सोमवार, 1 अगस्त 2016
कहानी - शुभ घड़ी - आशीष कुमार त्रिवेदी
कहानी का अंश...
शर्माजी शादी का कार्ड देख रहे थे. उनके परम मित्र रघुवर टंडन की बेटी का विवाह अगले हफ्ते था. टंडनजी ने कल फोन पर भी निमंत्रण दिया था और अभी कुछ समय पहले ही कूरियर से यह कार्ड भी आ गया.
शर्माजी सोच में पड़ गए. इधर स्वास्थ्य कुछ अच्छा नहीं था. ऐसे में दिल्ली जाना कठिन था. वैसे फोन पर उन्होंने अपनी समस्या समझा दी थी. किंतु टंडनजी घनिष्ठ मित्र थे. किसी को तो जाना ही चाहिए.
वह अपनी बेटी गायत्री को भेजने के विषय में सोचने लगे. जब से उसका अपने पति से तलाक हुआ था उसने स्वयं को एक दायरे में कैद कर लिया था. काम पर जाने के अतिरिक्त वह बहुत कम ही घर से बाहर निकलती थी. ना किसी से मिलना ना बात करना. बस अपने में खोई रहती थी. शर्माजी को उसकी इस दशा से बहुत कष्ट होता था. कहीं ना कहीं वह इसके लिए स्वयं को दोषी मानते थे.
शाम को जब गायत्री लौटी तो उन्होंने दिल्ली जाने के विषय में उससे बात की.
"तुम्हें तो पता है कि मेरा स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं है. मेरा जाना तो कठिन होगा. तुम चली जाती तो अच्छा होता."
कुछ देर सोचने के बाद गायत्री बोली "आप तो जानते हैं ना पापा अब मेरा कहीं भी आने जाने का मन नहीं करता."
शर्माजी कुछ गंभीर स्वर में बोले "तेरी पीड़ा समझता हूँ बेटी. पर ऐसे कब तक चलेगा. बीते को भुला कर आगे बढ़ना ही समझदारी है. तुम जाओगी तो तुम्हारा मन भी बहल जाएगा और उन्हें भी खुशी मिलेगी."
कुछ क्षण रुक कर बोले "बाकी तुम्हारी इच्छा. मैं ज़ोर नहीं दूँगा."
गायत्री अपने कमरे में आ गई. वह अपने पिता की बात पर विचार करने लगी. टंडन अंकल ने सदैव उसे बेटी की तरह माना था. उनके अच्छे पारिवारिक संबंध थे. यदि पापा नहीं जा सकते तो उसे ही जाना चाहिए. बहुत सोच विचार के बाद वह जाने को तैयार हो गई.
गायत्री को देख सभी बहुत प्रसन्न हुए. खासकर रुची वह दौड़ कर उसके गले लग गई. आज रुची की हल्दी की रस्म थी. सभी रस्में टंडनजी के फार्महाउस में हो रही थीं. काफी चहल पहल थी. एक लंबे अर्से के बाद गायत्री ऐसे माहौल में आई थी. धीरे धीरे अपने आप को इस माहौल में ढाल रही थी.
शादी के दिन सभी बारात का स्वागत करने के लिए तैयार हो रहे थे. गायत्री भी मौके के अनुसार तैयार हुई. बारात सही समय पर आ गई. बारातियों में एक चेहरे ने गायत्री का ध्यान अपनी ओर खींच लिया. उसने भी गायत्री को देख लिया. दोनों एक दूसरे को पहचान गए. लेकिन उस समय बात कर पाना संभव नहीं था.
उस चेहरे को देख गायत्री अतीत में चली गई.
इस अधूरी कहानी को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जवाब देंहटाएंमेरी कहानी शुभ घड़ी को अपने ऑडियो ब्लॉग दिव्यदृष्टि में लेने के लिए धन्यवाद। दृष्टिहीन श्रोताओं के लिए आप का प्रयास सराहनीय है।