शुक्रवार, 19 अगस्त 2016
विज्ञान कविता – पेण्डुलम घड़ी – सुधा अनुपम
कविता का अंश…
कभी-कभी छोटी सी घटना,
बन जाती है कारण।
कभी रोज की बातें करती,
खोजों का निर्धारण।
सन् पंद्रह सौ तिरासी और
बात है ये इटली की।
घंटे से लटकी रस्सी की,
नहीं किसी सूतली की।
चर्च की बैंच में बैठे-बैठे,
एक दिन एक युवक ने देखा,
झूल रही थी रस्सी, जिसकी
लय में था एक टेका।
रस्सी के दोलन संग,
उसने अपनी नब्ज़ टटोली,
दोनों में एकरसता थी,
ये बात उजाबर हो ली।
उसने पाया हर दोलन में,
समय बराबर लगता।
जहन में उसके कुछ करने का,
कीड़ा क्यों न जगता।
दोलन को आधार बनाकर,
उसने की एक रचना।
समय का भी इस नई खोज से,
मुश्किल हो गया बचना।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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