संवेदनाओं के पंख / दिव्य-दृष्टि
साहित्य का अनमोल खजाना हिंदी पॉडकास्ट के रूप में
सोमवार, 5 जून 2023
बिना आँसू रुलाएगा पानी...

रविवार, 7 मई 2023
सफलता को चूमने का मूलमंत्र
अपनी जमीं, अपना आस्मां, बढ़े चलो...
डॉ. महेश परिमल
लेख के शुरुआत में ही चलिए आपको एक अच्छी बात बताते हैं, आप राजा हैं, महाराजा हैं. आप तेजस्वी हैं, शक्तिशाली हैं. आप महामानव हैं, शक्तिमान हैं. आप बहादुर हैं, होशियार हैं. आप बुद्धिशाली हैं, गतिशील हैं, प्रगतिशील हैं. आप उत्साही हैं, प्रेरणास्रोत हैं. आप नेता हैं, अभिनेता हैं. आप ज्ञानी हैं, विज्ञानी हैं. क्यों विश्वास नहीं हो रहा है न? किंतु यह सब पढऩे के बाद एक क्षण अपने भीतर झांकिए और विचार कीजिए कि आप क्या नहीं हैं? आपके अंदर कुछ होने का असीम भंडार भरा हुआ है. आपके हृदय और मस्तिष्क के सीप में अनेक अनमोल मोती भरे हुए हैं. आपके पैरों में मंजिल तक पहुँचने की अनोखी चाहत है और हाथों में सपनों को छू लेने की एक निराली सुगबुगाहट है. दृष्टि में दूरदर्शिता है और होठों पर सफलता को चूमने की उत्कंठा है. आप अपने मन के मालिक स्वयं हैं. सफलता एवं ख्याति आपके स्वर्णाभूषण हैं. आपका पुरुषार्थ आपकी सुगंध है. आप स्वयं की स्वप्न सृष्टिï के रचयिता ब्रह्मïा हैं. स्वयं की जीवन नैया के मांझी और उपवन के माली भी आप ही हैं.
यह संसार संघर्ष का घना जंगल है, जहाँ अंधकार में खुद को ही दीपक बन कर जलना होगा और राह तलाशनी होगी. पथप्रदर्शक या मार्गदर्शक मिल जाए, ऐसे सद्भागी आप नहीं. इसलिए अपना अंधकार आपको ही मिटाना होगा. समस्याएँ आएँगी, आ-आकर आपको कमजोर बनाएँगी, लेकिन अभी-अभी तो अपने भीतर झांँका है आपने. आप सबल हैं, निर्बल नहीं. आपकी समस्याएँ, परेशानियाँ, रूकावटें, अवरोध ये सभी नकारात्मक विचारों के बिंदुओं को आपसे अधिक कौन समझ सकता है? आपके अलावा आपका हितैषी भला और कौन हो सकता है? अपने विचारों को आप ही नया आयाम दें, उन्हें जोश दें, मंजिल दें. एक तरफ हम यह कहते हैं कि अकेले कुछ भी नहीं हो सकता. यह सच है, किंतु आप अकेले हैं कहाँ? आपकी सकारात्मक सोच आपके साथ है. आपके चारों तरफ स्वार्थी, लालची और धोखेबाज लोगों की अगाध भीड़ है. इस भीड़ में आप एक सबल व्यक्तित्व बन कर उभरें और फिर देखिए, पूरे आकाश में आप जैसा तेजस्वी सितारा कोई न होगा.
यह सारी बातें कोरी गप्प नहीं है, आपके भीतर छीपे आत्मविश्वास और साहस की चमकती सच्चाई है. जिसे आप स्वयं ही देख नहीं पा रहे हैं. अपने भीतर के दीपक को बाहर आलोकित कर उसके प्रकाश में अपना संसार जगमग करने के लिए बस जरुरत है कुछ वैचारिक बातियों की, जो आपकी प्रेरणा बन कर आपको ही सफलता के करीब ले जाएँगी. क्यों न इसे कुछ इस तरह समझें-
प्रेम : सभी के साथ प्रेम भरा व्यवहार करें. किसी के प्रति घृणा का भाव न रखें. किसी के प्रति कड़वाहट का भाव होने का अर्थ है, स्वयं को भीतर से जहरीला बनाना. इसलिए सभी के प्रति स्नेहभाव रखें. आपके स्वभाव में प्रेम की ज्योत सदैव जलनी चाहिए. यह प्रेम विश्वास को जन्म देता है और विश्वास, आत्मविश्वास को मजबूत बनाता है.
सेवा : आपका स्वभाव सेवाभावी होना चाहिए. दूसरों की सहायता के लिए हमेशा आगे रहें, सामने वाले की हरसंभव सहायता अवश्य करें. सेवा का यह सद्गुण आपको श्रेष्ठï मानव की श्रेणी में स्थान देगा. तन-मन और धन से दूसरों की सेवा करने में विश्वास करें. सेवा या सहायता का भाव आत्मसंतोष के करीब ले जाता है.
साहस : साहस एक ऐसा गुण है, जो व्यक्ति को अंधकार को चीरने की प्रेरणा देता है. कुबेरपति बनने के लिए या जीवन में सफल होने के लिए साहसी बनना ही पड़ता है. जीवन में कई बार साहस के साथ निर्णय लेने पड़ते है, उसमें भी व्यापार या नौकरी में तो पल-पल निर्णय की घड़ी होती है. साहस है, तो कोई ठोस निर्णय लिया जा सकता है, नहीं तो यह तो हम जानते ही हैं कि जो डर गया सो मर गया.
निपुणता : आप जिस भी क्षेत्र मे काम करें, उस क्षेत्र में आपको अपने कार्य में दक्षता प्राप्त होनी चाहिए. कोई और आपको सिखाए उसके पहले ही आपमें इतनी क्षमता होनी चाहिए कि उसकी बात को काटते हुए आप अपनी दक्षता का परिचय दे सकें और उसे प्रभावित कर सकें. निपुणता का गुण आपको प्रतिस्पर्धी से आसानी से जीता सकता है.
चुनौती : चुनौतियों का स्वागत करें. यदि आप साहसी हैं, निपुण हैं, तो आपके लिए चुनौतियों का सामना करना एक आसान सी बात है. चुनौतियाँ ही आपके मार्ग में काँटे बिछाती हैं और साहस ही उसे साफ करने की प्रेरणा देता है. तब आप निपुणता से उस राह को साफ-स्वच्छ बना कर आगे बढ़ जाते हैं. आपकी सक्रियता चुनौतियों का सामना करने में आपका साथ देती हैं.
