डॉ. महेश परिमल
विश्व की शक्तिशाली आईटी कंपनी में भारतीयों के दबदबे से आत्ममंथन का अवसर
बनना चाहिए। जो हमेशा अपने वेतन पर ध्यान रखते हैं, वे सुंदर पिचाई से यह
सबक ले सकते हैं कि वेतन ही सब-कुछ नहीं होता, इसके साथ यह भी आवश्यक है कि
आप सतत अपडेट रहें और रोज कुछ नया करते रहें। आपके मस्तिष्क में हमेशा
नए-नए विचार आते रहें, प्रतिभा को वेतन का मापदंड न मानें। सुंदर पिचाई ने
यदि वेतन को ही आगे रखा होता, तो वे आज इस ऊंचाई पर नहीं होते। पिछले दिनों
जैसे ही गूगल ने यह घाेषणा की कि सुंदर पिचाई अब कंपनी के सीईओ होंगे, तो
पूरे भारत देश में खुशी की लहर दौड़ गई। इसी के साथ सोशल साइट पर यह चलने
लगा कि दुनिया की किन-किन श्रेष्ठ कंपनिनयों में भारतीयों का दबदबा है।
विश्व की सबसे बड़ी आईटी कंपनी के सीईओ सुंदर केवल 43 साल के हैं, इतनी छोटी
उम्र में इतनी बड़ी उपलब्धि बहुत कम हो हासिल होती है। अाज सुंदर ने जो कुछ
हासिल किया है, वह उन्हें ऐसे ही प्राप्त नहीं हुआ है, उसके लिए उन्होंने
जो श्रम किया है, वह भी पूरी खामोशी और शिद्दत से, वही उनकी श्रेष्ठता है,
जो उन्हें औरों से कुछ अलग करती है। संुदर पिचाई ने आईआईटी खडगपुर से
मेटलर्जी इंजीनियर होने के बाद अमेरिका चले गए, वहीं उन्हें विश्वविख्यात
व्हार्टन बिजनेस स्कूल से एमबीए किया। पिछले दस वर्षों से वे गूगल के साथ
जुड़े हैं।
जब सुंदर पिचाई ने गूगल में अपना काम शुरू किया, तब उन्हें न्यू जेनरेशन
कंज्यूमर प्रोडक्स का काम सौंपा गया। यहां उन्होंने आगामी 20 वर्ष तक
ग्राहकों की बदलती मानसिकता और आवश्यकताओं का गहन अध्ययन किया। इसके बाद
उन्होंने एक ऐसा रोड मेप तैयार किया, जिसे आज तक गूगल उसका अनुशरण करता है।
पिचाई द्वारा तैयार किया गया रोड मेप गूगल ने सबसे पहले जी मेल एप्लीकेशन
पर काम किया। इसकी पूरी जिम्मेदारी पिचाई की टीम को दे दी। इसमें सफल होने
के बाद मेप का एप्लीकेशन भी पिचाई ने सफलतापूर्वक तैयार किया। पिचाई ने जब
गूगल के सभी प्रोडक्ट के लिए एंड्रोइड एप्लीकेशन से मोबाइल की पूरी दुनिया
ही बदल दी, तब उनकी लगातार सफलता को पूरे विश्व ने सराहा। पिचाई की सफलता
के क्रम में गूगल का वेब ब्राउजर क्रोम को भी शामिल किया जा सकता है। दस
साल में पांच बड़ी सफलता की वजह से ही वे गूगल के सीईओ पद तक पहुंच पाए। आज
आईटी के क्षेत्र में पूरे विश्व में गूगल के सर्जेई ब्रिन, लेरी पेज, एपल
के टीम के कूक के बाद सुंदर पिचाई का नाम अपनी अनोखी सिद्धि के लिए लिया जा
रहा है। सुंदर गूगल जैसी बड़ी कंपनी के सीईओ तो हैं ही, इसके अलावा ऐसी ही
दूसरी आईटी ज्वाइंट माइक्रोसाप्ट के सीईओ के पद पर संुदर के ही राज्य
तमिलनाड़ु के पड़ोसी कर्नाटक के सत्या नाडेला भी हैं। तमिलनाड़ु की इंदिरा नूई
को कैसे भुला जा सकता है। आज वे पेप्सी की सीईओ हैं। सुंदर की सीईओ के पद
पर नियुक्ति हुई, इसके पहले जिनके साथ उनकी प्रतिस्पर्धा थी, वे निकेश
अरोरा भी भारतीय हैं। गूगल से लंबे समय तक जुड़ेे रहने के बाद पिछले साल ही
उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। अब वे जापान की विख्यात साफ्टबैंक में वाइस
चेयरमेन हैं। प्रसिद्ध सिटी बैंक के सीईओ रह चुके विक्रम पंडित भी एक
जाना-पहचाना नाम है।
भारतीय मूल के महानुभाव अपने तेजस्वी मस्तिष्क के कारण जब ऊंचे पद पर पहुंच
जाते हैं, तो हमें गर्व होता है। यह स्वाभाविक भी है। अमेरिका प्रतिभा को
अवसर देता है। हमारे यहां हालात एकदम ही अलग हैं। यहां प्रतिभा नहीं, बल्कि
जुगाड़ और संबंध काम आते हैं। हमारे यहां की बहुत सी विभूतियां ऐसी हैं,
