डा. महेश परिमल
हमारे देश में कई तरह के चिंतक हैं. किसी को देश की गरीबी की चिंता है, किसी को देश विदेशियों के हाथों बिकने की चिंता है, किसी को पानी के गिरते स्तर की चिंता है, तो किसी को पर्यावरण की चिंता है. इधर हमारे देश में बाघों की संख्या तेजी से कम हो रही है, इस बात की भी ंचिंता होने लगी है. पर हमारे ही देश में आहिस्ता-आहिस्ता हाथियों की संख्या भी बहुत ही तेजी से कम हो रही है, इस बात की चिंता शायद किसी को नहीं है. हमारे यहाँ हाथियों की संख्या बढ़ाने की दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं हो रहा है, इसलिए अब वह दिन दूर नहीं, जब हाथी भी नामशेष को रह जाएँगे.
अगर सरकारी ऑंकड़ों पर विश्वास करें, तो हमारे देश में हाथियों की संख्या 1977 में 25, 877 थी, वह बढ़कर 2002 में 26,413 हो गई है. इसके बाद भी देश के दक्षिण और ईशान के राज्यों में हाथियों की संख्या में कमी आई है. विशेषज्ञों के अनुसार सौ साल पहले हमारे देश में एक लाख हाथी थे, परन्तु हाथियों एवं मानवों के बीच संघर्ष में हाथियों की संख्या क्रमश: घटती रही है. कर्नाटक में हाथियों की संख्या 6077 से घटकर 5737, असम में 5312 से घटकर 5246 और अरुणाचल प्रदेश में 1800 से घटकर 1607 हो गई है. नागालैण्ड में 158 के बदले अब मात्र 145 हाथी ही रह गए हैं. मणिपुर में उनकी संख्या 30 से घटकर 12 हो गई है. त्रिपुरा में 70 से घटकर 40 हो गई है. पालतू हाथियों की संख्या अंदाजन 70 थी, वह पिछले पाँच वर्षों में कमजोर आरोग्य और पोषण के अभाव में खत्म हो गए हैं.
केरल के एलिफेंट स्टडी सेंटर के जेकब वी.चीरन के अनुसार हाथियों की संख्या में चिंताजनक रूप से कमी आ रही है. अलबत्ता, बाघों की संख्या जिस प्रकार घट रही है, उतनी खराब स्थिति तो नहीं है, पर यदि हाथियों के शिकार पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो परिस्थितियों को विपरीत होने में समय नहीं लगेगा. हाथियों का शिकार आज दुगुने स्तर पर किया जा रहा है. इसका एक कारण है जनसंख्या बढ़ने के कारण मनुष्य के रहने के लिए जंगलों का कटाव और दूसरा कारण है वन विस्तार के समीप के गाँवों में हाथियों की घुसपैठ. ईशान राज्यों के निकटवर्ती गाँवों में हाथियों के हमले के डर से उन्हें मार दिया जाता है. अकेले असम में ही पिछले पाँच वर्षों में 200 हाथियों को मार डाला गया है.
कहा जाता है कि चावल में से बनती शराब की गंध से आकर्षित होकर हाथी गाँव में घुस कर लोगों को अपने पैरों तले रौंद डालते हैं और आदिवासियों के घरों को भी नुकसान पहुँचाते हैं, अपनी धुन में दौड़ते ये हाथी लहलहाती फसलों को भी नुकसान पहुँचाते हैं. यही परिस्थिति छत्तीसगढ़ के पत्थलगाँव के आसपास, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और झारखंड में है. हाथियों का हमला होते ही गाँववासी ढोल बजाकर, पटाखे फोड़कर और जलती मशालों को लेकर इनका पीछा करते हैं और उन्हें गाँव से बाहर खदेड़ने का प्रयास करते हैं. अब उन्होंने हाथियों को ंजहर देने का रास्ता अपनाया है और इससे अब तक 122 हाथियों का खात्मा हो चुका है.