सदुपयोग : आपके पास जो कुछ है, उसका पूरी तरह से सदुपयोग करें, उसे अच्छे कार्य में प्रयोग करें. यह मत सोचें कि हमारे पास यह नहीं है, यह सोचें कि हमारे पास जो है, हमें उसी का सदुपयोग करना है. हर इंसान के पास शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक और समय की सम्पत्ति होती है, यदि इंसान इनमें से कुछ का ही सदुपयोग करे, तो उसे सफल होने से कोई नहीं रोक सकता.
दृढ़ता : जो भी निर्णय लें, उसे पूरा करने के लिए प्राणप्रण से जुट जाएँ. बार-बार निर्णय बदलने वालों के पास आत्मविश्वास की कमी होती है. अत: पूरे संकल्प के साथ अपने निर्णय पर अमल करें. जो भी काम हाथ में लें, उसे पूरा करने पर अपना सारा ध्यान लगा दें, बाद में करेंगे, देखेंगे, चल जाएगा आदि शव्द इंसान को कमजोर बनाते हैं. जो अपने निर्णयों पर दृढ़ होते हैं, वे ही सागर मेें कूद पडऩे का साहस रखते हैं. वे सागर को भी चुनौती देते से लगते हैं. कमजोर निर्णय वाले तो किनारे खड़े होकर केवल लहरों से ही खेलते रह जाते हैं.
इस प्रकार अपने शिल्पी स्वयं बनें. खुद का रास्ता खुद ही तय करना है. जीवन को सँवारने का काम भी आपको ही करना है. मानव में से महामानव बनने का संकल्प लेकर आगे बढ़ें. रास्ते लम्बे अवश्य हैं, पर कठिन नहीं.
आपके हिस्से का आसमान खाली पड़ा है, उसे आपको ही भरना है. उसी तरह आपके हिस्से की जमीन पर आपको ही पैर रखना है. ये मत सोचो कि सीमा यहाँ खत्म होती है, यह सोचो कि सीमा यहीं से शुरू होती है. ये मत सोचो कि रात जाने वाली है, यह सोचो कि सुबह आने वाली है. इसी तरह के सकारात्मक विचारों को अपना साथी बना लें, आप स्वयं को उत्साहित महसूस करेंगे. उत्साह से शुरू किया जाने वाला काम तो वैसे भी सफलता का मूल मंत्र है.
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 6 मई 2023
रिश्ते कभी बोझ नहीं होते...

रविवार, 19 मार्च 2023
घर की मुंडेर पर नहीं आती चिड़िया...

शनिवार, 18 मार्च 2023
बैंक नहीं-सपने डूबे
अमेरिका के दो बैंक बंद हो गए, अब तीसरा बैंक भी बंद होने वाला है। इसके अलावा सात और बंद पर भी तलवार लटक रही है। इससे यह साफ जाहिर हो रहा है कि अब पूरा विश्व आर्थिक मंदी की चपेट में आने वाला है। सिलिकॉन वेली के बंद होने से भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के विकसित देशों की नींद हराम हो गई है। अमेरिकी बैंकिंग सेक्टर में इस समय जो सुनामी आई है, उससे हर देश प्रभावित हो रहा है। पहले सिलिकॉन वैली बैंक फिर सिग्नेचर बैंक के बाद अब तीसरे बैंक की हालत खराब है। सिलिकॉन बैंक के बारे में तो यह कहा गया है कि जिस तरह से यह बैंक रातों-रात प्रसिद्ध हो गई थी, ठीक उसी तरह रातों-रात यह रसातल में भी पहुंच गई है। इसीलिए आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि अपनी सारी जमा-पूंजी किसी एक बैंक में न रखें।
अडानी के शेयर जब गिरने लगे थे, तक अमेरिका खुश हो गया था। अब अब हालात बदल गए हैं। अब उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा है। सिलिकॉन बैंक के बंद होने से भारत में आईटी क्षेत्र पर होने वाले कम निवेश से एक आघात अवश्य लगेगा, पर विश्वास है कि इस चुनौती का भी भारत मुकाबला कर लेगा। हमारे देश में भी सहकारी बैंक रातों-रात उठ जाते हैं, फिर उनमें कब ताला लग जाता है, पता ही नहीं चलता। सिलिकॉन वेली में गूगल, माइक्रोसाफ्ट, एपल, फेसबुक, इंस्टाग्राम, वीसा, मास्टर कार्ड, शेवरोन, वेल्स फार्गो जैसे अनेक कंपनियां हैं, ऐसी बैंक यदि रातों-रात बंद हो जाए, तो इसे आश्चर्य ही माना जाएगा।
विश्व की प्रतिष्ठित आर्थिक मैगजीन "फोर्ब्स" की तरफ से सिलिकॉन वेली को एक श्रेष्ठ बैंक निरुपित किया था। बंद होने के 5 दिन पहले ही सिलिकॉन वेली ने यह घोषणा की थी कि "फोर्ब्स" ने हमें श्रेष्ठ बैंक कहा है। इस पर हम गौरवान्वित हैं। भारत के लिए "फोर्ब्स" का कहा गया एक-एक वाक्य किसी ब्रह्म वाक्य से कम नहीं होता। इन हालात में अब फोर्ब्स की रेकिंग भी संदेह के दायरे में आ गई है। भारत के स्टार्ट-अप पर अमेरिकी बैंक के बंद होने का सीधा असर हो सकता है। एक आम आदमी बैंक में किसी सपने की तरह अपनी जमा-पूंजी रखता है। जिससे वह उस राशि का ब्याज प्राप्त करता है। वही बैंक हमारे ही धन को दूसरे को कर्ज के रूप में देता है, उससे वह ब्याज कमाता है। इस तरह से वह अपनी कमाई करता है। उसके बाद भी उसका हाथ ऊपर ही होता है। सिलिकॉन वेली में करोड़ों डॉलर का लेन-देन होता था। इस बैंक में दिग्गज तकनीकी कंपनियों के 100 मिलियन डॉलर जैसे डिपॉजिट वेंचर कैपिटल फंड से आए थे। इस वेंचर कैपिटल फंड के लिए सिलिकॉन वैली बैंक एक ऐसा प्लेटफॉर्म था, जहां से टेक कंपनियां पैसे जुटाती थीं। बैंकों को भी आमदनी बढ़ानी है, इसलिए सिलिकॉन वैली बैंक ने लोगों का पैसा सरकारी बॉन्ड में लगाया। हर देश की सरकारें अपने खर्चों को निकालने के लिए लोगों को सरकारी बॉण्ड योजनाओं में आमंत्रित करती हैं। सरकारी बॉण्ड में निवेश सबसे अधिक सुरक्षित माना जाता है। सिलिकॉन बैंक ने भी अमेरिकी सरकारी बॉण्ड खरीदा था, बस मुश्किलें तभी से बढ़ना शुरू हाे गई।
