डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में राजभवन को यदि उपकृत भवन कहा जाए, तो गलत न होगा। बरसों से हम सभी देख रहे हैं कि राज्यपाल एक गरिमामय पद होने के बाद भी केवल राज्य के मुख्यमंत्री से विवाद के बाद ही चर्चा में आता है। इसके पहले उनका नाम केवल उद्घाटन समारोहों में मुख्य अतिथि के रूप में ही सामने आता है। कई बार राजभवन राजनीति का केंद्र बन जाते हैं। विशेषकर उस समय जब केंद्र में विपक्ष की सरकार हो। इसलिए यह परंपरा चली आ रही है कि केंद्र सरकार के पदारूढ़ होते ही राज्यों के राज्यपालों को बदल दिया जाता है। उनके स्थान पर पहुंच जाते हैं, ऐसे बुजुर्ग किंतु निष्ठावान कार्यकर्ता, जिन्हें कोई पद नहीं मिल पाया। इस तरह से सरकार उन्हें उपकृत ही करती है। वैसे देखा जाए, तो कानूनी रूप से सक्षम होने के बाद भी राज्यपाल की देश या राज्य के विकास में कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं होती। अब कई राज्यपाल विलासिता की जिंदगी से दूर होकर तीन बेडरूम के फ्लेट में पहुंच जाएंगे।
किसी ने कहा है कि यदि आपकी वकालत नहीं चल रही हो, तो अपने कौम के लीडर बन जाओ। ऐसे ही राजनीति में जब किसी नेता की स्थिति सेवानिवृत्ति की हो, तो उसे राज्यपाल बनने के लिए लाबिंग करनी पड़ती है। राज्य के मुख्यमंत्री के पास कई काम होते हैं, पर राज्यपाल के पास उद्घाटन के अलावा और कोई काम नहीं होता। विधानसभा के पहले दिन उनका अभिभाषण अवश्य होता है, पर उसे कोई भी विधायक या मंत्री गंभीरता से नहीं लेता। जिस किसी को राज्यपाल बनाया जाता है, उसे वह पद एक उपकृत योजना के तहत प्राप्त होता है। अधिकांश राज्यपाल वृद्ध या सीनियर कार्यकर्ता होते हैं। यह पद उन्हें एक अवार्ड की तरह दिया जाता है। इस समय देश में राज्यपालों का विकेट एक के बाद एक गिरते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी.एल. जोशी और छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त ने इस्तीफा दे दिया है, इसके बाद यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपाल समझ गए कि आज नहीं तो कल हमें भी इस्तीफा देना ही होगा। होना तो यह चाहिए था कि जिस दिन नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उसी दिन से राज्यपालों को इस्तीफा दे देना था। पर विलासिता जीवन को मोह इतनी जल्दी नहीं छूटता, इसलिए इतने दिन निकल गए। कानून के अनुसार राज्यपालों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। पर केंद्र सरकार बदलते ही राज्यपालों को हटाने और नई नियुक्ति का सिलसिला जारी हो जाता है।
कई राज्यपाल, खासकर भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भेंट की है। इन्होंने अपना पद छोड़ने की मंशा जाहिर की है। इसके सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं है। पूर्व सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों की चिंता यह है कि अब उन्हें वे उन शासकीय सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे, जो अब तक मिल रही थी। नौकर-चाकरों से भरे राजभवन के बाद अब उन्हें तीन बेडरुम वाले घर में रहना होगा। इसे केंद्र सरकार बदलने का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। वास्तव में राज्यपाल का पद केंद्र की नजर रखने के लिए तैयार किया गया था। पिछले 30 वर्षो में गठबंधन की सरकार इस देश में थी, ऐसे में अन्य राज्यों में क्या हो रहा है, इसके लिए राज्यपालों को नियुक्त किया जाता था, ताकि समय रहते केंद्र सरकार राज्य पर कार्रवाई कर सके। कई राज्यपालों ने तो अल्पमत राज्य सरकार को पलटाने की साजिश भी की, कुछ सफल भी रहे। इसलिए कई बार राजभवनों को केंद्र सरकार का राजनीतिक अड्डा कहा जाता है। गुजरात में भाजपा सरकार ने कांग्रेस के खिलाफ ऐसे आरोप लगाए भी हैं। कई बार ऐसे आरोपों में तथ्य भी होते हैं। राज्यपाल पक्के राजनीतिज्ञ होते हैं, बिना राजनीति के वे रह भी नहीं सकते। इसलिए अक्सर राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच शीतयुद्ध की खबरें आती ही रहती हैं। राज्य सरकार को परेशान करना राज्यपाल का मुख्य काम होता है। राजभवन में कई फाइलें केवल इसीलिए अटकी पड़ी रहती हैं, क्योंकि उसमें केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ काम करने का अनुरोध होता है।
