शनिवार, 28 जून 2014

आपकी की नजरों ने समझा

आपकी की नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे
हिन्दी फिल्मों के मशहूर संगीतकार मदनमोहन के एक गीत ‘आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल मुझे’ दिल की ए धड़कन ठहर जा मिल गई मंजिल मुझे’ से संगीत सम्राट नौशाद इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने मदन मोहन से इस धुन के बदले अपने संगीत का पूरा खजाना लुटा देने की इच्छा जाहिर कर दी थी। मदन मोहन कोहली का जन्म 25 जून 1924 को बगदाद में हुआ। उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल फिल्म व्यवसाय से जुड़े हुए थे और बाम्बे टाकीज और फिल्मीस्तान जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो में साझीदार थे। घर में फिल्मी माहौल होने के कारण मदन मोहन भी फिल्मों में काम करके बड़ा नाम करना चाहते थे, लेकिन अपने पिता के कहने पर उन्होंने सेना मे भर्ती होने का फैसला ले लिया और देहरादून में नौकरी शुरू कर दी। कुछ दिनों बाद उनका तबादला दिल्ली हो गया। लेकिन कुछ समय के बाद उनका मन सेना की नौकरी से ऊब गया और वह नौकरी छोड़कर लखनऊ आ गए और आकाशवाणी के लिए काम करने लगे। आकाशवाणी में उनकी मुलाकात संगीत जगत से जुड़े उस्ताद फैयाज खान उस्ताद अली अकबर खान, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी जानी मानी हस्तियों से हुई, जिनसे वे काफी प्रभावित हुए और उनका रूझान संगीत की ओर हो गया। अपने सपनों को नया रूप देने के लिए मदन मोहन लखनऊ से मुंबई आ गए।
मुंबई आने के बाद मदन मोहन की मुलाकात एस डी बर्मन. श्याम सुंदर और सी.रामचंद्र जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों से हुई और वह उनके सहायक के तौर पर काम करने लगे। संगीतकार के रुप में 1950 में प्रदíशत फिल्म ‘आंखें’ के जरिए वह फिल्म इंडस्ट्री में अपनी पहचान बनाने मे सफल हुए। इस फिल्म के बाद लता मंगेशकर मदन मोहन की चहेती पाश्र्वगायिका बन गई और वह अपनी हर फिल्म के लिए लता मंगेशकर से ही गाने की गुजारिश किया करते थे। लता मंगेशकर भी मदनमोहन के संगीत निर्देशन से काफी प्रभावित थीं और उन्हें ‘गजलों का शहजादा’ कहकर संबोधित किया करती थीं। संगीतकार ओ पी नैयर अक्सर कहा करते थे ‘मैं नहीं समझता कि लता मंगेशकर, मदन मोहन के लिए बनी हुई है या मदन मोहन, लता मंगेश्कर के लिए, लेकिन अब तक न तो मदन मोहन जैसा संगीतकार हुआ और न लता जैसी पाश्र्वगायिका।’  मदनमोहन के संगीत निर्देशन में आशा भोसले ने फिल्म मेरा साया के लिए ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में ’ गाना गाया जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूम उठते है। उनसे आशा भोसले को अक्सर यह शिकायत रहती थी कि ‘वह अपनी हर फिल्म के लिए लता दीदी को हीं क्यो लिया करते है ’ इस पर मदनमोहन कहा करते ‘जब तक लता जिंदा है उनकी फिल्मों के गाने वही गाएंगी।’
मदन मोहन केवल महिला पाश्र्वगायिका के लिए ही संगीत दे सकते है.ं वह भी विशेषकर लता मंगेशकर के लिए. यह चर्चा फिल्म इंडस्ट्री में पचास के दशक में जोरों पर थी, लेकिन 1957 में प्रदíशत फिल्म ‘देख कबीरा रोया ’ में पाश्र्व गायक मन्नाडे के लिए ‘कौन आया मेरे मन के द्वारे ’ जैसा दिल को छू लेने वाला संगीत देकर उन्होंने अपने बारे में प्रचलित धारणा पर विराम लगा दिया। वर्ष 1965 मे प्रदíशत फिल्म ‘हकीकत ’ में मोहम्मद रफी की आवाज में मदन मोहन के संगीत से सजा गीत ‘कर चले हम फिदा जानों तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों ’ आज भी श्रोताओं में देशभक्ति के जज्बे को बुलंद कर देता है। आंखों को नम कर देने वाला ऐसा संगीत मदन मोहन ही दे सकते थे। वर्ष 1970 मे प्रदíशत फिल्म ‘दस्तक ’ के लिए मदन मोहन सर्वŸोष्ठ संगीतकार के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए। उन्होंने अपने ढाई दशक लंबे सिने कैरियर में लगभग 100 फिल्मों के लिए संगीत दिया। अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं के दिल में खास जगह बना लेने वाला यह सुरीला संगीतकर 14 जुलाई 1975 को इस दुनिया से अलहविदा कह गया। मदन मोहन के निधन के बाद 1975 में ही उनकी ’ मौसम’ और लैला मजनूं जैसी फिल्में प्रदíशत हुई. जिनके संगीत का जादू आज भी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करता है। मदन मोहन के पुत्र संजीव कोहली ने अपने पिता की बिना इस्तेमाल की हुई 30 धुनें यश चोपडा को सुनाई, जिनमें आठ का इस्तेमाल उन्होंने अपनी फिल्म ‘वीर जारा’ के लिये किया. ये गीत भी श्रोताओं के बीच काफी लोकप्रिय हुए.

