डॉ. महेश परिमल
मेरी सात साल की बिटिया के साथ परेशानी यही है कि वह रोज सुबह सोकर उठने में कोताही करती है. सुबह से ही शुरू हो जाता है उसे लेकर पत्नी का बड़बड़ाना. इस कारण सुबह से ही सबका मूड खराब होना स्वाभाविक है. ऐसे में हमें एक उपाय सूझा, क्यों न इसे सोने ही दिया जाए, देखते हैं बिटिया कितनी देर तक सोती है? एक दिन वही फार्मूला अपनाया. हमने देखा कि बिटिया सुबह पूरे सवा नौ बजे तक सोती रही. रोज सुबह साढ़े छह बजे सोकर उठने वाली बिटिया यदि बेफिक्री से सोये, तो वह ढाई घंटे तक और सो सकती है. याने अपनी रोजमर्रा की नींद से भी अधिक. उस दिन वह स्कूल तो नहीं गई, पर सोकर न उठने और स्कूल न जाने का दु:ख उसे बहुत हुआ.
उस नन्हीं जान को सोता देखकर मुझे लगा कि कितना अत्याचारी हो गया हूँ मैं. अपने बच्चों को स्वाभाविक नींद भी नहीं दे पाया. यह भारत का भविष्य सोना चाहता है, हम उसे सोने नहीं देना चाहते. हम यह अच्छे से जानते हैं कि उसके इस तरह से सोने से उसकी पढ़ाई का हर्जा हो रहा है, पर हमें उसकी स्वाभाविक जीवन का ंजरा भी खयाल नहीं है. एक मशीन की तरह रोज सुबह उठना, तैयार होना, स्कूल जाना और दोपहर में बस्ते के बोझ के साथ होमवर्क का बोझ लिए हुए बच्ची जब घर आती है, तब उसकी तकलीफ को देखने के लिए हम घर पर नहीं होते. वह वक्त हमारी नौकरी का होता है. इसलिए जान भी नहीं पाते कि आखिर उसकी तकलीफ क्या है. शाम को घर आकर हम उसे सोता हुआ पाते हैं, उसके उठते ही उससे पूछते हैं कि कितना होमवर्क मिला, पहले उसे पूरा करो, फिर खेलने जाना. बच्ची हमारी आज्ञा का पालन करती है.
सोचता हूँ कितने निष्ठुर हो गए हैं, आज के पालक, इस शिक्षा के आगे. आज की शिक्षा उसे ज्ञानी बना रही है, इसमें कोई शक नहीं, पर यह भी सच है कि उसे व्यावहारिक नहीं बना पा रही है यह शिक्षा. इसे आजमाना हो, तो उसे ंजरा पास की दुकान भेजकर देखो, कुछ सामान खरीदने. गणित में सौ में से नम्बर लाने वाले बच्चे को दुकानदार सामान कम देकर और कुछ रुपए की गफलत करके कैसे लूट लेता है?
हम पालक यह भूल गए हैं कि आज की शिक्षा के पीछे मैकाले का गणित किस तरह काम कर रहा है. मैकाले सचमुच का दूरद्रष्टा था, तभी तो उसने कह दिया था कि भारत की भावी पीढ़ी जन्म से भारतीय होगी, लेकिन उसकी सोच मेें ऍंगरेजियत होगी. वह पीढ़ी वही सोचेगी जो ऍंगरेज चाहेंगे. आज उसकी भविष्यवाणी सच साबित हो रही है. कितने गुलाम हो गए हैं, हम आज ऍंगरेजी के. इसके बिना जीवन का कोई काम भी संभव नहीं है. इस तरह से देश की मातृभाषा हिंदी को अच्छी तरह समझने वाले व्यक्ति को अपने बच्चे से ही पूछना पड़ता है कि सरकार के इस नोटिस में आखिर क्या लिखा है? विडम्बना यह है कि बच्चे को कभी हिंदी सही ढंग से समझने की जरूरत ही नहीं पड़ती. इसलिए वह अपने पालक या पिता से हिंदी के बारे में कुछ भी नहीं पूछता. जबकि पिता चाहता है कि बच्चा उससे हिंदी के बारे में कुछ पूछे, पर यह स्थिति कभी नहीं आती, अलबत्ता पिता को बार-बार बच्चे से कुछ न कुछ पूछने की नौबत आती ही रहती है.