सिलिकॉन वेली बैंक ने जो बॉण्ड लिए थे, वे लम्बे समय के लिए थे। इसमें ब्याज दर कम थी। बॉण्ड मार्केट की प्रतिस्पर्धा में टिक पाए, ऐसे नहीं थे। इसमें ब्याज बढ़ने से उसकी कीमत गिरती चली गई। बैंक के पास 117 बिलियन डॉलर के बॉण्ड थे। जब उसे खरीदा गया था, तब उसकी कीमत 127 बिलियन डॉलर थी। इसमें ब्याज चुकाने के बाद बैंक की सारी राशि एक ही रात में डूब गई। जमाकर्ताओं को लगभग ढाई मिलियन डॉलर तक की राशि चुकाने में कोई कठिनाई नहीं होती है, लेकिन जिन्होंने इससे अधिक पैसा जमा किया है, उनकी परेशानी बढ़ गई है। बैंक के पास लगभग 151 बिलियन डॉलर असुरक्षित थे। यह राशि अब डूबत खाते में गई मान लो। सबसे अधिक नुकसान (करीब 487 मिलियन डॉलर) रोकू नामक कपंनी ने गंवाए हैं। ब्लॉक फी नामक क्रिप्टो कंपनी को 227 मिलियन का नुकसान हुआ है।
बैंकों में नागरिकों के सपने पलते हैं। जिस बैंक से वे कर्ज लेते हैं, उसी बैंक में वे अपने पसीने की कमाई भी जमा करते हैं, ताकि मुसीबत में वह राशि काम आए। पर जब बैंक में वही राशि खतरे में पड़ जाए, तो नागरिकों के सपनों का आहत होना लाजिमी है। बैंक इंसानों के सपनों को पालता है। उसे संवारता है। पर वही बैंक जब इंसानों के सपनों को कुचलने की कोशिश करता है, तो इंसानों की हाय उस बैंक पर भारी पड़ती है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 16 मार्च 2023
जीवन में रंगों का महत्व

रविवार, 26 फ़रवरी 2023
यत्र-तत्र सर्वत्र औषधि
यत्र-तत्र-सर्वत्र औषध
डॉ. महेश परिमल
यत्र-तत्र-सर्वत्र औषध, संस्कृत का यह शीर्षक आजकल खूब प्रचलित है। हमारे देश में भले ही डॉक्टरों की कमी हो, पर डॉक्टरों जैसी समझाइश देने वालों की कमी नहीं है। एक मर्ज के अनेक जानकार मिल जाएंगे। उनके द्वारा शर्तिया इलाज भी बताया जाएगा। आप ट्रेन में यात्रा कर रहे हों, तो कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो आपस में स्वास्थ्य पर चर्चा करते हुए मिल जाएंगे। इस दौरान वे एक से एक दवाओं के नुस्खे बताते हैं। हर बीमारी का इलाज उनके पास है। कई बार तो रामबाण के रूप में भी वे दवाओं के नुस्खे पूरी शिद्दत के साथ बताते हैं। जब उन पर यह सवाल दागा जाता है कि क्या आपने इसका इस्तेमाल किया है, तो वे बगलें झांकते मिल जाएंगे। रास्ते चलते बीमारियों का इलाज बताना यानी आज की वाट्स एप यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाना। लेकिन इससे हटकर भी एक दुनिया ऐसी भी है, जहां केवल दवाएं ही दवाएं हैं।
दवाएं केवल बोतलों या गोलियों में ही होती हैं। ऐसा नहीं है। अब समय आ गया है कि हमें इस धारणा से पूरी तरह से मुक्त हो जाना चाहिए। हमारे आसपास ही बहुत-सी दवाएं हैं, जिससे हम पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं। ये ऐसी दवाएं हैं, जो हैं तो काम की, पर हमें उन पर शायद विश्वास नहीं है। इसकी गवाही हमारे बुजुर्ग ही दे पाएंगे।आज जिन दवाओं का जिक्र हो रहा है, उसमें एक पैसे का भी निवेश नहीं है। यह दवाएं हमारे जीवन से जुड़ी हैं। हमारे आसपास ही बिखरी पड़ी हैं। हम ही हैं, जो इसे अनदेखा कर रहे हैं। आप ही बताएं, क्या व्यायाम दवा नहीं है? यह ऐसी दवा है, जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता। ठीक इसी तरह सुबह की सैर भी एक दवा है, उपवास करना भी दवा है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है, सपरिवार एक साथ भोजन करना भी एक दवा है। वैसे देखा जाए, तो छोटे होते परिवार में यह अब संभव नहीं रहा। फिर भी लोग हैं कि इस तरह का कोई अवसर आए, तो वे इसे छोड़ते नहीं।
गहरी नींद लेना एक दवा है, तो खिलखिलाकर हंसना भी एक दवा है। दोस्तों के साथ किसी पिकनिक में जाना एक दवा है, तो सदैव हंसमुख रहना भी एक दवा ही तो है। आपसे ही पूछता हूं कि सकारात्मक विचारों से लैस रहना क्या किसी दवा से कम है? मूक प्राणियों के प्रति दया करना भी तो एक दवा ही है। दया और करुणा भी तो एक दवा ही है। किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना भी एक दवा है। कोई मुसीबत में घिरा हो, उसके सिर पर हाथ फेर देना भी एक दवा ही है। अपने मातहत किसी कर्मचारी को ये कहना कि मैं हूं ना, चिंता मत करो। उस कर्मचारी के लिए किसी रामबाण से कम नहीं। नियमित ध्यान करना एक दवा है, तो कई मामलों में चुप रहना भी एक दवा ही है। कई बार एकांतवास में चले जाना भी एक दवा है।
इस सारी दवाओं के बाद भी कुछ दवाएं शेष रह ही जाती हैं। अंत में एक दवा का जिक्र जरूरी है। ऐसा कोई दोस्त जिसके पास जाकर हमें अपने जीवन की सारी बातों को बेखौफ होकर बता सकें, जिसके पास हम अपनी पीड़ाओं को शब्द दे सकें, जिसके कांधे पर सिर रखकर खूब रो सकें, जिसके साथ पेट पकड़-पकड़कर हंस सकें, ऐसा दोस्त दवा नहीं, बल्कि पूरी दवा की दुकान है। क्या आपके पास ऐसी दवाओं की दुकान है। नहीं है, तो हमें तलाशनी होंगी, दवाओं की ऐसी दुकानें। ये दुकानें हमारे आसपास ही हैं, बस एक छोटा-सा नजरिया ही तो चाहिए, इन दुकानों में पहुंचने का। एक कोशिश...केवल एक कोशिश करें.... आप देखेंगे कि कुछ ही समय बाद आपके आसपास दवाओं की ऐसी बेशुमार दुकानें हो जाएंगी। ऐसी दुकानों को अपने बीच पाकर क्या आप धन्य नहीं हो जाएंगे?