शुक्रवार, 27 जून 2014

शुरू हो गई मोदी सरकार की अग्निपरीक्षा

डॉ. महेश परिमल
केंद्र सरकार ने रेल्वे का किराया बढ़ाकर अच्छे दिन की शुरुआत कर दी है। इसका चारों तरफ से विरोध हो रहा है। चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी ने पिछली सरकार की नाकामियों पर खुलकर प्रहार करते थे। उन्होंने महंगाई को लेकर कांग्रेस गठबंधन सरकार की खूब आलोचना की। लेकिन अब उसी महंगाई की लगाम थामने में उनके पसीने छूट रहे हैं। महंगाई बढ़ाने वाले कारक भी तेजी से सक्रिय हो गए हैं। एक तरफ ईराक युद्ध, दूसरी तरफ कमजोर मानसून और तीसरी तरफ जमाखोरी, इस सबसे निपटने में सरकार की हालत खराब हो जाएगी, यह तय है। प्रधानमं9ी नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से कड़वे घूंट की बात की थी, उससे यही लगता था कि केवल महंगाई को छोड़कर अन्य कड़वे  घूंट मंजूर है। पर सरकार बनने के कुछ दिन बाद ही डीजल की कीमतों में वृद्धि कर सरकार ने अपनी मंशा जाहिर कर दी। अब रेल किराए में वृद्धि कर एकबारगी आम जनता की कमर ही तोड़ दी। ऐसा भी नहीं है कि किराया बढ़ जाने से यात्री सुविधाओं में बढ़ोत्तरी हो जाएगी। आज भी लोगों को रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है। ट्रेनों में भीड़ बेकाबू होने लगी है। साधारण दर्जे की हालत बहुत ही खराब है। दुर्घनाएँ और ट्रेनों की लेट-लतीफी तो आम बात है। इन सबको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि सरकार ने वादों की जो झड़ी चुनाव पूर्व लगाई थी, उसे पूरा कर पाने में वह पूरी तरह से विफल साबित हुई है।
इस समय प्याज सबसे बड़ी खलनायक साबित हो रही है। सरकार जमाखोरों पर कार्रवाई नहीं कर पा रही है। केवल सख्त कदम उठाने की चेतावनी ही दे रही है। सरकार बदल गई, पर जमाखोर नहीं बदल पाए। इसी प्याज ने कई बार पूरे देश को रुलाया है। इस बार भी वह रुलाने की तैयारी में है। बाजार ने यह आशंका प्रकट की है कि इस बार प्याज के दाम सौ रुपए किलो तक पहुंच जाएंगे। इस आशंका के तहत जमाखोर सक्रिय हो गए। गोदामों में अगले अगले आठ महीनों तक का स्टाक जमा कर लिया गया है। देख जाए तो कांग्रेस के हारने में यही महंगाई की सबसे बड़ा काकरण रही है। अब यही कारण मोदी सरकार के सामने चुनौती बनकर खड़ा है। भोजन में प्याज का उपयोग हर तरह से होता है। इस गर्मी में सलाद के रूप में प्याज का होना अतिआवश्यक है। देश में जिन स्थानों में प्याज का उत्पादन होता है, वहां इस बार बारिश की देरी ने उत्पादन को प्रभावित किया है। जो किसान प्याज बोना चाहते हैं, वे इसलिए परेशान है कि इस बार प्याज के बीज की कीमतें चार गुना बढ़ गई हैं। ऐसा भी नहीं है कि देश में प्याज का उत्पादन कम होता है। बम्फर उत्पादन के कारण कई बार प्याज सड़कों पर फेंक दी गई हैं। सरकार भी बहुत बड़ी जमाखोर है। उसने भी प्याज का बहुत बड़ा स्टॉक जमा कर रखा है। एक समय इसी प्याज का दाम दो से तीन रुपए किलो था, पर अब यह बीस रुपए किलो मिल रही है। सरकार यदि सख्ती दिखाते हुए कोल्ड स्टोरेज पर छापा मारे, तो काफी मात्रा में प्याज का स्टॉक बाजार में आ जाएगा। पर सरकार ऐसा क्यों नहीं कर पा रही है, यह आश्चर्य का विषय है। इसके पहले की सरकारें भी प्याज के दामों में अंकुश रखने में नाकाम साबित हुई हैं।
यदि आलू की बात करें, तो इसका स्टॉक अपेक्षाकृत कम है। फरवरी में हुई बारिश उसके उत्पादन को प्रभावित किया है। व्यापारियों का मानना है कि यदि आलू का निर्यात रोक दिया जाए, तो भी इसका विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। आलू भी प्याज की तरह ही बार-बार इस्तेमाल में लाई जाने वाली सब्जी ही है। मध्यम वर्ग और श्रमजीवी वर्ग के लिए आलू-प्याज बहुत ही आवश्यक वस्तु है। अब धीरे-धीरे ये दोनों ही चीजें थाली से अदृश्य हो रही हैं, इसी के साथ मोदी सरकार की अगिAपरीक्षा शुरू हो गई है।
आजकल अंतरराष्ट्रीय मामलों के कारण आवश्यक जिंसों के दाम बढ़ने लगे हैं। ईराक युद्ध के कारण पेट्रोल केी कीमतें बढ़ेंगी, इससे अन्य कई चीजों के दाम बढ़ना लाजिमी है। किसी भी तरह से महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। अब देखना यह है कि सरकार आखिर क्या करती है, जिससे महंगाई पर काबू पाया जा सके। भारत में बढ़ती महंगाई का संबंध आधुनिक पद्धति के विकास के साथ है। अर्थतंत्र का विकास होता है, तब नागरिकों के हाथ में पहले से अधिक धनराशि होती है। इस धनराशि से वह आवश्यक जिंसों और ऐश्वर्यशाली चीजों की खरीदी करता है। जिस तेजी से लोगों की आवक में तेजी से इजाफा होता है, उस तेजी से उत्पादन में वृद्धि नहीं हो पाती। इसलिए कीमतें बढ़ती हैं। इस प्रक्रिया में मुश्किल यह है कि समाज का जो शक्तिशाली वर्ग होता है, उसके हाथ में अधिक धन आता है। यह वर्ग अपना खर्च बढ़ा देता है। महंगाई बढ़ने का एक कारण यह भी है। इसलिए कमजोर वर्ग को महंगाई बढ़ने का अधिक असर होता है। मुद्रास्फीति बढ़ती है, तो रिजर्व बैंक ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी करती है। इससे बाजार में निवेश का प्रवाह कम होता है। इस वजह से विकास की दर धीमी हो ेजाती है। फिर जब विकास दर धीमी हो जाती है, तो रिजर्व बैंक ब्याज दर घटाती है। इन दोनों कारणों से बाजार में अधिक निवेश होता है और महंगाई बढ़ जाती है। यदि विकास दर और महंगाई के बीच संतुलन रखने में ही सरकार की कसौटी मानी जाती है।