राज्यपाल का काम ठाठ वाला है। उनकी कोई जवाबदारी न होने के बाद भी वे राज्य सरकार के कामों में अड़ंगा लगाते रहते हैं। पूर्व में भाजपा शासित राज्यों में कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने अनेक फाइलें अटका रखी थीं और कांग्रेस शासित राज्यों को अधिक प्राथमिकता दी जाती। इस समय राज्यपालों को बदलने की जो बात चल रही है, उस पर कांग्रेस कुछ कह नहीं सकती। क्योंकि 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता पर आई, तब उसने पहले की एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटा दिया था। कुल मिलाकर आज राज्यपालों की नियुक्ति पूरी तरह से राजनीति हावी हो गई है। कोई राज्यपाल स्वैच्छिक रूप से अपना पद छोड़ना नहीं चाहता। राज्यपाल का पद एक सम्मानित पद है, इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। किंतु हमारे संविधान में राज्यपाल का पद महत्वपूर्ण होते हुए भी अप्रभावी पद माना गया है। राज्य सरकार उन्हें सम्मान तो देती है, पर उनके प्रभाव में नहीं आती। राज्यपाल और राज्य सरकार एक ही पार्टी के हों, तो संबंध सौहार्दपूर्ण होते हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में दुष्कर्म की घटनाएं लगातार हो रहीं थी, राज्य सरकार की आलोचना हो रही थी, राष्ट्रपति शासन की मांग हो रही थी, फिर भी राज्यपाल जोशी की तरफ किसी ने ऊंगली नहीं उठाई। उनकी तरफ से किसी प्रकार का सुझाव केंद्र सरकार को नहीं दिया गया। यह इसलिए कि जब उत्तर प्रदेश में सपा ने सरकार बनाई, तब वह केंद्र की गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। इसलिए राज्यपाल जोशी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसे उल्लेखित किया जाए। उन्होंने मौन रहकर अपनी भूमिका निभाई, अंत में अपनी आत्मा की आवाज सुनकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
राज्यपालों की भूमिका:- भारत में राज्यपालों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और केंद्र में राष्ट्रपति की तरह राज्यों में कार्यपालिका की शक्ति उसके अंदर निहित होती है। राज्यपाल सांकेतिक तौर पर राज्य का प्रमुख होता है, जबकि वास्तविक शक्तियां मुख्यमंत्री के पास होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य की सारी कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के पास होती है और सभी कार्य उन्हीं के नाम से होता है। वास्तव में, राज्यपाल विभिन्न कार्यकारी कार्यों के लिए मात्र अपनी सहमति देता है। भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यपाल स्वतंत्र तौर पर कोई भी बड़ा निर्णय नहीं ले सकते हैं। राज्य की कार्यकारी शक्तियां मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के अधीन होती हैं।
राज्यपाल की शक्तियां:-भारत के राष्ट्रपति की तरह, राज्य के राज्यपालों के पास कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियां निहित होती हैं। राज्यपालों के पास विवेकाधीन और आपातकालीन अधिकार हैं। राष्ट्र्रपति और राज्यपालों के पास अधिकारों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि राज्यपाल के पास राजनयिक और सैन्य शक्ति संबंधी कोई अधिकार नहीं है। राज्यपाल के पास मुख्यमंत्री सहित, मंत्रिपरिषद, एडवोकेट जनरल और राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार है। मंत्रिपरिषद और एडवोकेट जनरल राज्यपाल की इच्छा पर अपने पद पर बने रह सकते हैं। हालांकि, राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल के द्वारा हटाया नहीं जा सकता है। राष्ट्र्रपति के पास राज्य लोक सेवा के सदस्यों को हटाने का अधिकार है। राज्यपाल हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्र्रपति को सलाह देते हैं। राज्यपाल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों की नियुक्ति करते हैं। अगर राज्यपाल को ऐसा लगता है कि एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व विधान सभा में नहीं है तो वे विधान सभा में उनके एक प्रतिनिधि की नॉमिनेट कर सकते हैं। जिस राज्य में विधान सभा और विधान परिषद है वहां राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और सामाजिक कार्यों से संबंधित लोगों को विधान परिषद में नॉमिनेट करें।
