सोमवार, 30 मई 2011

बदलते परिवेश में बदलती पत्रकारिता



आज पत्रकारिता दिवस


अतुल कुमार शर्मा

समाज को जागरुक रखने में प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने निभाई महत्वपूर्ण भूमिका

प्रजातांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र के विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका जहां संवैधानिक स्तंभ हैं, वहीं पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। बात अगर भारतीय परिवेश में भारतीय पत्रकारिता की करें तो यह सशक्त भूमिका अदा कर रही है। आज कोई क्षेत्र पत्रकारिता की परिधि से बाहर नहीं है। आजादी पूर्व की पत्रकारिता व वर्तमान पत्रकारिता दोनों के स्वरूपों, कार्य प्रणाली व लक्ष्यों में भले ही परिवर्तन आ गया हो, लेकिन भूमिका दोनों ही समय में महत्वपूर्ण रही है। परिवर्तन की बयार दोनों ही कालों में बही है। यह भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र की व्यापक्ता व विकास का सूचक ही है कि स्वतंत्रता पूर्व चुनिंदा समाचार पत्रों पत्रिकाओं की संख्या आज पचास हजार का आंकड़ा पार गई है। साथ ही हर्ष का विषय है कि इनमें से बीस हजार से ज्यादा हिंदी भाषा के हैं। हिंदी प्रेमियों व पाठकों हेतु यह संतोष का विषय है। दर्जनों चौबीसों घंटों सातों दिनों चलने वाले हिंदी भाषी चैनलों ने तो सूचना तंत्र को तथा जनसंचार को एक नई परिभाषा प्रदान की है। जहां तक पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के उदय का सवाल है तो यह उद्भव लगभग 185 वर्ष पुराना है। उदन्तमार्तण्ड हिंदी भाषा का वह पहला समाचार पत्र था जिसका प्रकाशन 1826 में कलकत्ता के कोल्हू टीला नामक स्थान से हुआ। इस प्रथम हिंदी भाषी समाचार पत्र के संपादक, मुद्रक व प्रकाशन थे पंडित युगल किशोर शुक्ल। हिंदी बहुल क्षेत्र में प्रकाशित होने वाला प्रथम समाचार पत्र बनारस अखबार था जो सन् 1845 में प्रारंभ हुआ। इसके पश्चात हिंदी पत्रकारिता के अनेक युग आए जिनमें भारतेंदु युग व द्विवेदी युग प्रमुख रहे हैं। स्वतंत्रता से पूर्व जहां ‘द ट्रिब्यून’, ‘द हिंदू’, मराठा, स्वदेशमिनम् व बंगाली जैसे विविध भाषी समाचार पत्रों की तूती बोलती थी, वहीं अर्जुन, सैनिक, प्रताप, नवयुग, इंदौर समाचार, आर्यव्रत व नई दुनिया जैसे हिप्र जातांत्रिक व्यवस्था में लोकतंत्र के विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका जहां संवैधानिक स्तंभ हैं, वहीं पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। बात अगर भारतीय परिवेश में भारतीय पत्रकारिता की करें तो यह सशक्त भूमिका अदा कर रही है। आज कोई क्षेत्र पत्रकारिता की परिधि से बाहर नहीं है। आजादी पूर्व की पत्रकारिता व वर्तमान पत्रकारिता दोनों के स्वरूपों, कार्य प्रणाली व लक्ष्यों में भले ही परिवर्तन आ गया हो, लेकिन भूमिका दोनों ही समय में महत्वपूर्ण रही है। परिवर्तन की बयार दोनों ही कालों में बही है। यह भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र की व्यापक्ता व विकास का सूचक ही है कि स्वतंत्रता पूर्व चुनिंदा समाचार पत्रों पत्रिकाओं की संख्या आज पचास हजार का आंकड़ा पार गई है। साथ ही हर्ष का विषय है कि इनमें से बीस हजार से ज्यादा हिंदी भाषा के हैं। हिंदी प्रेमियों व पाठकों हेतु यह संतोष का विषय है। दर्जनों चौबीसों घंटों सातों दिनों चलने वाले हिंदी भाषी चैनलों ने तो सूचना तंत्र को तथा जनसंचार को एक नई परिभाषा प्रदान की है। जहां तक पत्रकारिता के क्षेत्र में हिंदी पत्रकारिता के उदय का सवाल है तो यह उद्भव लगभग 185 वर्ष पुराना है। उदन्तमार्तण्ड हिंदी भाषा का वह पहला समाचार पत्र था जिसका प्रकाशन 1826 में कलकत्ता के कोल्हू टीला नामक स्थान से हुआ। इस प्रथम हिंदी भाषी समाचार पत्र के संपादक, मुद्रक व प्रकाशन थे पंडित युगल किशोर शुक्ल। हिंदी बहुल क्षेत्र में प्रकाशित होने वाला प्रथम समाचार पत्र बनारस अखबार था जो सन् 1845 में प्रारंभ हुआ। इसके पश्चात हिंदी पत्रकारिता के अनेक युग आए जिनमें भारतेंदु युग व द्विवेदी युग प्रमुख रहे हैं।
अतुल कुमार शर्मा

शुक्रवार, 27 मई 2011

पाकिस्‍तान के परमाणु शस्‍त्र भी असुरक्षित



दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के पेज 9 पर प्रकाशित

लिक
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-05-27&pageno=9

मंगलवार, 24 मई 2011

टाट के प्‍याऊ में पानी से भरे लाल !