उद्योगपति रिजर्व बैंक के सामने यह मांग रखते हैं कि ब्याज दरों में कमी की जाती रहे, तो कम ब्याज से कर्ज लेकर वे अपने धंधे को बढ़ा सकें। इससे उनके उद्योग का विकास होगा। मध्यम वर्ग यह मांग करता है कि ब्याज दरों में बढ़ोत्तरी की जाती रहे, ताकि उन्हें उनके फिक्स्ड डिपॉजिट पर अधिक ब्याज मिले। जब ब्याज दर बढ़ती है, तब मुद्रास्फीति में कमी आती है और महंगाई भी कम होती है। इससे आम आदमी राहत अनुभव करता है। पर इससे उद्योगपतियों को नुकसान ही होता है।
अब यदि सरकार अपनी इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए आम जीवन से जुड़ी तमाम वस्तुओं के भाव को नियंत्रित करना चाहती है, तो उसे वायदा बाजार पर तुरंत प्रतिबंध होगा। यदि आवश्यक वस्तुओं से कोल्ड स्टोरेज भर गए हैं, तो वहां की बिजली काट देनी चाहिए, ताकि माल बाहर आ सके। यदि कठोर होना है, तो जमाखोरों पर होना होगा। कहा गया है कि अगले आठ महीनों तक प्याज की आपूर्ति हो सके, इतनी प्याज कोल्ड स्टोरेज में जमा है, यदि यह प्याज बाहर आ जाती है, तो उसकी खपत होने तक प्याज की नई फसल आ जाएगी और प्याज के दाम नियंत्रित हो जाएंगे, इसके लिए सरकार को सख्त होना होगा। अब सरकार बजट की तैयारी कर रही है। बजट में भी कई चीजों के दाम बढ़ेंगे ही, इसके लिए भी उसे जनता को तैयार करना होगा। डीजल, रेल्वे और माल भाड़े में वृद्धि के बाद यदि बजट से राहत मिलती है, तो यह दुख कम हो सकता है। इसके लिए सरकार के पास अभी थोड़ा सा समय है, इसके रहते यदि वह जनता को कुछ राहत दे सकती है, तो लोगों को यह विश्वास करना आसान होगा कि भाजपा को वोट देकर उनसे गलती नहीं हुई। अब गेंद सरकार के पाले पर है, देखना है कि वह क्या करती है, जिससे जनता को राहत मिले।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 23 जून 2014

राज्यपाल और राजनीति

डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में राजभवन को यदि उपकृत भवन कहा जाए, तो गलत न होगा। बरसों से हम सभी देख रहे हैं कि राज्यपाल एक गरिमामय पद होने के बाद भी केवल राज्य के मुख्यमंत्री से विवाद के बाद ही चर्चा में आता है। इसके पहले उनका नाम केवल उद्घाटन समारोहों में मुख्य अतिथि के रूप में ही सामने आता है। कई बार राजभवन राजनीति का केंद्र बन जाते हैं। विशेषकर उस समय जब केंद्र में विपक्ष की सरकार हो। इसलिए यह परंपरा चली आ रही है कि केंद्र सरकार के पदारूढ़ होते ही राज्यों के राज्यपालों को बदल दिया जाता है। उनके स्थान पर पहुंच जाते हैं, ऐसे बुजुर्ग किंतु निष्ठावान कार्यकर्ता, जिन्हें कोई पद नहीं मिल पाया। इस तरह से सरकार उन्हें उपकृत ही करती है। वैसे देखा जाए, तो कानूनी रूप से सक्षम होने के बाद भी राज्यपाल की देश या राज्य के विकास में कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं होती। अब कई राज्यपाल विलासिता की जिंदगी से दूर होकर तीन बेडरूम के फ्लेट में पहुंच जाएंगे।
किसी ने कहा है कि यदि आपकी वकालत नहीं चल रही हो, तो अपने कौम के लीडर बन जाओ। ऐसे ही राजनीति में जब किसी नेता की स्थिति सेवानिवृत्ति की हो, तो उसे राज्यपाल बनने के लिए लाबिंग करनी पड़ती है। राज्य के मुख्यमंत्री के पास कई काम होते हैं, पर राज्यपाल के पास उद्घाटन के अलावा और कोई काम नहीं होता। विधानसभा के पहले दिन उनका अभिभाषण अवश्य होता है, पर उसे कोई भी विधायक या मंत्री गंभीरता से नहीं लेता। जिस किसी को राज्यपाल बनाया जाता है, उसे वह पद एक उपकृत योजना के तहत प्राप्त होता है। अधिकांश राज्यपाल वृद्ध या सीनियर कार्यकर्ता होते हैं। यह पद उन्हें एक अवार्ड की तरह दिया जाता है। इस समय देश में राज्यपालों का विकेट एक के बाद एक गिरते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी.एल. जोशी और छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त ने इस्तीफा दे दिया है, इसके बाद यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपाल समझ गए कि आज नहीं तो कल हमें भी इस्तीफा देना ही होगा। होना तो यह चाहिए था कि जिस दिन नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उसी दिन से राज्यपालों को इस्तीफा दे देना था। पर विलासिता जीवन को मोह इतनी जल्दी नहीं छूटता, इसलिए इतने दिन निकल गए। कानून के अनुसार राज्यपालों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। पर केंद्र सरकार बदलते ही राज्यपालों को हटाने और नई नियुक्ति का सिलसिला जारी हो जाता है।
