सोमवार, 29 अक्तूबर 2007

बहुत याद आती है माँ के हाथ की रोटियाँ

डा. महेश परिमल
जीवन की गति बहुत तेज है. हम सब भाग रहे हैं. आपाधापी के इस युग में हमें किसकी तलाश है, हमें यह भी नहीं पता. हमारी दौड़ जारी है. सभी भाग रहे हैं, कोई नहीं बता पाता कि वह आखिर किसके लिए भाग रहा है. यह सच है कि इस दौड़ के पीछे कहीं न कहीं अर्थ का एक हिस्सा अवश्य है. अर्थ याने धन. यही धन की लालसा ही हमें भागने को विवश करती है. धनलिप्सा के कारण हमें आज चैन नहीं है. हम दुनिया के सारे ऐश्वर्य की वस्तुएँ पल में ले लेना चाहते हैं. आज के संसाधन भी ऐसे हो रहे हैं, जो इन सारी सुख-सुविधाओं को पल भर में आपके कदमों में बिछा देने का दंभ भरते हैं. यह एक मायावी दुनिया है, बिना परिश्रम के सब-कुछ मिल जाना एक धोखा है, अपने आप से. बिना परिश्रम के मिली वस्तु का हम उतना सम्मान नहीं कर पाएँगे, जितना हम मेहनत से प्राप्त किए गए धन और उससे खरीदी गई वस्तु का.
मेरे एक मित्र हैं, जो वर्ष में आठ महीने विदेश में रहते हैं और चार महीने महानगर में. जहाँ उसे दो दिन का अवकाश मिला, वे आ जाते हैं, अपने छोटे से शहर में. मुझे उनके आने का पता चल जाता है. घर पर फोन करो, तो उसकी माँ कहती है कि वह सो रहा है. ऐसा हर बार होता है. एक दिन मैंने उसे पकड़ लिया और पूछ ही लिया कि वह यहाँ सोने ही आता है या लोगों से मिलने? तब उसने जो मुझसे कहा वह किसी रहस्य से कम नहीं था. उसने बताया-मैंने ंगरीबी को समझा है. आज मैं भाग रहा हूँ, सचमुच भाग रहा हूँ, हर किसी को भागता देख रहा हूँ. चाहे वह महानगर हो या फिर विदेश का कोई शहर. यदि महानगर के लोग दौड़ रहे हैं, तो विदेश के लोग भाग रहे हैं. इन्हीं के साथ मैं भी कदमताल कर रहा हूँ, क्योंकि मैं बहुत-सा धन कमाना चाहता हूँ. इसके पीछे मेरा उद्देश्य यही है कि मेरे माता-पिता को किसी प्रकार का कष्ट न हो. इसी कारण मैंने शादी नहीं की. रही बात यहाँ आकर सोने की, तो भाई इस भाग दौड़ में मैं सो भी नहीं पाता. महानगर में काम के बाद यदि वक्त मिल गया, तो इधर-उधर जाकर कहीं कुछ खा लिया, सो खा लिया. मैं तो अवकाश की राह देखता रहता हूँ, इसलिए कि यहाँ आकर माँ के हाथ का खाना खा लूँ और लम्बी तान कर सो जाऊँ. चाहे महानगर में रहूँ, या विदेश में, माँ के हाथ का खाना हमेशा याद रहता है. उसे कभी भूल नहीं पाता. यहाँ आने का बस यही कारण है.
यह एक सच्चाई है. जमीन से जुड़े एक ऐसे व्यक्ति की, जो अपनी माटी से प्यार करता है. माटी की सोंधी महक उसे पागल बना देती है. इतना पागल कि विदेश में रहते हुए यदि उसे अपनी माँ और माटी की याद आती है, तो बेग से अपने गाँव की माटी निकालकर उसमें पानी डालकर सूँघना शुरू कर देता है. इसे पागलपन नहीं कहेंगे, तो भला और क्या कहेंगे? यही है माटी का दर्द. अपनापन ना पाने का दर्द. आज कितने लोग इस दर्द को समझ पा रहे हैं? बाकी तो भाग रहे हैं, धन के लिए. लेकिन वह भाग रहा है, अपने वर्त्तमान के लिए. उसे धन की ं
