सोमवार, 15 अगस्त 2016
सारा देश हमारा... - बालकवि बैरागी
कविता का अंश...
केरल से करगिल घाटी तक
गौहाटी से चौपाटी तक
सारा देश हमारा
जीना हो तो मरना सीखो
गूँज उठे यह नारा -
केरल से करगिल घाटी तक
सारा देश हमारा,
लगता है ताज़े लोहू पर जमी हुई है काई
लगता है फिर भटक गई है भारत की तरुणाई
काई चीरो ओ रणधीरों!
ओ जननी की भाग्य लकीरों
बलिदानों का पुण्य मुहूरत आता नहीं दुबारा
जीना हो तो मरना सीखो गूँज उठे यह नारा -
केरल से करगिल घाटी तक
सारा देश हमारा,
घायल अपना ताजमहल है, घायल गंगा मैया
टूट रहे हैं तूफ़ानों में नैया और खिवैया
तुम नैया के पाल बदल दो
तूफ़ानों की चाल बदल दो
हर आँधी का उत्तर हो तुम, तुमने नहीं विचारा
जीना हो तो मरना सीखो गूँज उठे यह नारा -
केरल से करगिल घाटी तक
सारा देश हमारा,
कहीं तुम्हें परबत लड़वा दे, कहीं लड़ा दे पानी
भाषा के नारों में गुप्त है, मन की मीठी बानी
आग लगा दो इन नारों में
इज़्ज़त आ गई बाज़ारों में
कब जागेंगे सोये सूरज! कब होगा उजियारा
जीना हो तो मरना सीखो, गूँज उठे यह नारा -
केरल से करगिल घाटी तक
सारा देश हमारा...
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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