कई राज्यपाल, खासकर भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भेंट की है। इन्होंने अपना पद छोड़ने की मंशा जाहिर की है। इसके सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं है। पूर्व सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों की चिंता यह है कि अब उन्हें वे उन शासकीय सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे, जो अब तक मिल रही थी। नौकर-चाकरों से भरे राजभवन के बाद अब उन्हें तीन बेडरुम वाले घर में रहना होगा। इसे केंद्र सरकार बदलने का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। वास्तव में राज्यपाल का पद केंद्र की नजर रखने के लिए तैयार किया गया था। पिछले 30 वर्षो में गठबंधन की सरकार इस देश में थी, ऐसे में अन्य राज्यों में क्या हो रहा है, इसके लिए राज्यपालों को नियुक्त किया जाता था, ताकि समय रहते केंद्र सरकार राज्य पर कार्रवाई कर सके। कई राज्यपालों ने तो अल्पमत राज्य सरकार को पलटाने की साजिश भी की, कुछ सफल भी रहे। इसलिए कई बार राजभवनों को केंद्र सरकार का राजनीतिक अड्डा कहा जाता है। गुजरात में भाजपा सरकार ने कांग्रेस के खिलाफ ऐसे आरोप लगाए भी हैं। कई बार ऐसे आरोपों में तथ्य भी होते हैं। राज्यपाल पक्के राजनीतिज्ञ होते हैं, बिना राजनीति के वे रह भी नहीं सकते। इसलिए अक्सर राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच शीतयुद्ध की खबरें आती ही रहती हैं। राज्य सरकार को परेशान करना राज्यपाल का मुख्य काम होता है। राजभवन में कई फाइलें केवल इसीलिए अटकी पड़ी रहती हैं, क्योंकि उसमें केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ काम करने का अनुरोध होता है।
राज्यपाल का काम ठाठ वाला है। उनकी कोई जवाबदारी न होने के बाद भी वे राज्य सरकार के कामों में अड़ंगा लगाते रहते हैं। पूर्व में भाजपा शासित राज्यों में कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने अनेक फाइलें अटका रखी थीं और कांग्रेस शासित राज्यों को अधिक प्राथमिकता दी जाती। इस समय राज्यपालों को बदलने की जो बात चल रही है, उस पर कांग्रेस कुछ कह नहीं सकती। क्योंकि 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता पर आई, तब उसने पहले की एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटा दिया था। कुल मिलाकर आज राज्यपालों की नियुक्ति पूरी तरह से राजनीति हावी हो गई है। कोई राज्यपाल स्वैच्छिक रूप से अपना पद छोड़ना नहीं चाहता। राज्यपाल का पद एक सम्मानित पद है, इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। किंतु हमारे संविधान में राज्यपाल का पद महत्वपूर्ण होते हुए भी अप्रभावी पद माना गया है। राज्य सरकार उन्हें सम्मान तो देती है, पर उनके प्रभाव में नहीं आती। राज्यपाल और राज्य सरकार एक ही पार्टी के हों, तो संबंध सौहार्दपूर्ण होते हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में दुष्कर्म की घटनाएं लगातार हो रहीं थी, राज्य सरकार की आलोचना हो रही थी, राष्ट्रपति शासन की मांग हो रही थी, फिर भी राज्यपाल जोशी की तरफ किसी ने ऊंगली नहीं उठाई। उनकी तरफ से किसी प्रकार का सुझाव केंद्र सरकार को नहीं दिया गया। यह इसलिए कि जब उत्तर प्रदेश में सपा ने सरकार बनाई, तब वह केंद्र की गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। इसलिए राज्यपाल जोशी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसे उल्लेखित किया जाए। उन्होंने मौन रहकर अपनी भूमिका निभाई, अंत में अपनी आत्मा की आवाज सुनकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
राज्यपालों की भूमिका:- भारत में राज्यपालों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और केंद्र में राष्ट्रपति की तरह राज्यों में कार्यपालिका की शक्ति उसके अंदर निहित होती है। राज्यपाल सांकेतिक तौर पर राज्य का प्रमुख होता है, जबकि वास्तविक शक्तियां मुख्यमंत्री के पास होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य की सारी कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के पास होती है और सभी कार्य उन्हीं के नाम से होता है। वास्तव में, राज्यपाल विभिन्न कार्यकारी कार्यों के लिए मात्र अपनी सहमति देता है। भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यपाल स्वतंत्र तौर पर कोई भी बड़ा निर्णय नहीं ले सकते हैं। राज्य की कार्यकारी शक्तियां मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के अधीन होती हैं।
