शुक्रवार, 28 अगस्त 2015

विश्व फलक पर चमकते भारतीय हीरे

  भारत के गौरव  सत्य और सुंदर
  डॉ. महेश परिमल
 विश्व की शक्तिशाली आईटी कंपनी में भारतीयों के दबदबे से आत्ममंथन का अवसर बनना चाहिए। जो हमेशा अपने वेतन पर ध्यान रखते हैं, वे सुंदर पिचाई से यह सबक ले सकते हैं कि वेतन ही सब-कुछ नहीं होता, इसके साथ यह भी आवश्यक है कि आप सतत अपडेट रहें और रोज कुछ नया करते रहें। आपके मस्तिष्क में हमेशा नए-नए विचार आते रहें, प्रतिभा को वेतन का मापदंड न मानें। सुंदर पिचाई ने यदि वेतन को ही आगे रखा होता, तो वे आज इस ऊंचाई पर नहीं होते। पिछले दिनों जैसे ही गूगल ने यह घाेषणा की कि सुंदर पिचाई अब कंपनी के सीईओ होंगे, तो पूरे भारत देश में खुशी की लहर दौड़ गई। इसी के साथ सोशल साइट पर यह चलने लगा कि दुनिया की किन-किन श्रेष्ठ कंपनिनयों में भारतीयों का दबदबा है। विश्व की सबसे बड़ी आईटी कंपनी के सीईओ सुंदर केवल 43 साल के हैं, इतनी छोटी उम्र में इतनी बड़ी उपलब्धि बहुत कम हो हासिल होती है। अाज सुंदर ने जो कुछ हासिल किया है, वह उन्हें ऐसे ही प्राप्त नहीं हुआ है, उसके लिए उन्होंने जो श्रम किया है, वह भी पूरी खामोशी और शिद्दत से, वही उनकी श्रेष्ठता है, जो उन्हें औरों से कुछ अलग करती है। संुदर पिचाई ने आईआईटी खडगपुर से मेटलर्जी इंजीनियर होने के बाद अमेरिका चले गए, वहीं उन्हें विश्वविख्यात व्हार्टन बिजनेस स्कूल से एमबीए किया। पिछले दस वर्षों से वे गूगल के साथ जुड़े हैं। जब सुंदर पिचाई ने गूगल में अपना काम शुरू किया, तब उन्हें न्यू जेनरेशन कंज्यूमर प्रोडक्स का काम सौंपा गया। यहां उन्होंने आगामी 20 वर्ष तक ग्राहकों की बदलती मानसिकता और आवश्यकताओं का गहन अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने एक ऐसा रोड मेप तैयार किया, जिसे आज तक गूगल उसका अनुशरण करता है। पिचाई द्वारा तैयार किया गया रोड मेप गूगल ने सबसे पहले जी मेल एप्लीकेशन पर काम किया। इसकी पूरी जिम्मेदारी पिचाई की टीम को दे दी। इसमें सफल होने के बाद मेप का एप्लीकेशन भी पिचाई ने सफलतापूर्वक तैयार किया। पिचाई ने जब गूगल के सभी प्रोडक्ट के लिए एंड्रोइड एप्लीकेशन से मोबाइल की पूरी दुनिया ही बदल दी, तब उनकी लगातार सफलता को पूरे विश्व ने सराहा। पिचाई की सफलता के क्रम में गूगल का वेब ब्राउजर क्रोम को भी शामिल किया जा सकता है। दस साल में पांच बड़ी सफलता की वजह से ही वे गूगल के सीईओ पद तक पहुंच पाए। आज आईटी के क्षेत्र में पूरे विश्व में गूगल के सर्जेई ब्रिन, लेरी पेज, एपल के टीम के कूक के बाद सुंदर पिचाई का नाम अपनी अनोखी सिद्धि के लिए लिया जा रहा है। सुंदर गूगल जैसी बड़ी कंपनी के सीईओ तो हैं ही, इसके अलावा ऐसी ही दूसरी आईटी ज्वाइंट माइक्रोसाप्ट के सीईओ के पद पर संुदर के ही राज्य तमिलनाड़ु के पड़ोसी कर्नाटक के सत्या नाडेला भी हैं। तमिलनाड़ु की इंदिरा नूई को कैसे भुला जा सकता है। आज वे पेप्सी की सीईओ हैं। सुंदर की सीईओ के पद पर नियुक्ति हुई, इसके पहले जिनके साथ उनकी प्रतिस्पर्धा थी, वे निकेश अरोरा भी भारतीय हैं। गूगल से लंबे समय तक जुड़ेे रहने के बाद पिछले साल ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। अब वे जापान की विख्यात साफ्टबैंक में वाइस चेयरमेन हैं। प्रसिद्ध सिटी बैंक के सीईओ रह चुके विक्रम पंडित भी एक जाना-पहचाना नाम है। भारतीय मूल के महानुभाव अपने तेजस्वी मस्तिष्क के कारण जब ऊंचे पद पर पहुंच जाते हैं, तो हमें गर्व होता है। यह स्वाभाविक भी है। अमेरिका प्रतिभा को अवसर देता है। हमारे यहां हालात एकदम ही अलग हैं। यहां प्रतिभा नहीं, बल्कि जुगाड़ और संबंध काम आते हैं। हमारे यहां की बहुत सी विभूतियां ऐसी हैं, जिन्हें हमने तो नकार दिया, पर उन्होंने अपनी बुद्धि का लोहा दूसरे देशों में मनवा लिया। इस पर ही एक शोध हो सकता है कि वे कौन सी परिस्थितियां थी, जिसने हमारे देश के महान लोगों को देश छोड़ने के लिए विवश किया। यदि उन्हें हमारे ही देश में अवसर मिले होते, तो हमारे देश का नाम बहुत ऊंचा होता। यह विचारणीय है कि जो देश छोड़कर चले गए, उनके साथ किस तरह का व्यवहार किया गया। आखिर क्यों उन्हें देश छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। आज भी हमारे देश में व्यापार और नौकरियों के बेहतर अवसर हैं, उसके बाद भी प्रतिभाएं देश से बाहर ही जा रही हैं। 90 के दशक में जींस की खोज करने वाले डॉ. हरगोविंद खुराना, के. एस. चंद्रशेखर को देश छोड़ने के बाद नोबल पुरस्कार से नवाजा गया। आज भी हालात सामान्य नहीं हुए हैं। इसकी वजह हमारी झूठी खूनपरस्ती है। मूल रूप से हम अपने आराध्य में किसी हीरो, मॉडल, मूर्ति में देखते हैं। हम भूल जाते हैं कि असली हीरो तो खुराना, सत्या नाडेला, भरारा, या रामकृष्ण ही हैं। इन्हें गुमाने के बाद हम यह अहसास ही नहीं कर पाते कि अभी भी हमारे बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जो प्रतिभाशाली हैं, पर उनकी प्रतिभा हमें दिखाई नहीं दे रही है। हमारी स्थिति शुतुरमुर्ग की तरह हो गई है। प्रतिभा को नहीं देख पाते, साथ ही उन अवसरों को भी देख नहीं पाते, जो हमें हमारे देश से नहीं, बल्कि दूसरे देशों में मिलते हैं। हमारी व्यवस्था, काम करने की पद्धति, शिक्षा के अवसर, शिक्षा प्राप्ति के बाद काम के असवर, काम मिलने के बाद अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए पारदर्शिता आिद मामलों में हम काफी पीछे हैं। कल्पना करें कि यदि आज डॉ. खुराना, सत्या नाडेला, संुदर पिचाई, इंदिरा नूई, निकेश भारत में ही रहते, तो उनकी क्या स्थिति होती? अधिक से अधिक इंफोसिस, विप्रो, टीसीएस जैसी कंपनियों में ऊंचे वेतन प्राप्त करने वाले साफ्टवेयर डेवलवपर से विशेष कुछ बन सकते क्या? एनडीए सरकार एम्स, आईआईएम और आईआईटी जैसी उच्च कोटि की शिक्षण संस्थाओं को शुरू कर रही है, तब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि सुंदर पिचाई आईआईटी खड़कपुर पहुंचे उसके पहले वे साधारण सरकारी स्कूल में ही पढ़ते थे और माइक्रोसाफ्ट के सत्या नाडेला तो मध्यम स्तर के निजी विश्वविद्यालय के छात्र थे। मानव संसाधन विकास के लिए हम वैश्विक नियमों को सीख रहे हैं, पर बरसों पुरानी मानसिकता को बदलना नहीं चाहते। अब भी समय है कि ऐसे प्रतिभाशाली लोगों को हम अपने ही देश में ऐसे अवसर दें, ताकि उनकी प्रतिभा से हमारा देश ही आलोकित हो। दूसरे देशों से यह सीखें कि वे किस तरह से बिना भेदभाव के प्रतिभाओं का न केवल सम्मान करते हैं, बल्कि उन्हें ऊंचा पद देने में भी पीछे नहीं रहते। देखा जाए तो सुंदर पिचाई और सत्या नाडेला हमारे लिए मंथन का विषय हैं। इन प्रतिभा को हमने नहीं, किसी दूसरे देश ने पहचाना। प्रतिभा पहचानने की हमारा चश्मा ही खराब है। हमें वही दिखता है, जो हमें दिखाया जाता है। यह दृश्य सच से काफी दूर होता है। हमें चाहिए सिफारिश वाला प्रतिभावान, जुगाड़ से बनाया गया प्रतिभाशाली या फिर किसी मंत्री का पुत्र या फिर उसका रिश्तेदार। आज भी देश के उच्च पदों पर बहुत से नाकारा लोग बैठे हैं, जिन्हें हम नहीं पहचान रहे हैं, यदि इन्हें ही पहचान लिया जाए, तो ही देश के प्रतिभावानों को सामने आने में देर नहीं लगेगी।
 डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 26 अगस्त 2015