जिन्हें हमने तो नकार दिया, पर उन्होंने अपनी बुद्धि का लोहा दूसरे देशों
में मनवा लिया। इस पर ही एक शोध हो सकता है कि वे कौन सी परिस्थितियां थी,
जिसने हमारे देश के महान लोगों को देश छोड़ने के लिए विवश किया। यदि उन्हें
हमारे ही देश में अवसर मिले होते, तो हमारे देश का नाम बहुत ऊंचा होता। यह
विचारणीय है कि जो देश छोड़कर चले गए, उनके साथ किस तरह का व्यवहार किया
गया। आखिर क्यों उन्हें देश छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। आज भी हमारे देश
में व्यापार और नौकरियों के बेहतर अवसर हैं, उसके बाद भी प्रतिभाएं देश से
बाहर ही जा रही हैं। 90 के दशक में जींस की खोज करने वाले डॉ. हरगोविंद
खुराना, के. एस. चंद्रशेखर को देश छोड़ने के बाद नोबल पुरस्कार से नवाजा
गया। आज भी हालात सामान्य नहीं हुए हैं। इसकी वजह हमारी झूठी खूनपरस्ती है।
मूल रूप से हम अपने आराध्य में किसी हीरो, मॉडल, मूर्ति में देखते हैं। हम
भूल जाते हैं कि असली हीरो तो खुराना, सत्या नाडेला, भरारा, या रामकृष्ण
ही हैं। इन्हें गुमाने के बाद हम यह अहसास ही नहीं कर पाते कि अभी भी हमारे
बीच बहुत से ऐसे लोग हैं, जो प्रतिभाशाली हैं, पर उनकी प्रतिभा हमें दिखाई
नहीं दे रही है। हमारी स्थिति शुतुरमुर्ग की तरह हो गई है। प्रतिभा को
नहीं देख पाते, साथ ही उन अवसरों को भी देख नहीं पाते, जो हमें हमारे देश
से नहीं, बल्कि दूसरे देशों में मिलते हैं। हमारी व्यवस्था, काम करने की
पद्धति, शिक्षा के अवसर, शिक्षा प्राप्ति के बाद काम के असवर, काम मिलने के
बाद अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए पारदर्शिता आिद मामलों में हम काफी
पीछे हैं। कल्पना करें कि यदि आज डॉ. खुराना, सत्या नाडेला, संुदर पिचाई,
इंदिरा नूई, निकेश भारत में ही रहते, तो उनकी क्या स्थिति होती? अधिक से
अधिक इंफोसिस, विप्रो, टीसीएस जैसी कंपनियों में ऊंचे वेतन प्राप्त करने
वाले साफ्टवेयर डेवलवपर से विशेष कुछ बन सकते क्या?
एनडीए सरकार एम्स, आईआईएम और आईआईटी जैसी उच्च कोटि की शिक्षण संस्थाओं को
शुरू कर रही है, तब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि सुंदर पिचाई आईआईटी
खड़कपुर पहुंचे उसके पहले वे साधारण सरकारी स्कूल में ही पढ़ते थे और
माइक्रोसाफ्ट के सत्या नाडेला तो मध्यम स्तर के निजी विश्वविद्यालय के
छात्र थे। मानव संसाधन विकास के लिए हम वैश्विक नियमों को सीख रहे हैं, पर
बरसों पुरानी मानसिकता को बदलना नहीं चाहते। अब भी समय है कि ऐसे
प्रतिभाशाली लोगों को हम अपने ही देश में ऐसे अवसर दें, ताकि उनकी प्रतिभा
से हमारा देश ही आलोकित हो। दूसरे देशों से यह सीखें कि वे किस तरह से बिना
भेदभाव के प्रतिभाओं का न केवल सम्मान करते हैं, बल्कि उन्हें ऊंचा पद
देने में भी पीछे नहीं रहते। देखा जाए तो सुंदर पिचाई और सत्या नाडेला
हमारे लिए मंथन का विषय हैं। इन प्रतिभा को हमने नहीं, किसी दूसरे देश ने
पहचाना। प्रतिभा पहचानने की हमारा चश्मा ही खराब है। हमें वही दिखता है, जो
हमें दिखाया जाता है। यह दृश्य सच से काफी दूर होता है। हमें चाहिए
सिफारिश वाला प्रतिभावान, जुगाड़ से बनाया गया प्रतिभाशाली या फिर किसी
मंत्री का पुत्र या फिर उसका रिश्तेदार। आज भी देश के उच्च पदों पर बहुत से
नाकारा लोग बैठे हैं, जिन्हें हम नहीं पहचान रहे हैं, यदि इन्हें ही पहचान
लिया जाए, तो ही देश के प्रतिभावानों को सामने आने में देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल
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