डॉ. महेश परिमल
कहां से आई छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति?
प्रिंसीपल की मौत से उठते सवाल
डॉ. महेश परिमल
इंदौर में बीएम फार्मेसी कॉलेज की 55 वर्षीय प्रिंसीपल विमुक्ता शर्मा आखिर जिंदगी से अपनी जंग हार गई। शनिवार की सुबह उन्होंने आखिरी सांस ली। लगातार 5 दिनों तक उन्होंने मौत का डटकर मुकाबला किया। वह 80 प्रतिशत जल चुकी थीं। उनकी मौत ने समाज के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया है, जिसका जवाब मिलना बहुत ही मुश्किल है। कॉलेज प्रबंधन से नाराज छात्र आशुतोष श्रीवास्तव ने उन पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी थी। यह छात्र काफी समय से असामाजिक गतिविधियों में लिप्त था। उसकी शिकायत प्रिंसीपल ने पुलिस से पिछले साल की थी। पर हमेशा की तरह पुलिस ने छात्र पर कोई कार्रवाई नहीं की।
छात्र द्वारा अपने प्रिंसीपल, टीचर या अपने ही दोस्तों पर किए गए हमले की यह पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी फरवरी 2018 में हरियाणा के यमुनानगर में 12 वीं के छात्र ने अपनी प्रिंसीपल को चार गोलियां दाग दी। प्रिंसीपल रितु छाबड़ा की वहीं मौत गई। वजह यही थी कि प्रिंसीपल ने छात्र को स्कूल में मोबाइल लाने से मना किया था। दिल्ली की रेयान स्कूल का मामला हमारे सामने है, जिसमें एक छात्र ने अपने से छोटे बच्चे को चाकू से मार डाला। अब वह भले ही बाल अपराधी है, पर उसकी आदतें किसी पेशेवर मुजरिम से कम नहीं। अक्टूबर 2012 में चेन्नई में नवमीं कक्षा के एक बच्चे ने अपनी शिक्षिका की चाकू मारकर हत्या कर दी। भारतीय समाज के लिए यह चौंकाने वाली खबर है।
दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, चेन्नई समेत देश के कई हिस्सों में स्कूलों के अंदर कुछ छात्रों द्वारा किसी छात्र या शिक्षक की हत्या किए जाने की घटनाओं ने ये संकेत दिए हैं कि स्कूली छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के इस देश में हिंसा को बढ़ावा देकर जैसा माहौल बनाया जा रहा है, उसकी छाप बच्चों के कोमल मन पर पड़ना स्वाभाविक है और यह गंभीर चिंता का विषय है। मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाविदों की मानें तो स्कूली छात्रों के मन में भरी कुंठा, असहिष्णुता (बर्दाश्त करने की क्षमता न होना) के कारण स्कूली बच्चे इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाज के लिए घातक बनती जा रही है।
कुछ बरस पहले ही दिल्ली के ज्योति नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में कुछ छात्रों ने 10वीं के छात्र की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। दिल्ली से सटे गुरुग्राम के एक बड़े निजी स्कूल में हुई बहुचर्चित प्रद्युम्न हत्याकांड समाज को झकझोर कर रख देने वाली घटना है। उधर, गुजरात के वड़ोदरा में एक छात्र की चाकू से 31 बार वार कर हत्या कर दी गई थी। दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के सेंट मैरी एग्लो इंडियन स्कूल में 12वीं कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य की हत्या कर दी। देशभर में इस तरह की कई घटनाएं हैं, जो स्कूली छात्रों में पनप रही हिंसा की प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं। ये घटनाएं समाज के लिए खतरे की घंटी हैं।
देश में उच्च वर्ग का जो चेहरा बदला है, यह उसी का प्रतिरूप है। हम लगातार देख, पढ़ और सुन रहे हैं कि आजकल बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कुछ लोग जमाने को दोष देकर चुप हो जाते हैं, कुछ इसे संस्कारों का दोष मानते हैं, कुछ लोग इसके लिए पालकों को दोषी ठहराते हैं। समाजशास्त्री कुछ और ही सोचते हैं। वैज्ञानिक इसे जींस या हार्मोन में बदलाव की बात करते हैं। पर सबसे आवश्यक और गंभीर बात पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा रहा है। कहाँ से आई बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति? क्यों होते हैं वे आक्रामक? आखिर क्या बात है कि वे अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाते? कहीं कुछ तो है, जो हमें दिखाई देते हुए भी नहीं दिख रहा है। आखिर क्या है ऐसा, कौन है दुश्मन, जो सामने होकर भी हमें दिखाई नहीं दे रहा है और हम उसका प्रहार झेल रहे हैं। आइए एक प्रयास तो करें कि आखिर कौन है हमारे बच्चों का दुश्मन..
