बुधवार, 31 दिसंबर 2014

‘छिलपे’ का महत्व


डॉ. महेश परिमल
कुछ दिनों पहले ही पड़ोस के घर में बढ़ई ने कुछ काम किया। तब वहां कचरे के
रूप में ‘छिलपा’ दिखाई दिया। साथियों के लिए यह कुछ नया नाम हो सकता है।
लकड़ी पर जब रंदा चलता है, तो लकड़ी का जो ऊपरी भाग निकलता है, उसे ‘छिलपा’
कहा जाता है। छिलपा मुझे अतीत में झांकने के लिए विवश कर देता है। पिताजी
बढ़ई थे, घर पर भी कभी-कभी कुछ काम कर ही लेते थे। अतएव ‘छिलपा’ निकलता ही
था। यह ‘छिलपा’ हमारे कई काम आता। कई बार तो इसकी डिजाइन इतनी सुंदर होती
कि उससे कुछ आर्ट भी तैयार हो जाता। जिस तरह से शार्पनर से पेंसिल छिलते
हुए जो छिलन निकलती है, बच्चे उस पर फेविकोल लगाकर कुछ आकृति बनाते हैं,
ठीक उसी तरह उन छिलको से हम भाई-बहन भी कुछ न कुछ बना ही लेते थे। यही
नहीं, ‘छिलपा’ अन्य कई काम भी आता। चूल्हे पर लकड़ी जलाने के पहले उसे भी
साथ जलाया जाता। ‘छिलपा’  जल्दी जलता, इससे लकड़ी आग जल्दी पकड़ती।

‘छिलपा’ हम भाई-बहनों के जीवन से जुड़ा हुआ है। अनजाने में वह हमें यह
प्रेरणा देता है कि लकड़ी पर रंदा जितना अधिक चलेगा, उससे न केवल लकड़ी
चिकनी होगी, बल्कि ‘छिलपा’ भी उतना ही साफ-सुथरा निकलेगा। यानी जीवन में
जितना अधिक संघर्ष होगा, जीवन उतना ही चमकदार बनेगा। यह तय है। अब जीवन
के चमकदार बनने से क्या होगा? यह प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि
चमकदार जीवन आखिर किसके लिए प्रेरणास्पद होगा? इसे समझने के लिए हमें
लकड़ी की तासीर समझनी होगी। लकड़ी के फर्नीचर कितने सुंदर दिखाई देते हैं?
बरसों-बरस तक वैसे ही बने रहते हैं। उनमें ज़रा भी परिवर्तन दिखाई नहीं
देता। कभी गंदे दिखाई दें, तो गीले कपड़े से पोंछ देने पर वह फिर चमकदार
बन जाता है। इसके पीछे लकड़ी पर रंदे का चलना ही पर्याप्त नहीं होता, उस
पर पॉलिश की जाती है। जिससे उसकी चमक बढ़ जाती है।
‘छिलपा’ इसे हम लकड़ी की चमड़ी कह सकते हैं। चमड़ी निकलती जाती है, लकड़ी
निखरती जाती है। जिस तरह से साँप की केंचुल निकलती है। ठीक उसी तरह मानव
अपनी बुरी आदतों को छोड़ता जाए, तो उसे इंसान बनने में देर नहीं लगेगी।
वास्तव में इंसान यदि सुधरना चाहे, तो उसकी प्रत्येक गलती ही उसे सुधार
सकती है। ‘छिलपा’ तो एक प्रतीक है। सफाई का, गरीबों के ईंधन का। उनका
चूल्हा इसी से जलता है। आजकल लकड़ियां मिलती कहां हैं? वैसे तो ‘छिलपा’ भी
