शुक्रवार, 12 अगस्त 2016
वो कमरा याद आता है... - जावेद अख्तर
कविता का अंश...
वो कमरा याद आता है
मै जब भी जिंदगी की
चिलचिलाती धूप मे तपकर
मै जब भी दुसरो के और
खुद के झूट से थक कर
मै सबसे लड़के और खुद से हारके
जब भी उस एक कमरे में जाता था
वो हलके और गहरे कथई रंगों का एक कमरा
वो बेहद मेहरबां कमरा
जो अपनी नर्म मुट्ठी मे
मुझे ऐसे छुपा लेता था
जैसे कोई माँ बच्चे को आँचल में छुपा ले
और प्यार से डांटे
ये क्या आदत है?
जलती दोपहर मे मारे मारे घूमते हो तुम
वो कमरा याद आता है
दबीज और खासा भारी
कुछ जरा मुस्किल से खुलने वाला
वो शीशम का दरवाजा
जैसे कोई अक्खर बाप
अपने खुरदुरे सीने मे
मशक्कत के समंदर को छुपाये हो
वो कुर्सी और
उसके साथ वो जुड़वाँ बहन उसकी
वो दोनों दोस्त थी मेरी
वो एक गुस्ताख मुहफट आइना
जो दिल का अच्छा था
वो बेहंगम सी आलमारी
जो एक कोने में खड़ी
बूढी अन्ना की तरह
आईने को तनवीर करती थी
वो एक गुलदान
नन्हा सा बहुत सैतान
उन दोनों पे हँसता था
दरीचा या जहानत से भरी एक मुस्कराहट
और दरीचे पे झुकी वो बेल
कोई सब्ज सरगोशी
किताबे ताक में और शेल्फ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठी
मगर सब मुन्तजिर इस बात की
मै उनसे कुछ पुछु
सिरहाने,नींद का साथी
थकन का चारागर
वो नर्म दिल तकिया
मै जिसकी गोद में सर रखकर
छत को देखता था
छत की कड़ियों में न जाने
कितने अफसानो की कड़ियाँ थी
वो छोटी मेज पर और सामने
दीवार पर आवेंजा तस्वीरें
मुझे अपनायत और यकीं से देखती थी
मुस्कराती थी...
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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