बुधवार, 31 अगस्त 2016
बाल कहानी – गोर्की – सत्यनारायण भटनागर
कहानी का अंश… गोर्की बहुत प्यारा बच्चा है। उसके माता-पिता उसे बहुत प्यार करते हैं। माता-पिता उसकी हर माँग पूरी करते हैं। उससे हँसकर बातें करते हैं। न कभी डाँटते हैं और न ही फटकारते हैं। मारने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। जब कभी गोर्की कोई गलत काम करता तो वे उसे गलती बताते। ऐसे समय में वे स्वयं दुखी हो जाते। उनका दुख उनके चेहरे पर साफ दिखाई देता। गोर्की को तब डाँटने-डपटने या मार खाने से कहीं अधिक दुख होता था। वह शर्मिंदगी अनुभव करता। वह सचेत रहता कि उससे कोई गलत काम न हो और उसके कारण माता-पिता को दुखी न होना पड़े। आज वह बहुत प्रसन्न था। मौसम में गर्म हवा तो थी, लेकिन तपन नहीं थी। वह जल्दी-जल्दी पाठशाला जाने के लिए अपना बस्ता जमा रहा था। बस्ता जमाने के बाद वह ड्राईंग रूम में आया और पिताजी से बोला- पिताजी, आज मैं स्वीमिंग पूल में तैरने जाना चाहता हूँ। इसके लिए मुझे बीस रूपए चाहिए। पिताजी ने जेब से बीस रूपए निकाले और गोर्की को दे दिए साथ ही बोले – बीस रूपए क्यों? क्या इतना शुल्क लगता है? गोर्की यह सुनकर हड़बड़ा गया और बोला – हाँ, हाँ पिताजी। इतना ही लगता है। गोर्की रूपए लेकर चल दिया किंतु वह मन ही मन परेशान था। उसने अपने पिताजी से झूठ बोला था। उसे चिंता थी कि अगर उसका झूठ पकड़ा गया तो क्या होगा? उसका सारा सोच-विचार इसी प्रश्न पर उलझा हुआ था। वह चला जा रहा था, इस झूठ के प्रश्न पर। कभी वह सोचता कि क्या उसने गलती की? फिर वह सोचने लगा कि पाठशाला से वापस आकर वह अपने पिताजी को सब कुछ सच-सच बता देगा। उसे ऐसा ही करना चाहिए। गोर्की के घर से निकलने के बाद उसके पिताजी को भी मानसिक धक्का लगा था। वे जानते थे कि गोर्की झूठ बोल रहा है। इतने पैसे तो नहीं लगते हैं। लेकिन गोर्की ऐसा क्यों कर रहा है? क्या गार्की किसी गलत संगत में फँस रहा है? वे परेशान हो गए। आखिर गोर्की ने झूठ क्यों बोला? उसके पिता ने उसका झूठ पकड़ने के लिए क्या किया? क्या स्वयं गोर्की ने पिता को सच-सच बता दिया? क्या था सच? यह सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए पूरी कहानी जानिए और इसके लिए ऑडियो की सहायता लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
बाल कहानी – उपकारी पेड़ – डॉ. रामसिंह यादव
कहानी का अंश…
एक फलदार पेड़ था। उसके नीचे फलों के बहुत-से बीज बिखरे पड़े थे। हवा का एक जोरदार झौंका आया, एक बीज हवा के साथ उड़कर बहुत ऊंचाई पर पहुँच गया। चलते-चलते हवा ने बीज से पूछा – बता, मैं तुझे धरती पर कहाँ गिराऊँ? गाँव में, नगर में या फिर जंगल में? बीज बोला – गाँव में बहुत सारे पेड़-पौधे होते हैं। नगर में भी बाग-बगीचों की कमी नहीं और जंगल तो हजारों पेड़-पौधों से भरा होता है। इसलिए इन स्थानों पर जाने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। हवा, तुम मुझे ऐसे उजाड़ रास्ते पर गिरा दे, जहाँ कोई पेड़ न हो, न कोई पौधा। जहाँ न छाया हो और न किसी के आराम के लिए कोई ठंडी जगह हो। बस, मैं ऐसे ही स्थान पर उगना चाहता हूँ। फिर क्या था, हवा ने उस बीज को एक ऐसे ही उजाड़ स्थान पर रास्ते के किनारे गिरा दिया। मिट्टी में कुछ दिनों तक पड़े रहने के बाद वह बीज सचमुच उग आया और सुबह जब पूर्व दिशा से लाल सूरज की किरणें उस पर पड़ी तो उसकी नन्हीं-नन्हीं कोंपलें भी चमकने लगी। तभी उधर से एक वासन्ती हवा गुजरी। सुनहरे पौधे को देखकर हवा का मन उसके साथ खेलने का हुआ। हवा ने उससे पूछा – पौधे, पौधे क्या मैं तुम्हारे साथ खेल सकती हूँ?
पौधा बोला – मेरे ये सुनहरे पत्ते यहाँ और किस काम आएँगे। मेरी इस कोमल शाखा से इस उजाड़ स्थान पर और क्या लाभ हो सकता है? यह मेरा बड़ा सौभाग्य होगा कि मेरे साथ खेलकर तुम्हें थोड़ी देर के लिए खुशी मिलेगी। मुझे कोई ऐतराज नहीं है। तुम मेरे साथ खेलो। यह सुनकर वह वासन्ती हवा उस सुनहरे पौधे के साथ थोड़ी देर तक खेली और फिर वहाँ से चली गई। पौधा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। अब वह बढ़ते-बढ़ते एक वृक्ष बन गया। उस पर बहुत-सी शाखाएँ उग आईं। उन शाखाओं पर पत्ते लगे और वह वृक्ष उन पत्तों से ढँक गया। इस तरह वह एक घना वृक्ष बन गया। आगे क्या हुआ, यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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विज्ञान कविता – बाइसिकल – सुधा अनुपम
कविता का अंश…
काठ के पहिए, काठ की घोड़ी,
चार पाँव पर तिरपट दौड़ी।
बैठने वाला धक्का दे,
साइकिल थी या दुलदुल घोड़ी।
हुई लुहार के दिल में खटपट,
शक्ल बदल दी उसने झटपट।
किए चार से दो पहिए कट,
ताकि दौड़े सड़क पर सरपट।
मैकमिलन लुहार की अक्कल,
दो पहियों से बनी बाइसिकल।
पीछे के पहिए पर पैडल,
जोड़ दिए थे लगा के एक्सल।
पहन पाँव में जूता, सैंडल,
चढ़ो, साइकिल, मारो पैडल।
धक्के की न रही जरूरत,
ऐ बाबू क्यों जाते पैदल?
मियां मैक थे बड़े खबीस,
दाँत दिखाते थे बत्तीस।
जहाँ जाएँ, साइकिल पर जाते,
लोग निपोरें चाहे खीस।
मैकमिलन का फैला जस,
न मोटर थी तब, न बस।
सत्तर मील चले साइकिल पर,
जिसमें लग गए घंटे दस।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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कविता,
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मंगलवार, 30 अगस्त 2016
कविता - अनपढ़ माँ - चिराग़ जैन
कविता का अंश...
चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ”नौ-बाई-चार” की कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
…लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।
त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व निकालना
उसके शब्दों में ‘स्यापा’ है
…क्योंकि उसने मेरी छाती को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है
वह नहीं समझ सकती
कि ‘ए’ को ‘सी’ बनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता है
…लेकिन अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए
कौन सा फॉर्मूला अपनाना होता है।
मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
…उसने तो केवल ख़ुश्बू सूंघकर बता दिया है
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।
घर की कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों
घर की आमदनी
और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
…लेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिद्धान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।
वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
….स्वर साधना के लिए
वह संगीत का कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
…लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।
नहीं मालूम उसे
कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुग़ल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।
वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में किस पार्टी के निशान पर
मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीपावली पर कौन-सी साड़ी जानी है।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि
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वन्य जगत – हिम तेंदुआ – अभिनन्दन
लेख का अंश…
हिम तेंदुआ मध्य एशिया के पर्वतीया भागों में पाया जानेवाला शानदार जीव है। इसका वैज्ञानिक नाम पैन्थरा अंसिया है। अंग्रेजी में इसे स्नोलेपर्ड और आउन्स कहते हैं। यह हिमालय पर्वत के बर्फीले भागों में और टोडोडेन्ड्रान के वनों में बर्फ से ढँके भागों में पाया जाता है। कभी-कभी इसे 6000 मीटर की ऊँचाई पर भी देखा जा सकता है। इतनी ऊँचाई तक मानव नहीं जा सकता। हिम तेंदुआ में सर्दी सहन करने की बहुत अधिक क्षमता होती है। यह शून्य से चालीस डिग्री सेल्सियस तक नीचे के तापमान वाले भागों में भी सरलता से रह सकता है। भारत में यह हिमालय पर्वत क अधिकांश क्षेत्रों कश्मीर, लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश, हिमालच प्रदेश के उत्तरी भागों, कुमायूँ, टिहरी और गढ़वाल के ऊँचाई वाले भागों में मिलता है। हिम तेंदुआ एल्पाइन के जंगलों में छोटी-छोटी झाडियों वाले भागों में, पथरीले और चट्टानी भागों में ऐसे स्थानों पर रहता है, जहाँ प्राय: पेड़ नहीं होते। यही कारण है कि इसे पेड़ पर चढ़ना नहीं आता और यह अपना संपूर्ण जीवन जमीन पर ही बिता देता है। हिम तेंदुआ रात्रिचर है। दिन में प्राय: ये अपनी मांदों में, पत्थरों के नीचे, चट्टानों में अथवा ऐसी जगह पर आराम करते हैं, जहाँ वे स्वयं को सुरक्षित महसूस करते हैं। रात होते ही ये सक्रिय हो जाते हैं। कभी-कभी इन्हें दिन में घूमते हुए देखा जा सकता है। हिम तेंदुआ बाघ और सामान्य तेंदुए के समान ही अपना सीमाक्षेत्र बनाता है। यह अपने सीमा क्षेत्र में पत्थरो, चट्टानों, बर्फीले शिलाखंडों आदि को अपने नाखूनों से खरोंचकर निशान बनाता है। हिम तेंदुआ ऐसे स्थानों पर रहता है, जहाँ पर भोजन बहुत कम उपलब्ध रहता है। अत: इसके सीमाक्षेत्र बहुत फैले हुए होते हैं। इसके सीमाक्षेत्र इतने बड़े होते हैं कि एक ही सीमाक्षेत्र वाले दो नर हिम तेंदुए प्राय: एक-दूसरे से जीवन भर नहीं मिल पाते हैं। हिम तेंदुए के बारे में अन्य जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए…
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आलेख,
दिव्य दृष्टि
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गुमनाम गायक एवं गायिका...
दिव्यदृष्टि के श्रव्यसंसार में आज मुलाकात करते हैं, गुमनाम गायक एवं गायिका से और उनके बारे में कुछ जानकारियाँ प्राप्त करते हैं। पचास के दशक में गायक सुबीर सेन ने फिल्म आस का पंक्षी, कठपुतली, छोटी बहन, ओये तेरा क्या कहना, मासूम, अर्धांगनी, जैसी कुछ फिल्मों में मधुर गाने गाये ! संगीत प्रेमियों में उनकी आवाज़ को लेकर भ्रम रहा और उनके गाये गीतों को मुकेश और हेमंत कुमार का गाया हुआ समझते रहे ! गायिका रत्ना गुप्ता की आवाज को आप गीता दत्त और मीना कपूर की मिली जुली आवाज़ कहेंगे… लेकिन इस आवाज़ को वह पहचान नहीं मिल पायी और वह गुमनामी में कहीं खो गयी ! रत्ना गुप्ता जी ने हिंदी फिल्मों में कई गाने अलग-अलग अंदाज़ में बखूबी गाये थे ! इसके आलावा गायिका शारदा जी का जन्म दक्षिण भारत में हुआ और फिर वहाँ से ये मुम्बई गयीं और बाद में अपने परिवार के साथ तेहरान चली गयीं। वहीँ राज कपूर से उनकी मुलाकात हुई। तमिल भाषी होने के बावजूद उन्हें हिंदी गीतों में अधिक रूचि थी। वे हिंदी फिल्मों के बारे में अपनी चचेरी बहन से बहुत सुना करती थी। नूरजहाँ के गीत सुनने को वे चाय या पान की दूकान पर भी रुक जाया करतीं। हिंदी बोलना नहीं आता था परन्तु मुम्बई शिफ्ट होने के बाद हिंदी बोलना सीखा। उनकी माता जी को कर्णाटक संगीत का ज्ञान था परन्तु उन्होंने मुम्बई में ही संगीत की शिक्षा ली।
राज कपूर ने उन्हें तेहरान में एक पार्टी में गाते सुना तो उन्हें मुम्बई आने का निमन्त्रण दे डाला। मुम्बई [पहुँच कर उन्होंने आर के स्टूडियो में अपना ऑडिशन दिया, जिसमें उन्होंने बरसात फिल्म का गाना “मुझे किसी से प्यार हो गया” और “बिछुड़े हुए परदेसी” सुनाया। ऑडिशन में उन्हें सुनने वालों में राज जी के अलवा उनकी पत्नी कृष्णा जी और रणधीर और ऋषि कपूर भी थे। यहीं से शारदा जी के लिए फिल्मी दुनिया के दरवाज़े खुल गए।
राज जी ने उन्हें शंकर जयकिशन के पास भेजा जहाँ उन्हें पार्श्व गायन के लिए प्रशिक्षित किया जाने लगा। उनका पहला गाना फिल्म सूरज [1966] में “तितली उडी” था जिस के लिए उन्हें फिल्मफेयर का विशेष अवार्ड भी मिला क्योंकि रफ़ी साहब के नॉमिनेटेड गीत ‘बहारों फूल बरसाओ’ के बराबर वोट मिले थे। ऐसे ही अन्य गुमनाम गायक एवं गायिका के बारे में जानकारी ऑडियो के माध्यम से प्राप्त कीजिए...
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आलेख,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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लघुकथा - बोलती ख़ामोशी - आशीष त्रिवेदी
कथा का अंश...
मैं न्यूज चैनल की तरफ से एक हत्या के मामले को कवर करने गया था. पिछड़े वर्ग के एक व्यक्ति भोला को कुछ दबंगों ने पीट पीट कर मार डाला था. गांव के दलित समाज में इस बात को लेकर बहुत गुस्सा था.
पंचायत के चुनाव होने वाले थे. प्रधान के पद के लिए ठाकुर बाहुल इस गांव में सत्यनारायण सिंह खड़े थे. उनके विरुद्ध दलित समाज से हल्कू महतो चुनाव लड़ रहे थे. भोला उनके प्रचार के लिए दीवारों पर पोस्टर चिपकाने का काम कर रहा था. तभी सत्यनारायण सिंह के समर्थक वहाँ आए और लगे हुए पोस्टर फाड़ने लगे. आपत्ति करने पर उन लोगों ने गाली गलौज आरंभ कर दी. भोला को भी क्रोध आ गया. उसने भी दो चार सुना दीं. इस पर सबने मिल कर उसे खूब पीटा. उसे गंभीर चोटें आईं जिसके कारण उसकी मौत हो गई. चुनावी माहौल मे मामले ने तूल पकड़ लिया.
मैं संबंधित थाने पहुँचा. चैनल को बताते हुए थाना प्रभारी ने कहा "दोषियों को छोड़ा नही जाएगा. चाहें वह कोई भी हों."
गाँव वालों से बात करने के बाद मैं मृतक के घर गया. वहाँ उसकी विधवा से मिला. मैंने उससे भी पूंछ ताछ करनी चाही.
इस अधूरी कहानी को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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लघुकथा
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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विज्ञान कविता – टेलीफोन की खोज – सुधा अनुपम
कविता का अंश...