राज्यपालों की विधायिका शक्तियां:- राज्यपाल को राज्य विधानमंडल का हिस्सा माना जाता है। वह राज्य विधानसभा को संबोधित करने के साथ-साथ विधान सभा को संदेश देता है। केंद्र में राष्ट्र्रपति की तरह राज्य में राज्यपाल के पास विधान सभा की बैठक बुलाने और उसे भंग या स्थगित करने का अधिकार है। हालांकि, ये सारी शक्तियां औपचारिक हैं और किसी भी निर्णय लेने के लिए उन्हें मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद के द्वारा सलाह दी जाती है। राज्यपाल विधान सभा का उद्घाटन करते हैं और प्रत्येक वर्ष विधान सभा को संबोधित करते हैं। राज्यपाल अपने संबोधन में सत्ताधारी पार्टी की प्रशासनिक नीतियों को रखते हैं। राज्यपाल विधान सभा में वार्षिक लेखानुदान और मनी बिल (धन विधेयक) के लिए अनुमोदन करते हैं। राज्यपाल स्टेट फाइनेंस कमीशन का गठन करता है। उसके पास आपातकालीन स्थितियों में राज्य की आकस्मिक निधि से पैसे के निष्कासन का अधिकार होता है। राज्य विधान सभा के द्वारा पास सभी कानून राज्यपाल की अनुमति के बाद ही कानून का रूप लेते हैं। धन विधेयक न होने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वह विधान सभा के पास दोबारा से बिल भेजें, लेकिन अगर राज्य विधान सभा के द्वारा बिल वापस राज्यपाल के पास फिर से भेज दिया जाता है तो राज्यपाल को उस पर हस्ताक्षर करना पड़ता है। विधानसभा के स्थगन होने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे अध्यादेश को पारित करें और तत्काल प्रभाव से कानून लागू हो जाता है। हालांकि, अध्यादेश को विधान सभा के अगले सत्र में पेश किया जाता है और यह अगले छह सप्ताह तक प्रभावशाली रहता है जब तक कि विधानसभा द्वारा पारित न हो जाए।
न्यायिक शक्तियां:-राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वह किसी अपराधी की सजा को माफ या कम कर सकता है। वह कानून द्वारा सजा पाए किसी अपराधी की सजा को निलंबित कर सकता है। साथ ही हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में राष्ट्र्रपति संबंधित राज्य के राज्यपाल से सलाह-मशविरा करते हैं। आपातकालीन शक्तियां: विधान सभा में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार होता है कि वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति में अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करे। राज्यपाल विशेष परिस्थितियों में राष्ट्र्रपति को राज्य की स्थिति के बारे में रिपोर्ट करते हैं और राष्ट्र्रपति को राज्य में राष्ट्र्रपति शासन का अनुमोदन करते हैं। ऐसी स्थिति में राज्यपाल के पास सारी शक्तियां होती हैं और वे राज्य के कार्यों के लिए निर्देश जारी करते हैं।
राज्यपाल का वेतन:- गवर्नर्स एक्ट 1982 (वेतन, भत्ते व विशेषाधिकार) के अनुसार राज्यपाल को प्रति महीने 1 लाख 10 हजार रुपए का वेतन मिलता है। इसके अलावा, राज्यपाल को कई सुविधाएं भी मिलती हैं, जो उनके कार्यकाल पूर्ण होने तक जारी रहती हैं। राज्यपाल को मिलने वाली सुविधाएं मासिक वेतन के अलावा राज्यपाल को कई अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं, जैसे चिकित्सा सुविधा, आवासीय सुविधा, यात्रा सुविधा, फोन और बिजली बिल की प्रतिपूर्ति इत्यादि। राज्यपाल और उनके परिवार को जीवन भर मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी मिलती है। देश भर में यात्रा के लिए राज्यपाल को एक नियत यात्रा भत्ता मिलता है।
डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में राजभवन को यदि उपकृत भवन कहा जाए, तो गलत न होगा। बरसों से हम सभी देख रहे हैं कि राज्यपाल एक गरिमामय पद होने के बाद भी केवल राज्य के मुख्यमंत्री से विवाद के बाद ही चर्चा में आता है। इसके पहले उनका नाम केवल उद्घाटन समारोहों में मुख्य अतिथि के रूप में ही सामने आता है। कई बार राजभवन राजनीति का केंद्र बन जाते हैं। विशेषकर उस समय जब केंद्र में विपक्ष की सरकार हो। इसलिए यह परंपरा चली आ रही है कि केंद्र सरकार के पदारूढ़ होते ही राज्यों के राज्यपालों को बदल दिया जाता है। उनके स्थान पर पहुंच जाते हैं, ऐसे बुजुर्ग किंतु निष्ठावान कार्यकर्ता, जिन्हें कोई पद नहीं मिल पाया। इस तरह से सरकार उन्हें उपकृत ही करती है। वैसे देखा जाए, तो कानूनी रूप से सक्षम होने के बाद भी राज्यपाल की देश या राज्य के विकास में कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं होती। अब कई राज्यपाल विलासिता की जिंदगी से दूर होकर तीन बेडरूम के फ्लेट में पहुंच जाएंगे।
किसी ने कहा है कि यदि आपकी वकालत नहीं चल रही हो, तो अपने कौम के लीडर बन जाओ। ऐसे ही राजनीति में जब किसी नेता की स्थिति सेवानिवृत्ति की हो, तो उसे राज्यपाल बनने के लिए लाबिंग करनी पड़ती है। राज्य के मुख्यमंत्री के पास कई काम होते हैं, पर राज्यपाल के पास उद्घाटन के अलावा और कोई काम नहीं होता। विधानसभा के पहले दिन उनका अभिभाषण अवश्य होता है, पर उसे कोई भी विधायक या मंत्री गंभीरता से नहीं लेता। जिस किसी को राज्यपाल बनाया जाता है, उसे वह पद एक उपकृत योजना के तहत प्राप्त होता है। अधिकांश राज्यपाल वृद्ध या सीनियर कार्यकर्ता होते हैं। यह पद उन्हें एक अवार्ड की तरह दिया जाता है। इस समय देश में राज्यपालों का विकेट एक के बाद एक गिरते जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बी.एल. जोशी और छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त ने इस्तीफा दे दिया है, इसके बाद यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपाल समझ गए कि आज नहीं तो कल हमें भी इस्तीफा देना ही होगा। होना तो यह चाहिए था कि जिस दिन नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, उसी दिन से राज्यपालों को इस्तीफा दे देना था। पर विलासिता जीवन को मोह इतनी जल्दी नहीं छूटता, इसलिए इतने दिन निकल गए। कानून के अनुसार राज्यपालों का कार्यकाल 5 वर्ष होता है। पर केंद्र सरकार बदलते ही राज्यपालों को हटाने और नई नियुक्ति का सिलसिला जारी हो जाता है।
कई राज्यपाल, खासकर भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों ने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भेंट की है। इन्होंने अपना पद छोड़ने की मंशा जाहिर की है। इसके सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं है। पूर्व सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों की चिंता यह है कि अब उन्हें वे उन शासकीय सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे, जो अब तक मिल रही थी। नौकर-चाकरों से भरे राजभवन के बाद अब उन्हें तीन बेडरुम वाले घर में रहना होगा। इसे केंद्र सरकार बदलने का साइड इफेक्ट कहा जा सकता है। वास्तव में राज्यपाल का पद केंद्र की नजर रखने के लिए तैयार किया गया था। पिछले 30 वर्षो में गठबंधन की सरकार इस देश में थी, ऐसे में अन्य राज्यों में क्या हो रहा है, इसके लिए राज्यपालों को नियुक्त किया जाता था, ताकि समय रहते केंद्र सरकार राज्य पर कार्रवाई कर सके। कई राज्यपालों ने तो अल्पमत राज्य सरकार को पलटाने की साजिश भी की, कुछ सफल भी रहे। इसलिए कई बार राजभवनों को केंद्र सरकार का राजनीतिक अड्डा कहा जाता है। गुजरात में भाजपा सरकार ने कांग्रेस के खिलाफ ऐसे आरोप लगाए भी हैं। कई बार ऐसे आरोपों में तथ्य भी होते हैं। राज्यपाल पक्के राजनीतिज्ञ होते हैं, बिना राजनीति के वे रह भी नहीं सकते। इसलिए अक्सर राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच शीतयुद्ध की खबरें आती ही रहती हैं। राज्य सरकार को परेशान करना राज्यपाल का मुख्य काम होता है। राजभवन में कई फाइलें केवल इसीलिए अटकी पड़ी रहती हैं, क्योंकि उसमें केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ काम करने का अनुरोध होता है।