मंगी की बाजार में वापसी

दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में 17 अगस्त को प्रकाशित आलेख http://epaper.jagran.com/epaper/17-aug-2015-262-National-Page-1.html

सोमवार, 10 अगस्त 2015

अमेरिका में प्रतिबंधित, भारत में खुले आम

डॉ. महेश परिमल अमेरिका जैसी पाश्चात्य देशों से हम बहुत कुछ सीखते हैं। कभी फैशन के नाम पर हम उनका अनुकरण करते हैं, तो कभी फिल्मों के नाम पर। वहां बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं। समय की पाबंदी के अलावा वहां बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे हमें अपनाना चाहिए। हम फैशनपरस्त हो सकते हैं, पर समय के पाबंद नहीं। हममें जागरूकता का अभाव है, इसलिए हम यह नहीं जान पाए कि अमेरिका ने अपने देश की स्कूलों में कोक-पेप्सी के उत्पादों को बेचना बंद कर दिया है। अब वहां फलों के ताजा रस मिलेंगे। वहां अब जाकर यह मान लिया है कि उक्त उत्पाद बच्चों की सेहत के लिए नुकसानदेह है। इसलिए फौरन यह आदेश दिया गया। इतनी चिंता करते हैं, वे अपने देश के बच्चों की। लेकिन हमारे देश में अभी मैगी को लेकर जो जागरूकता दिखाई दी, वैसी जागरूकता अन्य उत्पादों में भी देखी जाए, तो पूरे देश के बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाए। पर ऐसा संभव नहीं दिखता। विश्व के कई देश अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में फंसे हुए हैं, उनमें हमारा देश भी एक है। इसके लिए दोषी है हमारी संकुचित मानसिकता और काम न करने की प्रवृत्ति। इन दो कारणों से कई अच्छे कार्य नहीं हो पाते। आजकल बच्चे जिस तरह से जान हथेली पर रखकर स्कूल जा रहे हैं, यदि उस हालात का ही बारीकी से निरीक्षण कर लें, तो समझ में आ जाएगा कि इसके लिए पालक ही दोषी हैं। पालक ही बच्चों को फास्ट फूड के लिए प्रेरित करते हैं। आलसी मांओं के कारण ही मैगी इतनी लोकप्रिय हो पाई। इसके अलावा अन्य कई ऐसी चीजें हैं, जो देश के भविष्य को बरबाद कर रही हैं, लेकिन इसका असर अभी नहीं, बरसों बाद पता चलेगा। अमेरिका से यह खबर आई है कि वहां की स्‍कूलों में कोकाकोला और पेप्‍सी की बिक्री बंद कर दी गई है। उसे अब जाकर यह समझ में आया है कि इन पेय पदार्थों से बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य को खतरा पैदा हो गया है। बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों ने भी अमेरिका की हां में हां मिलाते हुए इसे बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए खतरा बताया है। इन पेयपदार्थों को लगातार पीने से वहां के बच्‍चों में मोटापा छाने लगा है। उनके शरीर में चर्बी की मात्रा बढ़ने लगी है। इसे पालकों ने भी समझा और इसका उग्र विरोध करने लगेा यह विरोध इतना अधिक तीव्र हुआ कि पेप्‍सी और कोला की कंपनियों को अपनी इज्‍जत बचाने के लिए उन्‍होंने निर्णय लिया कि अब स्‍कूलों में इन पेय पदार्थों की वेडिंग मशीन में फलों के ताजा रस होंगेा अमेरिकन बिवरेज एसोसिएशन की नई नीति के अनुसार अब स्‍कूलों में ऐसे पेय पदार्थ नहीं बिकेंगे, जिनमें अधिक से अधिक कैलोरी होंा कैलोरी वाले साफ्ट ड्रिंक, जिसमें केवल 5 प्रतिशत या उससे