देश था क्यूबा,
शहर हवाना,
शख्स का नाम था म्यूकी,
जिसने पहला फोन बनाया,
लगी जरूरत क्योंकि।
म्यूकी की बीवी थी अपाहिज,
चल-फिर न पाती थी।
जिसकी चिंता हरदम, हरपल,
म्यूकी को खाती थी।
म्यूकी का जब फोन बना,
वो बैठा था तलघर में।
बीवी थी तीसरे माले पर,
बात हुई पलभर में।
म्यूकी का वो फोन कभी भी,
आम नहीं हो पाया,
सन् 1861 में फिर, फिलीप ने इसे बनाया।
दो खाली टिन के डिब्बों के,
बीच से डाली डोर।
एक किनारे पर एक डिब्बा,
दूजा दूसरी ओर।
जो कुछ बोलो आगे बढ़ता,
धागे के कम्पन से।
ऐसा खेल खेलते आए,
हम सभी बचपन से।
धागा हटकर तार आ गए,
विद्युत का सब खेल।
स्वर लहरी को भेजा जिसने,
वो था ग्राहम बेल।
बेल ने सोचा,
क्यों न अपनी बात को भेजा जाए,
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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कविता,
दिव्य दृष्टि
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सोमवार, 29 अगस्त 2016
कहानी – योगेन पंडित
वास्तव में यह एक बंगाली कहानी है, जिसका हिंदी अनुवाद किया है – उत्पल बैनर्जी ने। इस कहानी में गाँव में प्रचलित पुराने परिवशे की शिक्षा पद्धति का चित्रण किया गया है।
कहानी का अंश… हरिपुर के ओअर प्राइमरी स्कूल के योगेन पंडित को बुढ़ापे में बहुत दुखी होना पड़ा।
नये जमाने के नये चाल-चलन के साथ वे किसी तरह अपना सामंजस्य नहीं बैठा पाए। वे अब भी छात्रों को सबक याद करने के लिए कहते और यदि वे सबक याद नहीं करते तो वे उन्हें थप्पड़ मारते, कान खींचते, बेंत लगाते और बेरहमी से पिटाई भी करते। बदमाश लड़कों को वे पीट-पीट कर अधमरा कर देते। इन सबके अलावा वे एक और काम किया करते थे। इसे वे हमेशा से करते आए थे। स्कूल आकर वे दो-एक घंटे की नींद लिया करते थे। वे लगभग एक कोस दूर एक सुनार के मकान में रहते थे। वहाँ उन्हें रोज देर रात तक जागकर बही-खाते लिखने पड़ते थे। इसके एवज में उन्हें रहने की अनुमति मिलती थी और अनाज भी प्राप्त हो जाता था। अपना खाना वे खुद ही बनाते थे। वे बहुत गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। सभी उनसे डरते भी थे। विद्यार्थी उन्हें चोरी-छिपे भैंसा पंडित कहा करते थे। जैसे काला रंग था, वैसे ही वे ताकतवर भी थे। उनकी दोनों आँखें हमेशा लाल रहती थी। कोई भी उन्हें छेड़ने का साहस नहीं कर सकता था। रोज एक कोस पैदल चल कर वे बारह बजे के आसपास स्कूल पहुँचते। वे बच्चों को मारते जरूर थे पर प्यार भी बहुत करते थे। तनख्वाद तो बहुत कम मिलती थी फिर भी अच्छे बच्चों को पुरस्कार दिया करते थे। गरीब बच्चों को किताबें खरीदकर देते थे। कोई बीमार पड़ जाता तो उनकी देखरेख भी करते। संसार में उनका अपना कोई नहीं था। जो कुछ भी था, वे सब बच्चे ही थे। इसलिए वे उनके बीच ही अपनी जिंदगी गुजार रहे थे। आखिर एक दिन ऐसी क्या घटना घटी कि वे दुखी हो गए और हरिपुर छोड़कर सदा के लिए चले गए? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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प्रेरक प्रसंग – देश का आत्म सम्मान
प्रेरक प्रसंग का अंश….
पंडित जवाहरलाल नेहरु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बने। उन्होंने आजादी की लड़ाई में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे कई बार जेल गए। उन्हें देश की कई जेलों में रखा गया। उनके जीवन का अधिकांश समय जेल में ही बीता। इसलिए वे घर-परिवार से दूर हो गए और अपने परिवार पर पूरा ध्यान नहीं दे पाते थे। एक बार उनकी पत्नी श्रीमती कमला नेहरु गंभीर रूप से बीमार पड़ गई। डॉक्टरों ने उन्हें क्षय रोग से पीडि़त घोषित कर दिया। जब भुवाली सेनिटोरियम में भर्ती करने के बाद भी कोई सफलता नहीं मिली, तो डॉक्टरों ने उन्हें इलाज के लिए स्विटज़रलैंड ले जाने की सलाह दी। पत्नी की बीमारी की खबर सुनकर जवाहरलाल नेहरु बहुत दुखी रहने लगे। वे जेल में थे। कुछ नहीं कर सकते थे। वे चाहते थे कि स्वयं उनकी देखरेख में पत्नी का इलाज करवाएँ। ऐसी परिस्थिति में उनके साथियों ने ब्रिटेश सरकार से अनुरोध किया कि वे जवाहरलाल को जेल से रिहा कर दे, ताकि वे अपनी पत्नी का इलाज करा सकें। ब्रिटिश सरकार ने उनके सामने यह शर्त रखी कि जवाहरलाल स्वयं पेरोल के लिए प्रार्थना पत्र लिखकर दे और इस दौरान राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का वचन भी दें, तो वह उन्हें रिहा कर देगी। जवाहरलाल नेहरु उलझन में पड़ गए। एक तरफ पत्नी की बीमारी और एक तरफ देश के आत्म-सम्मान की बात। वे क्या करे? तब पत्नी कमला नेहरु ने उनका साथ दिया। किस तरह? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
प्रेरक प्रसंग
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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क्रांतिकारी मैना – कैलाश नारद
लेख का अंश…
सन् 1857 के विद्रोह की आग भड़क उठी थी। कानपुर और दिल्ली इसके प्रमुख केन्द्र थे। कानपुर की क्रांति का नेतृत्व नाना साहेब पेशवा कर रहे थे। समूचे देश में फिरंगी साम्राज्यवादियों को उखाड़ फेंकने का विचार पनप रहा था। ऐसी ही स्थितियों में नाना साहेब पेशवा क्रांतिकारियों की प्रेरणा बन गए थे। विद्रोहियों की मदद करने के लिए जब उन्हें कानपुर कुछ समय के लिए छोड़ना पड़ा, तो कानपुर की क्रांति की बागडोर उन्होंने अपनी बेटी मैना को सौंप दी। तब मैना मात्र तेरह वर्ष की थी। पेशवा को अपनी बेटी पर पूरा भरोसा था। तात्या टोपे उन दिनों कानपुर में ही मुकाम कर रहे थे। उनके नेतृत्व में अंग्रेजों पर हमला बोला गया। अंग्रेज पराजित हुए। कानपुर पर विप्लावियों का कब्जा हो गया। अंग्रेजों की हार की सूचना जब इलाहाबाद पहुँची, तो बड़ी तादाद में अंग्रेज सैनिक कानपुर पहुँच गए। मैना ने हिम्मत नहीं हारी। उसने अपने सिपाहियों को कई हिस्सों में बाँट दिया। ये क्रांतिकारी शूरवीर थे। उन्होंने अंग्रेजों पर ताबड़तोड़ हमला बोल दिया। काफी तादाद में अंग्रेज सैनिक मारे गए। लगभग आठ सौ फिरंगी बुरी तरह जख्मी भी हुए। इसी बीच इलाहाबाद से जनरल माउंट तीन हजार सैनिकों के साथ कानपुर आ धमका। क्रांतिकारी गंगा के किनारे बड़ी संख्या में एकत्रित थे। वे आततायियों से मुकाबले की तैयारी कर रहे थे कि तभी उन पर जनरल माउंट के सैनिकों ने आक्रमण कर दिया। माउंट का निशाना तात्या टोपे थे। जो कि क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें घेरना शुरू कर दिया। तात्या टोपे के प्राण संकट में देख उन्हें बचाने का निश्चय किया गया। उनकी रक्षा करना स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य था। वे कुशल रणनीतिकार थे और उनके गिरफ्तार हो जाने का अर्थ था आजादी की लड़ाई का तितर-बितर हो जाना। बिजली की सी गति से मैना फिरंगियों पर टूअ पड़ी। उसके हाथ में नंगी तलवार थी। तेरह वर्ष की वह किशोरी साक्षात् रणचंडी बनकर अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थी। अपने सामने जब मैना के रूप में स्वयं मृत्युदूत को देखा, तो अंग्रेज पीछे हट गए। तात्याटोपे को अंग्रेजों की गिरफ्तारी से छुटकारा मिल गया। वे उनकी घेराबंदी से दूर निकल गए। आगे क्या हुआ? मैना ने अन्य अंग्रेज सैनिकों का मुकाबला किस प्रकार किया? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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आलेख,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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विज्ञान कविता – आइसक्रीम कोन – सुधा अनुपम
कविता का अंश...