आज अगर बच्चा हिंदी में कमजोर है, तो किसी पालक को कोई चिंता नहीं होती. कोई फर्क नहीं पड़ता, यह सोच काम करने लगती है. पर यदि वही बच्चा ऍंगरेंजी में कमजोर हो जाए, तो पालक किसी अच्छे टयूटर की तलाश में लग जाते हैं. जहाँ देखो, वहाँ ऍंगेरंजी की घुसपैठ. इस पर तुर्रा यह कि ऍंगरेजी के अलावा आपको कितनी भारतीय भाषाएँ आती हैं. इसमें भारतीय भाषा का मतलब हुआ कि कितनी क्षेत्रीय भाषाढँ या बोलियाँ आती हैं. गोया इसमें हिंदी तो कहीं लगती ही नहीं.
हम तो इस ऍंगरेंजी के गुलाम हो ही गए, पर हमने अपने बच्चों को भी नहीं दोड़ा, वे तो पूरी तरह से इस भाषा में रच-बस गए. इससे हमारी तकलीफ बढ़ गई, हम उसे भारतीय संस्कृति के माध्यम से कुद बताना चाहते हैं, पर उसे वह ऍंगरेंजी माध्यम से समझना चाहता है. ऍंगरेंजी कितनी संस्कारवान भाषा हे, इसे तो बताने की आवश्यकता नहीं. इसी ऍंगरेजी के मोह में पड़कर हमने अपने बच्चों का बचपन छीन लिया है. आज वे न तो भारतीय संस्कृति को समझ पाए हैं और न ही पाश्चात्य संस्कृति. दो पाटों के बीच रहकर उनकी स्थिति की कल्पना शायद हम नहीं कर सकते, इसकी पीड़ा वे ही समझते हैं. पर वे अपनी इस पीड़ा को कहें भी तो किससे? उनका सारा समय तो स्कूल, होमवर्क, टयूशन और खेल में ही बीत जाता है. यदि थोड़ा समय बचता भी है, तो उसे हमारे घर के बुध्दू बक्से ने ले लिया है. यह बक्सा उसे इस तरह से शिक्षित कर रहा है कि उसे कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं है. वह खूब समझता है.
श्राध्द पक्ष के दौरान आने वाले हिंदी दिवस को हम याद तो कर ही लेते हैं. इस तरह से मानो उसी का श्राध्द मना रहे हों. ऐसा केवल हिंदी के लिए ही देखा-सुना गया है कि एक भाषा के लिए हमें दिवस मनाने की आवश्यकता पड़ती है. इस ऍंगरेंजी ने हमें कहीं का नहीं रखा, हम इसके शिक्षारूपी शिकंजे में लगातार कसते जा रहे हैं, हमारी छटपटाहट किसी काम की नहीं. हमारी संतान हमारी पीड़ा को नहीं समझ सकती, क्योंकि हमने उसे जो माहौल दिया है, उसमें संवेदनाओं की कोई जगह नहीं है.
शिक्षा बुरी नहीं होती, कदापि बुरी नहीं होती, अगर कुछ ंगलत है तो वह है हमारी सोच. हमारी अपेक्षाएँ. जिसके कारण आज हम किसी के भी नहीं हो पा रहे हैं. किसी के क्या हम तो स्वयं अपने भी नहीं हो पाए. बच्चों की पीड़ा उनकी है, हमने नहीं समझा या समझना ही नहीं चाहा, पर अपनी पीड़ा किससे कहें? है किसी के पास इसका जवाब?
डॉ. महेश परिमल