीब आ रहे हैं. जमीन में होने वाली इस हलचल के कारण हिमालय के गर्भ में भारी उथल-पुथल हो रही है. धरती के भीतर दबाव लगातार बढ़ रहा है. ये दबाव भूकंप के रूप में हमारे सामने आएगा. तब होगी भारी तबाही. लाखों मौत वाली तबाही. क्षति का अंदाजा लगाते-लगाते ही सालों बीत जाएँगे. यह हम नहीं कह रहे हैं, अमेरिका की 'साइंस' पत्रिका में इस तरह की चेतावनी दी गई है. पिछले तीस वर्षों से भूकंप पर शोध करने वाले कॉलराडो युनिवर्सिटी के प्रोफेसर रोजर बिलहैम ने यह बताया है कि हिमालय की उत्प?ाि ही भूकंप के कारण हुई है.
भूकंप के बारे में यह कहा जाता है कि वह कुछ ही देर का मेहमान होता है, लेकिन ंजिंदगी भर की कसर निकाल लेता है. भूकंप के बाद जो लोग बच जाते हैं, उनकी पीड़ा को समझना आसान नहीं है, क्योंकि उन्होंने ही देखा है एक पल में हँसते-खेलते परिवार को मिट्टी में मिलते. जिस मकान को बनाने में उम्र निकल जाती है, वही कुछ ही क्षणों में मिट्टी और पत्थर के ढेर में त?दील हो जाता है. कितना मुश्किल होता है, इस तरह का जीना. शायद इसे ही कहते हैं जीते-जी मरना. इस पीड़ा की इबारत आज लातूर, कच्छ और भारत-पाकिस्तान की सीमा पर देखी जा सकती है. भुज में आज जहाँ एक ओर खंडहर अपनी तबाही की कहानी कह रहे हैं, वहीं नई बनी हुई ऊँची-ऊँची इमारतें यही कहती हैं कि जिजीविषा कभी समाप्त नहीं होती.
आइए अब हिमालय के बारे में बात करें. हिमालय का इतिहास ऐसा है कि आज से साढ़े पाँच करोड़ वर्ष पहले भारतीय और आस्ट्रेलियन धरती की सतह अलग हो गई थी. इसमें से एक सतह यूरेशिया की सतह से टकराई थी, इसी प्रचंड टक्कर के कारण हिमालय की उत्प?ाि हुई. हिमालय को दूसरी तरह से देखें, तो यह कहा जा सकता है कि हिमालय ऐसे स्थान पर है, जहाँ धरती की दो सतह आपस में मिल गई है. हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में भूकंप के छोटे-छोटे झटके लगते ही रहते हैं. इससे होने वाले कंपन के कारण ही ऐसा कहा जाता है कि हिमालय पर्वत की ऊँचाई में घट-बढ़ हो रही है, यह एक विवाद का विषय है. पिछले 100-125 वर्षों के दौरान हिमालय के क्षेत्र में पाँच से छह बड़े भूकंप आए हैं. हिमालय क्षेत्र के शिलांग में 1897 ईस्वी में एक जबर्दस्त भूकंप आया था, उसके बाद 1905 में काँगड़ा, 1934 में बिहार-नेपाल सीमा क्षेत्र में और 1950 पूर्वो?ार आसाम में बड़े भूकंप आए थे.
हिमालय में आने वाले प्रचंड भूकंप के बारे में प्रोफेसर रोजर बिलहैम कहते हैं कि भारत और ति?बत हर साल दो सेंटीमीटर करीब आ रहे हैं. इसका सीधा असर जमीन के अंदर हो रहा है. फलस्वरूप हिमालय के भीतर दबाव बढ़ रहा है. ये दबाव जब बहुत अधिक बढ़ जाएगा, तब थर्रा उठेगा समूचा हिमालय. इस भूकंप की सही अवधि किसी को नहीं मालूम, पर सभी जानते हैं कि वह आएगा अवश्य. यह एक-दो वर्ष में भी आ सकता है और तीस-चालीस साल में. अमेरिका की 'साइंस' पत्रिका की कवर स्टोरी मेें यह स्पष्ट कहा गया है कि इस भूकंप से दो लाख लोगों की मौत होगी. इसके बाद हिमालय क्षेत्र का नक्शा ही बदल जाएगा. पर्यावरण का तो नुकसान होगा ही, पर भौगोलिक रूप से हिमालय ऋतु चक्र को भी बदल देगा.
रुड़की में देश का एकमात्र भूकंप इंजीनियरिंग सेंटर है. इस सेंटर के वैज्ञानिक भी हिमालय पर आने वाले भूकंप की बात का समर्थन करते हैं. यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि भूकंप का असर इंसानों पर कम से कम हो, इसका अभी तक एक छोटा सा भी प्रयास नहीं हुआ है. यह सर्वविदित है कि धरती के अंदर होने वाले रासायनिक बदलाव के कारण ही भूकंप आते हैं. इसी बदलाव के कारण धरती की सतह ठंडी और गरम होती रहती है. धरती की सतह पर दबाद बढ़ता है और इसी दबाव को दूर करने के लिए प्रकृति के पास एक ही समाधान है, वह है भूकंप.
भूकंप में दो बातें महत्वपूर्ण है पहला है भूकंप का एपी सेंटर. एपी सेंटर याने भूकंप का मुख्य केंद्र. इस केंद्र के पास सबसे अधिक कंपन उत्पन्न होता है. केंद्र के आसपास आने वाले अधिकांश गाँव जमींदोज हो जाते हैं, इसके बाद दसूरी महत्वपूर्ण बात यह हे कि इस दौरान धरती के अंदर से प्रचंड ऊर्जा फूटती है, इसी कारण धरती के कंपन में घट-बढ़ होती है. यदि ऊर्जा का प्रवाह अधिक हो, तो अधिक समय तक कंपन महसूस किया जाता है. भूकंप का केंद्र धरती के अंदर कहाँ तक है, उस पर भूकंप की तीव्रता आधारित होती है. भूकंप दो रूपों में हमारे सामने आता है. सामान्य रूप से भूकंप धरती के नीचे 30 से 100 किलोमीटर के अंदर होता है. जबकि दूसरे रूप में 100 से 650 किलोमीटर नीचे होता है. भूकंप के समय उसका केंद्र बिंदु अधिक नीचे न होने पर नुकसान की संभावना अधिक होती है. फिर भी भूकंप के नुकसान से कोई भी बच नहीं पाया है.
भूकंप आता है तो वह अपने आगमन की सूचना अवश्य देता है. पर अभी तक इंसान ही इस सूचना को समझ नहीं पाया है. हाँ पशु-पक्षियों के स्वभाव में होने वाले परिर्व?ान से यह पता लगाया जा सकता है कि भूकंप आने वाला है. यही नहीं साँप को भी पता चल जाता है कि भूकंप आने वाला है. उसके शरीर की बनावट ही ऐसी है कि धरती के कंपन को सबसे पहले वही महसूस करता है. इसके बाद पशु-पक्षियों में इसका असर होता है. वे सभी सुरक्षित स्थान पर चले जाते हैें. भूकंप के बारे में इतने वर्षों से शोध करने वाले क्या पशु-पक्षियों और साँपों पर शोध नहीं कर सकते. क्या यह विद्या ये पशु-पक्षी अपने साथ ही ले जाएंगे? अभी भी समय है इंसान यदि इसी तरह प्रकृति से छेड़छाड़ करता रहा, तो उसकी यह हरकत पीढ़ी-दर-पीढ़ी भोगती रहेगी, यह तय है.

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