दैनिक भास्‍कर के सभी संस्‍करणों में आज एक साथ प्रकाशित
लिंक-

http://10.51.82.15/epapermain.aspx?edcode=120&eddate=5/24/2011%2012:00:00%20AM&querypage=8

शनिवार, 21 मई 2011

बैकें खुले आम लूट रही हैं उपभोक्ताओं को



डॉ. महेश परिमल

आम आदमी का जो धन बैंकों में जमा है, उसे ही उद्योगपतियों को कम ब्याज में कर्ज के रूप में दिया जा रहा है। इस धन को उद्योगपति अपने मौज-शौक में इस्तेमाल करते हैं। इस कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है। यही मुद्रास्फीति जब अधिक हो जाती है, तब रिजर्व बैंक ब्याज दर में .25 या 50 प्रतिशत की वृद्धि कर दी जाती है। आज हमारी बचत पर बैंक जितना ब्याज दे रही है, वह सरासर अन्याय है। अब तो उसकी नजर उस आम आदमी के बचत खाते पर है। अब बैंक लेन-देन शुल्क लेने पर विचार कर रही है। इस तरह से देखा जाए, तो बैंक आम आदमी को लूटने में कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहती।
हमारी सरकार यदि सचमुच आम आदमी की सरकार है, तो बचत खाते में 10 और फिक्स्ड डिपाजिट पर 15 से 20 प्रतिशत ब्याज मिलना चाहिए। हाल ही में रिजर्व बैंक ने बचत खाते में ब्याज दर में 0.05 प्रतिशत की वृद्धि की है। रिजर्व बैंक द्वारा जब भी रेपो रेट या रिवर्स रेपो रेट में कमी-बेशी की जाती है, तब आम आदमी को यह समझ में नहीं आता कि इससे उसे क्या फर्क पड़ेगा? हाल में रिजर्व बैंक ने रेपो रेट 0.5 प्रतिशत से बढ़कार 7.25 प्रतिशत किया, उसके कारण अर्थ तंत्र की विकास दर 9 प्रतिशत से घटकर 8 प्रतिशत हो जाएगी। रेपो रेट बढ़ने के कारण विकासदर में आखिर क्यों कमी आएगी? यह आम आदमी की समझ से परे है। इसे समझने के लिए जब गहराई में जाते हैं, तब कई बातें स्पष्ट होती हैं।
भारतीय बैंकों द्वारा आम आदमी से लगातार छलावा किया जा रहा है। पहले बात करें बचत खाते में जमा राशि पर दिए जाने वाले ब्याज की। देश का आम नागरिक अपनी जमा पूँजी बैंकों में बचत खाते में जमा करता है। हम जानते हैं कि देश की तमाम बैंके पिछले 8 वर्षो से बचत खाते में जमा राशि पर प्रति वर्ष 3.5 प्रतिशत ब्याज दिया जाता था। इसका आशय यह हुआ कि यदि हम अपने पसीने की कमाई एक लाख रुपए बैंक में जमा कराएँ, तो एक वर्ष बाद बैंक वर्ष के अंत में केवल 500 रुपए ब्याज के रूप में देती थी। हम सब जानते हैं कि भारत में मुद्रास्फीति की दर 9 से 10 प्रतिशत रहती है, अर्थात एक वर्ष पहले हम जिस चीज को एक लाख रुपए में खरीद सकते थे, एक वर्ष बाद उसी चीज को खरीदने के लिए एक लाख दस हजार रुपए खर्च करने पड़ेंगे। दूसरे शब्दों में एक वर्ष बाद बैंक में जमा हमारा एक लाख रुपया 90 हजार के बराबर हो जाता है। इसमें यदि हम ब्याज के 500 रुपए जोड़ें, तो यह कीमत 93 हजार 500 रुपए होती है। इस तरह से हमें बचत खाते में एक लाख रुपए जमा करने से हर वर्ष 500 रुपए का नुकसान उठाना पड़ता है। वास्तव में बचत खाते में न्यूनतम ब्याजदर देश के प्रवर्तमान मुद्रास्फीति की दर जितनी होनी चाहिए।