राज्यपाल की शक्तियां:-भारत के राष्ट्रपति की तरह, राज्य के राज्यपालों के पास कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियां निहित होती हैं। राज्यपालों के पास विवेकाधीन और आपातकालीन अधिकार हैं। राष्ट्र्रपति और राज्यपालों के पास अधिकारों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि राज्यपाल के पास राजनयिक और सैन्य शक्ति संबंधी कोई अधिकार नहीं है। राज्यपाल के पास मुख्यमंत्री सहित, मंत्रिपरिषद, एडवोकेट जनरल और राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार है। मंत्रिपरिषद और एडवोकेट जनरल राज्यपाल की इच्छा पर अपने पद पर बने रह सकते हैं। हालांकि, राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल के द्वारा हटाया नहीं जा सकता है। राष्ट्र्रपति के पास राज्य लोक सेवा के सदस्यों को हटाने का अधिकार है। राज्यपाल हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्र्रपति को सलाह देते हैं। राज्यपाल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों की नियुक्ति करते हैं। अगर राज्यपाल को ऐसा लगता है कि एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व विधान सभा में नहीं है तो वे विधान सभा में उनके एक प्रतिनिधि की नॉमिनेट कर सकते हैं। जिस राज्य में विधान सभा और विधान परिषद है वहां राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और सामाजिक कार्यों से संबंधित लोगों को विधान परिषद में नॉमिनेट करें।
राज्यपालों की विधायिका शक्तियां:- राज्यपाल को राज्य विधानमंडल का हिस्सा माना जाता है। वह राज्य विधानसभा को संबोधित करने के साथ-साथ विधान सभा को संदेश देता है। केंद्र में राष्ट्र्रपति की तरह राज्य में राज्यपाल के पास विधान सभा की बैठक बुलाने और उसे भंग या स्थगित करने का अधिकार है। हालांकि, ये सारी शक्तियां औपचारिक हैं और किसी भी निर्णय लेने के लिए उन्हें मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद के द्वारा सलाह दी जाती है। राज्यपाल विधान सभा का उद्घाटन करते हैं और प्रत्येक वर्ष विधान सभा को संबोधित करते हैं। राज्यपाल अपने संबोधन में सत्ताधारी पार्टी की प्रशासनिक नीतियों को रखते हैं। राज्यपाल विधान सभा में वार्षिक लेखानुदान और मनी बिल (धन विधेयक) के लिए अनुमोदन करते हैं। राज्यपाल स्टेट फाइनेंस कमीशन का गठन करता है। उसके पास आपातकालीन स्थितियों में राज्य की आकस्मिक निधि से पैसे के निष्कासन का अधिकार होता है। राज्य विधान सभा के द्वारा पास सभी कानून राज्यपाल की अनुमति के बाद ही कानून का रूप लेते हैं। धन विधेयक न होने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वह विधान सभा के पास दोबारा से बिल भेजें, लेकिन अगर राज्य विधान सभा के द्वारा बिल वापस राज्यपाल के पास फिर से भेज दिया जाता है तो राज्यपाल को उस पर हस्ताक्षर करना पड़ता है। विधानसभा के स्थगन होने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे अध्यादेश को पारित करें और तत्काल प्रभाव से कानून लागू हो जाता है। हालांकि, अध्यादेश को विधान सभा के अगले सत्र में पेश किया जाता है और यह अगले छह सप्ताह तक प्रभावशाली रहता है जब तक कि विधानसभा द्वारा पारित न हो जाए।
 न्यायिक शक्तियां:-राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वह किसी अपराधी की सजा को माफ या कम कर सकता है। वह कानून द्वारा सजा पाए किसी अपराधी की सजा को निलंबित कर सकता है। साथ ही हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में राष्ट्र्रपति संबंधित राज्य के राज्यपाल से सलाह-मशविरा करते हैं। आपातकालीन शक्तियां: विधान सभा में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार होता है कि वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति में अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करे।  राज्यपाल विशेष परिस्थितियों में राष्ट्र्रपति को राज्य की स्थिति के बारे में रिपोर्ट करते हैं और राष्ट्र्रपति को राज्य में राष्ट्र्रपति शासन का अनुमोदन करते हैं। ऐसी स्थिति में राज्यपाल के पास सारी शक्तियां होती हैं और वे राज्य के कार्यों के लिए निर्देश जारी करते हैं।
राज्यपाल का वेतन:- गवर्नर्स एक्ट 1982 (वेतन, भत्ते व विशेषाधिकार) के अनुसार राज्यपाल को प्रति महीने 1 लाख 10 हजार रुपए का वेतन मिलता है। इसके अलावा, राज्यपाल को कई सुविधाएं भी मिलती हैं, जो उनके कार्यकाल पूर्ण होने तक जारी रहती हैं। राज्यपाल को मिलने वाली सुविधाएं मासिक वेतन के अलावा राज्यपाल को कई अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं, जैसे चिकित्सा सुविधा, आवासीय सुविधा, यात्रा सुविधा, फोन और बिजली बिल की प्रतिपूर्ति इत्यादि। राज्यपाल और उनके परिवार को जीवन भर मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी मिलती है। देश भर में यात्रा के लिए राज्यपाल को एक नियत यात्रा भत्ता मिलता है।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 18 जून 2014