डॉ. नवीन बताते हैं कि समाज में सफलता का पैमाना आईएएस, आईपीएस और बड़ा व्यापारी मान लिया गया है, लेकिन अच्छा मनुष्य बनने की भावना में कमी आई है। समाज में आम और विशेष की खाई बढ़ी है। समाज में सफलता की परिभाषा हो गई है 'शक्तिशाली', जो शक्तिशाली है वह अपना प्रभुत्व कायम कर लेगा। समाज आपको तभी मानेगा जब आप आईपीएस, बड़े व्यापारी या राजनेता होंगे। यह बहुत ही खतरनाक चलन बन गया है। देश में कोई व्यक्ति अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता, इसी तरह से मौलिक चीजों को नजरअंदाज किया जा रहा है।
इस संबंध में डॉ. कुमार का मानना है कि अगर किसी बच्चे ने सफलता पा ली तो ठीक है, लेकिन अगर वह सफल नहीं हुआ तो परिवार से लेकर समाज तक में उसे कोसा जाता है। ऐसे में उसमें कुंठा बढ़ेगी ही। बचपन आनंद काल होता है, जहां उसके गुणों और आत्मविश्वास का निर्माण होता है, लेकिन स्कूलों में 70 से 80 फीसदी बच्चों को पता ही नहीं होता कि उसे आगे करना क्या है। दरअसल, वर्तमान में समाज भी आत्मकेंद्रित होने की ओर बढ़ रहा है। बच्चे इस देश का भविष्य हैं और अगर बच्चे हिसात्मक हो जाते हैं तो हमारा भविष्य अधर में लटक जाएगा। इसके लिए सभी समाजसेवियों, शिक्षाविदों और चिंतकों को आगे आना चाहिए, ताकि स्कूली बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास को बढ़ाया जाए, न कि हिंसक प्रवृत्ति को।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 30 जनवरी 2023
ऋतुओं का राजा वसंत......

गुरुवार, 12 जनवरी 2023
सफलता की गरिमा
जनसत्ता में 9 जनवरी 2023 को प्रकाशित

रविवार, 8 जनवरी 2023
जिंदगी में कब 'हाँ' कहें और कब बोलें 'न'

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2022
नए साल का इंतजार
नया साल: वे यहां, हम वहां
कदम दर कदम हम नए साल की ओर बढ़ रहे हैं। इसके लिए हम सब मानसिक रूप से तैयार भी हैं। हमारे देश में तो यह वर्ष में 5 बार मनाया जाता है। पर हमने उन्हें अभी तक भीतर से नहीं स्वीकारा है। हमारे लिए तो नया साल यानी 31 दिसम्बर की रात को मनाया जाने वाले जश्न ही है। इस जश्न को मनाने के लिए हम अनजाने में ही सारी स्वीकृतियां प्राप्त कर लेते हैं, जो हमें साल भर नहीं मिलती। इसे मनाने के लिए हम सारी हिदायतों को ताक पर रख देते हैं। पर हमसे सात समुंदर दूर बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें भारतीय संस्कृति से प्यार है। वे भले ही वहां रहते हो, पर उनका दिल भारत में ही धड़कता है। इसलिए वे अपनी संस्कृति और परंपरा को बचाए रखने के लिए ऐसा कुछ करते हैं, जो हम नहीं कर पाते हैं।
नए साल को हर कोई इसे अपने तरीके से मनाना चाहता है। कोई शपथ के साथ, कोई संकल्प के साथ, तो कोई वाणी के अनुसार। इसका कोई लाभ होता है, यह कभी वास्तविक जीवन में देखा नहीं गया। वास्तव में यह हमारा नया साल है ही नहीं। यह तो पाश्चात्य देशों के लिए नया साल हो सकता है। पर हमारे लिए न होते हुए भी यह बहुत कुछ है। इसके लिए हम साल भर इंतजार रहता है। हम दोगुने उत्साह से इसमें भाग लेते हैं। क्या कोई मान सकता है कि न कोई मूर्ति, न कोई आरती, न कोई गीत, न कोई तस्वीर, न कोई सरकारी छुट्टी, इसके बाद भी 31 दिसम्बर की रात लोग झूम पड़ते हैं। डांस करते हैं, अपने उत्साह को दोगुना करते हैं। आखिर इस 31 दिसम्बर की रात में ऐसा क्या है, जिसने युवाओं को इतना अधिक दीवाना बना रखा है। इस तरह से देखा जाए, आगामी वर्षों में 31 दिसम्बर की रात और भी ज्यादा रंगीन होती जाएगी। समाज सुधारकों के लिए यह एक खतरे की घंटी हो सकती है। इतना छलकता उत्साह तो हमारे धार्मिक त्योहारों में भी नहीं देखा जाता। इस रात को होने वाले आयोजनों में भी अब लगातार वृद्धि होती जा रही है। युवाओं को डांस करने का बहाना चाहिए, तो 31 दिसम्बर की रात को यह बहाना मिल जाता है। इस दौरान ऐसा बहुत कुछ हो जाता है, जिसे रेखांकित किया जाए, तो समाज की एक दूसरी ही तस्वीर सामने आएगी।
पर हमें निराश होने की आवश्यकता नहीं है। 31 दिसम्बर की रात को बहुत कुछ ऐसा भी होने जा रहा है, जिसे हम उल्लेखनीय कह सकते हैं। हम यहां रहकर वहां की संस्कृति को अपनाते हुए वे सब कुछ करेंगे, जो हम करते आ रहे हैं, पर हमसे सात समुंदर दूर बहुत से लोग ऐसे भी हैं, जो वहां रहकर यहां की संस्कृति को जीवित रखने का पुरजोर प्रयास करेंगे। इसीलिए कहा गया है कि जो यहां हैं, वे वहां की संस्कृति को अपना रहे हैं और जो यहां हैं, वे यहां की संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपनी ओर से कोशिशें कर रहे हैं।