नहीं मिलता। पहले बढ़ई लोगों से ‘छिलपा’ ले जाने के लिए कहते थे, आज उसे
ही बेचते हैं। पहले जो उनके लिए कचरा था, आज आय का साधन है। गरीबी में जो
चीजें गरीब को अनायास मिल जाती थीं, आज उसी के लिए उसे मशक्कत करनी पड़ती
है। उसके लिए दाम देने होते हैं। गरीब को हर चीज के लिए दाम देने होते
हैं, पर जब बात गरीब को दाम देने की होती है, तो हर कोई यही चाहता है कि
उसे कम से कम दाम देना पड़े। कैसा अर्थशास्त्र है यह? गरीब पर ऊंगली उठने
में देर नहीं लगती। मानों उसे ईमानदारी से जीना आता ही नहीं। पर अमीर यह
भूल जाते हैं कि गरीब के बिना उनका जीवन संभव ही नहीं। ‘छिलपा’ गरीबी का
प्रतीक भले ही हो, पर उसमें स्वाभिमान की झलक दिखाई देती है। गरीब का
चूल्हा ही नहीं जलाता ‘छिलपा’, बल्कि गरीब के पेट की आग बुझाने में भी
सहायक होता है। हम सब ‘छिलपे’ में अपने स्वर्गीय पिता के परिश्रम के रूप
में देखते हैं। पिता से यही सीख मिली है, जो आज तक काम आ रही है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

जमीन पर विमान


                                  दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

मासूमों के शोषण की इबारत लिखते कारखाने

डॉ. महेश परिमल
अभी पिछले माह ही हमारे बीच से बाल दिवस गुजर गया। इस दिन हम सबने बच्चों को याद किया, अपना जन्म दिन बच्चों को समर्पित करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी याद किया। साथ ही यह संकल्प लिया कि अब बच्चों को पूरा संरक्षण दिया जाएगा। लेकिन आज भी किसी की साइकिल, स्कूटर या फिर बाइक िबगड़ जाए, तो उसे एक बच्चा ही सुधार पाता है। आज देश के छोटे होटल हों, कारखाने हों, फैक्टरियां हों, सभी स्थानों पर बच्चे काम करते दिख जाएंगे। इससे अनजान होकर हम अपने काम में लगे रहते हैं। कोई काम नहीं आता बाल दिवस पर लिया गया संकल्प। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी दिवाली की खुशियां इन्हीं बच्चों के माध्यम से ही बिखरती हैं। पटाखा बनाने वाले कारखानों में आज भी बच्चे पटाखा बनाते समय काल-कवलित होते हैं। हमारे लिए यह केवल एक खबर मात्र होती है। पर हम खुशियां मनाने के लिए पटाखे चलाना नहीं छोड़ते। पटाखे से पर्यावरण का नुकसान होता है, पर सच तो यह है कि इसमें हजारों मासूमों का परिश्रम लगा हुआ है। पटाखे मासूमों के शोषण की इबारत लिखते हैं। क्यों न हम खुशियां मनाने के लिए पटाखों का इस्तेमाल करना ही बंद कर दें?
