हमारे ही भीतर हैं, खुशियों के पल
डा. महेश परिमल
आज हर किसी को खुशियों की तलाश है. हर कोई इसीलिए भागा जा रहा है. उसकी दौड़ तेज से तेजतर होती जा रही है. उसका मानना है कि खुशियाँ धन-दौलत से ही आती हैं. इसी से ही बटोरी जा सकती है, जीवन की खुशियाँ. पर सच यह नहीं है, सच तो वह है, जिसे आप जानना ही नहीं चाहते. क्योंकि सच को जान जाएँगे, तो खुशियों के लिए इस तरह नहीं भागेंगे. पर सच आपसे उतनी ही दूर है, जितनी दूर आपकी एक ऑंख दूसरी ऑंख. पर उसे देखना आपके लिए तब तब संभव नहीं, जब तक आप यह न जान जाएँ कि खुशियाँ कहते किसे हैं. आपका दो महीने का मासूम पहले रोता है, आप थोड़ा नाराज हो जाते हैं. उसके बाद उसकी माँ उसे दूध पिलाती है, तब वह हँसने लगता है. उसकी हँसी से आपको भी हँसी आने लगती है. उसकी खिलखिलाहट से मानो फूल झरते हों. उसकी हँसी सबकी खुशी का पर्याय बन जाती है. अब भला बताएँ कि उस मासूम की हँसी के लिए आपको कितना धन खर्च करना पड़ा? आप कहेंगे-कुछ भी तो नहीं. तो यही था खुशियों का रंग. जिसे पाने के लिए आप यह सोचते हैं कि वह तो केवल धन से ही प्राप्त होगा.
खुशियाँ कहीं निश्चित स्थान पर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है. हम पागलपन की हद तक बढ़ जाते हैं, उसे पाने के लिए. यह स्थिति बिलकुल उस मृग की तरह है, जो किसी खास सुगंध के लिए न जाने कहाँ-कहाँ कुलाँचे भरता रहता है. वह तो उसके भीतर ही होती है.
शायद इसीलिए ही कहा गया है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'. यदि हमारे भीतर सच्ची खुशियों को पाने की चाहत ही नहीं है, तो हम बेकार ही खुशियों को ढूँढ़ने का ढोंग करते हैं. शायद हमें वास्तविक खुशियाँ नहीं चाहिए. हमारी ऑंखों में तो ऐश्वर्यशाली खुशियों की चाहत है. पर जो ऐश्वर्यशाली खुशियों के बीच जीते हैं, कभी उनका जीवन भी देखा है? कैसे तडपते हैं वे एक अच्छी नींद के लिए् माँ के हाथ की जली रोटी खाने के लिए किस तरह मचलते हैं वे. अपने गाँव की माटी में लोटना चाहते हैं वे. पर क्या उनकी यह चाहत कभी पूरी हो सकती है भला? आप कहेंगे कि यह तो उनके लिए बहुत आसान है. पर कितना आसान है, यह तो कोई उनसे ही पूछे भला.
आप छोटी-छोटी खुशियों को ढूँढ़ें, उसी में छिपा है जीवन का सार. छोटी खुशी बहुत ही ज्यादा सुकून देती है. इसके लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं करना पड़ता. एक मासूम बच्चे के साथ खेलते हुए, बड़े-बुजुर्गों से बातचीत करते हुए भी खुशियाँ प्राप्त की जा सकती हैं. अधिक दूर जाने की जरूरत ही नहीं, कोई भी दो बच्चों को खेलता हुआ देखते रहें, बस उसी से मिल जाएँगी आपको खुशियाँ. उनके खेलने का ढंग, मचलने का तरीका, फिर मनाने का उपक्रम, मेरा ये विश्वास हे कि ये सब देखकर आप हँसे बिना नहीं रह पाएँगे. ऐसे ही बटोरी जाती है जीवन के सागर की गहराई से खुशियों की सीप.
यह सच है कि खुशी को हम तभी पहचान पाएँगे, जब हम खुशी को जानेंगे. वरना बच्चे हँसते रहें, बुंजुर्ग बतियाते रहें, आपको हँसी नहीं आएगी. खुशियों को प्राप्त करने के लिए पहले खुशियाँ बाँटना सीखा जाएँ. हम जितना बाँटेंगे, उससे कही अधिक ही पाएँगे. खुशियाँ मीरा के कृष्ण प्रेम की तरह हैं, कबीर के ज्ञान की तरह है और रहीम के रस की तरह है. इसमें सुरदास की भक्ति, तुलसी की आध्यात्मिकता भी है. अतएव खुशियाँ पाना चाहते हो, तो पहले उसे पहचानें, फिर बाँटें, उसके बाद जो खुशियाँ आपको प्राप्त होंगी, वह किसी अमोल धन से कम नहीं होगा. एक बार बस एक बार खुश होकर तो देखो.