बचत खाते में ब्याजदर कम होती है, तो उसका फायदा और नुकसान किसे होता है, यह समझना अतिआवश्यक है। देश की सभा बैंकों में निवेशकों के करीब 50 लाख करोड़ रुपए जमा हैं। इसमें से करीब 20 प्रतिशत यानी दस लाख करोड़ रुपए बचत खाते में है। यह राशि समाज के गरीब और मध्यम वर्ग की है।3.4 प्रतिशत ब्याज दर के अनुसार आज की तारीख में बैंक बचत खाताधारकों को 35 हजार करोड़ रुपए ब्याज के रूप में देती है। अब इस ब्याज दर में 0.5 प्रतिशत की वृद्धि किए जाने से खाताधारकों को दी जाने वाली राशि 40 हजार करोड़ रुपए हो जाएगी। अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार मुद्रास्फीति की दर की अपेक्षा ब्याज की दर अधिक होनी चाहिए। हमारी बैंकें इस नियम की खुलेआम धज्जियाँ उड़ा रही हैं। इस हिसाब से बचत खातों की ब्याज दर दस प्रतिशत होनी चाहिए।
हमने देखा कि बैंकों द्वारा बचत खाते के खाताधारकों को एक वर्ष में एक लाख करोड़ रुपए ब्याज के रूप में दिए जाने चाहिए। उसके बदले में बंकें केवल 35 हजार करोड़ रुपए ही देती है। इस तरह से आम आदमी को हर वर्ष 64 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। आखिर इसका लाभ किसे मिल रहा है? यह लाभ देश के बड़े उद्योगपतियों एवं कुछ हद तक बैंकों को हो रहा है। बैंक बचत खाताधारकों को मात्र 3.5 प्रतिशत ब्याज देती है, इस कारण रसूखदारों को वह कार खरीदने और उद्योगपतियों को बहुत ही कम दर पर कर्ज देती है। जबकि उनसे दस प्रतिशत ब्याज भी लिया जाए, तो वे देने में सक्षम हैं। गरीबों और मध्यमवर्ग के पसीने की कमाई को कुछ बड़े लोगों को देकर बैंक खूब लाभ कमा रही हैं। गरीबों के धन से विकास हो रहा है और गरीबों का ही शोषण हो रहा है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने जब रेपो रेट में 0.5 प्रतिशत की वृद्धि की घोषणा की, तब यह भी कहा था कि ब्याज दर में वृद्धि के कारण भारत के अर्थतंत्र का विकास 9 प्रतिशत से घटकर 8 प्रतिशत हो जाएगा। रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को ब्याज की जिस दर पर कर्ज दिया जाता है, उसे रेपो रेट कहते हैं। आज की तारीख में यह रेपो रेट 6.75 प्रतिशत है। इसे बढ़ाकर 7.25 प्रतिशत किया गया है। बैंक द्वारा लोगों को जो कर्ज दिया जाता है, उसके रेपो रेट में अपना मुनाफा निकाल लेती है।
रिजर्व बैंक द्वारा जब भी रेपो रेट में वृद्धि की जाती है, तब बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण की दर में भी अनिवार्य रूप से वृद्धि होती है। रेपो रेट में 0.5 प्रतिशत की वृद्धि की जाती है, तब बैंकों द्वार दिए जाने वाले लोन की दर में 0.5 से 1 प्रतिशत जितनी वृद्धि होती है। ब्याज के दर में एक प्रतिशत की वृद्धि होने से क्या फर्क पड़ता है? यह सवाल भी कई लोगों को सताता होगा। हमने पहले ही बता दिया है कि बचत खातों में करीब 50 लाख करोड़ रुपए जमा हैं। इस राशि से यदि बैंक बड़े लोगों को दस प्रतिशत की दर से कर्ज दे, तो यह राशि प्रतिवर्ष 5 लाख करोड़ रुपए जितनी होती है। यदि ब्याज की दर में एक प्रतिशत की वृद्धि की जाए, तो उद्योगपतियों और रसूखदारों को उनके व्यापार व्यवसाय के विकास के लिए ब्याज पर कर्ज दिया जाता है, तो इस डिपाजिट पर दस प्रतिशत ब्याजदर वसूला जए, तो 5 लाख करोड़ रुपए अधिक प्राप्त हो सकते हैं। यदि उनके लिए ब्याज दर में एक प्रतिशत का भी इजाफा किया जाए, तो यह रकम उद्योगपतियों और रसूखदारों को हर साल 50 हजारा करोड़ रुपए अधिक चुकाने होंगे।