अमेरिका के सेंट लुई में,
लगता था एक मेला,
लोग खरीदी करने आते,
लेकर पैसा धेला।
भीषण गरमी के मौसम में,
होती भीड़ अपार,
आइसक्रीम से ठंडक पाते,
होकर जन लाचार।
चार्ल्स मेन्चेज़ बेचा करता,
प्लेटों में आइसक्रीम,
लोग चहककर खाते जैसे,
हो पूरा कोई ड्रीम।
सन् उन्नसी सौ चार मे,
अगस्त माह की घटना,
सेंट लुई यूँ तप रहा था,
ज्यों गरमी में पटना।
अल्ल सुबह से ही मेले में,
जुट गई भीड़ अपार,
आइसक्रीम खाने वालों की,
लगने लगी कतार।
मम्मी-पापा, दादा-दादी,
थे बच्चों के साथ,
चार्ल्स मेन्चेज़ चला रहा था,
जल्दी-जल्दी हाथ।
भाग्य में उसके लिखा हुआ था,
एक अजूबा होना,
प्लेटे सारी जूठी हो गई,
मुश्किल उनका धोना।
ग्राहक सर पर खड़े हुए थे,
करते चीख-पुकार,
कहीं और वे च ले गए तो,
घाटे में व्यापार।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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लघु कथा - रेणू धर्म - अर्चना सिंह ‘जया’
कथा का अंश... आज सुबह से उठकर मेरा मन कुछ अनमना -सा हो रहा था। जैसे-तैसे कर मैंने पति के लिए नाश्ता बनाकर डिब्बे में रख दिया। पति के ऑफिस चले जाने के पश्चात् मैंने अपनी सखी के घर पर फोन किया ,‘हेलो! कामवाली आई है क्या ?’ नम्रता ने कहा ,‘ हॉं, बस अभी ही आई है। कुछ उदास लग रही है।’ ‘अच्छा ! चलो उससे कहना कि मेरा काम जरा पहले कर दे।’ मैंने ऐसा कहते हुए फोन रख दिया । नहा धोकर पहले नाश्ता करने बैठ गई। नाश्ता कर दवा ली और चाय पीने की तलब़ होने लगी कि तभी कॉलबेल बजी।
दरवाजे को खोला तो देखा कि अम्मा सामने खड़ी थी। मैंने कहा,‘अम्मा , चाय पीने की इच्छा हो रही है जरा बना दो ना ,अपने लिए भी बना लेना।’ इतना कह कर मैं बिस्तर पर लेट गई। मैं अब आ गई हॅूं न तुम परेशान ना हो ,दीदी । फिर अम्मा चाय बनाने चल दी। अम्मा ने कहा,‘ आजके आमर बूढ़ा शोरिर टा भालो नेई। सेई जोन्ने मोन टा एकटू भालो नेई।’ दीदी तुम्हारे संग बात कर ही मेरा मन हल्का होता है, तुम ही हो जो मेरी बात समझती हो । हॉं, रेणू का ये कहना बिल्कुल सही था , उसकी बंगाली भाषा मुझे ही समझ आती थी। वो कह रही थी कि उसके बूढ़े की तबीयत ठीक नहीं है। मैंने कहा कि चिंता मत कर सब ठीक हो जाएगा। चाय और रोटी लेकर यहीं पंखे के नीचे आ जा।
अम्मा की उम्र साठ वर्ष के आस-पास की थी ,बेटे बहु वाली थी। उसकी शादी दस वर्ष की थी तब हुई थी। तीन बच्चे भी हुए किन्तु जब उसका तीसरा बेटा हुआ तो पति ने दूसरी शादी कर ली और शराब पीने की लत भी उसी समय से तीव्र हो गई। कोई भी उसे रोक पाने में असमर्थ था । पुरुष को तो गलती करने की जैसे पूर्ण स्वतंत्रता है,अगर स्त्री करे तो संस्कार हीन कहलाएगी। दूसरी शादी से भी उसके दो बच्चे हुए। समय गुजरता गया ,बच्चे सभी बड़े होते गए। बच्चों की भी शादी वगैरह हो गई। उम्र के साथ बूढ़ा कमज़ोर और बीमार रहने लगा। ऐसी स्थिति में अम्मा ने ही उसे संभाला उसकी देख रेख की, दवा-दारु का भी प्रबंध किया। न जाने अम्मा को ही इतनी चिंता क्यों रहती है और दूसरी पत्नी भी तो है। अम्मा तो जी जान से उसकी देखरेख करती। एक दिन अम्मा बीमार अवस्था में ही काम पर आ गई ।
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लघुकथा
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शुक्रवार, 26 अगस्त 2016
बाल कविता - व्यंजन माला - 7 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की। व्यंजनों में ‘क’ वर्ग, ‘च’ वर्ग, ‘ट’ वर्ग, ‘त’ वर्ग और ‘प’ वर्ग और अंतस्थ व्यंजनों के बाद अब बारी है उष्म एवं संयुक्त व्यंजनों की -
श कहे मेरे प्यारे बच्चों,
शब्दकोश क्या है, बताता हूँ,
और इसकी उपयोगिता को भी,
सरल शब्दों में समझाता हूँ।
जिसमें क्रम से रहते बहुत शब्द,
अधिकतर अपने अर्थों के साथ,
किसी-किसी में पर्याय भी होते,
तो किसी-किसी में मुहावरा भी साथ।
कुछ एक भाषा में ही होते,
जैसे- हिंदी-हिंदी शब्दकोश,
तो किसी-किसी में एक से अधिक भाषाएँ होती,
जैसे- हिंदी-अंग्रेजी कोश।
इन्हें कोश कहो या शब्दकोश,
पर ये हैं भाषा के अमूल्य कोष,
इनमें शब्दों का खजाना पाया जाता,
जो हम सबके बड़े काम आता।
यदि किसी शब्द का जानना हो अर्थ,
या दूसरी भाषा में उसके लिए प्रतिशब्द,
तो फटाफट शब्दकोश उठाओ,
और उस शब्द के बारे में सही जानकारी पाओ।
श सेशरीफा खाते जाओ,
रूको नहीं तुम चलते जाओ,
अपने काम करते जाओ,
बढ़ते जाओ, बढ़ते जाओ।
नदी कभी नहीं रुकती है,
वह सदा बहती रहती है,
प्यासों की वह प्यास बुझाती,
अपने मार्ग पर बढ़ते जाती।
वह तुमसे भी यही कहती है,
पढ़ते जाओ, बढ़ते जाओ,
अच्छे काम करते जाओ,
सबके जीवन में खुशियाँ लाओ।
इसी प्रकार उष्म एवं संयुक्त वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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बाल कविता - व्यंजन माला - 6 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की। व्यंजनों में ‘क’ वर्ग, ‘च’ वर्ग, ‘ट’ वर्ग, ‘त’ वर्ग और ‘प’ वर्ग के बाद अब बारी है अंतस्थ व्यंजनों की -
य कहता है , प्यारे बच्चों,
आज विशेषण की बारी है,
शब्द ब्रह्म और ब्रह्म ही शब्द,
शब्दों की दुनिया निराली है।
जो संज्ञा की विशेषता बताए,
वह विशेषण कहलाता है।
संज्ञा के गुण आदि को बताने,
यह उसके साथ आता है।
छोटा, बड़ा, अच्छा, बुरा,
ये विशेषण कहलाते हैं।
इसी तरह के और भी शब्द,
इस श्रेणी में आ जाते हैं।
अगर तुम बनोगे अच्छे तो,
महान, कर्मठ जैसे विशेषण,
तुम्हारे नाम की शोभा बढ़ाएँगे,
अगर तुम बुरे बने तो,
नीच, आलसी जैसे विशेषण,
तुम्हें गर्त में ले जाएँगे।
अच्छे बनो, सच्चे बनो,
और तुम बनो महान,
धीर बनो, तुम वीर बनो,
तुम हो इस देश की शान।
य से यज्ञ करते जाओ,
अच्छी तरह से पढ़ते जाओ,
एक दिन तुम बनोगे महान,
सब गाएँगे तुम्हारा गुणगान।।
य से यज्ञ अगर है करना,
तो आओ हवनकुंड बनाएँ,
सूखी समिधा ला-लाकर,
इसमें हम खूब सजाएँ।
पुस्तक से मंत्र बोल-बोलकर,
आहुति इसमें देते जाएँ,
अच्छे कर्मों को कर-करके,
जीवन अपना सफल बनाएँ।।
इसी प्रकार अंतस्थ वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बाल कविता - व्यंजन माला - 5 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की। व्यंजनों में ‘क’ वर्ग, ‘च’ वर्ग, ‘ट’ वर्ग और ‘त’ वर्ग के बाद अब बारी है ‘प’ वर्ग की - प कहता है, प्यारेलाल,