शहरी प्रदूषण ही है अस्थमा का कारण

डॉ. महेश परिमल
अभी कुछ दिनों पहले ही हमारे बहुत करीब से अस्थमा दिवस गुजरा। उस दिन बहुत से आयोजन हुए, जिसमें अस्थमा होने के कारण और उससे बचाव पर चर्चा की गई। यह एक परंपरा है, जिसे हम केवल ‘दिवस’ मनाकर निभाते हैं। इस बीमारी के बारे में हम यह भूल जाते हैं कि अस्थमा को यदि किसी ने विकराल रूप में हमारे सामने खड़ा किया है, तो वह है स्वयं मानव। अस्थमा होने का मुख्य कारण प्रदूषण है। आज प्रदूषण को मानव ने कितना प्रदूषित किया है, यह किसी से छिपा नहीं है। यदि ध्यान दिया जाए, तो अस्थमा का इलाज हमारे आयुर्वेद में है, इससे यह पूरी तरह से मिट सकता है, पर हमें तो विदेशों में पढ़-लिखतर आए डॉक्टरों पर ही भरोसा है। इसीलिए यह रोग देश में तेजी से फैल रहा है। जितना ध्यान हम इस रोग को थामने में लगा रहे हैं, उससे थोड़ा सा भी कम ध्यान यदि प्रदूषण की ओर दिया जाए, तो इस रोग के देश से नेस्तनाबूद होने में जरा भी वक्त नहीं लगेगा। विश्व अस्थमा दिवस पर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक को पूरे पेज का एक रंगीन विज्ञापन देकर यह दावा किया कि हम तीस बरस से इस रोग के खिलाफ लड़ रहे हैं। इस मामले में हम अनथक परिश्रम कर इस पर अनुसंधान कर रहे हैं। विश्व के 78 देशों में हम अस्थमा के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों को सचेत कर रहे हैं, हम उन्हें सूंघने के साधन उपलब्ध करा रहे हैं। यदि यह कंपनी वास्तव में अस्थमा के मरीजों की सेवा करने का दावा करती है, तो उसे इस विज्ञापन के लिए लाखों रुपए खर्च करने की आवश्यकता नहीं होती। जो कंपनी एक विज्ञापन के लिए लाखों रुपए खर्च कर सकती है, तो मुनाफे का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है।
हमारे देश में अस्थमा के मरीजों की संख्या करीब 3 करोड़ है। केवल मुम्बई शहर में ही इस बीमारी के दस लाख मरीज हैं। दूसरे दस लाख लोग ऐसे हैं, जिन्हें अस्थमा हो सकता है। मल्टिनेशनल ड्रग कंपनियां कभी भी अस्थमा के कारणों की खोज एवं उस पर शोध के लिए परिश्रम नहीं करते। उनकी योजना यही होती है कि अस्थमा के लिए बनाई गई उनकी दवाएं भारतीय बाजारों में बिकती रहें। स्वास्थ्य के विशेषज्ञ हमें हमेशा चेतावनी देते हैं कि 2020 तक हमारे देश में विश्व में अस्थमा की राजधानी बन जाएगा। वैसे तो यह रोग एजर्ली से होता है। देखा जाए, तो यह कोई रोग ही नहीं है और न ही कोई संक्रमण रोग है। अस्थमा किसी बैक्टिरिया या वाइरस से भी फैलने वाला रोग नहीं है। एलोपेथी के डॉक्टरों के पास तो केवल उन्हीं बीमारियों का इलाज होता है, जो विषाणुओं से फैलते हैं। इसलिए यह सोचना कि अस्थमा हमारे एलोपेथी डॉक्टर के इलाज से दूर हो जाएगा, गलत है। इस कारण वे ऐसा प्रचार करते हैं कि अस्थमा का कोई इलाज ही नहीं है। दूसरी ओर हमारे आयुर्वेद और प्राकृतिक विज्ञान में अस्थमा का असरकारक इलाज है। आखिर अस्थमा क्यों होता है? वास्तव में यह आज की शहरीकरण की देन है। शहर में वायु प्रदूषण, मागों पर पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण उसके धुएं भी बढ़ रहे हैं। इन धुओं में कार्बन डायऑक्साइड के कण शामिल होते हैँ। जो सांस नली में चले जाते हैं, वहां जाकर सूजन पैदा करते हैं। इससे अस्थमा का अटैक आता है। आज शहर के किसी भी रास्ते पर चलना बहुत ही खतरनाक है। भारत के शहरों में बढ़ते प्रदूषण के कारण अस्थमा के रोगियों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है। भवन निर्माण के दौरान सीमेंट और सीसे से बनते रंगों के कारण हवा में सल्फर डायऑक्साइड, लेड ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड के जहरीले कण वायुमंडल में फैल जाते हैं। इन्हीं खतरनाक अणुओं से होते हैं अस्थमा के हमले।
हमारे देश में अनेक लोग ऐसे हैं, जिनका श्वसनतंत्र कमजोर होता है। यह विरासत में मिलता है। उनके शरीर के भीतर जरा सा भी प्रदूषणयुक्त हवा जाती है, तो उससे उनकी सांस नली फूल जाती है और फेफड़े संकुचित हो जाते हैं। इस कारण उन्हें श्वांस लेने में तकलीफ होती है। खून को मिलने वाली ऑक्सीजन की आपूर्ति में बाधा उत्पन्न हो जाती है। इन परिस्थितियों में कहा जाता है कि अस्थमा के मरीजों में रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है। इसलिए कहीं भी थोड़ी सी धूल उड़ी नहीं कि ऐसे लोग बुरी तरह से हलाकान हो जाते हैं। डॉक्टर कहते हैं कि एस्पीरिन जैसी एलोपेथी दवा लने से भी अस्थमा हो सकता है। कितने ही लोगों को सिगरेट के धुएं से और हवा में नमी आने से भी अस्थमा हो सकता है। यदि घर में किसी सीलन भरे स्थान पर सोना हो, तो भी अस्थमा होने की संभावना बढ़ जाती है। घर के कार्पेट, खिड़कियों के परदे के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाले रंग भी अस्थमा का कारण हो सकते हैं। धूल और फूल के परागकणों से भी अस्थमा हो सकता है। आज अस्थमा के जितने भी कारण दिखने को मिलते हैं, उसमें 99 प्रतिशत मानव ने ही और खासकर मशीनों के कारण ही होते हैं। बमुश्किल एक प्रतिशत कारण प्राकृतिक है। इसमें आकाश में गहराते बादलों या फूलों की सुगंध का समावेश होता है। विश्व भर में जिन देशों का विकास आधुनिक पद्धति से हो रहा है, वहां अस्थमा तेजी से फैल रहा है। इससे यह कहा जा सकता है कि विकास का फल सबसे पहले शहरी नागरिक ही चख पाते हैं।