2010 के मार्च महीने में रेपो रेट 5 प्रतिशत ही था। उसमें पिछले 14 महीनों में 8 बार वृद्धि की गई। अभी रेपो रेट 7.25 प्रतिशत किया गया है। इससे बैंक से कर्ज लेने वालों पर करीब 2.25 लाख करोड़ रुपए की वृद्धि की गई। ब्याज दर बढ़ती है, तो उद्योगपति स्वाभाविक रूप से बैंक से लोन लेकर नए उद्योगों के विकास की गति धीमी कर देते हैं, इसलिए विकास दर में भी कमी आती है। रिजर्व बैंक द्वारा रेपो रेट में कमी-बेशी करने का असर आम आदमी और उद्योगपतियों पर किस तरह होता है, यह भी समझने लायक है। रेपो रेट में वृद्धि होती है, तब बैंको के फिक्स्ड उिपाजिट की दरों में उस अनुपात में वृद्धि करना अनिवार्य हो जाता है। आज से 14 महीने पहले जब रेपो रेट 5 प्रतिशत था, तब बैंकों के फिक्स्ड डिपाजिट के ब्याज की दर करीब 6 प्रतिशत के आसपास थी। अब रेपो रेट बढ़कर 7.25 प्रतिशत हो गई है, तो फिक्स्ड डिपाजिट की ब्याज दर बढ़कर 9 से 10 प्रतिशत हो गई है। इस तरह से रसूखदारों को मिलने वाला कर्ज महँगा हो जाता है और गरीब और मध्यम वर्ग को उनकी जमा पूँजी पर अधिक ब्याज मिल रहा है। बैंकों के फिक्स्ड डिपाजिट में धन जमा करने वाले अधिकांश नौकरीपेशा, पेंशनर और विधवाएँ होती हैं। इनका घर ब्याज की आवक से चलता है। इन लोगों द्वारा करीब 40 लाख करोड़ रुपए फिक्स्ड डिपाजिट के रूप में बैंकों में जमा किए गए हैं। बैंक इन्हें केवल 9 से 10 प्रतिशत ब्याज देती है। देश में जिस तरह से मुद्रास्फीति बढ़ रही है, उसे देखें, तो स्पष्ट होगा कि इन्हें मिलने वाला ब्याज शून्य हो जाता है।
बैंकों में लोगों द्वारा अपनी बचत फिक्स्ड डिपाजिट के रूप में जमा कराए जाते हैं, उसके अनुपात में रसूखदारों को कार खरीदने और उद्योगपतियों को नए कारखाने के लिए कम दर पर कर्ज दिया जाता है, इस कारण ऐसा कहा जाता है कि देश का विकास तेजी से हो रहा है। इस तरह से जो विकास होता है, उसमें आम आदमी को भारी नुकसान होता है और रसूखदारों-उद्योगपतियों को खूब मुनाफा होता है। इस कार्य में केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक दलाल की भूमिका निभाती है। इसे यदि सरल भाषा में कहें, तो केंद्र सरकार, रिजर्व बंक और देश की अन्य बैंकें रेपो रेट के नाम पर आम आदमी के पसीने की कमाई को सस्ते में लेकर रसूखदारों और उद्योगपतियों मुफ्त के भाव कर्ज के रूप में दे रही है। इस पूँजीनिवेश में से उद्योगपति जो कमाई करते हैं, उसे देश का विकास कहा जाता है। कम ब्याज दर में कर्ज लेने वाले रसूखदार जी खोलकर खर्च करने की छूट मिल जाती है, इस कारण मुद्रास्फीति बढ़ती है। इसका सबसे अधिक असर आम आदमी पर पड़ता है। जब मुद्रास्फीति काबू से बाहर होने लगती है, तब रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज की दर में .25 या .5 प्रतिशत की वृद्धि कर दी जाती है, इससे लोग खुश हो जाते हैं। वास्तव में इस तरह से तमाम बैंकें आम आदमी को लूटने में लगी हैं। इसमें केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक की मिलीभगत भी है।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 20 मई 2011