कम फलों का रस हो, ऐसे जूस की बिक्री नहीं की जाएगीा अब ऐसे पदार्थों की ही बिक्री होगी, जिससे बच्‍चों को अच्‍छा पोषण मिलेा इसमें 100 प्रतिशत फलों का रस ही होगा। एक अमेरिकी नागरिक एक वर्ष में करीब 600 बोतलें कोला ड्रिंक्‍स पी जाता है। इसमें बालकों की संख्‍या अधिक है। इसी ड्रिंक्‍स के कारण बच्‍चों में अनुपात से अधिक मोटापा देखा जा रहा है। इस मोटापे का दोष इन बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों पर लगे, इससे पहले उन्‍होंने यह निर्णय लेकर अपनी साख बचा ली है। लेकिन भारत में इस तरह का कोई कदम उठाया जाएगा, इसमें शक है। मल्‍टीनेशनल कंपनियों के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं। उनके पास अमेरिकियों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मापदंड हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अमेरिका की स्‍कूलों में भले ही कोकाकोला और पेप्‍सी पर प्रतिबंध लगा दिया गया हो, पर भारत में कहीं भी इसकी गूंज तक सुनाई नहीं दी। राजनीतिक गलियारों में भी इसकी चर्चा नहीं है। हमारे देश की स्‍कूलों के सामने कई प्रतिबंधित चीजों की बिक्री होती है। देश में गुटखे पर प्रतिबंध के बावजूद वह सभी स्‍थानों पर खुले आम बिक रहा है। इसीलिए बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां भारत के लिए अलग से कानून बनाती हैं। ये कंपनियां भारतीय स्‍कूलों से पेप्‍सी और कोला जैसी घातक चीजों की बिक्री पर रोक लगाने की दिशा में कोई कदम उठाने ही नहीं देंगीा उनके लिए भारत एक प्रयोगशाला है। जहां वे अपने उत्‍पादों का परीक्षण करते हैं। जब बहुराष्‍ट्रीय कंपनी के एक अधिकारी से पूछा गया कि क्‍या अमेरिका के बाद भारतीय स्‍कूलों से भी कोक एवं पेप्‍सी के उत्‍पाद वापस लिए जाएंगे, तो उसने बड़ी बेशर्मी से कहा कि कंपनी ने निर्णय लिया है, वह केवल अमेरिकी स्‍कूलों के लिए ही है। बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां मानती हैं कि भारत के लिए परिस्‍थितियां भिन्‍न हैं। आखिर भारत के लिए परिस्‍थितियां अलग कैसे हो सकती हैं, इस पर कोई ध्‍यान नहीं देताा कोला कंपनी के एक प्रवक्‍ता के अनुसार भारतीय बच्‍चों में अभी मोटापे की बीमारी इतनी अधिक नहीं फैली है कि इसे गंभीर माना जाएा इसका आशय यही है कि ये कंपनियां इस बात का इंतजार कर रही हैं कि भारतीय बच्‍चों को उनके द्रव्‍य पदार्थों का गंभीर असर हो, उसके बाद ही कोई कार्रवाई कर पाएंगेा यह तो सिद्ध हो चुका है कि कोला इतना अधिक खतरनाक है कि उससे टायलेट साफ किया जा सकता है। इसमें जो रसायन मिलाए गए हैं, उससे अभी तो नहीं, पर भविष्‍य में खतरनाक दुष्‍परिणाम सामने आएंगेा भारतीय बाजार इन बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के आगे नतमस्‍तक हैं। इनकी पहुंच राजनीतिक गलियारों तक है। यही कारण है कि अमेरिका में प्रतिबंधित चीजों का हमारे यहां धड़ल्‍ले से खुले आम व्‍यापार हो रहा है। बहुराष्‍ट्रीय कंपनी कोला के एक प्रवक्‍ता के अनुसार भारत में कोला ड्रिंक्‍स की जितनी बिक्री होती है, उसमें से एक प्रतिशत की बिक्री शालाओं में हो पाती है। कोला ड्रिंक्‍स की बिक्री