यहां के वे लोग जो वहां हैं, वे अपनी समानांतर संस्कृति को बचाने के लिए 31 दिसम्बर को हिंदू संस्कृति के कार्यक्रम करने जा रहे हैं। इस तरह का प्रचलन वहां अब बढ़ने लगा है। अमेरिका में क्रिसमस का आयोजन बड़े जोर-शोर से होता है। पर वहां जो हिंदू हैं, चूंकि उनकी जड़ें भारत में हैं, इसलिए वे इस दिन वहां के अनेक मंदिरों में 31 दिसम्बर की रात को बारह बजने के आधे घंटे पहले ही हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर देंगे। इस तरह से वे हनुमान चालीसा की पंक्तियों के साथ नए वर्ष में प्रवेश करेंगे। इसके लिए सभी ने अपनों को बुलाया है। वे जो अपने हैं, जिनकी जड़ों में भारत बसता है। भले ही उनका दिल वहां धड़कता हो, पर आत्मा से वे सभी यहीं हैं, यहां की माटी को प्यार करते हैं। आज भी बड़े गर्व से वे अपनी माटी को माथे पर लगाते हैं। अपनों को बुलाने के लिए उनका आमंत्रण भी विशेष है। जहां क्लब कल्चर का बोलबाला हो, वहां यदि भारतीय अपनी पहचान को कायम रखने के लिए संस्कृति को जीवंत रखने का प्रयास करते हैं, तो इस सराहनीय ही कहा जाएगा।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी वाशिंगटन के वेलेव्यू हनुमान मंदिर में 31 दिसम्बर की रात सुंदर कांड का पाठ रखा गया है। रात 11.45 से 12 बजे तक हनुमान चालीसा का पाठ होगा। वर्जीनिया की श्री सत्यनारायण स्वामी सेवा सन्निधी में 31 दिसम्बर की रात 8 बजे से अखंड हनुमान चालीसा शुरू होगा। इसमें हजारों लोग शामिल होंगे। बारह बजे के बाद कोई खाना-पीना नहीं, पर काजू-बादाम का हलुआ प्रसाद के रूप में दिया जाएगा। ऑस्टिन(टेक्सास) में सांईबाबा टेम्पल में 12 बजे तक भजनों का कार्यक्रम है। नॉर्थ अमेरिका की श्री महावल्लभ गणपति मंदिर में 1000 दीये जलाए जाएंगे। इसे सभी ने अलंकारम का नाम दिया है।
अमेरिका में ओमिक्रोन के मामले में तेजी से बढ़ोतरी हुई, जिसके बाद प्रशासन ने नए साल पर होने वाली पार्टियों पर आंशिक रूप से प्रतिबंध लगाए हैं। नए वर्ष के स्वागत में हम लोग घर भी ही घुसे रहते हैं या फिर सड़कों पर मस्ती करते हैं। लोग इसे वेस्टर्न वे ऑफ लिविंग कहते हैं। हमारा नव वर्ष तो गुड़ी-पड़वा है। जिसे हम सब भूलने लगे हैं। वास्तव में गुड़ी-पड़वा में उपवास का भी प्रावधान है, जो हमें नागवार गुजरता है। हमें बहाना चाहिए, मस्ती करने का, जो वेस्टर्न कल्चर में बिंदास है। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में नए साल में कई मंदिरों में भजन कार्यक्रम होंगे, पर उसमें कितने लोग कितनी श्रद्धा से शामिल होते हैं, इसे तो वहीं जाकर देखा जा सकता है। उन्माद की मूर्खता में हम यह भूल गए हैं कि हमारी भी कोई संस्कृति है। हम विदेशी संस्कृति के विकृत रूप को अपनाने में जरा भी देर नहीं करते, पर उस संस्कृति की कई चीजें हम नकार देते हैं। काम के प्रति जुनून, समय की पाबंदी, सफाई के प्रति संवेदनशील आदि कई ऐसी आदतें हैं, जो विदेशियों की हैं, जिसे हम अपनाना नहीं चाहते।
31 दिसम्बर की रात को थिरकते युवाओं को देखकर ऐसा लगता है कि आखिर ये किसकी खुशी मना रहे हैं। कैलेंडर का एक पेज ही तो बदला है। बीते हुए साल से क्या सीखा और आने वाले साल से क्या सीखना है, उसकी क्या योजना है, इस पर कोई नहीं सोचता। दिन-रात तो एक ही तरह से होते हैं, इसमें कैसा आयोजन और कैसी मस्ती? यही एक ऐसी रात होती है, जिसमें हर कोई नाचता ही दिखाई देता है। स्थान सड़क हो या फिर कोई क्लब, होटल, पार्टी। कड़कड़ाती ठंड भी इन युवाओं को रोक नहीं पाती। यह एक ऐसा स्वयंभू उत्सव है, जिसमें किसी भी तरह से किसी को आमंत्रित नहीं किया जाता। लोग खुद होकर इसमें शामिल होते हैं। नाचते-गाते हैं। ऐसा क्या है इस रात में कि युवा खो जाते हैं, नए साल के स्वागत में। देेखा जाए, तो ये युवा इसलिए उत्सव मनाते हैं, क्योंकि साल भर की दुश्वारियों के बीच वे जीवित हैं। उनके बेहद करीब साथी दुनिया छोड़ गए। उनमें अभी भी दम-खम है, संघर्ष का, इसलिए वे जिंदा रहने की खुशी में नए साल को उत्सव के रूप में देख रहे हैं। दूसरी ओर इसके पीछे वह गुप्त मार्केटिंग भी है, जो युवाओं को विदेशी कल्चर की तरफ आकर्षित करता है। हमें विदेश की बनी हर चीज से आकर्षित होते आए हैं, बस इसी का फायदा उठाया रहा है। युवाओं के अंतर्मन में यही बात है, जो उसे उत्सव प्रिय तो बनाती है, पर केवल विदेशी उत्सव के प्रति ही उसका लगाव दिखता है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 20 दिसंबर 2022
धनपतियों का पलायन

मंगलवार, 29 नवंबर 2022
इंसान के भीतर से छीजती हरियाली
डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले एक स्कूल में बच्चों को अपनी पसंद का चित्र बनाने को कहा गया। चित्र का शीर्षक था पर्यावरण। आश्चर्य इस बात पर हुआ कि बच्चों ने पर्यावरण के नाम पर जंगली जानवरों के चित्र बनाए, पर उनके चित्रों में पेड़-पौधे नदी, तालाब गायब थे। सोच की तरंगों ने विस्तार पाया, तो समझ में आया कि इस समय बच्चों की पहुंच से दूर हो गए हैं पेड़-पौधे। वे वनस्पतियों से अधिक जानवरों में रुचि लेते हैं। उनके खिलौनों में अत्याधुनिक कारों के छोटे-छोटे माँडल के अलावा रबर के जंगली जानवर तो मिल जाएंगे, पर पेड़-पौधे, नदी-तालाब नहीं मिलेंगे। शोध में आम व्यक्ति को जंगल का फोटो दिखाया गया। इसमें जानवर और पेड़-पौधे दोनों थे। उनसे पूछा गया कि फोटो में क्या दिखा। लोगों ने जानवर के बारे में बताया, लेकिन पेड़-पौधों को नजरअंदाज कर दिया। इसे ही कहते हैं प्लांट ब्लाइंडनेस।
सच भी है, हममें से न जाने कितने लोग ऐसे भी होंगे, जिन्होंने कई दिनों से न तो कोई पेड़ देखा होगा, न ही यह समझा होगा कि यह किसका पेड़ है। जिन्होंने पेड़ देख तो लिया होगा, पर उसे छूना पसंद नहीं किया होगा। पेड़ के प्रति इस बेरुखी को नाम दिया गया है प्लांट ब्लाइंडनेस। यह स्थिति साफ बता रही है कि हम सब पेड़ों के प्रति अपनी संवेदनाओं से दूर होते जा रहे हैं। आखिर क्या हो गया है हमें? इंसान और पेड़-पौधों के बीच क्यो आ रही है, इतनी दूरियां? क्या दोनों के बीच के रिश्ते अब रिसने लगे हैं? क्या इंसान अब पेड़ों से किसी प्रकार का रिश्ता रखना ही नहीं चाहता?