इस बढ़ोत्‍तरी का गुनाहगार कौन ?



दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के पेज 9 पर आज प्रकाशित आलेख

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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-05-20&pageno=9

बुधवार, 18 मई 2011

बहाव के खिलाफ तैरना अम्‍मा को बखूबी आता है





नवभारत रायपुर और बिलासपुर संस्‍करण के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित आलेख

मंगलवार, 17 मई 2011

महँगे सोने ने बदली चेहरे की रंगत


अखबार के पहले पन्ने पर सोने का भाव देखती हुई।


दैनिक अखबार और मोबाइल फोन बने उपयोगी

रमेश शर्मा/ पत्थलगांव
वह गाँव बड़ा अजीब है? कोई टीवी देखते-देखते अचानक चिल्ला पड़ता है। कोई दूसरा जब उस टीवी को देखे, तो पता ही न चले कि आखिर माजरा क्या हे? कोई मोबाइल पर बात करते-करते खुशी से उछल पड़ता है। कभी-कभी तो यह हालत होती है कि अखबार पढ़ते ही या तो वह गम में डूब जाता है, या फिर खुशी से उछलने लगता है। गम और खुशी के बीच जीने वाले कई गाँव हें, जिन्हें ईब नदी ने अपने आँचल में समेटा है। गाँव में शिक्षा का प्रसार बहुत ही कम है, पर लोग बड़े जागरुक हैं। ईब नदी ने अपने साथ स्वर्ण कण भी लाती है, जिसे यहाँ के लोग बहुत ही परिश्रम से ढँए़ते हैं, एक-एक कण सोना उनके लिए बहुत ही मूल्यवान होता है। इसलिए साने के भाव जेसे ही बढ़ते हैं, इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। भाव जैसे ही कम होता है, तो ये दु:खी हो जाते हैं। सोने का ताजा भाव जानने के लिए ये मोबाइल, टीवी और अखबार का सहारा लेते हैं। टीवी पर इनकी नजर धारावाहिकों पर कम पर नीचे की पट्टी पर अधिक होता है। ताकि सोने का भाव जाना जा सके। खुशी और गम के साथ-साथ जीने वाले ईब नदी के तट पर बसने वाले ये आदिवासी अब आधुनिकता के साथ इस तरह से जुड़ने लगे हैं।
सोने के भाव में इन दिनो निरतंर हो रही वृद्धि के चलते यहॉं पर गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले गरीब परिवार के लोगों का रहन सहन बदल गया है। जशपुर जिले के पत्थलगांव और फरसाबहार विकास खंड अन्तर्गत अनेक गांव के लोग ईब नदी के तट पर मिटटी और रेत में स्वर्ण कण तलाशने का काम करते हैं। यहां ईब नदी के तट पर मिटटी में कीमती स्वर्णकणों की तलाश का काम करने वाले इन ग्रामीणों को सोने के दाम में बेतहास वृध्दि हो जाने से अब अच्छी खासी आमदनी होने लगी है। मिटटी और रेत को पानी में धोने की कठिन प्रRिया पूरी करके इन ग्रामीणों के पास प्रति दिन 5 सौ से एक हजार रुपऐ कीमत के स्वर्ण कण इकटठे हो जाते हैं। सोने के भाव में प्रति दिन होने वाले उतार चढ़ाव के चलते इन ग्रामीणों ने मोबाइल फोन और दैनिक अखबार का सहारा लेना शुरू कर दिया है।
बागबहार की श्रीमती दशोबाई भुइहर एवं उर्वशी मोबाइल पर सोने के भाव की जानकारी लेती हुई।

ईब नदी के तट पर स्वर्ण कणों की तलाश करके अपना जीवन यापन करने वाले ज्यादातर ग्रामीणों के जीवन स्तर में इन दिनों अच्छा क्ष्ज्ञसा बदलाव दिखने लगा है। पत्थलगांव विकास खंड के बागबहार व कोतबा क्षेत्र तथा फरसाबहार विकास खंड के ग्राम सोनाजोरी धौरासांड़ पण्डरीपानी आदि गांवों के सैकड़ों गरीब मजदूर दिन निकलते ही इस काम में जुट जाते हैं। कीमती स्वर्ण कणों की तलाश करने वाले ग्रामीणों की इस काम में अच्छी आमदनी हो जाने से ज्यादातर लोगो ने दुपहिया वाहन तथा अपने घर में मनोरंजन के लिए टीवी लगा ली है। ग्राम तपकरा के जगन्नाथ राम ने बताया कि सोने की नई दर जानने के लिए ज्यादातर मजदूरों ने मोबाइल फोन खरीद रखे हैं । मोबाइल फोन का उपयोग करके आसपास में सोने चांदी का व्यवसाय करने वाले दुकानदारों से उन्हे सोने के भाव की ताजा स्थिति पता चल जाती है। इस ग्रामीण का कहना था कि दैनिक अखबार में सोने के भाव पढ़ कर यहां के खरीददारों की ठगी से बच जाते हैं। यदाकदा सोने का भाव कम रहने की स्थिति में वे स्वर्ण कण बेचने के लिए कुछ दिनों का इन्तजार भी कर लेते हैं। ग्राम बागबहार की श्रीमती दशोबाई की बेटी उर्वशी पढ़ी लिखी होने के कारण वह पड़ोस की दुकान में प्रति दिन अखबार देखने पहुंच जाती है। अखबार में सोने का भाव देख कर ही वह मिटटी से एकत्रित किए स्वर्ण कण बेचती है। इस परिवार के पास मोबाइल फोन भी उपलब्ध है। गांव गांव तक पहुंच चुकी संचार Rांति की बदौलत ऐसे सैकड़ो लोगो का रहन सहन बदल गया है।
एक एक रुपए का हिसाब
तपकरा के थाना प्रभारी ए.आर.छात्रे ने बताया कि आदिवासी बाहुल्य यहॉं के गांवों में दैनिक अखबार और संचार सुविधा के चलते यहॉं का माहौल बदल गया है। इस बदले हुऐ परिवेश में स्वर्ण कण बेचने वाले ग्रामीण भी अछूते नहीं हैं। श्री छात्रे ने बताया कि मिटटी और रेत में स्वर्णकणों की तलाश करने वालों के पास सचांर सुविधा उपलब्ध रहने से इनके ठगे जाने की शिकायत नहीं मिल रही हैं। उन्होने बताया कि पहले यहॉं स्वर्ण कण संग्राहकों से स्थानीय व्यापारी छोटे तराजू में बाट के स्थान पर धान से स्वर्णकणों को तौल कर खरीदी करते थे। लेकिन अब सोना बेचने वालों द्वारा कम्प्यूटराइज तराजू में तौल कर एक एक रुपए का हिसाब ले लिया जाता है।

सोमवार, 16 मई 2011

अब डोजियर से नहीं बनेगी बात







दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के पेज 9 पर आज प्रकाशित

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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-05-16&pageno=9

बुधवार, 11 मई 2011

कहाँ गुम हो जाते हैं सपनों के सौदागर ?