केन्द्र के पर्यावरण एवं वन विभाग के अध्यक्ष ए. राजा के अनुसार ईशान के राज्यों में हाथियों की संख्या में कमी आने का मुख्य कारण उनके रहने के स्थानों में आई कमी, गैरकानूनी तरीके से उनका शिकार और मनुष्य तथा हाथियों के बीच की अस्तित्व की लड़ाई है. ईशान के राज्यों की कुछ आदिवासी जातियाँ कभी पारंपरिक कारणों से तो कभी अनिवार्य रूप से हाथियों का शिकार करती हैं. परिणाम स्वरूप हाथियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है. दक्षिण राज्यों में और पूर्वी एशिया में हाथी को पवित्र माना जाता है और धार्मिक उत्सवों में या शाही सवारी के लिए उसका अधिक महत्व होता है.
वाइल्ड लाईफ प्रोटेक्शन ऑफ इंडिया के अनुसार इस वर्ष हाथियों के गैरकानूनी शिकार के 15 मामले सामने आए हैं. पिछले वर्ष इस प्रकार के मामलों में 23 हाथियों के शिकार की बात सामने आई थी. पुलिस ने 169 किलोग्राम हाथीदांत और दो दंतशूल बरामद किए थे. यह संख्या ही दर्शाती है कि कितने बड़े स्तर पर हाथियों का शिकार किया जा रहा है, यह जानकारी सोसायटी के एक अधिकारी ने दी. हाथीदांत के वैश्विक व्यापार पर प्रतिबंध के बावजूद इस व्यापार में लगातार वृध्दि हो रही है. इन कारणों से नर हाथियों का अंधाधुंध शिकार होने से नर एवं मादा हाथियों के प्रमाण में भी भारी अंतर आया है. तामिलनाडू की नीलगिरी की पहाड़ियों पर यह अंतर विशेष ध्यान खींचता है, जहाँ 6000 से 10,000 हाथी बसते हैं.
देश में बाघों के 27 अभयारण्य होने के बावजूद बाघों की संख्या तेजी से घट रही है और सारिस्का में तो एक भी बाघ शेष नहीं है. ऐसा ही हाथियों के मामले में भी हो, इसके पहले ही हमें सावधान हो जाना होगा. गैरकानूनी शिकार और हाथीदाँत के अवैध व्यापार से अपनी रोटी सेंकने वाले स्वार्थी लोगों को पकड़ कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाने की आवश्यकता है.
हाथी के विशेष गुण
यह तो सभी जानते हैं कि हाथी की याददाश्त बहुत तेज होती है, इसके अलावा उसमें और भी कई विशेषताएँ होती हैं, जिनमें उसकी सूंघने और सुनने की शक्ति प्रमुख है. बहुत लम्बे समय बाद भी वह अपने पालक को मात्र सूंघ कर और उसकी आवाज से पहचान जाते हैं. इसी प्रकार वह अपने शत्रु को भी पहचान लेते हैं. किंतु हाल ही में केन्या के प्राणी संग्रहालय के संचालकों ने बताया कि हाथी अलग-अलग तरह की आवाजों का अंतर जानने के साथ-साथ उसकी नकल भी कर सकते हैं. जंजीर से बंधे होने के बाद भी वे दो मील दूर से गुजरने वाले ट्रक की आवाज सुन कर उसकी हूबहू नकल कर सकते हैं. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हाथी एक-दूसरे से अलग होकर भी परस्पर संवाद कायम रख सकते हैं. वैसे तो हाथी झुंड में ही रहना पसंद करते हैं, किंतु संदेश व्यवहार की उनकी अलग ही पध्दति होती है. झुंड के हाथी एक-दूसरे के आवाज की नकल कर अपने संगठन के मजबूत होने की पुष्टि करते हैं. आवाज का अनुकरण करने की शक्ति प्राय: पक्षियों, दरियाई स्तनपायी जीवों, चमगादड़ और बंदरों में तो देखने को मिलती है, पर हाथी भी ऐसा कर सकते हैं, यह अजीब बात है. यह सारी जानकारी हाल ही में हुए एक शोध से सामने आई है.