बहुत सुख है माँ के हाथ की रोटियों में. इसे वहीं समझ सकता है, जिसने माँ को रोटी बनाते न केवल देखा है, बल्कि तवे और अंगार के बीच माँ को जूझते देखा है. उस वक्त हम भले ही जली हुई रोटी खाने से मना कर देते हों, पर आज जब उसकी याद आती है, तो ऐसा लगता है कि वही रोटी अभी सामने आ जाए, तो हम टूट पड़ें. उस वक्त चूल्हे पर माँ का रोटी बनाना, अंगारे पर रोटी को फूलते देखना, फिर उससे गर्म-गर्म भाप का निकलना, सब कुछ भला लगता है. इस दौरान यदि कहीं जलता हुआ कोयला रोटी के साथ आ जाए और अनजाने में माँ का हाथ उस पर पड़ जाए, तो हम कैसे सहम जाते थे. उस समय भी माँ हँसकर सब टाल देती थी. छोटे थे फिर पाँच-सात रोटियाँ खा ही लेते थे, इतना भी नहीं समझते थे कि माँ के लिए भला कुछ रोटियाँ बची हैं या नहीं. माँ हमें खिलाकर संतुष्ट होती थी. रात ढलती और माँ की लोरी सुनते-सुनते हम कब नींद की रंगीन दुनिया में पहुँच जाते, इसका पता ही नहीं चलता.
याद आता है, कभी हम बीमार पड़ गए, माँ सारी रात हमारी सेवा करती. बर्फ तो होता नहीं था, तो क्या हुआ ठंडे पानी की पट््टियाँ माथे पर रखकर उसे बदलती रहती. रात उसकी ऑंखों में ही कट जाती. सुबह फिर वही काम में व्यस्त. जिसने ऐसे दिन काटे हों, वह भला स्वर्ग में भी रहे, तो उसे वह दुनिया नहीं भाएगी. वह विदेश में ही क्यों न रहे, ये यादें उसे वहाँ भी आबाद रखेंगी. ऐसे लोग कभी दिल से दु:खी नहीं होते. उनके दु:ख का कारण होता है उनका अकेलापन. एक बार वह हिम्मत करके माता-पिता को अपने साथ विदेश ले गया. सौचा अब मंजा आएगा. माँ के हाथ की रोटियाँ रोंज मिलेगी. साथ ही ढेर सारी बातें भी होंगी. पर यह क्या? माँ अनमनी रहने लगी. पिता भी दु:खी रहने लगे. भाग-दोड़ के बीच जब भी बेटे ने देखा कि यहाँ आकर भी दोनों कुछ अनमने से हो गए हैं. माँ के भोजन में भी वह बात नहीं थी. खाना वह बनाती तो थीं, पर वह स्वाद नहीं होता था. आखिर क्या हो गया माँ को? वह सोच-सोच कर हैरान था, कि आखिर माता-पिता को आखिर यहाँ कष्ट क्या है? एक दिन माँ ने ही रहस्य खोला. बेटा तू सोच रहा होगा कि यहाँ आकर हमें आखिर किस तरह का कष्ट हो रहा है? तो बेटा सुन- यहाँ वह सब-कुछ नहीें है,जो हमारी माटी में है. यहाँ आकर मैं तेरी नहीं, एक अधिकारी की माँ बन गई. तू मुझमें गाँव वाली ढूँढ़ रहा है और मैं तुझमें अपना राजा बेटा ढूँढ़ रही हूँ. यहाँ न चूल्हा है, न भुँजी हुई दाल. ऐसे में मैं तुझे तेरे लायक भोजन कैसे बना दूँ? यही बात है बेटे- यहाँ आने से पहले यही सोचा था कि हम तुझे सुखी रख पाएँगे, पर ऐसा नहीं हो पा रहा है. हमें अपनी माटी के पास पहुँचा दे बेटा!
ऐसा होता है माँ का हृदय. अमीर बेटे माँ को धन दौलत से अमीर करना चाहते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि माँ को कभी धन से खुश नहीं रखा जा सकता. आज भले ही आधुनिकता की दौड़ में माँ की फरमाइश कुछ अनोखी हो, पर माँ यह कभी नहीं चाहेगी कि उसके कदमों में रखी जाने वाली दौलत बेईमानी की हो. ईमानदारी की सूखी रोटी में वह सबको खुशी दे सकती है, पर बेईमानी के धन से वह छप्पन भोग देकर भी वह खुश नहीं हो पाएगी. यह सब माँ से दूर होने के बाद ही पता चलता है. प्यार की दौलत माँ से ही मिल सकती है. वे अभागे हैं, जिनकी माँ नहीं है.
डा. महेश परिमल

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