राज्यपाल का काम ठाठ वाला है। उनकी कोई जवाबदारी न होने के बाद भी वे राज्य सरकार के कामों में अड़ंगा लगाते रहते हैं। पूर्व में भाजपा शासित राज्यों में कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने अनेक फाइलें अटका रखी थीं और कांग्रेस शासित राज्यों को अधिक प्राथमिकता दी जाती। इस समय राज्यपालों को बदलने की जो बात चल रही है, उस पर कांग्रेस कुछ कह नहीं सकती। क्योंकि 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता पर आई, तब उसने पहले की एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटा दिया था। कुल मिलाकर आज राज्यपालों की नियुक्ति पूरी तरह से राजनीति हावी हो गई है। कोई राज्यपाल स्वैच्छिक रूप से अपना पद छोड़ना नहीं चाहता। राज्यपाल का पद एक सम्मानित पद है, इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए। किंतु हमारे संविधान में राज्यपाल का पद महत्वपूर्ण होते हुए भी अप्रभावी पद माना गया है। राज्य सरकार उन्हें सम्मान तो देती है, पर उनके प्रभाव में नहीं आती। राज्यपाल और राज्य सरकार एक ही पार्टी के हों, तो संबंध सौहार्दपूर्ण होते हैं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में दुष्कर्म की घटनाएं लगातार हो रहीं थी, राज्य सरकार की आलोचना हो रही थी, राष्ट्रपति शासन की मांग हो रही थी, फिर भी राज्यपाल जोशी की तरफ किसी ने ऊंगली नहीं उठाई। उनकी तरफ से किसी प्रकार का सुझाव केंद्र सरकार को नहीं दिया गया। यह इसलिए कि जब उत्तर प्रदेश में सपा ने सरकार बनाई, तब वह केंद्र की गठबंधन सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। इसलिए राज्यपाल जोशी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसे उल्लेखित किया जाए। उन्होंने मौन रहकर अपनी भूमिका निभाई, अंत में अपनी आत्मा की आवाज सुनकर उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
राज्यपालों की भूमिका:- भारत में राज्यपालों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है। वह केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है और केंद्र में राष्ट्रपति की तरह राज्यों में कार्यपालिका की शक्ति उसके अंदर निहित होती है। राज्यपाल सांकेतिक तौर पर राज्य का प्रमुख होता है, जबकि वास्तविक शक्तियां मुख्यमंत्री के पास होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य की सारी कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल के पास होती है और सभी कार्य उन्हीं के नाम से होता है। वास्तव में, राज्यपाल विभिन्न कार्यकारी कार्यों के लिए मात्र अपनी सहमति देता है। भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यपाल स्वतंत्र तौर पर कोई भी बड़ा निर्णय नहीं ले सकते हैं। राज्य की कार्यकारी शक्तियां मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमंडल के अधीन होती हैं।
राज्यपाल की शक्तियां:-भारत के राष्ट्रपति की तरह, राज्य के राज्यपालों के पास कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियां निहित होती हैं। राज्यपालों के पास विवेकाधीन और आपातकालीन अधिकार हैं। राष्ट्र्रपति और राज्यपालों के पास अधिकारों में सबसे बड़ा अंतर यह है कि राज्यपाल के पास राजनयिक और सैन्य शक्ति संबंधी कोई अधिकार नहीं है। राज्यपाल के पास मुख्यमंत्री सहित, मंत्रिपरिषद, एडवोकेट जनरल और राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार है। मंत्रिपरिषद और एडवोकेट जनरल राज्यपाल की इच्छा पर अपने पद पर बने रह सकते हैं। हालांकि, राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को राज्यपाल के द्वारा हटाया नहीं जा सकता है। राष्ट्र्रपति के पास राज्य लोक सेवा के सदस्यों को हटाने का अधिकार है। राज्यपाल हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए राष्ट्र्रपति को सलाह देते हैं। राज्यपाल डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जजों की नियुक्ति करते हैं। अगर राज्यपाल को ऐसा लगता है कि एंग्लो-इंडियन समुदाय का प्रतिनिधित्व विधान सभा में नहीं है तो वे विधान सभा में उनके एक प्रतिनिधि की नॉमिनेट कर सकते हैं। जिस राज्य में विधान सभा और विधान परिषद है वहां राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और सामाजिक कार्यों से संबंधित लोगों को विधान परिषद में नॉमिनेट करें।