अस्थमा की बीमारी में समाजवाद के दर्शन होते हैं। यह रोग किसी को भी हो सकता है। इसकी नजर में कोई गरीब नहीं, कोई अमीर नहीं। इंसान को यदि अस्थमा से बचना हो, तो सबसे सरल उपाय यही है कि वह शहर के प्रदूषित वातावरण को छोड़कर गाँव जाकर बस जाए। जो ऐसा नहीं कर पा रहे हों, उनके लिए योगासन और प्राकृतिक उपचार ही एकमात्र उपाय है। इससे शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। किसी भी सूरत में एलोपेथी की दवाएं नहीं लेनी चाहिए। डॉक्टरों के पास अस्थमा का कोई इलाज ही नहीं है, इसलिए वे कामचलाऊ उपाय के रूप में इन्हेलर्स के इस्तेमाल की सलाह देते हैं। इस पम्प में आल्बुटेरोल या साल्बुटामोल जैसी दवाएं होती हैं, जो फौवारे की तरह श्वास नली को खोलने का काम करता है। परंतु ये दवाएं फेफड़े और हृदय को कमजोर बनाती हैं। इसलिए इन्हेलस का इस्तेमाल केवल आपात स्थिति में ही करना चाहिए। ऐसी सलाह डॉक्टर  देते हैं। के.ई. अस्पताल के फिजियालॉजी विभाग के प्रमुख डॉ. मनु कोठारी के पास कोई भी मरीज अस्थमा की शिकायत करने पहुंचता है, तो वे उसे यही सलाह देते हैं कि वह शुद्ध घी और चावल का हलुवा खाए। इसके अलावा गुड़ और तैलीय बीजों से बनने वाली चिकी के इस्तेमाल से चमत्कारिक असर होता है। इस प्रयोग को अस्थमा के हजारों मरीजों ने आजमाया, इससे उन्हें फायदा भी हुआ। ये चीजें शरीर के प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं।
इस तरह से देखा जाए, तो अस्थमा की दवाएं बेचने वाली कंपनियां केवल अपने लाभ के लिए ही यह प्रचार करती हैं कि वह इस दिशा में शोध कर रही है। इसके पहले अमुक दवाओं से अस्थमा पर काबू पाया जा सकता है। दवा कंपनियों के इस झूठे प्रचार में कोई न उलझे, इसके लिए देश में किसी तरह का कोई जागरूकता का काम नहीं किया जा रहा है। पर कुछ लोगों को इस दिशा में आगे आना ही होगा। तभी इन दवा कंपनियों की असलियत सामने आएगी। अपने आसपास का वातावरण शुद्ध रखें, यही है अस्थमा का इलाज।
   डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 7 जून 2014

नहीं भूलती वह भीगी आंखें!

डॉ. महेश परिमल
देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा, जिसने संसद पर पांव रखने के पहले उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका होगा। इस तस्वीर से यह संदेश जाता है कि संसद जिसमें देश भर के चुने हुए जनप्रतिनिधि पहुंचते हैं और देश की समस्याओं पर चर्चा कर उसका समाधान ढृंढते हैं, वह संसद एक मंदिर की तरह है। संसद में बैठने वाला सांसद उस मंदिर का पुजारी है। वैसे भी यह परंपरा है कि जब कोई अपनी दुकान पर पहुंचता है, तो वह उसकी दहलीज को प्रणाम कर ही अंदर जाता है। संसद यदि मंदिर है, तो उसकी सीढ़ियों पर माथा टेकना भारतीय परंपरा है, जिसका निर्वाह देश के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है। उसके बाद संसद को संबोधित करते हुए लोगों ने उन्हें पहली बार इतना भावुक होते हुए देखा। देश के प्रधानमंत्री पर अच्छा लगता है, ऐसे संबोधनों ने उन्होंने अपने मित्रों के लिए किया।  इसके पहले संसद को इतना गरिमामय आज की पीढ़ी ने नहीं देखा होगा। अब तक संसद में न जाने क्या-क्या होता रहा। लोगों ने अपशब्द कहे, कुर्सियां फेंकी, परस्पर अभद्र भाषा का प्रयोग किया, संसद मानों एक अखाड़ा हो गई हो। पर अब संसद को गरिमा देने का काम शुरू हो गया है। देश को एक संवेदनशील प्रधानमंत्री मिला है। ऐसा प्रधानमंत्री, जिसने गरीबी देखी है, गरीबी झेली है और गरीबी में अपना गुजारा किया है। जमीन से जुड़ा एक ऐसा नेता, जिस पर पूरे देश को नाज हो सकता है। आज उनके सामने ढेर सारी चुनौतियां हैं, पर उन्हें विश्वास है कि वह अपने साथियों के साथ उन सारी चुनौतियों का सामना कर लेंगे और जो वादे उन्होंने चुनावी रैलियों में किए हैं, उसे पूरा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखेंगे।