भारत विश्व की दूसरी सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है और सूचना तकनीकी के क्षेत्र में भी उसे अग्रणी माना जाता है। इसके बावजूद भारत में बाल मजदूरी जैसा अभिशाप समाप्त होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। यह भारत की आत्मा में लगा हुआ एक ऐसा खंजर है जो निकाले नहीं निकल पा रहा। अनेक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक बाल मजदूर भारत में ही हैं और इनकी उम्र 4-5 वर्ष से लेकर 14 वर्ष के बीच है। विश्व भर में जितने बाल मजदूर हैं, उनका 30 प्रतिशत भारत में ही है। और यह स्थिति तब है, जब भारत में बाल श्रम को गैर कानूनी घोषित किया जा चुका है, और बाल श्रमिकों से काम लेने वालों के लिए अच्छी-खासी सजा का प्रावधान भी है।
दरअसल बाल मजदूरी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसे कानून बना कर खत्म किया जा सके, ठीक वैसे ही जैसे छुआछूत। देश को आजादी मिलने के बाद बने संविधान में छुआछूत को गैर कानूनी करार दे दिया गया, लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और लोगों के नजरिए में बदलाव आए बिना उसका समाप्त होना संभव नहीं था। यही कारण है कि आज भी वह अनेक जगहों पर प्रचलित है। इसी तरह जब तक बाल मजदूरी के पीछे के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक इस अभिशाप से छुटकारा मिलना मुमकिन नहीं है। मजदूर के घर बच्चा पैदा होने पर हिन्दी के प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी जिसकी बहुत मशहूर पंक्ति है "एक हथौड़े वाला और हुआ" यानी, उन्हें भी यही उम्मीद है कि मजदूर का बेटा भी बड़ा होकर बाप की तरह हथौड़ा ही संभालेगा। शायद उन्हें भी यह अंदाज न होगा कि वह कितना बड़ा होगा, जब उसके हाथ में हथौड़ा पकड़ा दिया जाएगा। गरीबी सबसे बड़ा कारण है जो मां-बाप अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगा देते हैं। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह चौपट हो जाना दूसरा बड़ा कारण है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की इतनी कम सुविधाएं हैं कि गरीब बच्चे उनमें दाखिला लेने के कुछ ही समय बाद वहां जाना बंद कर देते हैं। उनके सामने काम करके परिवार की आमदनी में कुछ योगदान करने के सिवा कोई और चारा ही नहीं बचता।
पहले बाल मजदूरी गांव में अधिक थी, लेकिन अब वह शहरों में भी पसर गई है। हर जगह बच्चों को काम करते देखा जा सकता है। बाल मजदूरों की अवैध तस्करी भी फलफूल रही है। बाल मजदूरी को समाप्त करने के प्रयास में लगे स्वयंसेवी संगठन कानूनों को कड़ा बनाने की मांग करते आ रहे हैं, लेकिन कानून कड़ा करने से भी समस्या का हल होने वाला नहीं। दहेज हत्या संबंधी कानून कितना कड़ा है, यह किसी से छिपा नहीं। फिर भी दहेज के लिए बहू की हत्या की घटनाएं आए दिन देखने में आती हैं। बाल मजदूरी तभी समाप्त हो सकती है, जब उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बदला जाए, जिनके कारण वह पैदा होती और पनपती है।
