सोमवार, 15 अक्तूबर 2007

अपने विचारों को अपना अभिन्न मित्र किस तरह बनाओगे?

डा. महेश परिमल
मैं लाख कोशिश करता हूँ, पर मनमाफिक फल नहीं मिलता, मुझे लगता है कि मैं अकेला हो गया हूँ। ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है। कोई मेरा साथ क्यों नहीं देता। एक निराश व्यक्ति के मुख से निकली ये बात उसकी असफलता को तो दर्शाती ही है, साथ ही उसके अकेलेपन को भी सामने लाती है।
वास्तव में यदि आदमी को अपने अकेलेपन से या असफलता से बचना हो, तो अपने विचारों को ही अपना अभिन्न मित्र बनाना चाहिए। प्राय: व्यक्ति आधा-अधूरा सोचकर ही अपनी बात कह देता है, इतना ही नहीं, वह जो भी कहता है, उसमें उत्साह का रंग, आनंद की अमृत बूँदे और आत्मीयता की उष्मा की कमी होती है। जब उसके श?द केवल होठों को छूकर निकलते हैं, तो उसमें दंभ या अहं का भाव दिखाई देता है और जब ये ही श?द हृदय से निकलते हैं, तो सामने वाले व्यक्ति को अपनत्व से भिगो देते हैं। ये अपनापन श?दों में कब समाएगा? उसी समय जब व्यक्ति बोलने से पहले विचार करेगा, उन्हें अपना अभिन्न मित्र बनाएगा।
व्यक्ति दूसरों के विचारों को पढ़ने में तो कुशल होता है। एक बार में ही अंदाजा लगा लेता है कि सामने वाला उसके बारे में क्या सोच रहा है। या फिर फलां व्यक्ति की सोच फलां व्यक्ति के लिए क्या है, ये सारे समीकरण वह अपने भीतर हल कर लेता है, किंतु जब स्वयं को जानने का समय आता है, तो वहाँ वह निष्फल हो जाता है। स्वयं के बारे में कोई अंदाजा नहीं लगा पाता। व्यक्ति को दूसरों के विचार पढ़ने से पहले अपने विचारों को पढ़ना सीखना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने ध्येय की पूर्ति के लिए अपने अंदर एक दृष्टिकोण विकसित करना होता है। एक प्रेरणादायी मनोचिकित्सा, जो ध्येय प्राप्ति में सहायक होती है। जब हम भीतर से खाली होंगे और दुनिया को अपने विचारों से भर देने की कोशिश करेंगे तो हमारे सारे प्रयास व्यर्थ चले जाएँगे। हमारे भीतर से उफनते उत्साह का प्रपात ही दूसरों में उत्साह के फव्वारे की रचना करेगा। यदि हम स्वयं को एकदम तुच्छ समझेंगे, तो दूसरे भी हमारी उपेक्षा करने में जरा भी देर नहीं करेंगे। हमारे भीतर कार्य करने की, सफलता प्राप्त करने की, उसे सँभाले रखने की और उसकी श्रेष्ठता को क्रमश: विकसित करने की अद्भुत शक्ति छिपी हुई है, इस विचार के साथ जो समर्पित भाव से हर कार्य की तैयारी करता है, वह कभी असफल नहीं होता और अपने लक्ष्य पर पहुँचकर ही दम लेता है।
व्यक्ति को अपने जीवन में हर मोड़ पर दो रास्ते मिलते हैं। उसे उनमें से किसी एक को चुनना होता है। विकल्प हमेशा हमारे साथ होता है। बस तय करना है कि हमें उनमें से किसे चुनना है। इन दो रास्तों में एक छोटा रास्ता होता है, जो समय कम लेता है और आसान होता है, लेकिन यह रास्ता आगे चलकर परेशानियाँ ही देता है तथा उस रास्ते पर चलकर सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। दूसरा रास्ता कठिन होता है, उसमें समय भी अधिक लगता है, लेकिन यही वह रास्ता होता है, जिस पर चलने से सफलता प्राप्त होती है, सुकून मिलता है। इस रास्ते पर चलने वाले को देर से ही सही, पर मंजिल मिल ही जाती है और वे मील का पत्थर साबित होते हैं।
