गुरुवार, 11 अगस्त 2016
कहानी - टेलीविजन - राहुल यादव
कहानी का अंश... जब तक मैं अपने गाँव में रहता था तब तक तो मैंने टीवी का नाम सुना ही नहीं था। मुझे पता भी नहीं था कि टीवी नाम की कोई चीज भी होती है। फिर पापा की नौकरी लगने पर हम सभी लोग फतेहपुर आ गए। वहाँ पर भी मैंने पहली बार टीवी कब देखा कुछ याद नहीं।
मैं तब शायद छह या सात साल का था और दूसरी कक्षा में पढता था। रविवार का दिन था और हम सभी भाई बहन घर पर ही थे। तभी पापा एक आदमी के साथ आये। उस आदमी के हाथ में एक बड़ा सा डब्बा था। डब्बे पर टीवी का एक चित्र बना हुआ था। अब मुझे याद तो नहीं लेकिन टीवी का चित्र देख कर हम खुश ही हुए होंगे। ख़ैर डब्बे से टीवी को निकाला गया और लगा दिया गया। टीवी बहुत बड़ा नहीं था, जहाँ तक मुझे याद है २१ इंच का था।
टीवी काले रंग का था और नीचे की तरफ एक स्पीकर था जिसे आप स्पीकर के लिये बने छोटे छोटे छेदों से पहचान सकते थे। उसके बगल में नीचे की तरफ ही एक ढक्कन लगा था, जिसे खोलने पर टीवी को कण्ट्रोल करने वाली चार घुन्डियाँ लगी थी। उनमें से एक घुंडी टीवी के चित्र का रंग काला-सफ़ेद कण्ट्रोल करने के लिये थी, और बाकि की घुन्डियाँ क्या करती थी ये तो मुझे आज तक भी नहीं पता। ढक्कन के बगल में एक और छोटी घुंडी थी, जिसे घुमाने पर टीवी चालू हो जाता था और उसी घुंडी से आवाज भी कण्ट्रोल होती थी। सबसे नीचे की तरफ सुनहरे अक्षरों में टीवी का ब्रांड बीपीएल लिखा हुआ था। आप इतना तो समझ ही गए होंगे कि टीवी श्वेत-श्याम था।
फतेहपुर में दूरदर्शन का ऑफिस हमारे घर के एकदम बगल में ही था, इसलिये हमें एंटीना लगाने की जरूरत नहीं होती थी। टीवी के ऊपर ही एक छोटा सा एरियल लगाना होता था। वैसा एरिअल हम अक्सर रेडियो के साथ लगा देखते हैं जिसे रेडियो सुनते समय हम खींच के बड़ा कर देते हैं। टीवी लगाकर जब उस आदमी ने चालू किया तो उसमें कोई दूसरी भाषा की फिल्म आ रही थी। उन दिनों दूरदर्शन पर रविवार के दिन दोपहर में दूसरी भाषा की फिल्म आती थी। पिक्चर साफ़ नहीं आ रही थी, उस आदमी ने घुन्डिया कुछ इधर उधर घुमाई और थोड़ी देर में ही साफ़ पिक्चर साफ़ आवाज के साथ आने लगी। वो आदमी सब सेट करके चला गया। मुझे अब भी याद है कि उस दिन हमने उस फिल्म को पूरा देखा था, हालाँकि दूसरी भाषा की होने के कारण हमें समझ में एक अक्षर भी नहीं आया होगा।
उन दिनों टीवी पर सिर्फ दूरदर्शन आता था और बहुत ज्यादा प्रोग्राम नहीं आते थे। दिन के समय जब कुछ देर के लिये प्रसारण बंद होने के कारण कुछ भी नहीं आता था, उस समय टीवी खोलने पर उस पर कुछ झिलमिल सा आता था, जिसे हम कहते थे की "बारिश हो रही है।" क्योंकि उसकी आवाज बारिश की आवाज की तरह लगती थी। फिर प्रसारण शुरू होने से कुछ देर पहले सतरंगी धारियाँ टूँ की आवाज के साथ आती थीं, और उसके बाद एक खास दूरदर्शन संगीत के साथ दूरदर्शन का लोगो बन कर आता था जिसके नीचे "सत्यम शिवम् सुन्दरम" लिखा होता था। धीरे धीरे हमें टीवी पर आने वाले सभी कार्यक्रमों का समय रट गया था, और हमारा खाने-खेलने का समय भी टीवी के कार्यक्रमों के हिसाब से निर्धारित हो गया था। मसलन हम शाम को चार बजे बच्चों का कार्यक्रम देख के खेलने जाया करते थे।
पाँच साल फतेहपुर में रहने के बाद पापा का ट्रान्सफर प्रतापगढ़ हो गया। वहाँ पर पापा को एक साल के लिये सरकारी मकान नहीं मिला, तो हम लोग एक किराये के मकान में रहते थे। हमने जब वहाँ पर टीवी खोल कर लगाया तो उसमें कुछ नहीं आया, हमें बाद में पता लगा कि प्रतापगढ़ में दूरदर्शन का ऑफिस ही नहीं है, और वहाँ पर एंटीना लगाना पड़ेगा जो कि इलाहबाद के दूरदर्शन के ऑफिस से सिग्नल पकड़ेगा। इन सब ताम-झाम से बचने के लिये एक साल के लिये जब तक हम उस किराये के मकान में रहे हमने रेडियो से ही काम चलाया।
आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
संपर्क- rahuljyadav1@gmail.com
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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