जब तक गरीब बच्चों की निःशुल्क शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बारे में सरकार गंभीरता से नहीं सोचती और उन्हें सुविधाएं मुहैया नहीं कराती, तब तक बाल मजदूरी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। गरीब अपने परिवार का पेट बहुत मुश्किल से भर पाता है। अगर वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकता, तो वह उन्हें काम पर ही लगाएगा। अक्सर उस पर कर्ज का बोझ भी होता है जिसे उतारने के लिए उसे यूं भी अतिरिक्त आमदनी की जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगाना विवशता है। जब तक उसकी यह विवशता बनी रहेगी, बाल मजदूरी भी जाने वाली नहीं।
इस दिश में अगर हम एक छोटी-सी शुरुआत करें कि हम न तो अपने घर में किसी बाल मजदूर को काम पर रखेंगे, न ही बाल मजदूरों के हाथों से अपने वाहन ठीक कराएंगे। इसके अलावा जिन होटलों आदि में बच्चे काम कर रहे हों, वहां न जाएं। एक छोटी-सी कोशिश यह भी हो सकती है कि जहां बच्चे काम कर रहे हों, वहां जाकर हम किसी एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठाने का संकल्प लें। यह एक छोटी-सी शुरुआत होगी, पर निश्चित रूप से यह मन को संतोष दिलाएगा और दिल को सुकून। एक कदम तो उठाइए, कुछ समय बाद आपके पास सुकून की ढेर सारी दौलत होगी। जिस दौलत को पाने के लिए इंसान जिंदगी भर कोशिश करता है, वह आपके कदमों में होगी।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

मासूम की मौत से जुड़ी है इबोला के जन्म की कहानी

डॉ. महेश परिमल
इबोला एक बार फिर सर उठा रहा है। यह एक ऐसा रोग है, जो अभी तक लाइलाज है। दूसरा यह सघन बस्तियों में तेजी से फैलता है। अब तो यह हवाई मार्ग से होते हुए एक देश से दूसरे देश तक पहंंुचने भी लगा है। इसलिए यह उन देशों में भी तेजी से फैलेगा, इसमें कोई शक नहीं।
गिनी के मेलिआंडु गांव में रहने वाला एमिल केवल दो वर्ष का था, तब उसने एक छोटे-से चमगादड़ का मांस खा लिया। शाम तक उसकी तबियत बिगड़ने लगी। उसके बुखार के साथ सरदर्द होने लगा। यही नहीं उसे डायरिया भी हो गया। दो दिन के भीतर ही उसकी मौत हो गई। यह मौत दिसम्बर 2013 में हुई, इसके कुछ ही दिनों बाद उसकी तीन बहनें भी मौत का शिकार हो गई। आखिर में उसकी गर्भवती मां भी चल बसी। यह इबोेला से हाेने वाली मौतों की शुरुआत थी। इस रोग ने अब तक 5 हजार लोगोें को अपनी चपेट में ले लिया है। इस रोग ने हजारों मासूमों को अनाथ बना दिया है। हजारों लोग अभी भी मौत से जूझ रहे हैं। इस रोग की पहचान सर्वप्रथम सन् 1976 में इबोला नदी के पास स्थित एक गाँव में की गई थी।
जहां से इबोला की शुरुआत हुई, वह गांव गिनी के एकदम जंगली क्षेत्र है। इस क्षेत्र के आसपास पामोलीव की खेती होती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस क्षेत्र में चमगादड़ों द्वारा इस रोग के वाइरस सबसे पहले मासूम एमिले तक पहुंचे। इस वाइरस ने इसके बाद तो हिलमिलकर रहने वाली बस्तियों पर हमला बोला। लोग लगातार मरने लगे। पर किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। वैसे भी दस देश में स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी नहीं हैं कि लोगों के बीमार पड़ते ही उनका इलाज हो जाए। इबोला से होने वाली मौतों को पहले तो किसी ने नोटिस नहीं