मेरे पास आओ तुम,
गुड्डी और मुन्नी को भी,
मेरे पास लाओ तुम,
मेरे पास हैं, कुछ खिलौने,
उन्हें लेकर जाओ तुम,
खेलो और खेलाओ सबको,
सबका मन बहलाओ तुम।।
प से पतंग, चलो उड़ाएँ,
हवा से इसकी बात कराएँ,
एक दूसरे से ऊपर ले जाएँ,
हँसी-खुशी हम मन बहलाएँ।।
सर सर सर सर उड़ी पतंग,
हवा से बातें करती पतंग,
बड़ी पूँछ और हरी पतंग,
वह देखो वह मेरी पतंग।
मुन्नू और चुन्नू भी लाए,
बड़ी नीली और पीली पतंग,
आओ मिलजुलकर उड़ाएँ,
पीली, नीली, हरी पतंग।।
इसी प्रकार ‘प’ वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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बाल कविता - व्यंजन माला - 4 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की। व्यंजनों में ‘क’ वर्ग, ‘च’ वर्ग और ‘ट’ वर्ग के बाद अब बारी है ‘त’ वर्ग की -
त कहता है, प्यारे बच्चों,
तुम बनो सबके दुलारे,
अच्छे काम करते जाना,
मेहनत से पढ़ते जाना।
सूर्य जैसा तुम चमकोगे,
गुलाब जैसा तुम महकोगे,
प्यार करे तुम्हें दुनिया सारी,
तुम्हारी सूरत लगे सबको प्यारी।
त से तकली, त से तराजू,
तराजू से वह तौल रहा काजू,
तकली से सूत काता जाता,
तराजू तौलने के काम आता।
त से तकली, नाच रही है,
देखो सूत वह कात रही है,
जैसे-जैसे नाचते जाती,
वैसे-वैसे सूत कातते जाती।
माँ उस सूत को लपेटा करती,
और उसका गुच्छा बनाती,
इस सूत से जनेऊ भी बनते,
जिसे हम कुछ लोग पहनते।
इसी प्रकार ‘त’ वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बाल कविता - व्यंजन माला - 3 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की। व्यंजनों में ‘क’ वर्ग और ‘च’ वर्ग के बाद अब बारी है ‘ट’ वर्ग की - ट कहता है, टन, टन, टन,
कौवा घंटी बजा रहा है,
कबूतर, कोयल, मैना के संघ,
मुर्गा भी स्कूल जा रहा है।
आज चील अध्यापकजी,
गणित के सवाल बताएँगे,
और कठफोड़वा गुरुजी भी,
हमें एकता का पाठ पढ़ाएँगे।
हम मन लगाकर करें पढ़ाई,
जीवन होगा सदा सुखदाई,
सब करेंगे अपना गुणगान,
हम होंगे अपने देश की शान।
ट से टमाटर, ट से टट्टू,
सुन लो प्यारे, गोलू, पप्पू,
राधा, रानी तुम भी सुन लो,
जल्दी-जल्दी तुम भी पढ़ लो,
पढ़ना-लिखना है सुखदाई,
इसी से मिलती सभी बढ़ाई।।
इसी प्रकार ‘ट’ वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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बाल कविता - व्यंजन माला - 2 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की, ‘क’ वर्ग के बाद अब बारी है ‘च’ वर्ग की - च कहता है चाँद बनो तुम,
चाँद जैसे काम करो तुम,
जब सूरज डूब जाता है,
अंधकार फैल जाता है,
तब चाँद आ जाता है,
रोशनी कर जाता है।
च से चरखा होता है,
इससे सूत बनता है,
गाँधीजी इसे चलाते थे,
स्वदेशी की बात बताते थे।
चरखे से बना सूत,
सूत से बना कपड़ा,
कपड़े से बनी टोपी,
जिसे पहने है गोपी।
इसी प्रकार ‘च’ वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
बाल कविता - व्यंजन माला - 1 - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। स्वरों के बारे में जानकारी प्राप्त् कर लेने के बाद अब बारी है व्यंजनों की, तो शुरूआत करते हैं ‘क’ वर्ग से -
क कहता है, काम करो तुम,
मत घुमो, खूब पढ़ो तुम,
पढ़ना-लिखना है सुखदाई,
इसी से मिलती सभी बढ़ाई।
क से कमल का फूल,
जो है हमारा राष्ट्रीय फूल,
यह जल में खिलता है,
कितना अच्छा लगता है।
क, का, कि, की,
चल दूध पी,
कु, कू, के, कै,
बोल भारत की जै,
को, कौ, कं, कः,
घर में हिलमिलकर रह।
इसी प्रकार ‘क’ वर्ग के अन्य व्यंजनों के बारे में ऑडियो के माध्यम से जानकारी प्राप्त कीजिए...
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बाल कविता - स्वर माला - प्रभाकर पाण्डेय ‘गोपालपुरिया’
दिव्य दृष्टि के श्रव्य संसार में कविता के माध्यम से हिंदी भाषा के वर्णों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, वर्णों के अंतर्गत स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं। मानक हिंदी के वर्णमाला के अनुसार देवनागरी लिपि में 11 स्वर, 2 अयोगवाह अं और अ: तथा 35 व्यंजन, 4 संयुक्त व्यंजन और 3 आगत ध्वनियाँ शामिल हैं। इस प्रकार हिंदी वर्णमाला के वर्णों की संख्या 55 है। यहाँ हम सबसे पहले बात करेंगे स्वरों की। 'अ' कहता है,
अब मत सोओ,
सही समय है,
इसे ना खोओ,
पढ़ने में लग जाओ,
परीक्षा में अव्वल आओ।
अनार है एक अच्छा फल,
अभी खाओ, कहो ना कल,
कल पर कोई काम न छोड़ो,
मेहनत से तुम मुँह मत मोड़ो,
मेहनत का फल है सुखदायक,
शांति और संपन्नता का दायक।
इसी प्रकार अन्य स्वरों के बारे में जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजीए...
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गुरुवार, 25 अगस्त 2016
बाल कविता - दादी - - आभा सक्सेना
कविता का अंश...
दादी तुम कितनी अच्छी हो,
पापा की प्यारी मम्मी हो ।
मम्मी जब गुस्सा होती हैं,
खूब मुझे डाँटा करती हैं।
आ जाती हो तुरन्त वहां पर,
मम्मी डांटती मुझे जहाँ पर।
मेरी सिफारिश कर देती हो़,
दादी तुम कितनी अच्छी हो।
रात होतेे ही सर्दियों में
घुस जाती हो रजाई में
हमें वहीं बुला लेती हो
रज़ाई की गर्माई में
साथ हमें भी सुला लेती हो
दादी तुम कितनी अच्छी हो।।
गालों में पड़ते जो गड्डे
मुझे बहुत भले लगते हैं
चाँदी जैसे बाल तुम्हारे
मुझे बहुत अच्छे लगते हैं
परियों की रानी लगती हो
दादी तुम कितनी अच्छी हो।।
तुम मेरी अच्छी दादी हो
लगती तुम सीधी सादी हो
सुना सुना कर ढेर कहानी
मेरा मन बहला देती हो
दादी तुम कितनी अच्छी हो।।
अपने बटुये से निकाल झट
पाँच रुपैया दे देती हो
टॉफी और बिस्किट खाने की
तुरंत इज़ाज़त दे देती हो
तुम भी हम संग खा लेती हो
दादी तुम कितनी अच्छी हो
पुपला कर तुम बोला करतीं
बातों में रस घोला करतीं
नहीं चलातीं तुम मनमानी
करतीं वही जो हमने ठानी
बच्चों संग बच्चा बनती हो
दादी तुम कितनी अच्छी हो।।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
संपर्क - ई-मेल : abhasaxena08@yahoo.com
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बाल कविता
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बाल कविता - नाच रहा जंगल में मोर - पुरुषोत्तम तिवारी
कविता का अंश...