सोमवार, 9 मई 2011

यहॉं किसानों की किसे है फिक्र



आज के राष्‍ट्रीय जागरण के पेज 9 पर प्रकाशित आलेख



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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2011-05-09&pageno=9#id=111710945531104938_49_2011-05-09

शनिवार, 7 मई 2011

खुरदरे हाथों की कोमलता

8 मई. मदर्स डे पर विशेष



नन्हे शिशु के साथ श्रीमती प्रभा सिंग



रमेश शर्मा /पत्थलगांव/

वह एक साधारण-सी महिला है.. चेहरा उसका झुर्रीदार है, आँखों में ममता का सागर उमड़ता है, उसके हाथ हमेशा ही आशीर्वाद के लिए उठते हैं। जब भी उसे कोई अपना-सा दिख जाता है, तो उसे दिल से दुआएँ देती है। सामने वाला समझ भी नहीं पाता कि आखिर यह बुढिय़ा उस पर इतना प्यार क्यों जता रही है। वह उस प्यार को समझने की लाख कोशिश के बाद भी कुछ नहीं समझ पाता है।
दरअसल यह महिला ऐसे वाक्यों की आदि हो चुकी है।उसे कोई भले ही नहीं पहचान पाए पर वह अपने हाथों में किलकारी की पहली आवाज सुनाने वाले को भलिभंति पहचान लेती है। कभी कभी वह परायापन की पीड़ा से बुझ-सी जाती है। पर जल्द ही सब कुछ भूलकर वह ढ़ेर सारी दुआऍं देने लग जाती है। वह सोचती है कि ये सब सुखी रहें] मेरी तो यही कामना है, मैं तो वह माध्यम हूँ, जो दुनिया में इनके आने का वायज बनी। यह इस बात पर ही गर्व करती है कि इस दुनिया में ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें मैंने सबसे पहले देखा।आपको ये पंक्तियाँ शायद कुछ उलझा रही होंगी, आखिर वह कौन होगी, जिसने किसी बच्चे को पहली बार देखा होगा। यह बुढिय़ा आखिर ऐसा दावा कैसे कर सकती है। क्या वह नवजात की माँ है या फिर कोई और?
वास्तव में पिछले पचास वर्षो से भी अधिक समय से यहां पर दाई का काम करने वाली प्रभा सिंग ऐसी महिला है जिसके हाथो से प्रसव के बाद कई नवजात इस दुनिया में आए, बड़े हुए और सुखमय जीवन व्यतित कर रहे हैं। इनमें कई तो इंजीनियर, डॉक्टर बन गए। पर यह दाई आज भी वहीं की वहीं है। आज भी कई गाँव ऐसे हैं, जहाँ अस्पताल की सुविधा नहीं है, वहाँ इस दाई की सेवाएँ ली जाती हैं। वह मानती है कि किसी नवजात को इस दुनिया में लाने का काम एक यज्ञ की तरह होता है। जिसमें पूरी लगन और निष्ठा की आवश्यकता होती है। भीतर ममत्व का झरना न हो, तो यह काम हो ही नहीं सकता। घर में पहली किलकारी गूँजती है, तो वातावरण में खुशी व्याप्त हो जाती है। लोग सबसे पहले दाई से ही पूछते हैं-क्या हुआ ! वह संतोष के साथ बताती है कि लड़का हुआ या लड़की। फिर वह जच्चा-बच्चा के सकुशल होने की जानकारी देती है। नवजात शिशु का नाल काट कर उसकी सफाई के बाद परिजनों को सौंपते ही उसका काम खत्म हो जाता है। पूरे प्रसव को अंजाम देने के दौरान वह पानी तक नहीं पीती। उसके माथे पर भी परिजनों की तरह चिन्ता की लकीरें बनी रहती हैं पर उस समय वह अपनी चिन्ता को कभी भी व्यक्त नहीं करती। यह महिला बताती है कि प्रसव के दौरान गर्भवती महिला जीवन और मौत के बीच में संघर्ष करती है इसलिए वह खतरे को भंाप कर भी हिम्मत प्रदान करती है। उसे तो नवजात शिशु के सकुशल दुनिया में आने के बाद ही खुशी मिल पाती है। प्रभा सिंग बताती है कि घर में खुशियाँ बिखेरकर वह चली जाती है। कई लोग उसे छठी पर याद करते हैं] कुछ लोग भूल भी जाते हैं। जो याद करते हैं] वे उसके लिए कुछ इनाम अवश्य रखते हैं।
यहka के लोग बताते हैं कि वह जिस तरह से अपने सधे हाथों से प्रसव कराती है, वह सराहनीय है। इसका पता तो उस नवजात की माँ से चलता है] जो यह कहते नहीं थकती कि उस दौरान अगर ये दाई न होती] तो शायद मैं जिंदा नहीं बचती। इस दाई के कारण आज मैं और मेरी संतान इस दुनिया में है। नवजात की माँ का यह कहना ही उस दाई के लिए किसी इनाम से कम नहीं। आज वह सूनी आँखों से उन दिनों को याद करती है] जब उसने 11 अप्रेल 1958 को नागपुर से दाई का प्रशिक्षण लेकर पत्थलगांव में पहली बार इस काम को अंजाम दिया था। उस दौरान आदिम जाति कल्याण विभाग से 60 रूपये मासिक वेतन मिलता था। उस वक्त स्वास्थ्य सुविधाओं का सर्वथा अभाव रहता था। पर उस जटिल परिस्थितियों का सामना करते हुऐ यह महिला आज तीसरी पीढ़ी को भी अपनी सेवाऐं प्रदान कर चुकी हैं।
प्रभा सिंग कहती है कि आज वह लाचार है, कहीं दूर जा नहीं पाती। आंखों से भी कम दिखने लगा है। जिन हाथों से बच्चों को उसने संसार के दर्शन कराए, वे बच्चे आज बहुत बड़े हो गए हैं। राह में जब कभी वे बच्चे मिल जाते हैं, तो उन्हें प्यार करके अपनी ममता लुटा देती हैं। कुछ लोग इसे समझते हैं, कुछ नहंी भी समझते। इन खुरदरे हाथों की शक्ति को समझने वाला आज कोई नहीं है। बढ़ती हुई स्वास्थ्य सुविधाओं ने इनकी सेवाओं को अनदेखा कर दिया है। आधुनिक मशीनों ने इनकी महत्ता ही खत्म कर दी है। वह कहती है कि अब तो पैसा फेंको और तमाशा देखो, का खेल चल रहा है।
मदर डे पर लोग अपनी माँ को याद करते हैं, या फिर माँ जैसा काम करने वालों का सम्मान करते हैं। पर उन खुरदरे हाथों को कौन याद करेगा, जिन हाथों ने उसे इस दुनिया में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? ये तो बेबस हैं, पर क्या सरकार और सामाजिक संस्थाएँ भी बेबस हैं, जो आज ये सभी गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं!