लिया। इसका इलाज भी किया गया, तो कोई अन्य रोग समझकर। मौतों के मामले उन क्षेत्रों में अधिक होते, जो गांव एकदम सुदूर क्षेत्रों में होते। इस देश की सीमा पर दो अन्य देश सीरिया लियोन और लाइबेरिया की सीमाएं हैं। धीरे से इबोला ने इन देशों में भी प्रवेश कर लिया। एक छोटे से गांव के एक मासूम को हुए इस रोग ने देखते ही देखते तीन देशों को अपनी चपेट में ले लिया। हजारों की जान लील ली। इसका सीधा असर अस्पताल के कर्मचारियों पर पड़ा। पहले तो इस रोग को कालरा या बुखार वाला रोग समझकर इलाज किया जाता रहा। उन्हें इस आभास तक न था कि यह काेई नया रोग है। इसे समझने तक पहली 15 मौतों में से चार तो केवल स्वास्थ्यकर्मी ही थे।
इबोला के फैलने के पीछे ग्रामीण इलाकों की परंपराएं अधिक दोषी हैं, क्योंकि सुदूर क्षेेत्रों में गांव के लोग कई तरह की परंपराओं का पालन करती हैं, जिसमें किसी की मौत के बाद शव को नहलाना, उसे चूमना आदि शामिल है। शव की अंतिम यात्रा में भी पूरा गांव शामिल होता, इससे इबोला का वाइरस तेजी से फैलता।
हवाई जहाजों ने पूरी दुनिया को बड़ी तेजी से जोड़ दिया है। लेकिन बेहतर हुई फ्लाइट कनेक्टिविटी के साथ बीमारियां भी ग्लोबल हो रही हैं। अब बीमारियां कुछ ही घंटों में हजारों किलोमीटर पहुंच जाती हैं। चमगादड़ या फ्रूट बैट में इबोला का वायरस होता है। कुछ पश्चिमी अफ्रीकी देशों में ये छोटा चमगादड़ खाया जाता है। पहले यह वायरस जानवर से इंसान में आता है और फिर इंसान से इंसान में फैलता है और वह भी तेजी से। फिलहाल इसके रुकने का कोई उपाय दिखाई नहीं देता। बीमारियां कैसे फैलती हैं, बर्लिन की हुमबोल्ट यूनिवर्सिटी के बायोलॉजिस्ट डिर्क ब्रोकमन इसका जवाब नक्शे की मदद से खोज रहे हैं। ब्रोकमन के मुताबिक पहले बीमारियां आस पास के इलाकों में भी फैलती थी लेकिन अब हालात पूरी तरह अलग हैं, "आज लोग हवाई जहाजों के बड़े नेटवर्क की मदद से लंबी यात्रा करते हैं। जिस तरह बीमारियां आजकल फैल रही हैं, वैसा पहले नहीं हुआ।"मतलब साफ है कि लोगों के साथ रोगाणु भी सफर कर रहे हैं। हर साल दुनिया भर में साढ़े तीन अरब लोग हवाई अड्डों के जरिए यात्रा करते हैं। कोई भी जगह, भौगोलिक रूप से भले ही हजारों किलोमीटर दूर क्यों न हो, एयरलाइंस के कनेक्शन उसे बहुत तेजी और कारगर ढंग से करीब ला चुके हैं।
फैलाव का पूर्वानुमान
ब्रोकमन कहते हैं, "इसी के आधार पर हमने एक ऐसा मॉडल बनाया है जो बता सकता है कि कैसे एयर ट्रैफिक के चलते संक्रमण वाली बीमारियां दुनिया में फैल रही हैं। इससे पूर्वानुमान भी लगाया जा सकता है। जैसे, अगर आपको पता है कि बीमारी कहां पैदा हुई तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि वह किसी नए इलाके में कब पहुंचेगी।"2009 में स्वाइन फ्लू की शुरुआत मेक्सिको में हुई। पूरी दुनिया में फ्लाइट कनेक्शन होने की वजह से साल भर के भीतर स्वाइन फ्लू करीब करीब पूरी दुनिया में फैल गया। ब्रोकमन ने अब इबोला के प्रसार का अनुमान लगाने के लिए एक मॉडल तैयार किया है। यह बताता है कि पश्चिम अफ्रीका से इबोला के बाहर फैलने की संभावना कितनी है। मॉडल के काम करने के तरीके को समझाते हुए जर्मन वैज्ञानिक कहते हैं, "माना कि इबोला से संक्रमित 100 लोग विमान में सवार होते हैं, तो उनमें से एक जर्मनी आता है। यानी जोखिम को एक फीसदी है। फ्रांस में खतरे की संभावना यहां से दस गुना ज्यादा है।" इसकी वजह यह है कि गिनी से उड़ान भरने वाले ज्यादातर विमान पेरिस आते हैं, इसीलिए फ्रांस में जर्मनी से ज्यादा रिस्क है।