इसे ही दूसरे श?दों में इस तरह से कहा जा सकता है कि जो डूबना जानते हैं, सफलता का मोती उन्हें ही मिलता है। सागर किनारे केवल लहरों को देखकर या पानी में पाँव डालकर बैठे रहने से सागर की गहराई नहीं नापी जा सकती। इसके लिए तो गहराई में उतरना ही पड़ता है। इसी तरह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होना हो तो, उस क्षेत्र की सारी जानकारी अपने पास रखनी चाहिए, उस क्षेत्र से जुड़ी जितनी अधिक जानकारियाँ आपके पास होंगी, आपकी सफलता उतनी ही मजबूत होगी। याद रखे जीवन में वे ही लोग सफल होते हैं, जो ऊर्जा से भरे होते हैं। निराश और हताश लोग सारे काम को बोझ मानकर करते हैं, इसलिए विफल हो जाते हैं। जो काम दिल से किया जाता है, वह काम काम न होकर ईश्वर की सच्ची पूजा की तरह होता है, जो हमें सफलता दिलाता है। जब भी किसी से मिलें, तो सामने वाले को लगना चाहिए कि उससे कोई मिल रहा है, तो दिल से मिल रहा है, कुछ कहें तो आपके होठों से नहीं दिल से आवाज निकलनी चाहिए। आभार प्रदर्शन हो या फिर अभिनंदन के उद्गार, यदि उसमें उत्साह, उष्मा, आनंद और उल्लास न हो, तो वह सब एक औपचारिकता मात्र ही रह जाती है।
इंसान किसी काम का श्रेय लेने के लिए सबसे आगे होता है, पर किसी और को श्रेय देने में काफी देर कर देता है। हर कोई सोचता है कि उसे महत्वपूर्ण माना जाए, उसकी पूछ-परख बढ़े, हर कोई उसका सम्मान करे। पर इंसान को इस स्थिति तक आने में काफी समय लग जाता है, इसके लिए उसे कई समझौते करने पड़ते हैं। इस स्थान तक पहुँचने वाले किसी भी व्यक्ति के जीवन में यदि झाँकने का प्रयास किया जाए, तो एक बात स्पष्ट होगी कि उन्होंने जिसकी भी प्रशंसा की, दिल खोलकर की, प्रशंसा करने में उन्होंने न कभी देर की और न ही श?दों को खर्च करने में कंजूसी बरती। कई बार अच्छा काम करने वाला व्यक्ति केवल इसलिए निराश हो जाता है कि उसे जो प्रतिसाद मिला, उसमें मंजा नहीं आया, लोगों ने प्रशंसा तो की, पर अधिकांश ने अपने विचार व्यक्त करने में कंजूसी बरती। कुल मिलाकर उसे अच्छा काम करने के बाद भी सही प्रोत्साहन नहीं मिला, इसलिए उसका निराश होना स्वाभाविक होता है। यदि किसी बच्चे ने अपना सबक अच्छे से कर लिया और उसके पालक ने उसे शाबासी दी, तो वह आगे भी अपना सबक अच्छे से कर लेता है, पर यदि उसे शाबासी नहीं मिलती,तो उसका निराश होना स्वाभाविक है।
यह संसार आनंद की लहलहाती फसल काटने के लिए जितना उतावला और उत्साहित होता है, यदि ये ही उत्साह वह आनंद की फसल ऊगाने में दिखाए, तो आज पूरे संसार में संबंधों की हरितिमा छा जाती। साधु-संत दान के भूखे होते हैं, अमीर व्यक्ति शान का भूखा होता है और एक आम आदमी अपने से बड़ों के मान का भूखा होता है। प्रशंसा के दो श?द इंसान के कमाऊ पुत्र की तरह होते हैं, इससे इंसान को बहुत सारा ऐसा धन प्राप्त होता है, जिसे जितना अधिक खर्च करो, वह उतना ही बढ़ता है। धन से किसी को आकर्षित तो किया जा सकता है, पर इसका आकर्षक बहुत जल्द खत्म भी हो जाता है, दूसरी ओर धन में सच्चा प्रेम, सच्चा मान और सच्ची आत्मीयता पैदा करने की क्षमता नहीं है। ओढे हुए मान-सम्मान और स्वस्फूर्त मान में जमीन-आसमान का अंतर होता है।
जिन्हें मन की शांति चाहिए, उन्हें धन खर्च करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उन्हें तो अपने भीतर के अपार स्नेह को सेवा के माध्यम से लुटाना पड़ता है, तभी मिलती है मन की शांति। आज प्रकृति मानव को उच्च कोटि का मानव बनाने के लिए आतुर है, किंतु अपनी वैचारिक संकीर्णता के कारण यही मानव आज निम्न कोटि की कतार में खड़ा हो गया है। इसके बाद भी यदि मानव ने खुद को ही अपना मित्र नहीं बनाया, तो उसे अकेलेपन के सिवाय और कुछ भी नहीं मिलेगा।
डा. महेश परिमल

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