न जाने क्यों, देश के भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद का ताज पहनने की दिशा में जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे अतिभावुक होते जा रहे हैं। पहले दिल्ली में संबोधन करते हुए करीब-करीब रो ही दिए, तो उसके दूसरे ही दिन गुजरात विधानसभा में उनका गला भर आया था। अब तब अपनी चुनावी रैलियों में वे गरजते थे, पर अब लगातार सौम्य होने लगे हैं। गुजरात के मणिनगर में सभा को भी अपनी गरिमा को देखते हुए प्रधानमंत्री पद के अनुरूप ही संबोधित किया। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पद पर जमीन-आसमान का अंतर है। मुख्यमंत्री राज्य का प्रधान होता है और प्रधानमंत्री देश का प्रधान होता है। हाल ही में चुनावी सभाओं को संबोधित करते हुए जब नरेंद्र मोदी ने 36 इंच की छाती शब्द का प्रयोग किया था, तब काफी बहस हुई थी। लोगों का कहना है कि क्या क36 इंच की छाती की बात करने वाले इंसान की आंखों में कभी आंसू आ सकते हैं? किसी के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करने में आंसू स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं और गला भर आता है। वैसे भी इंसान जब अपने अतीत में झांकता है, तो उस समय की भूली-बिसरी यादें ही उसकी आंखें भिगो देती है। उस क्षण उन्हें याद आया होगा, मां का दुलार, भाई-बहनों की ठिठोली और उसके बाद संघ के प्रचारक के रूप में गांव-गांव पैदल घूमना। यह सब याद कर वे अपने आप को रोक नहीं पाए। आंसुओं ने भी अपनी सीमाएं तोड़ दी और गीली कर गए आंखें। संवेदनशील लोगों को उनकी ये तस्वीरें हमेशा अपनेपन के साथ याद आएंगी। क्योंकि यहां पर वे एक नए रूप में दिखाई दिए। अब तक उन्हें रोबीली आवाज वाले और गुस्से से भरे चेहरे वाले के रूप में जाना जाता था। पर अब अश्रुपूरित आंखों वाले मोदी के रूप में देखना एक अलग ही अनुभव था। यह देखकर किसी ने यह टिप्पणी कर दी कि यह विजय समारोह है या विदाई समारोह। मोदी तो कुछ देर बाद पूर्ववत हो गए, पर सांसद काफी देर तक उस संवेदना भरे वातावरण से नहीं निकल पाए। देश का एक बड़ा नेता जब रोने के करीब हो, तो अच्छे-अच्छे लोग भी अपने आप को रोक नहीं पाते। जिन्होंने भी टीवी पर यह लाइव शो देखा, वह भी अपने आंसू रोक नहीं पाया। इसे कहते हैं संवेदना की लहर।
आंसुओं को दबाया नहीं जा सकता। आंसू हर्ष पर भी आते हैं और शोक पर भी। विश्वभर के नेता भी अपने आंसुओं को रोक पाने में विफल रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा तो कई बार इन हालात से गुजरे हैं। कई बार उनका गला भर आया है। सख्त माने जाने वाले रुसी राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन की बात करें, तो मार्च 2012 में चुनाव जीतने के बाद खुशी के मारे वे रो पड़े। वे इतना रोए कि आंसू उनके गाल तक आ गए। एक तरफ वे हंसते जाते, तो दूसरी तरफ उनके आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। ओबामा भी चुनाव प्रचार के दौरान कार्यकर्ताओं की प्रशंसा करते हुए रो पड़े थे। अमेरिकी नेताओं में अब यह बात सामान्य हो गई है कि अमुक नेता की आंखें भर आई, या फिर उनका गला भर आया। सन् 2007 में हिलेरी क्लिंटन अपने चुनाव प्रचार के दौरान सवालों के जवाब देते-देते रो पड़ीं थीं। जार्ज डब्ल्यू बुश भी एक सैनिक को मरणोपरांत मेडल देते हुए रो पड़े थे। क्लिंटन या बुश तो कोई एथलेटिक चेम्पियन या बॉडी बिल्डर नहीं थे, पर पुतिन तो जूउो चेम्पियन अपने शरीर का विशेष ध्यान रखने वाले माने जाते हैं, इसके बाद भी वे अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाते। जिन्हें हम आयरन लेडी के नाम से जानते हैं, वही मार्गरेट थ्रेचर भी जब 10 डाउनिंग स्ट्रीट से विदा हो रही थीं, तब भी वे रो पड़ीं थीं। 1072 में डेमोकेटिक पार्टी के एडमंड मस्की जीतेंगे, यह तय था, परंतु उसकी पत्नी के खिलाफ किसी अखबार में प्रकाशित किसी खबर को पढ़ते हुए रो पड़े, मतदाताओं पर इसका असर उल्टा हुआ और वे चुनाव हार गए। रिपब्लिकन जॉन बोहनर स्पीकर ऑफ द हाउस थे। अमेरिकी सरकार में इस पद को बहुत बड़ा माना जाता है। बोहनर के साथ यह होता कि वे बात-बात पर रो पड़ते, इसलिए लोग उन्हें ‘वीपर आफ द हाउस’ कहा करते। उनकी छबि रोने वाले नेता की हो गई। आखिरकार उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा।
अपनी चुनावी सभाओं को संबोधित करते समय नरेंद्र मोदी के चेहरे पर कभी संवेदनाएं नहीं झलकीं। तब उनके चेहरे पर कीलर इंस्टींकट का भाव छलकता। पर जैसे-जैसे वे प्रधानमंत्री पद के करीब पहुंचने लगे, वैसे-वैसे भावुक बनते गए। फिल्मों में मीना कुमारी की छवि रोने वाली अभिनेत्री की रही है। अधिक रोने वाली नायिकाएं तो फिल्मों में चल जाएंगे, पर अधिक रोने वाले अभिनेता अधिक नहीं चल पाते। इसलिए नरेंद्र मोदी को अधिक भावुक होना नहीं चाहिए। क्योंकि जिसे लोगों ने एक दम-खम वाले इंसान के रूप में देखा है, उसे इतने अधिक भावुक रूप में देखना बार-बार अच्छा नहीं लगता। इसलिए उन्हें अपनी इस छवि से दूर रहकर एक सख्त एवं दूरंदेशी व्यक्ति के रूप में छवि बनानी होगी।
डॉ. महेश परिमल

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