शुक्रवार, 12 अगस्त 2016
विरानियाँ.... - जावेद अख्तर
कविता का अंश....उन दिनों जब के तुम थे यहाँ
जिंदगी जागी-जागी सी थी
सारे मौसम बड़े मेहरबान दोस्त थे
रास्ते दावतनामे थे जो
मंजिलो ने लिखे थे
जमीं पर हमारे लिए
पेड़,बाहें पसरे खड़े थे
हमें छाव की शाल पहनाने के वास्ते
शाम को सब सितारे,
बहुत मुस्कराते थे,जब देखते थे हमें
आती जाती हवाएं
कोई गीत खुसबू का गाती हुई
छेडती थी गुजर जाती थी
आस्मा पिघले नीलम का
एक गहरा तालाब था
जिसमे हर रात
एक चाँद का फूल खिलता था
और पिघली नीलम के लहरें मे बहता हुआ
वो हमारे दिलो के किनारों को छू लेता था
उन दिनों जब के तुम थे यहाँ !!
अस्को में जैसे धुल गए सब मुस्कराते रंग
रस्ते में थक के सो गयी मासूम सी उमंग
दिल है की फिर भी ख्वाब सजाने का शौक है
पत्थर पे भी गुलाब उगाने का शौक है
बरसो से यूँ तो एक अमावास की रात है
अब इसको हौसला कहूँ ,ये जिद की बात है
दिल कहता है अँधेरे में भी रौशनी तो है
माना के राख हो गए उम्मीद के उलाव
इस राख में भी आग कहीं पर दबी तो है...
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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