फिलहाल दूसरे देश भी शाेधकर्ताओं की मदद ले रहे हैं, वे जानना चाहते हैं कि क्या उन्हें भी इबोला के लिए तैयार रहना चाहिए। ब्रोकमन कहते हैं, "मेरे पास कई लोगों के सवाल आ रहे हैं कि दक्षिण अफ्रीका में इबोला फैलने का खतरा कितना है, क्योंकि इबोला से वहां पर्यटन उद्योग ढह सकता है। लेकिन फिर पता चला कि दक्षिण अफ्रीका में फ्रांस की तुलना में इबोला का खतरा कम है। पहले तो हम बस अपनी सोच और अनुभव के आधार पर अनुमान लगा सकते थे, लेकिन अब हमारे पास इसके लिए आंकड़े हैं।" ब्रोकमन अपने मॉडल से यह भी पता लगा सकते हैं कि अगर प्रभावित इलाके से फ्लाइट संपर्क काट दिया जाए तो किस ढंग से बीमारी को फैलने से रोका जा सकता है।
एक तरफ बचाव है तो दूसरी तरफ इबोला की काट ढूंढने की कोशिशें जारी हैं। अफ्रीका से हर रोज इबोला के नए मामले सामने आ रहे हैं। दुनिया भर के लोग सोच रहे हैं कि आखिर इस मर्ज़ की दवा क्यों नहीं बनाई गई। वैज्ञानिक और रिसर्चर जर्मनी के साथ मिल कर एक नई तकनीक पर काम कर रहे हैं। एक ग्रीनहाउस में तंबाकू के हज़ारों पौधे उगाए रहे हैं। जीवविज्ञानी यूरी क्लेबा और उनके साथी तेजी से इन पौधों को उगाना चाहते हैं। उनका मानना है कि ये पौधे इबोला वायरस से लड़ने का राज़ खोल सकते हैं। यह एक जटिल तरीका है, जिसमें इन्हें एक विदेशी डीएनए से संक्रमित कराया जाता है। इससे वे दोबारा इस तरह प्रोग्राम हो जाते हैं कि वे सिर्फ एक प्रोटीन पैदा करने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। हम उसी प्रोटीन से दवा बनाना चाहते हैं।
मूल रूप से यूक्रेन के वैज्ञानिक क्लेबा पूरी दुनिया के वैज्ञानिकों के साथ मिल कर काम करते हैं। वे अफ्रीका के खबरों पर बारीकी से नजर रखते हैं। उनके प्रयोग पर अमेरिका की दो दवा कंपनियों ने अभी से संपर्क साध लिया है। वे इबोला की दवा तैयार कर रहे हैं। लेकिन इसके लिए काफी पैसों की जरूरत होगी। इस पौधे से तैयार प्रोटीन को पहले रिसर्च के लिए तैयार किया जाएगा। इसकी दवा को अब तक सिर्फ कुछ बीमार लोगों पर ही टेस्ट किया गया है। यूरी क्लेबा की टीम में तीस वैज्ञानिक हैं, कई सीधे पढ़ाई पूरी करके उनके साथ जुड़ गए हैं। 2004 से वे एक जटिल प्रक्रिया पर काम कर रहे हैं, जो सिर्फ एक ही बीमारी से नहीं लड़ेगी। यह दवा उद्योग में कई चीजों और दूसरे उत्पादों के लिए उपयोग हो सकती है। इबोला उनमें से सिर्फ एक है। इसलिए यह टूल तैयार करना बहुत जरूरी है।
चुंबकीय इलाज से खून की सफाई 15।09।2014
वैज्ञानिकों ने एक ऐसा उपकरण विकसित किया है जिसकी मदद से इबोला या कोई अन्य खतरनाक वारयस हो, बैक्टीरिया हो या दूसरे हानिकारक तत्व, इन्हें चुंबक के जरिए खून से निकाला जा सकेगा।
इबोला से खेल को खतरा