रमेश शर्मा /पत्थलगांव/

खुरदरे हाथों की कोमलता








रमेश शर्मा /पत्थलगांव/

वह एक साधारण-सी महिला है.. चेहरा उसका झुर्रीदार है, आँखों में ममता का सागर उमड़ता है, उसके हाथ हमेशा ही आशीर्वाद के लिए उठते हैं। जब भी उसे कोई अपना-सा दिख जाता है, तो उसे दिल से दुआएँ देती है। सामने वाला समझ भी नहीं पाता कि आखिर यह बुढिय़ा उस पर इतना प्यार क्यों जता रही है। वह उस प्यार को समझने की लाख कोशिश के बाद भी कुछ नहीं समझ पाता है।
दरअसल यह महिला ऐसे वाक्यों की आदि हो चुकी है।उसे कोई भले ही नहीं पहचान पाए पर वह अपने हाथों में किलकारी की पहली आवाज सुनाने वाले को भलिभंति पहचान लेती है। कभी कभी वह परायापन की पीड़ा से बुझ-सी जाती है। पर जल्द ही सब कुछ भुल कर वह ढ़ेर सारी दुवाऐं देने लग जाती है।वह सोचती है कि ये सब सुखी रहें, मेरी तो यही कामना है, मैं तो वह माध्यम हूँ, जो दुनिया में इनके आने का वायज बनी। यह इस बात पर ही गर्व करती है कि इस दुनिया में ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें मैंने सबसे पहले देखा।आपको ये पंक्तियाँ शायद कुछ उलझा रही होंगी, आखिर वह कौन होगी, जिसने किसी बच्चे को पहली बार देखा होगा। यह बुढिय़ा आखिर ऐसा दावा कैसे कर सकती है। क्या वह नवजात की माँ है या फिर कोई और?
वास्तव में पिछले पचास वर्षो से भी अधिक समय से यहंा पर दाई का काम करने वाली प्रभा सिंग ऐसी महिला है जिसके हाथो से प्रसव के बाद कई नवजात इस दुनिया में आए, बड़े हुए और सुखमय जीवन व्यतित कर रहे हैं। इनमें कई तो इंजीनियर, डॉक्टर बन गए। पर यह दाई आज भी वहीं की वहीं है। आज भी कई गाँव ऐसे हैं, जहाँ अस्पताल की सुविधा नहीं है, वहाँ इस दाई की सेवाएँ ली जाती हैं। वह मानती है कि किसी नवजात को इस दुनिया में लाने का काम एक यज्ञ की तरह होता है। जिसमें पूरी लगन और निष्ठा की आवश्यकता होती है। भीतर ममत्व का झरना न हो, तो यह काम हो ही नहीं सकता। घर में पहली किलकारी गूँजती है, तो वातावरण में खुशी व्याप्त हो जाती है। लोग सबसे पहले दाई से ही पूछते हैं-क्या हुआ? वह संतोष के साथ बताती है कि लड़का हुआ या लड़की। फिर वह जच्चा-बच्चा के सकुशल होने की जानकारी देती है। नवजात शिशु का नाल काट कर उसकी सफाई के बाद परिजनों को सौंपते ही उसका काम खत्म हो जाता है। पूरे प्रसव को अंजाम देने के दौरान वह पानी तक नहीं पीती। उसके माथे पर भी परिजनों की तरह चिन्ता की लकीरें बनी रहती हैं पर उस समय वह अपनी चिन्ता को कभी भी व्यक्त नहीं करती। यह महिला बताती है कि प्रसव के दौरान गर्भवती महिला जीवन और मौत के बीच में संघर्ष करती है इसलिए वह खतरे को भंाप कर भी हिम्मत प्रदान करती है। उसे तो नवजात शिशु के सकुशल दुनिया में आने के बाद ही खुशी मिल पाती है। प्रभा सिंग बताती है कि घर में खुशियाँ बिखेरकर वह चली जाती है। कई लोग उसे छठी पर याद करते हैं, कुछ लोग भूल भी जाते हैं। जो याद करते हैं, वे उसके लिए कुछ इनाम अवश्य रखते हैं।