हाल ही में इस विषय पर एक शोध हुआ, जिसमें बताया गया कि लोगों में संवेदनाओं का अभाव पैदा हो गया। सीधी-सी बात है, संवेदनाओं से दूर होते इंसान के लिए अब सब-कुछ सामान्य है। इंसान पौधों से दूर हो रहा है, यानी प्रकृति से दूर हो रहा है। प्रकृति से दूर यानी शहरीकरण को पूरी तरह से अपनाना। अब घरों में आर्टिफिशियल पौधों और प्रकृति की तस्वीरों ने जगह ले ली है। पौधों से दूर होता इंसान पौधों से संबंधित हर सीधी गतिविधि से दूर हो रहा है। सड़क किनारे किसी पेड़ के करीब से गुजरते हुए वह यह भी जानने की कोशिश नहीं करता कि आखिर ये पेड़ किसका है? पेड़-पौधों के प्रति कुछ जानने की जिज्ञासा का खत्म होना ही यह दर्शाता है कि हमारे भीतर का हरियालापन ही नष्ट हो गया है। 1998 से 2020 तक प्रकाशित हुए 326 लेखों की पड़ताल कर वैज्ञानिकों ने पाया कि लोगों की रुचि पेड़ों के बजाए जानवरों में ज्यादा थी। वे उनके बारे में पौधों से ज्यादा जानकारी याद रखना पसंद करते थे। इसका प्रमुख कारण यह माना जा रहा है कि शहरी लोगों में प्रकृति के प्रति अरुचि दिखाई दे रही है।
लोगों की दिनचर्या से पेड़ अब गायब होते जा रहे हैं। हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्होंने काफी दिनों से न तो किसी पेड़ के पत्तों का ध्यान से निहारा होगा और न ही किसी पेड़ को अपनी पोरों से महसूस किया होगा। हमारे ही बीच के लोग पेड़-पौधों को इसलिए नहीं समझ पाते, क्योंकि उन्होंने कभी हरे-भरे इलाकों में अधिक समय बिताया ही नहीं है। इसके विपरीत सुदूर गांवों में कई लोगों का जीवन ही पेड़-पौधों पर निर्भर होता है। वे न केवल पेड़ को जीते हैं, बल्कि को अपने भीतर पालते-पोसते हैं। पेड़ उनका जीवन साथी होता है। कोई भी काम पेड़ को सामने रखकर ही करते हैं। कई बार पेड़ों को पूजा भी जाता है। इसमें पीपल-बरगद के पेड़ भी हैं, जिनकी पूजा की जाती है।
हिंदुओं में एक त्योहार मनाया जाता है आंवला अष्टमी। इस दिन लोग घर से खाना बनाकर ले जाते हैं और जंगल में किसी आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करते हैं। कई लोग जंगल जाकर वहीं खाना बनाकर खाते हैं। कहा जाता है कि उस विशेष दिन आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने से शरीर को कई तरह की ऊर्जा की प्राप्ति होती है। कई तरह की व्याधियां दूर होती हैं। शरीर निरोग होता है। आजकल इंसानों के भीतर का जंगल तो समाप्त हो चुका है, अब उस बियाबान में हिंसक पशु नहीं, बल्कि कटुता के पैने नाखून वाले जानवर निवास करने लगे हैं। नितांत अकेले रहकर इंसान के भीतर का अकेलापन अब कई रूपों में सामने में आने लगा है। पहले यही स्थिति चिंतन की ओर ले जाती थी, अब यह इंसान को सब-कुछ तबाह करने की प्रवृत्ति की ओर ले जा रही है। इंसान दिनों-दिन एकाकी होता जा रहा है। अब उसे दूसरों से कोई मतलब नहीं है। उसकी पूरी दुनिया मोबाइल में समा गई है, जहां से वह सब-कुछ पा लेता है, जिसकी वह कामना करता है। हथेली में समाए उस यंत्र में ही उसका संसार होता है।
अब तक हम पर्यावरण को हरियाली से जोड़कर देखते आए हैं, पर सच तो यह है कि पर्यावरण का सही अर्थ आसपास के वातावरण से है। पहले हमारे आसपास का वातावरण हरियाली से भरा होता था, जिससे हम प्रेरणा लेकर अपने भीतर के सूखेपन को हरियाला बनाते थे। अब बाहर का सूखापन भीतर के सूखेपन से मिलकर एक रेगिस्तान ही तैयार हो रहा है हमारे भीतर। यही रेगिसतान स्वभाव हमें प्रकृति से दूर कर रहा है, पेड़ों से दूर कर रहा है, हमें हमारे अपनों से दूर कर रहा है। इसलिए आज पेड़ उखड़ रहे हैं, इंसान तो पहले ही उखड़ चुका है। इन हालात में हमारा भविष्य कैसा होगा, सोचा आपने?
