शनिवार, 7 मई 2011

खुरदरे हाथों की कोमलता








रमेश शर्मा /पत्थलगांव/

वह एक साधारण-सी महिला है.. चेहरा उसका झुर्रीदार है, आँखों में ममता का सागर उमड़ता है, उसके हाथ हमेशा ही आशीर्वाद के लिए उठते हैं। जब भी उसे कोई अपना-सा दिख जाता है, तो उसे दिल से दुआएँ देती है। सामने वाला समझ भी नहीं पाता कि आखिर यह बुढिय़ा उस पर इतना प्यार क्यों जता रही है। वह उस प्यार को समझने की लाख कोशिश के बाद भी कुछ नहीं समझ पाता है।
दरअसल यह महिला ऐसे वाक्यों की आदि हो चुकी है।उसे कोई भले ही नहीं पहचान पाए पर वह अपने हाथों में किलकारी की पहली आवाज सुनाने वाले को भलिभंति पहचान लेती है। कभी कभी वह परायापन की पीड़ा से बुझ-सी जाती है। पर जल्द ही सब कुछ भुल कर वह ढ़ेर सारी दुवाऐं देने लग जाती है।वह सोचती है कि ये सब सुखी रहें, मेरी तो यही कामना है, मैं तो वह माध्यम हूँ, जो दुनिया में इनके आने का वायज बनी। यह इस बात पर ही गर्व करती है कि इस दुनिया में ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें मैंने सबसे पहले देखा।आपको ये पंक्तियाँ शायद कुछ उलझा रही होंगी, आखिर वह कौन होगी, जिसने किसी बच्चे को पहली बार देखा होगा। यह बुढिय़ा आखिर ऐसा दावा कैसे कर सकती है। क्या वह नवजात की माँ है या फिर कोई और?
वास्तव में पिछले पचास वर्षो से भी अधिक समय से यहंा पर दाई का काम करने वाली प्रभा सिंग ऐसी महिला है जिसके हाथो से प्रसव के बाद कई नवजात इस दुनिया में आए, बड़े हुए और सुखमय जीवन व्यतित कर रहे हैं। इनमें कई तो इंजीनियर, डॉक्टर बन गए। पर यह दाई आज भी वहीं की वहीं है। आज भी कई गाँव ऐसे हैं, जहाँ अस्पताल की सुविधा नहीं है, वहाँ इस दाई की सेवाएँ ली जाती हैं। वह मानती है कि किसी नवजात को इस दुनिया में लाने का काम एक यज्ञ की तरह होता है। जिसमें पूरी लगन और निष्ठा की आवश्यकता होती है। भीतर ममत्व का झरना न हो, तो यह काम हो ही नहीं सकता। घर में पहली किलकारी गूँजती है, तो वातावरण में खुशी व्याप्त हो जाती है। लोग सबसे पहले दाई से ही पूछते हैं-क्या हुआ? वह संतोष के साथ बताती है कि लड़का हुआ या लड़की। फिर वह जच्चा-बच्चा के सकुशल होने की जानकारी देती है। नवजात शिशु का नाल काट कर उसकी सफाई के बाद परिजनों को सौंपते ही उसका काम खत्म हो जाता है। पूरे प्रसव को अंजाम देने के दौरान वह पानी तक नहीं पीती। उसके माथे पर भी परिजनों की तरह चिन्ता की लकीरें बनी रहती हैं पर उस समय वह अपनी चिन्ता को कभी भी व्यक्त नहीं करती। यह महिला बताती है कि प्रसव के दौरान गर्भवती महिला जीवन और मौत के बीच में संघर्ष करती है इसलिए वह खतरे को भंाप कर भी हिम्मत प्रदान करती है। उसे तो नवजात शिशु के सकुशल दुनिया में आने के बाद ही खुशी मिल पाती है। प्रभा सिंग बताती है कि घर में खुशियाँ बिखेरकर वह चली जाती है। कई लोग उसे छठी पर याद करते हैं, कुछ लोग भूल भी जाते हैं। जो याद करते हैं, वे उसके लिए कुछ इनाम अवश्य रखते हैं।
यहंा के लोग बताते हैं कि वह जिस तरह से अपने सधे हाथों से प्रसव कराती है, वह सराहनीय है। इसका पता तो उस नवजात की माँ से चलता है, जो यह कहते नहीं थकती कि उस दौरान अगर ये दाई न होती, तो शायद मैं जिंदा नहीं बचती। इस दाई के कारण आज मैं और मेरी संतान इस दुनिया में है। नवजात की माँ का यह कहना ही उस दाई के लिए किसी इनाम से कम नहीं। आज वह सूनी आँखों से उन दिनों को याद करती है, जब उसने 11 अप्रेल 1958 को नागपुर से दाई का प्रशिक्षण लेकर पत्थलगांव में पहली बार इस काम को अंजाम दिया था। उस दौरान आदिम जाति कल्याण विभाग से 60 रूपये मासिक वेतन मिलता था। उस वक्त स्वास्थ्य सुविधाओं का सर्वथा अभाव रहता था। पर उस जटिल परिस्थितियों का सामना करते हुऐ यह महिला आज तीसरी पीढ़ी को भी अपनी सेवाऐं प्रदान कर चुकी हैं।
प्रभा सिंग कहती है कि आज वह लाचार है, कहीं दूर जा नहीं पाती। आंखों से भी कम दिखने लगा है। जिन हाथों से बच्चों को उसने संसार के दर्शन कराए, वे बच्चे आज बहुत बड़े हो गए हैं। राह में जब कभी वे बच्चे मिल जाते हैं, तो उन्हें प्यार करके अपनी ममता लुटा देती हैं। कुछ लोग इसे समझते हैं, कुछ नहंी भी समझते। इन खुरदरे हाथों की शक्ति को समझने वाला आज कोई नहीं है। बढ़ती हुई स्वास्थ्य सुविधाओं ने इनकी सेवाओं को अनदेखा कर दिया है। आधुनिक मशीनों ने इनकी महत्ता ही खत्म कर दी है। वह कहती है कि अब तो पैसा फेंको और तमाशा देखो, का खेल चल रहा है।
मदर डे पर लोग अपनी माँ को याद करते हैं, या फिर माँ जैसा काम करने वालों का सम्मान करते हैं। पर उन खुरदरे हाथों को कौन याद करेगा, जिन हाथों ने उसे इस दुनिया में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? ये तो बेबस हैं, पर क्या सरकार और सामाजिक संस्थाएँ भी बेबस हैं, जो आज ये सभी गुमनामी के अंधेरे में जीने को विवश हैं!
फोटो/ नन्हे षिषु के साथ श्रीमती प्रभा सिंग

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