डा. महेश परिमल
हमारे देश में कई तरह के चिंतक हैं. किसी को देश की गरीबी की चिंता है, किसी को देश विदेशियों के हाथों बिकने की चिंता है, किसी को पानी के गिरते स्तर की चिंता है, तो किसी को पर्यावरण की चिंता है. इधर हमारे देश में बाघों की संख्या तेजी से कम हो रही है, इस बात की भी ंचिंता होने लगी है. पर हमारे ही देश में आहिस्ता-आहिस्ता हाथियों की संख्या भी बहुत ही तेजी से कम हो रही है, इस बात की चिंता शायद किसी को नहीं है. हमारे यहाँ हाथियों की संख्या बढ़ाने की दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं हो रहा है, इसलिए अब वह दिन दूर नहीं, जब हाथी भी नामशेष को रह जाएँगे.
अगर सरकारी ऑंकड़ों पर विश्वास करें, तो हमारे देश में हाथियों की संख्या 1977 में 25, 877 थी, वह बढ़कर 2002 में 26,413 हो गई है. इसके बाद भी देश के दक्षिण और ईशान के राज्यों में हाथियों की संख्या में कमी आई है. विशेषज्ञों के अनुसार सौ साल पहले हमारे देश में एक लाख हाथी थे, परन्तु हाथियों एवं मानवों के बीच संघर्ष में हाथियों की संख्या क्रमश: घटती रही है. कर्नाटक में हाथियों की संख्या 6077 से घटकर 5737, असम में 5312 से घटकर 5246 और अरुणाचल प्रदेश में 1800 से घटकर 1607 हो गई है. नागालैण्ड में 158 के बदले अब मात्र 145 हाथी ही रह गए हैं. मणिपुर में उनकी संख्या 30 से घटकर 12 हो गई है. त्रिपुरा में 70 से घटकर 40 हो गई है. पालतू हाथियों की संख्या अंदाजन 70 थी, वह पिछले पाँच वर्षों में कमजोर आरोग्य और पोषण के अभाव में खत्म हो गए हैं.
केरल के एलिफेंट स्टडी सेंटर के जेकब वी.चीरन के अनुसार हाथियों की संख्या में चिंताजनक रूप से कमी आ रही है. अलबत्ता, बाघों की संख्या जिस प्रकार घट रही है, उतनी खराब स्थिति तो नहीं है, पर यदि हाथियों के शिकार पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो परिस्थितियों को विपरीत होने में समय नहीं लगेगा. हाथियों का शिकार आज दुगुने स्तर पर किया जा रहा है. इसका एक कारण है जनसंख्या बढ़ने के कारण मनुष्य के रहने के लिए जंगलों का कटाव और दूसरा कारण है वन विस्तार के समीप के गाँवों में हाथियों की घुसपैठ. ईशान राज्यों के निकटवर्ती गाँवों में हाथियों के हमले के डर से उन्हें मार दिया जाता है. अकेले असम में ही पिछले पाँच वर्षों में 200 हाथियों को मार डाला गया है.
कहा जाता है कि चावल में से बनती शराब की गंध से आकर्षित होकर हाथी गाँव में घुस कर लोगों को अपने पैरों तले रौंद डालते हैं और आदिवासियों के घरों को भी नुकसान पहुँचाते हैं, अपनी धुन में दौड़ते ये हाथी लहलहाती फसलों को भी नुकसान पहुँचाते हैं. यही परिस्थिति छत्तीसगढ़ के पत्थलगाँव के आसपास, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और झारखंड में है. हाथियों का हमला होते ही गाँववासी ढोल बजाकर, पटाखे फोड़कर और जलती मशालों को लेकर इनका पीछा करते हैं और उन्हें गाँव से बाहर खदेड़ने का प्रयास करते हैं. अब उन्होंने हाथियों को ंजहर देने का रास्ता अपनाया है और इससे अब तक 122 हाथियों का खात्मा हो चुका है.