हरा सुनहरा नीला काला रंग बिरंगे बूटे वाला,
चमक रहा है कितना चमचम इसका सुन्दर पंख निराला।
लंबी पूंछ मुकुट धर सिर पर भीमाकार देह अति सुन्दर,
कितनी प्यारी छवि वाले ये इन पर मोहित सब नारी नर।
वर्षा ऋतु की जलद गर्जना सुनकर होकर भाव विभोर,
नाच रहा जंगल में मोर बच्चों तुम मत करना शोर।
सुनकर यह आवाज तुम्हारी तुम्हें देखकर डर जाएगा,
अपने प्राणों की रक्षा में कहीं दूर यह भग जाएगा।
फिर कैसे तुम देख सकोगे मनमोहक यह नृत्य मोर का,
देखो कैसे देख रहा है दृश्य घूमकर सभी ओर का।
नृत्य कर रहा कितना सुन्दर अपने पंखों को झकझोर,
नाच रहा जंगल में मोर बच्चों तुम मत करना शोर।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
संपर्क - ई-मेल - ptsahityarthi@rediffmail.com
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बाल कविता
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जन्माष्टमी पर्व विशेष - सूरदास के पद
मैं नहिं माखन खायो
मैया! मैं नहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो|
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
ऐसे ही अन्य वातसल्य पूर्ण पदों का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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दिव्य दृष्टि
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मंगलवार, 23 अगस्त 2016
बाल कहानी – जन्मदिन का उपहार – किशोर तारे
कहानी का अंश….
मिनी चूहा और बिल्लू बिल्ला दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे। दोनों का जन्मदिन भी एक ही दिन आता था। सारे दोस्त आ-आकर बिल्लू को बधाई दे रहे थे। वह बहुत खुश था। फिर वह अपने दोस्त मिनी को जन्मदिवस की बधाई देने के लिए घर से निकल पड़ा। मिनी चूहा अपने भाई-बहनों और माता-पिता के साथ नदी किनारे रहता था। वह बेसब्री से अपने मित्र बिल्लू बिल्ला का इंतजार कर रहा था। दोनों ने जब एक-दूसरे को देखा तो खुशी के मारे चिल्ला पड़े – हेप्पी बर्थ डे टू यू। बिल्लू और मिनी की दोस्ती पूरे जंगल में मशहूर थी। दोनों ने एक-दूसरे को जन्मदिवस की मुबारकबाद दी। फिर मिनी अपने दोस्त बिल्लू को अपने घर ले गया। वहाँ उसकी मम्मी ने उन दोनों के लिए मिठाई बनाई थी। मिठाई के साथ-साथ उन्हें खूब सारा आशीर्वाद भी दिया। दोनों दोस्त फिर खेलने के लिए बाहर निकल पड़े। खेलते-खेलते बहुत देर हो गई। अब बिल्लू को अपने घर की याद आई। पापा उसका इंतजार कर रहे होंगे। उन्होंने शाम को स्पेशल चीज बनवाने के लिए बोला है। पता नहीं क्या बनाएँगे। बिल्लू ने अपने दोस्त मिनी को भी शाम को घर आने की दावत दी और वह अपने घर की ओर चल पड़ा। जब पापा ने उसे प्यार से गले लगाया तो पापा के प्रति उसका डर खत्म हुआ। उसने पापा से पूछा कि वे उसे क्या स्पेशल चीज देंगे? लेकिन पापा ने शाम को ही पता चलेगा कह कर उसे खेलने भेज दिया और वे मम्मी के साथ मिलकर शाम की दावत की तैयारी में लग गए। बिल्लू ने घर के अंदर जाकर दूध पिया और बाहर खेलने के लिए निकल पड़ा। जब वह बाहर निकल रहा था तो उसने मम्मी-पापा के बीच होने वाली बातचीत सुन ली। बातचीत सुनकर वह परेशान हो गया। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। वह क्या करे? आखिर बिल्लू ने ऐसी क्या बात सुनी कि वह परेशान हो गया? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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सोमवार, 22 अगस्त 2016
लोक कथा – सोने का प्याला
कथा का अंश…
सनद खान पुरानी जगह को छोड़कर अपने लोगों और रेवड़ों को साथ लेकर दूर-दराज के उत्तरी इलाकों की ओर रवाना हो गया। इन्हीं लोगों के साथ सिरेन के घोड़े की पीठ पर लदे हुए चमड़े के एक बोरे में बंद सिरेन के पिता भी जा रहे थे। सिरेन दूसरों की नजर बचाकर अपने पिता को कुछ खिला-पिला देता और जब वे पड़ाव डालते तो वह अच्छी तरह से अंधेरा हो जाने पर अपने पिता को बोरा खोलकर उसमें से बाहर निकालता ताकि वे कुछ देर आराम कर सके। इस तरह सफर करते हुए बहुत वक्त बीत गया। वे आखिर एक बहुत बड़े समुद्र के किनारे पहुँच गए। सनद खान ने अपने लोगों को वहाँ पड़ाव डालने के लिए कहा। खान का एक नौकर तट पर गया। उसे सागर के तल में कोई चमकती-दमकती चीज दिखाई दी। जब उसने बड़े ध्यान से देखा तो पाया कि वह गैर मामूली शकल का एक बहुत बड़ा सोने का प्याला है। वह फौरन भागकर अपने मालिक सनद खान के पास पहुँचा और उसे सागर के तल में सोने का प्याला होने की बात बताई। सनद खान ने न कुछ सोचा न विचारा, बस फौरन ही यह फरमान जारी कर दिया कि सोने का प्याला फौरन उसे लाकर दिया जाए। चूँकि कोई भी समुद्र में गोता लगाने को तैयार नहीं था, किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वे ऐसा दुष्कर कार्य करे, इसलिए सनद खान ने उनके नामों की पर्चियाँ निकाली। खान के एक नौकर के नाम की ही पर्ची निकली। उस आदमी ने गोता लगाया लेकिन वह बाहर नहीं आया। उन्होंने फिर से पर्चियाँ डाली। इस बार जिस आदमी के नाम की पर्ची निकली, वह एक खड़ी चोटी पर से समुद्र में कूदा, मगर वह भी समुद्र से बाहर नहीं आया। ऐसा करते-करते कितने ही लोग अपनी जान से हाथ गँवा बैठे। मगर जालिम सनद खान को एक बार भी अपना खतरनाक इरादा बदलने का खयाल नहीं आया। उसके हुक्म के मुताबिक एक के बाद एक लोग अपनी जान देते रहे। आखिर सोने के प्याले को लाने के लिए सिरेन की बारी आई। वह अपने पिता के पास विदा लेने के लिए गया। उसने पिता से कहा – अलविदा, अब्बू जान। अब हम दोनों ही मौत के मुँह में जाने वाले हैं। मुझे प्याले के लिए समुद्र में गोता लगाना होगा और मेरे जाते ही सनद खान के नौकर आपको खोज लेंगे। आप भी मारे जाएँगे और गोता न लगा पाने के कारण मैं भी मारा जाऊँगा। हम दोनों की मृत्यु निश्चित है। क्या ऐसा ही हुआ? क्या सनद खान ने अब्बू को मार दिया? क्या सिरेन भी प्याला खोजने के लिए मारा गया? प्याला सनद खान को मिला कि नहीं? इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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दिव्य दृष्टि
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डॉ. कमलेश द्विवेदी की दो कविताएँ….
कविता का अंश..
अपनी साँसों के, अपनी धड़कन के गीत लिखूँ मैं,
जब-जब तुमसे मुलाकात हो, मन के गीत लिखूँ मैं।
कितना प्यार दिया है तुमने, कितना प्यार दिया है।
मैंने जो भी चाहा, तुमने वो अधिकार दिया है।
यूँ ही मुझसे बँधे रहो, बंधन के गीत लिखूँ मैं।
पतझर के मौसम में भी सावन के गीत लिखूँ मैं।
जब भी कभी सामने बैठो, मैं बस तुम्हें निहारूँ।
पल-पल खुद को देखूँ, पल-पल अपना रूप सँवारूँ।
ऐसे मुझे सँवारों तो दरपन के गीत लिखूँ मैं।
मेरे और तुम्हारे अपनेपन के गीत लिखूँ मैं।
इस अधूरी कविता के साथ-साथ ऐसी ही मधुर रस बरसाती कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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लघुकथा - देवी नागरानी
मित्रो, हमारी ब्लॉग मित्र देवी नागरानी जी ने अपनी आवाज में यह ऑडियो भिक्षा पात्र और असली शिकारी हमें भेजे हैं। इस सहयोग के लिए उनका आभार प्रकट करते हुए हम ये ऑडियो आप तक पहुँचा रहे हैं। अाप भी इन रचनाओं का आनंद लीजिए...