डा. महेश परिमल
डा. महेश परिमल
आज हर किसी को खुशियों की तलाश है. हर कोई इसीलिए भागा जा रहा है. उसकी दौड़ तेज से तेजतर होती जा रही है. उसका मानना है कि खुशियाँ धन-दौलत से ही आती हैं. इसी से ही बटोरी जा सकती है, जीवन की खुशियाँ. पर सच यह नहीं है, सच तो वह है, जिसे आप जानना ही नहीं चाहते. क्योंकि सच को जान जाएँगे, तो खुशियों के लिए इस तरह नहीं भागेंगे. पर सच आपसे उतनी ही दूर है, जितनी दूर आपकी एक ऑंख दूसरी ऑंख. पर उसे देखना आपके लिए तब तब संभव नहीं, जब तक आप यह न जान जाएँ कि खुशियाँ कहते किसे हैं. आपका दो महीने का मासूम पहले रोता है, आप थोड़ा नाराज हो जाते हैं. उसके बाद उसकी माँ उसे दूध पिलाती है, तब वह हँसने लगता है. उसकी हँसी से आपको भी हँसी आने लगती है. उसकी खिलखिलाहट से मानो फूल झरते हों. उसकी हँसी सबकी खुशी का पर्याय बन जाती है. अब भला बताएँ कि उस मासूम की हँसी के लिए आपको कितना धन खर्च करना पड़ा? आप कहेंगे-कुछ भी तो नहीं. तो यही था खुशियों का रंग. जिसे पाने के लिए आप यह सोचते हैं कि वह तो केवल धन से ही प्राप्त होगा.
खुशियाँ कहीं निश्चित स्थान पर नहीं, बल्कि हमारे भीतर ही है. हम पागलपन की हद तक बढ़ जाते हैं, उसे पाने के लिए. यह स्थिति बिलकुल उस मृग की तरह है, जो किसी खास सुगंध के लिए न जाने कहाँ-कहाँ कुलाँचे भरता रहता है. वह तो उसके भीतर ही होती है.
शायद इसीलिए ही कहा गया है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'. यदि हमारे भीतर सच्ची खुशियों को पाने की चाहत ही नहीं है, तो हम बेकार ही खुशियों को ढूँढ़ने का ढोंग करते हैं. शायद हमें वास्तविक खुशियाँ नहीं चाहिए. हमारी ऑंखों में तो ऐश्वर्यशाली खुशियों की चाहत है. पर जो ऐश्वर्यशाली खुशियों के बीच जीते हैं, कभी उनका जीवन भी देखा है? कैसे तडपते हैं वे एक अच्छी नींद के लिए् माँ के हाथ की जली रोटी खाने के लिए किस तरह मचलते हैं वे. अपने गाँव की माटी में लोटना चाहते हैं वे. पर क्या उनकी यह चाहत कभी पूरी हो सकती है भला? आप कहेंगे कि यह तो उनके लिए बहुत आसान है. पर कितना आसान है, यह तो कोई उनसे ही पूछे भला.
आप छोटी-छोटी खुशियों को ढूँढ़ें, उसी में छिपा है जीवन का सार. छोटी खुशी बहुत ही ज्यादा सुकून देती है. इसके लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं करना पड़ता. एक मासूम बच्चे के साथ खेलते हुए, बड़े-बुजुर्गों से बातचीत करते हुए भी खुशियाँ प्राप्त की जा सकती हैं. अधिक दूर जाने की जरूरत ही नहीं, कोई भी दो बच्चों को खेलता हुआ देखते रहें, बस उसी से मिल जाएँगी आपको खुशियाँ. उनके खेलने का ढंग, मचलने का तरीका, फिर मनाने का उपक्रम, मेरा ये विश्वास हे कि ये सब देखकर आप हँसे बिना नहीं रह पाएँगे. ऐसे ही बटोरी जाती है जीवन के सागर की गहराई से खुशियों की सीप.
यह सच है कि खुशी को हम तभी पहचान पाएँगे, जब हम खुशी को जानेंगे. वरना बच्चे हँसते रहें, बुंजुर्ग बतियाते रहें, आपको हँसी नहीं आएगी. खुशियों को प्राप्त करने के लिए पहले खुशियाँ बाँटना सीखा जाएँ. हम जितना बाँटेंगे, उससे कही अधिक ही पाएँगे. खुशियाँ मीरा के कृष्ण प्रेम की तरह हैं, कबीर के ज्ञान की तरह है और रहीम के रस की तरह है. इसमें सुरदास की भक्ति, तुलसी की आध्यात्मिकता भी है. अतएव खुशियाँ पाना चाहते हो, तो पहले उसे पहचानें, फिर बाँटें, उसके बाद जो खुशियाँ आपको प्राप्त होंगी, वह किसी अमोल धन से कम नहीं होगा. एक बार बस एक बार खुश होकर तो देखो.
डा. महेश परिमल