केन्द्र के पर्यावरण एवं वन विभाग के अध्यक्ष ए. राजा के अनुसार ईशान के राज्यों में हाथियों की संख्या में कमी आने का मुख्य कारण उनके रहने के स्थानों में आई कमी, गैरकानूनी तरीके से उनका शिकार और मनुष्य तथा हाथियों के बीच की अस्तित्व की लड़ाई है. ईशान के राज्यों की कुछ आदिवासी जातियाँ कभी पारंपरिक कारणों से तो कभी अनिवार्य रूप से हाथियों का शिकार करती हैं. परिणाम स्वरूप हाथियों की संख्या में लगातार कमी हो रही है. दक्षिण राज्यों में और पूर्वी एशिया में हाथी को पवित्र माना जाता है और धार्मिक उत्सवों में या शाही सवारी के लिए उसका अधिक महत्व होता है.
वाइल्ड लाईफ प्रोटेक्शन ऑफ इंडिया के अनुसार इस वर्ष हाथियों के गैरकानूनी शिकार के 15 मामले सामने आए हैं. पिछले वर्ष इस प्रकार के मामलों में 23 हाथियों के शिकार की बात सामने आई थी. पुलिस ने 169 किलोग्राम हाथीदांत और दो दंतशूल बरामद किए थे. यह संख्या ही दर्शाती है कि कितने बड़े स्तर पर हाथियों का शिकार किया जा रहा है, यह जानकारी सोसायटी के एक अधिकारी ने दी. हाथीदांत के वैश्विक व्यापार पर प्रतिबंध के बावजूद इस व्यापार में लगातार वृध्दि हो रही है. इन कारणों से नर हाथियों का अंधाधुंध शिकार होने से नर एवं मादा हाथियों के प्रमाण में भी भारी अंतर आया है. तामिलनाडू की नीलगिरी की पहाड़ियों पर यह अंतर विशेष ध्यान खींचता है, जहाँ 6000 से 10,000 हाथी बसते हैं.
देश में बाघों के 27 अभयारण्य होने के बावजूद बाघों की संख्या तेजी से घट रही है और सारिस्का में तो एक भी बाघ शेष नहीं है. ऐसा ही हाथियों के मामले में भी हो, इसके पहले ही हमें सावधान हो जाना होगा. गैरकानूनी शिकार और हाथीदाँत के अवैध व्यापार से अपनी रोटी सेंकने वाले स्वार्थी लोगों को पकड़ कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाने की आवश्यकता है.
हाथी के विशेष गुण
यह तो सभी जानते हैं कि हाथी की याददाश्त बहुत तेज होती है, इसके अलावा उसमें और भी कई विशेषताएँ होती हैं, जिनमें उसकी सूंघने और सुनने की शक्ति प्रमुख है. बहुत लम्बे समय बाद भी वह अपने पालक को मात्र सूंघ कर और उसकी आवाज से पहचान जाते हैं. इसी प्रकार वह अपने शत्रु को भी पहचान लेते हैं. किंतु हाल ही में केन्या के प्राणी संग्रहालय के संचालकों ने बताया कि हाथी अलग-अलग तरह की आवाजों का अंतर जानने के साथ-साथ उसकी नकल भी कर सकते हैं. जंजीर से बंधे होने के बाद भी वे दो मील दूर से गुजरने वाले ट्रक की आवाज सुन कर उसकी हूबहू नकल कर सकते हैं. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि हाथी एक-दूसरे से अलग होकर भी परस्पर संवाद कायम रख सकते हैं. वैसे तो हाथी झुंड में ही रहना पसंद करते हैं, किंतु संदेश व्यवहार की उनकी अलग ही पध्दति होती है. झुंड के हाथी एक-दूसरे के आवाज की नकल कर अपने संगठन के मजबूत होने की पुष्टि करते हैं. आवाज का अनुकरण करने की शक्ति प्राय: पक्षियों, दरियाई स्तनपायी जीवों, चमगादड़ और बंदरों में तो देखने को मिलती है, पर हाथी भी ऐसा कर सकते हैं, यह अजीब बात है. यह सारी जानकारी हाल ही में हुए एक शोध से सामने आई है.
डा. महेश परिमल