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विचित्र बरसातें… - दिपांशु जैन
लेख का अंश…
बारिश की टप-टप बूँदें हों या मूसलाधार बारिश, भला किसे ये अच्छी नहीं लगती? बारिश के पानी में नाव दौड़ाने, छप-छपाक खेलने में बच्चों को एक अनोखा आनंद आता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बरसातें भी अलग-अलग किस्म की होती हैं? ऐसे ही बरसात के मौसम में एक दिन प्रात:काल वर्षा की भीनी फुहारों से उत्तरी असम के लोग उल्लसित नींद की खुमारी छोड़कर सड़कों पर आए, तो देखकर दंग रह गए कि वर्षा के तेज होने के साथ ही आकाश से मछलियों की बरसात होने लगी। तरह-तरह की छोटी-बड़ी मछलियाँ बच्चे-बूढ़े लूटने लगे। यह बरसात करीब एक घंटे तक चली। ऐसी विचित्र बरसात हर गाँव-मोहल्ले में नहीं होती। यह तो कभी-कभी, कहीं-कहीं होती है और प्रकृति की विचित्रताओं का अहसास छोड़ जाती है। मलाया के मर्सिंग शहर में काली बरसात हुई। वहां के झरने, छोटे-बड़े गड़ढे सब काले जल से भर गए। सन 1950 में मध्य लंका के कैंडी शहर में पीली वर्षा हुई। जिन पर वर्षा का पानी पड़ा था, पीले रंग के धब्बे पड़ गए। यद्यपि यह पीली वर्षा कुछ ही मिनट हुई लेकिन सारे शहर में पीला-पीला पानी सड़कों पर जमा हो गया। वैज्ञानिकों के अनुसार हवा द्वारा उठाए गए पराग कणों के कारण यह वर्षा हुई थी। सन 1951 में तामलुक शहर में भी इसी प्रकार की पीली वर्षा हुई। घरों की छतों, दीवारों पर पीली धारियाँ बन गईं। यह पीली वर्षा शहर के थोड़े भाग में ही हुई। जुलाई 1957 में केरल के अम्लालयुवेयिल शहर में वर्षा के पानी का रंग लाल पाया गया। उसमें काफी रेडियोधर्मिता थी। अगस्त में उसी शहर में फिर से लाल वर्षा हुई, जिसकी बूँदे बाद में पीली हो गई। इसी प्रकार मेंढ़कों, मछलियों की बरसात सन 1794 की गर्मियों में फ्रांस के लाले नामक गाँव में हुई। उन दिनों आस्ट्रिया और फ्रांस में युद्ध चल रहा था। 150 फ्रांसीसी सैनिक खंदकों में छिपे दुश्मनों से लोहा ले रहे थे कि अचानक तेज बारिश शुरू हो गई और साथ ही मछलियाँ और मेंढ़क भी टपकने शुरू हुए, जो सैनिकों की टोपियों में घुसकर उन्हें परेशान करने लगे। ऐसी ही विचित्र बरसातों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए, इस ऑडियो के माध्यम से….
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जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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बाल कविता – बादल आए…
कविता का अंश…
बादल आए, बादल आए
साथ में अपने पानी लाए।
चिंटू, मिंटू, बिट्टू झूमे,
झम-झम, झम-झम
ये बादल झूमते आए।
चिंकी, मिंकी, पिंकी नाचे,
झर-झर, झर-झर ये झरते जाए।
ठंडी-ठंडी हवा भी साथ लाए,
मन भीगा-भीगा बहता जाए।
खुशियों का संदेशा साथ लाए,
हम तुम, तुम हम गाते जाएँ।
बादल भूरे, काले हैं,
खूब बरसने वाले हैं।
शहरों और पहाड़ों पर,
सारे जंगल झाड़ों पर।
छमक-छमक बरसातें होंगी,
हरियाली की बातें होंगी।
भूल जाओं कि रोज
चाँद-सितारों की रातें होंगी।
घटाएँ घनघोर होंगी,
दुबके-सहमे हम होंगे और
मेंढकों की टर्र-टर्र होंगी।
लेकिन हमें बताओं तो,
थोड़ा यह समझाओ तो,
बादल आते कैसे हैँ?
नील गगन में छाते कैसे हैं?
संग अपने पानी लाते कैसे हैं?
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
विज्ञान कविता – रोलर स्केट्स – सुधा अनुपम
कविता का अंश…
लहराते, टकराते, झूमे,
चुन्नू, मुन्नू, राजू, मुनिया,
उड़े पहनकर पैर में पहिए,
बाबू, ये स्केट्स की दुनिया।
बेल्जियम का जोसेफ मर्लिन,
इस खेल का प्रथम खिलाड़ी।
पहुँचा बॉलरूम में नचने,
हाथ में वायलिन, पैर में गाड़ी।
पहिए रोल हुए कुछ ऐसे,
न रूक पाए, न मुड़ पाए।
मर्लिन भेया ऐसे फिसले,
जाकर शीशे से टकराए।
वायलिन टूटा, खुद भी टूटे,
भूल गए पहियों पर चढ़ना।
कथा यहीं पर खत्म न हुई,
उसको तो परवान था चढ़ना।
तिरसठ साल गुजर जाने पर,
स्केट्स लौटे रेस में।
रॉबर्ट टायर दौड़ा इन पर,
इंग्लैंड नामक देस में।
मौज, मजा और धूम-मस्ती,
खुलकर उसने गदर किया।
एक के पीछे एक जुड़े थे,
पाँच व्हील पर सफर किया।
चार व्हील स्केट्स का प्रचलन,
चालीस बरसों बाद हुआ।
जेम्स प्लिमटन नामक नर ने,
नए सिर से इसे छुआ।
लकड़ी के पहियों पर उसने,
खोल रबर का चढ़ा दिया।
नई खोज ने उसका रूतबा,
चहुँ दिशा में बढ़ा दिया।
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बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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शुक्रवार, 19 अगस्त 2016
तेनालीराम और कुबड़ा धोबी
कहानी का अंश...
तेनालीराम ने कहीं सुना था कि एक दुष्ट आदमी साधु का भेष बनाकर लोगों को अपने जाल में फंसा लेता है। उन्हें प्रसाद में धतूरा खिला देता है। यह काम वह उनके शत्रुओं के कहने पर धन के लालच में करता था। धतूरा खाक कर कोई तो मर जाता और कोई पागल हो जाता।
उन दिनों भी उसके धतूरे के प्रभाव से एक व्यक्ति पागल होकर नगर की सड़कों पर घूमा करता था। लेकिन धतूरा खिलाने वाले व्यक्ति के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं था, इसलिए वह खुलेआम सीना तानकर चला करता। तेनालीराम ने सोचा कि ऐसे व्यक्ति को अवश्य दंड मिलना चाहिए।
एक दिन जब वह दुष्ट व्यक्ति शहर की सड़कों पर आवारागर्दी कर रहा था, तोतेनालीराम उसके पास गया और उसे बातों में उलझाए रखकर उस पागल के पास ले गया जिसे धतूरा खिलाया गया था। वहां जाकर चुपके से तेनालीराम ने उसका हाथ पागल के सिर पर दे मारा।
उस पागल ने आव देखा न ताव, उस आदमी के बाल पकड़कर उसका सिर पत्थर पर टकराना शुरू कर दिया। पागल तो था ही, उसने उसे इतना मारा कि वह पाखंडी साधु मर गया।
मामला राजा तक पहुंचा। राजा ने पागल को तो छोड़ दिया, लेकिन क्रोध में तेनालीराम को यह सजा दी कि इसे हाथी के पांवों से कुचलवाया जाए, क्योंकि इसी ने इस पागल का सहारा लेकर साधु के प्राण ले लिए।
दो सिपाही तेनालीराम को शाम के समय एक सुनसान एकांत स्थान पर ले गए और उसे गरदन तक जमीन में गाड़ दिया। इसके बाद वे हाथी लेने चले गए। उन्होंने सोचा कि अब यह बच भी कैसे सकता है!