यहंा के लोग बताते हैं कि वह जिस तरह से अपने सधे हाथों से प्रसव कराती है, वह सराहनीय है। इसका पता तो उस नवजात की माँ से चलता है, जो यह कहते नहीं थकती कि उस दौरान अगर ये दाई न होती, तो शायद मैं जिंदा नहीं बचती। इस दाई के कारण आज मैं और मेरी संतान इस दुनिया में है। नवजात की माँ का यह कहना ही उस दाई के लिए किसी इनाम से कम नहीं। आज वह सूनी आँखों से उन दिनों को याद करती है, जब उसने 11 अप्रेल 1958 को नागपुर से दाई का प्रशिक्षण लेकर पत्थलगांव में पहली बार इस काम को अंजाम दिया था। उस दौरान आदिम जाति कल्याण विभाग से 60 रूपये मासिक वेतन मिलता था। उस वक्त स्वास्थ्य सुविधाओं का सर्वथा अभाव रहता था। पर उस जटिल परिस्थितियों का सामना करते हुऐ यह महिला आज तीसरी पीढ़ी को भी अपनी सेवाऐं प्रदान कर चुकी हैं।
प्रभा सिंग कहती है कि आज वह लाचार है, कहीं दूर जा नहीं पाती। आंखों से भी कम दिखने लगा है। जिन हाथों से बच्चों को उसने संसार के दर्शन कराए, वे बच्चे आज बहुत बड़े हो गए हैं। राह में जब कभी वे बच्चे मिल जाते हैं, तो उन्हें प्यार करके अपनी ममता लुटा देती हैं। कुछ लोग इसे समझते हैं, कुछ नहंी भी समझते। इन खुरदरे हाथों की शक्ति को समझने वाला आज कोई नहीं है। बढ़ती हुई स्वास्थ्य सुविधाओं ने इनकी सेवाओं को अनदेखा कर दिया है। आधुनिक मशीनों ने इनकी महत्ता ही खत्म कर दी है। वह कहती है कि अब तो पैसा फेंको और तमाशा देखो, का खेल चल रहा है।
मदर डे पर लोग अपनी माँ को याद करते हैं, या फिर माँ जैसा काम करने वालों का सम्मान करते हैं। पर उन खुरदरे हाथों को कौन याद करेगा, जिन हाथों ने उसे इस दुनिया में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? ये तो बेबस हैं, पर क्या सरकार और सामाजिक संस्थाएँ भी बेबस हैं, जो आज ये सभी गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं!
फोटो/ नन्हे षिषु के साथ श्रीमती प्रभा सिंग

अपने होने का असर दिखाता पानी




नईदुनिया के रायपुर और बिलासपुर संस्‍करण के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित

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शुक्रवार, 6 मई 2011

नई सोच की इबारत लिखती नई पीढ़ी



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बुधवार, 4 मई 2011

ओबामा बनो, दाऊद को दरिया में





नवभारत रायपुर-बिलासपुर के संपादकीय पेज पर आज एक साथ प्रकाशित

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