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 22 नवंबर 2022
डेटिंग एप के धोखे से बचना आवश्यक
डेटिंग साइट्स का बढ़ता प्रदूषण
डॉ. महेश परिमल
अपनी प्रेमिका श्रद्धा के 35 टुकड़े करने वाला आफताब देश भर में युवाओं का खलनायक बन गया है। चारों तरफ उसकी निंदा हो रही है। ऐसा माना जा रहा है कि आफताब ने जो कृत्य किया है, उसके पीछे एक ऐसा ऐप है, जो इस तरह की प्रवृत्ति को बढ़ाने का काम करता है। यह एक डेटिंग ऐप है। दिल्ली पुलिस ने जांच में आफताब की प्रोफाइल में इस डेटिंग ऐप बम्बल का जिक्र है। यह एप्स और वेबसाइब्स ऑनलाइन व्यभिचार करने के लिए प्रोत्साहित करती है। इतना ही नहीं यह वेबसाइब्स उपभोक्ता के लिए पार्टनर की भी व्यवस्था कर देती है।
हमारे देश में इस तरह के ऐप का प्रवेश 2014 में ही हो गया था। इंटरनेट से जुड़े इस ऐप के आज लाखों व्यसनी हमारे देश में हैं। लोग इसके पीछे अपना कीमती समय बरबाद करते देखे गए हैं। यही नहीं, इसके लिए काफी धन भी खर्च करते हैं। इन्हीं ऐप में से एक है बम्बल। इस मोबाइल डेटिंग एप्लिकेशन पर लोग घंटों तक अपना समय देते हैं। यहां आकर वे अपना मनचाहे पात्र की तलाश करते हैं। डेटिंग साइट, मेट्रोमोनियल साइट ओर इरोटिक साइट आदि एक ही वेवलेंथ पर डेवलप हुई है। सभी में फर्जी प्रोफाइल की भरमार है। इसमें रजिस्ट्रेशन मुफ्त में होता है। कुछ साइट्स पर किसी से सम्पर्क करना होता है, तो उसके लिए राशि का भुगतान करना होता है।
इस समय देश भर का खलनायक आफताब ने डेटिंग एप्लिकेशन बम्बल के माध्यम से अन्य युवतियों के सम्पर्क में था। जांच में पता चला है कि जब उसके घर के फ्रिज में श्रद्धा का शव टुकड़ों में रखा था, तब भी वह बम्बल के माध्यम से सम्पर्क में आई युवतियां उससे मिलने आती थीं। आफताब को डेटिंग एप्लिकेशन का नशा था। नितांत अपरिचित लोगों के साथ हर तरह की सुविधाएं देने का प्रलोभन देने वाली ये डेटिंग साइट्स में कोई अपना मूल परिचय देना नहीं चाहता। ऐसी साइट्स यह भी खुलासा करती हैं कि हम अनजान लोगों के साथ अंतरंग संबंधों को प्रोत्साहन नहीं देते। अनजाने लोगों से सम्पर्क करने के पहले इनसे सावधान रहें, इस तरह की बातें शुरुआत में एग्रीमेंट में कही जाती हे। ये साइट्स अलग से चेट रूम की व्यवस्था भी कर देती है।
डेटिंग, यह हमारी भारतीय संस्कृति का विषय नही है। कामचलाऊ फ्रेंडिशिप, वन-साइट स्टैंड आदि विकृति फैलाने वाली प्रवृत्तियां हैं। लोग मेट्रोमोनियल साइट्स पर भी अपनी फर्जी तस्वीर और जानकारी देकर लोगों को ठगने का काम कर रहे हैं। शुरुआत में यह माना जा रहा था कि लोग अपनी जिज्ञासओं को शांत करने के लिए ही इस तरह की साइट्स में जाते हैं। परंतु हकीकत यह है कि अधिकांश लोग ऑनलाइन पार्टनर की तलाश करते हैं। जब दो अनजाने इस साइट में मिलते हैं, तो दोनों ही अपना परिचय नहीं देते। यहां तक कि नाम भी गलत बताते हैं। जबकि यह साइट्स कागजों पर अपना उद्देश्य यह बताती हैं कि यह साइट्स लोगों के स्वस्थ मनोरंजन के लिए है। इसके अलावा यह साइट्स प्रेम संबंध या विवाह के बाद होने वाले तनावों को दूर करने में सहायता करने का दावा भी करती है। किंतु यह सब एक औपचारिकता ही है। आजकल ये साइट्स अपनी कुंठित भावनाओं को व्यक्त करने और पार्टनर तलाशने का साधन बन गए हैं। डेटिंग हर समय सभी के लिए खराब होती है, यह कहना गलत होगा। परंतु डेटिंग ऐप को डिजाइन करने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि इस साइट पर आने वाले आखिर चाहते क्या हैं? इसके लिए वे तगड़ा चार्ज भी करते हैं, जिसका भुगतान करने के लिए साइट पर आने वाले खुशी-खुशी करते हैं। डेटिंग ऐप काफी समझदारी से तैयार की जाती हैं। वे लोगों की चाहतों को भी अच्छी तरह से समझती हैं। सर्च के आंकड़े बताते हैं कि इस साइट में आने वाले बुजुर्ग युवतियों की तलाश करते हैं और युवा विधवा महिलाओं या बड़ी उम्र की सिंगल रहने वाली महिलाओं की तलाश करते हैं।
एक मान्यता यह है कि लाइफ पार्टनर को तलाशने के लिए डेटिंग साइट्स बहुत अच्छा माध्यम है। मेट्रोमोनियल साइट के बजाए यहां खुले विचारों के लोग अधिक आते हैं। विधुर लोगों के लिए यह दूसरी बार जीवनसाथी चुनने का अवसर देती हैं ये साइट्स। इसके बाद भी इसका दूसरा पहलू यही है कि यह लोगों की कुत्सित भावनाओं को उभारकर उसे प्रोत्साहन देने का काम भी करती है। अनजाने लोगों के साथ अंतरंग बातचीत करने में इंसान खुद को अधिक सुरक्षित महसूस करता है। इससे बात करते हुए वह अपनी मानसिक विकृति को भी सामने लाकर संतुष्ट होता है। कई बार इस तरह की साइट से अच्छी मित्रता भी हो जाती है, पर ऐसा कम ही हो पाता है। कुल मिलाकर ये साइट लोगों के भीतर की उठने वाली कुत्सित भावनाओं की तरंगों को शांत करने का काम करती हैं।
नेटफ्लिक्स में एक डाक्यूमेंट्री 'स्वींडलर' है, जिसमें ऑनलाइन डेटिंग का स्याह पहलू दिखाया गया है। इसके खतरनाक पहलू पर भी बात रखी गई है। आफताब जैसे लोग डेटिंग ऐप का लाभ उठाकर अपने भीतर के गंदे विचारों को अंजाम देते हैं। इसके लिए हमें सचेत होना होगा। देश में ऐसी साइट्स पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। लोगों का ध्यान कम से कम इस ओर जाए, इसकी व्यवस्था करनी चाहिए। इस समय देश में एक ऐसे माहौल की जरूरत है, जिसमें इंसान अकेलपन में इस तरह की साइट से बचे। उस पर बुरे विचार हावी न हों। हर कोई उदार हो, किसी की भी भलाई करने में कोई पीछे न रहे। ऐसा तब संभव है, जब इंसान ही इंसान के भीतर के इंसान की पहचान कर ले।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022
जानलेवा साबित होती निष्क्रिय जीवनशैली

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