कुछ देर बाद वहां से एक कुबड़ा धोबी निकला। उसने तेनालीराम से पूछा, ‘क्यों भाई यह क्या तमाशा है? तुम इस तरह जमीन में क्यों गड़े हो?’ आखिर तेनालीराम ने उस धोबी की बात का क्या जवाब दिया होगा? तेनालीराम को क्या सचमुच सिपाहियों ने हाथी के पैरों तले कुचलकर मार डाला? क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद से इस अधूरी कहानी को पूरा सुनिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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तेनाली राम की कथा
कहानी का अंश...
कोई छह सौ वर्ष पुरानी बात है। विजयनगर का साम्राज्य सारी दुनिया में प्रसिद्ध था। उन दिनों भारत पर विदेशी आक्रमणों के कारण प्रजा बड़ी मुश्किलों में थी। हर जगह लोगों के दिलों में दुख-चिंता और गहरी उधेड़-बुन थी। पर विजयनगर के प्रतापी राजा कृष्णदेव राय की कुशल शासन-व्यवस्था, न्याय-प्रियता और प्रजा-वत्सलता के कारण वहाँ प्रजा बहुत खुश थी। राजा कृष्णदेव राय ने प्रजा में मेहनत और सद्गुणों के साथ-साथ अपनी संस्कृति के लिए स्वाभिमान का भाव पैदा कर दिया था, इसलिए विजयनगर की ओर देखने की हिम्मत किसी विदेशी आक्रांता की नहीं थी। विदेशी आक्रमणों की आँधी के आगे विजयनगर एक मजबूत चट्टान की तरह खड़ा था। साथ ही वहाँ लोग साहित्य और कलाओं से प्रेम करने वाले तथा परिहास-प्रिय थे।
उन्हीं दिनों की बात है, विजयनगर के तेनाली गाँव में एक बड़ा बुद्धिमान और प्रतिभासंपन्न किशोर था। उसका नाम था रामलिंगम। वह बहुत हँसोड़ और हाजिरजवाब था। उसकी हास्यपूर्ण बातें और मजाक तेनाली गाँव के लोगों को खूब आनंदित करते थे। रामलिंगम खुद ज्यादा हँसता नहीं था, पर धीरे से कोई ऐसी चतुराई की बात कहता कि सुनने वाले हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते। उसकी बातों में छिपा हुआ व्यंग्य और बड़ी सूझ-बूझ होती। इसलिए वह जिसका मजाक उड़ाता, वह शख्स भी द्वेष भूलकर औरों के साथ खिलखिलाकर हँसने लगता था। यहाँ तक कि अकसर राह चलते लोग भी रामलिंगम की कोई चतुराई की बात सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।
अब तो गाँव के लोग कहने लगे थे, ‘‘बड़ा अद्भुत है यह बालक। हमें तो लगता है कि यह रोते हुए लोगों को भी हँसा सकता है।
रामलिंगम कहता, ‘‘पता नहीं, रोते हुए लोगों को हँसा सकता हूँ कि नहीं, पर सोते हुए लोगों को जरूर सकता हूँ।’’
सुनकर आसपास खड़े लोग ठठाकर हँसने लगे।
यहाँ तक कि तेनाली गाँव में जो लोग बाहर से आते, उन्हें भी गाँव के लोग रामलिंगम के अजब-अजब किस्से और कारनामे सुनाया करते थे। सुनकर वे भी खिलखिलाकर हँसने लगते थे और कहते, ‘‘तब तो यह रामलिंगम सचमुच अद्भुत है। हमें तो लगता है कि यह पत्थरों को भी हँसा सकता है!’’
गाँव के एक बुजुर्ग ने कहा, ‘‘भाई, हमें तो लगता है कि यह घूमने के लिए पास के जंगल में जाता है, तो वहाँ के पेड़-पौधे और फूल-पत्ते भी इसे देखकर जरूर हँस पड़ते होंगे।’’
एक बार की बात है, रामलिंगम जंगल में घूमता हुआ माँ दुर्गा के एक प्राचीन मंदिर में गया। उस मंदिर की मान्यता थी और दूर-दूर से लोग वहाँ माँ दुर्गा का दर्शन करने आया करते थे।
रामलिंगम भीतर गया तो माँ दुर्गा की अद्भुत मूर्ति देखकर मुग्ध रह गया। माँ के मुख-मंडल से प्रकाश फूट रहा था। रामलिंगम की मानो समाधि लग गई। फिर उसने दुर्गा माता को प्रणाम किया और चलने लगा। तभी अचानक उसके मन में एक बात अटक गई। माँ दुर्गा के चार मुख थे, आठ भुजाएँ थीं। इसी पर उसका ध्यान गया और अगले ही पल उसकी बड़े जोर से हँसी छूट गई।
देखकर माँ दुर्गा को बड़ा कौतुक हुआ। वे उसी समय मूर्ति से बाहर निकलकर आईं और रामलिंगम के आगे प्रकट हो गईं। बोलीं, ‘‘बालक, तू हँसता क्यों है ?’’
रामलिंगम माँ दुर्गा को साक्षात सामने देखकर एक पल के लिए तो सहम गया। पर फिर हँसते हुए बोला, ‘‘क्षमा करें माँ, एक बात याद आ गई, इसीलिए हँस रहा हूँ।’’
‘‘कौन सी बात ? बता तो भला !’’ माँ दुर्गा ने पूछा।
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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बाल कहानी – सुबह सलोनी… - अहद प्रकाश
कहानी का अंश…
एक थी सुनहरी चिड़िया। नदी किनारे उसका घोंसला था। नन्हें-मुन्ने बच्चे थे। बड़ा प्यारा परिवार था उसका। सूरज निकलने से पहले ही सुनहरी चिडिया अपने बच्चों को जगा देती। बच्चे चीं चीं चीं करते हुए अपनी आँखें खोलते और बोलते – नहीं, नहीं हमें अभी और सोने दो। हमें नींद आ रही है। सुनहरी चिड़िया बोलती – देखो सूरज की किरणें कब की आँगन में नाच रही है। खूबसूरत फूलों पर ओस की बूँदें झिलमिला रही हैं। बहुत सारे फूल खिले हैं। वह सब के सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। चलो, चलो अब हम ज्वार के खेत में जाएँगे। ज्वार के दाने चुगेंगे। उठो, उठो जल्दी उठो। लेकिन बच्चे तो आलस करते हुए फिर से आँखें बंद कर सो जाते। चिड़िया को उन पर प्यार भी आता और गुस्सा भी। वह सोचती - देखो कितनी प्यारी सुबह है। लेकिन सुस्ती है कि इनका पीछा ही नहीं छोड़ती है। सोना, सोना और केवल सोना। नींद के अलावा इन्हें कुछ और सूझता ही नहीं है। इनके कारण मैं भी घोंसले में कैद होकर रह गई हूँ। आखिर ऐसा कब तक चलेगा। वह मन ही मन ये बातें सोचती और परेशान हो जाती। नीचे नदी में उसकी प्यारी दोस्त नीली मछली रहती थी। एक दिन नीली मछली ने उससे पूछा – चिड़िया रानी क्या तुम अभी तक सो रही हो? देखो सूरज कितना चढ़ आया है। उसकी बातें सुनकर सुनहरी चिड़िया शर्मिंदा हुई। क्या उसने अपनी परेशानी नीली मछली को बताई? क्या नीली मछली ने उसकी बातों को गंभीरतापूर्वक सुना? क्या उसने अपनी सहेली की मदद की? इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए इस अधूरी कहानी को पूरा सुनिए ऑडियो की मदद से…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
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विज्ञान कविता – पेण्डुलम घड़ी – सुधा अनुपम
कविता का अंश…
कभी-कभी छोटी सी घटना,
बन जाती है कारण।
कभी रोज की बातें करती,
खोजों का निर्धारण।
सन् पंद्रह सौ तिरासी और
बात है ये इटली की।
घंटे से लटकी रस्सी की,
नहीं किसी सूतली की।
चर्च की बैंच में बैठे-बैठे,
एक दिन एक युवक ने देखा,
झूल रही थी रस्सी, जिसकी
लय में था एक टेका।
रस्सी के दोलन संग,
उसने अपनी नब्ज़ टटोली,
दोनों में एकरसता थी,
ये बात उजाबर हो ली।
उसने पाया हर दोलन में,
समय बराबर लगता।
जहन में उसके कुछ करने का,
कीड़ा क्यों न जगता।
दोलन को आधार बनाकर,
उसने की एक रचना।
समय का भी इस नई खोज से,
मुश्किल हो गया बचना।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
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