हिन्द महासागर के छोटे से देश सेशेल्स ने सियेरा लियोन की फुटबॉल टीम को देश में आने से मना कर दिया। सियेरा लियोन बुरी तरह इबोला से प्रभावित है। इसके बाद खेल पर इस बीमारी का असर दिखने लगा है। इबोला वायरस एक बार शरीर पर हमला कर दे, तो बचने की उम्मीद बहुत कम होती है। अफ्रीका में इलाज के दौरान संक्रमित हुए एक डॉक्टर की जर्मनी के अस्पताल में मौत हो गई।
इबोला से होने वाली मौतें:-
कुल       सीएरा लिओन   गिनी   नाइजीरिया
5689      1398               1260          8
डॉ. महेश परिमल

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नवभारत भोपाल के संपादकीय पेज पर 13 दिसम्बर 2014 को प्रकाशित मेरा आलेख

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

सरकार नई पर आइडिए पुराने

डॉ. महेश परिमल
नई सरकार के शुरुआती हाव-भाव देखकर यही लग रहा था कि यह सरकार तेजी से काम करेगी, नई-नई योजनाएं लाएगी, सबको खुश करने का प्रयास करेगी। पर लगता है कि अब केंद्र की भाजपा सरकार के पास ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जिसमें कुछ नयापन हो। अभी दस नवम्बर को सरकार ने जो उड्‌डयन नीित जाहिर की, उसमे कुछ भी नया नहीं है। सभी कुछ पुरानी कांग्रेस सरकार की नीतियां ही काम करती दिखाई दे रही है। यही हाल किसान विकास पत्र का भी है। पहले तो सरकार ने नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन की दुहाई दे रही थी। पर जब अपनी पर बन आई, तो पुरानी नीतियों को ही अपनाना शुरू कर दिया। सरकार ने भ्रष्टाचार हटाना चाहती है, इनोवेटिव आइडिया लाना चाहती है, परंतु पुरानी नीतियां ही यदि जारी रखेगी, तो फिर यूपीए सरकार ही क्या बुरी थी?
कालेधन पर सरकार फिसड्‌डी साबित हो ही रही है। जिन खातों का खुलासा किया गया था, उसके बाद उसमें से अधिकांश खातों में अब जीरो बेलेंस है। सरकार पुरानी बोतल में नई शराब बेचने की फिराक में है। KYC के बाद KYP आया।  KYC यानी ‘नो योर कस्टमर रिक्वायरमेंट’, और KYP यानी ‘किसान विकास पत्र’। केवायसी का सरकार काेई खास लाभ नहीं उठा पाई। दूसरी तरफ बैंकों द्वारा केवायसी के बहाने ग्राहकों को परेशान ही कर रहीं हैं। केवायसी के माध्यम से बैंक में धन जमा कराने वालों की सही जानकारी मिल जाने का अंदाजा था। अब सरकार का ध्यान केवीपी पर है। रिजर्व बैंक ने केवायसी के लिए जो नियम तैयार किए हैं, वे केवीपी पर भी लागू होंगे। सरकार का गणित यह है कि 2015-16 तक किसान विकास पत्र द्वारा 35 हजार करोड़ जमा किया जा सकता है। परंतु ये केवीपी के संबंध में जो सूचना घोषित की गई है, उससे यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति किसान विकास पत्र खरीदता है, वह केश या चेक से भी निवेश कर सकता है। यदि वह चेक से निवेश करता है, तो उसकी पहचान हो सकती है, पर यदि वह नगद राशि देकर निवेश करता है, तो उसकी पहचान मुश्किल हो जाएगी। कोई भी व्यक्ति सुरक्षित निवेश चाहता है, तो वह सरकार की राशि दोगुना करने वाली योजना को अधिक पसंद करता है। किसान विकास पत्र से राशि 8 साल में दोगुनी हो जाती है। दूसरी ओर सरकार की कुछ ऐसी ही योजनाएं उपलब्ध हैं। इसलिए वित्त मंत्री अरुण जेटली जिसे इनोवेटीव स्कीम बता रहे हैं, उसमें ऐसा कुछ भी इनावेटीव नहीं है।