राज्यपालों की विधायिका शक्तियां:- राज्यपाल को राज्य विधानमंडल का हिस्सा माना जाता है। वह राज्य विधानसभा को संबोधित करने के साथ-साथ विधान सभा को संदेश देता है। केंद्र में राष्ट्र्रपति की तरह राज्य में राज्यपाल के पास विधान सभा की बैठक बुलाने और उसे भंग या स्थगित करने का अधिकार है। हालांकि, ये सारी शक्तियां औपचारिक हैं और किसी भी निर्णय लेने के लिए उन्हें मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिपरिषद के द्वारा सलाह दी जाती है। राज्यपाल विधान सभा का उद्घाटन करते हैं और प्रत्येक वर्ष विधान सभा को संबोधित करते हैं। राज्यपाल अपने संबोधन में सत्ताधारी पार्टी की प्रशासनिक नीतियों को रखते हैं। राज्यपाल विधान सभा में वार्षिक लेखानुदान और मनी बिल (धन विधेयक) के लिए अनुमोदन करते हैं। राज्यपाल स्टेट फाइनेंस कमीशन का गठन करता है। उसके पास आपातकालीन स्थितियों में राज्य की आकस्मिक निधि से पैसे के निष्कासन का अधिकार होता है। राज्य विधान सभा के द्वारा पास सभी कानून राज्यपाल की अनुमति के बाद ही कानून का रूप लेते हैं। धन विधेयक न होने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वह विधान सभा के पास दोबारा से बिल भेजें, लेकिन अगर राज्य विधान सभा के द्वारा बिल वापस राज्यपाल के पास फिर से भेज दिया जाता है तो राज्यपाल को उस पर हस्ताक्षर करना पड़ता है। विधानसभा के स्थगन होने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे अध्यादेश को पारित करें और तत्काल प्रभाव से कानून लागू हो जाता है। हालांकि, अध्यादेश को विधान सभा के अगले सत्र में पेश किया जाता है और यह अगले छह सप्ताह तक प्रभावशाली रहता है जब तक कि विधानसभा द्वारा पारित न हो जाए।
न्यायिक शक्तियां:-राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वह किसी अपराधी की सजा को माफ या कम कर सकता है। वह कानून द्वारा सजा पाए किसी अपराधी की सजा को निलंबित कर सकता है। साथ ही हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में राष्ट्र्रपति संबंधित राज्य के राज्यपाल से सलाह-मशविरा करते हैं। आपातकालीन शक्तियां: विधान सभा में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में राज्यपाल के पास यह अधिकार होता है कि वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति में अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करे। राज्यपाल विशेष परिस्थितियों में राष्ट्र्रपति को राज्य की स्थिति के बारे में रिपोर्ट करते हैं और राष्ट्र्रपति को राज्य में राष्ट्र्रपति शासन का अनुमोदन करते हैं। ऐसी स्थिति में राज्यपाल के पास सारी शक्तियां होती हैं और वे राज्य के कार्यों के लिए निर्देश जारी करते हैं।
राज्यपाल का वेतन:- गवर्नर्स एक्ट 1982 (वेतन, भत्ते व विशेषाधिकार) के अनुसार राज्यपाल को प्रति महीने 1 लाख 10 हजार रुपए का वेतन मिलता है। इसके अलावा, राज्यपाल को कई सुविधाएं भी मिलती हैं, जो उनके कार्यकाल पूर्ण होने तक जारी रहती हैं। राज्यपाल को मिलने वाली सुविधाएं मासिक वेतन के अलावा राज्यपाल को कई अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं, जैसे चिकित्सा सुविधा, आवासीय सुविधा, यात्रा सुविधा, फोन और बिजली बिल की प्रतिपूर्ति इत्यादि। राज्यपाल और उनके परिवार को जीवन भर मुफ्त चिकित्सा सुविधा भी मिलती है। देश भर में यात्रा के लिए राज्यपाल को एक नियत यात्रा भत्ता मिलता है।
डॉ. महेश परिमल
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