अरबों रुपए की है। भारतीय स्‍कूलों में अभी जो कोला बिक रहा है, उससे भी ये कंपनियां अरबों रुपए कमा रहीं हैं। आखिर वे क्‍यों चाहेंगी कि उनके उत्‍पादों की बिक्री कम हो, वे तो इसकी बिक्री अधिक से अधिक बढ़ाना ही चाहेंगेा अभी भारतीय बच्‍चों पर इसके प्रभाव पर किसी प्रकार का शोध नहीं हुआ है। यदि शोध से कुछ नया निकलता है, तो भारतीय जनमानस सचेत हो जाएगाा संभव है, पालक सड़कों पर उतर आएं, पर ऐसा संभव दिखाई नहीं देताा जिस तरह से मेगी नूडल्‍स के प्रति सरकार ने सचेत होकर सख्‍त कदम उठाए, उसे देखते हुए यदि पेप्‍सी और कोला के उत्‍पादों के खिलाफ भी कदम उठाए, कुछ संभव है। इसके लिए पहले तो पालकों को सचेत होना होगाा पालकों की सतर्कता के कारण ही मुम्‍बई और दिल्‍ली की कई स्‍कूलों में इस तरह से साफ्ट ड्रिंक्‍स पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। नई दिल्‍ली की प्रतिष्‍ठित स्‍प्रिंगडेल्‍स स्‍कूल की प्रिंसीपल ज्‍योति बोस कहती हैं कि हमने चार साल पहले ही इस तरह के प्रेय पदार्थों पर रोक लगा दी है। हमारी स्‍कूल की केंटीन में नीबू पानी और फलों का रस ही मिलता है। बच्‍चों में चर्बी बढ़ने के खतरे को देखते हुए ही हमने पेप्‍सी और कोला के उत्‍पादों पर प्रतिबंध लगा दिया है। नई मुम्‍बई के वाशी के फादर अग्‍नेल मल्‍टीपरपज स्‍कूल ने एक वर्ष पहले ही इस तरह के द्रव्‍य पदार्थों पर रोक लगाई है। स्‍कूल के प्राचार्य फादर अल्‍मिडा कहते हैं कि शहरों में बच्‍चों के बढ़ते वजन और उनका मोटापा हमारे लिए चिंता का कारण है। इसलिए स्‍कूलों पर इस तरह के द्रव्‍यों पर रोक लगानी ही चाहिएा अमेरिका में इस समय जिस तरह से पेप्‍सी और कोला के उत्‍पादों को लेकर आंदोलन चल रहे हैं, उससे हमें सीख लेनी चाहिएा बात कुछ भी हो, पर सच तो यह है कि आज हमारे देश में बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा है, जिसे नहीं होना चाहिएा सुप्रीम कोर्ट का सख्‍त आदेश है कि सड़कों के किनारे लगने वाले ठेलों पर जो खाद्य सामग्री बेची जाती है, उस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगना चाहिएा पर ऐसा नहीं हो पाताा मिलावट करने वाले पर सख्‍त कार्रवाई होनी चाहिए,पर अभी तक किसी मिलावटखोर को सख्‍त सजा हुई हो, ऐसा सुनने में नहीं आयाा हर साल लाखों रुपए का नकली मावा पकड़ा जाता है, पर कभी किसी की धरपकड़ हुई हो, उस पर मुकदमा चला हो, ऐसे किस्‍से कम ही सुनने को मिलते हैं। आज हमारे देश में लोगों मे कानून का खौफ कम होता जा रहा है, इसलिए अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। मीडिया रोज ही इस तरह से मामलों को सामने ला रहा है, फिर भी अपराधों की संख्‍या में किसी प्रकार की कमी दिखाई नहीं देती। डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

छद्म आतंकवाद का खतरा


हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

महँगाई की मार


आज दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा आलेख

सोमवार, 3 अगस्त 2015

फाँसी देने के नियम

अजा हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख

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