हाल के डाटा अनुसार लोगों ने सोने में अधिक निवेश किया है। सरकार इसके विकल्प के रूप में किसान विकास पत्र की योजना सामने लाई है। अक्टूबर 2014 में सोने का आयात 4 अरब डॉलर तक पहुंच गया है। पिछले वर्ष इस महीने में वह मात्र एक अरब डॉलर था। सोने के भाव टूटते होने के बाद भी इसका आयात बढ़ा है। अक्टूबर 13 में जिस सोने का आयात 24 टन था, वह इस अक्टूबर में 120 टन तक पहुंच गया। इस दिशा में सरकार ने अभी सोने के आयात में अस्थायी रूप से घटाने के लिए टैक्स लगाया है। परंतु इसके कारण सोने की तस्करी बढ़ गई है। सरकार निवेशकों से इसके नए विकल्प मांग रही है, पर लोग इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। लगता है सरकार के पास इस दिशा में कोई नया आइडिया नहीं है। जैसे निवेशकों के लिए नए आइडिए नहीं हैं, वैसे ही उड्‌डयन नीति के लिए हुआ है। यूपीए सरकार के दौरान उड्‌डयन नीति की हालत बहुत ही खराब थी। इस कारण एयर इंडिया ठप्प हो गई। उधर विदेशी एयरलाइंस सारा मुनाफा खींच ले जाती। नई एनडीए सरकार चाहती तो नए नियमों को लाकर नई उड्‌डयन नीति बनाकर उड्‌डयन क्षेत्र को रन वे पर ला सकती थी। पर ऐसा नहीं हो पाया, अब नई सरकार ने भी उसे बिना बदले पिछली नीतियों को ही लागू कर दिया है, तो उससे देश की एयरलाइंस को घाटा होगा और विदेशी एयरलाइंस मुनाफे में रहेंगी।
िकसान विकास पत्र 1988 में पहली बार सबके सामने आए थे। लोकप्रिय योजना होने के बाद भी नवम्बर 2011 में वापस ले ली गई थी। इसकी सिफारिश श्यामलाल गोपीनाथ कमेटी ने की थी। 2009-2010 में उस योजना के तहत 21 लाख, 631 हजार, 16 करोड़ रुपए इकट्‌ठा किए गए थे। बाद में पता चला कि यह योजना कालेधन को छिपाने का अड्‌डा बन गई है, तो इस बंद कर दिया गया। यह बात तीन साल पुरानी है। तब 2010-11 था, अब 2014-15 है। इन वर्षों के दौरान केवायसी ने सख्त कानून बनाया है। दूसरी तरफ मध्यमवर्ग निवेश के लिए विश्वसनीय और सुरक्षित योजनाओं की खोज में हैं, सरकार ब्याज नहीं बढ़ा रही है। इसलिए निवेशकों को अधिक ब्याज देने वाली योजनाओं के रूप में निवेशक शेयर बाजार और सोने की खरीदी की ओर प्रेरित हो रहे हैं। इसमें धन का भविष्य अनिश्चित होता है। दूसरी ओर किसान विकास पत्र से राशि दोगुनी हो ही जाती है। सरकार ने किसान विकास पत्र बाहर लाकर कोई तोप नहीं मारी है। किसान विकास पत्र से काला धन बाहर आएगा, यह सोच भी शेखचिल्ली की सोच है। कालाधन जमा करने वाले सोने और शेयर बाजार अधिक पसंद करते हैं। किसान विकास पत्र में तो फिक्स डिपाजिट से भी कम ब्याज मिल रहा है, अरुण जेटली जिसे इनोवेटीव आइडिया कह रहे हैं, वह वास्तव में महाबोगस योजना है।
इसलिए यह कहा जा सकता है कि सरकार शोर ही अधिक कर रही है, जमीनी हकीकत कुछ और ही है। उसके पास नई सोच नहीं है, जिसका प्रचार वह करती रही है। पुरानी सोच के सहारे देश तो पहले ही चल रहा था। लोगों ने भाजपा सरकार से जो उम्मीद जताई थी, उसे पूरा करने में वह विफल साबित हुई है। लोगों को एक बार तो भरमाया जा सकता है, पर बार-बार नहीं।
‎                डॉ. महेश परिमल

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