डॉ. महेश परिमल
इस बार हमेशा सचेत रहने वाली गुजरात सरकार ऊंघती पकड़ी गई है। इससे सरकार को यह सबक लेना होगा कि राजनीति बंद कमरों में नहीं, बल्कि खुले मैदानों में होती है। अब तक सरकार स्वयं को बहुत ही सयानी समझ रही थी। अब उसे यह अहसास हो गया है कि उससे कहीं कोई चूक अवश्य हो गई है। अभी तो चूक का पता नहीं चल पाएगा, पर सरकार यदि शांति से विचार करे, तो उसे यह समझ में आ जाएगा कि जो नेता दस लाख से अधिक की भीड़ जमा कर सकता है, उसमें कहीं न कहीं तो नेतृत्व क्षमता होगी ही। उसकी बातें सुन ली जाती, तो शायद आज यह हालात नहीं होते। हार्दिक पटेल की उपेक्षा कर सरकार स्वयं ही उपेक्षित हो गई है। अब हालत यह है कि सांसद-विधायक अपनी प्रजा के पास जाने के लिए छटपटा रहे हैं। प्रधानमंत्री की शांति की अपील कोई काम की नहीं रही। पुलिस की बर्बरता सामने आ गई है। सरकार और पुलिस दोनों को ही संयम की आवश्यकता थी, पर दोनों ही इसमें विफल रहे।
गुजरात में आरक्षण को लेकर चल रहे पाटीदारों के आंदोलन से यह बात तय हो गई है कि अब समझ ठंडे कमरे में गर्म बहस का नहीं रहा। अब तो खुले मैदान की राजनीति की जानी चाहिए। हार्दिक पटेल ने मैदान की राजनीति की है। आंदोलन के पहले चरण में उसकी विजय हुई है और सरकार ऊंघती हुई पकड़ी गई है। हार्दिक पटेल को अनदेखा करना महंगा पड़ा। भाजपा सरकार के पास मैदान में राजनीति करने का अनुभव नहीं है। वह ठंडे कमरों में गर्म बहस करती रही है। इस आंदोलन में सरकारी तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। पुलिस विभाग भी आंदोलन का सही आकलन करने में विफल रही। 25 की रैली को देखते हुए गलियों-चौराहों में पुलिस की चाक-चौबंद व्यवस्था थी। पुलिस की तैनाती ही काफी नहीं होती, विवेकशील पुलिस की तैनाती होनी चाहिए थी, जो नहीं हो पाई। यदि इस दौरान पुलिस ने दिमाग से काम लिया होता, तो शायद हालात इतने बेकाबू नहीं होते। दोपहर तीन बजे से ही यह पता चल गया था कि हालात बेकाबू हो सकते हैं। दोपहर बाद दुकानें बंद कराने वाली भीड़ के सामने पुलिस चुपचाप बैठी तमाशा देखती रही। आश्रम रोड पर भी पुलिस मूकदर्शक बनी बैठी रही। पुलिस को यह आदेश था कि सभी आंदोलनकारियों को शांति से आगे बढ़ने देना चाहिए। पर आगे चलकर संयम का अभाव पुलिस और पाटीदारों दोनों में ही दिखाई दिया। इसमें नेताओं को भी शामिल किया जा सकता है।
पूरे गुजरात में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जिन पाटीदारों का नाम सम्मान के साथ लिया जाता रहा हो, वही पाटीदार समाज आज एक विवादास्पद मामले को लेकर आंदोलन कर रहा है, इससे उनकी छवि खराब हुई है। ऐसा कोई भी देश नहीं बचा, जहां इन पाटीदारों ने ख्याति का झंडा न गाड़ा हो। 25 की शाम को हुए दंगे ने यह साबित कर दिया कि जो पालता है, वही बरबाद भी करता है। गुजरात का ऐसा कोई गांव नहीं है, जहां कोई पाटीदार न हो। भाजपा जिनके बल पर आगे बढ़ी है, उन्हीं की उपेक्षा कर उनकी मांगें न सुनकर, उन्हें अनदेखा कर जो गलती की है, उसका खामियाजा उसे भुगतना ही होगा। इस आंदोलन से एक बात विशेष रूप से सामने आई है, वह यह कि दोनों ही दंभ के शिकार हैं। सरकार यह मानती है कि आरक्षण न देकर हम पाटीदारों को मना लेंगे और पाटीदार यह मानते हैं कि आखिर सरकार हमारे ही दम पर चल रही है। इसे तो हम मनवाकर ही रहेंगे। इस दंभ ने ही आज गुजरात की हालत खराब कर दी है। इसमें सबसे अधिक पीसे गए हैं, रोज कमाने-खाने वाले। पाटीदार एक सम्पन्न जाति है, उनके पास अथाह सम्पत्ति है। यही नहीं उनके पास आत्मबल की कतई कमी नहीं है। अगर वे वास्तव में आरक्षण चाहते हैं, तो अपने साथियों को ही ऊपर उठाने का काम करें, तो सरकार भी उन पर नाज करेगी। आज वे ऐसा कर भी रहे हैं, पता नहीं आरक्षण पाकर वे कितने बाहुबलि हो जाएंगे।
ये पाटीदार गुजरात के गौरव हैं। गुजरात में अपना उद्योग लगाने के लिए सरकार इनके लिए लाल जाजम बिछाती है। इन्हें तमाम सुविधाएं देने का वादा करती है। तब सब कुछ अच्छा लगता है। पर इन्हें आरक्षण देने के नाम पर सरकार इनसे बात ही नहीं करना चाहती। आखिर यह सरकार की दोमुंही नीति नहीं, तो और क्या है? अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन शुरू किया था, तब कई मंत्री उनसे मिलने जाते थे, पर जब पाटीदारों ने अपना आंदोलन शुरू किया, तो किसी ने उनसे बातचीत की पहल नहीं की, आखिर क्यों? क्या गुजरात सरकार के मंत्रियों को अपने केबिन में बैठे रहना ही पसंद है। यदि ऐसा है, तो वे कब सीख पाएंगे, जमीन की राजनीति? गुजरात ने पूरे 13 वर्षों बाद कर्फ्यू के दर्शन किए हैं। ये सरकार की ढीली नीति का परिणाम है। परिस्थितियों पर तुरंत काबू पाने में अक्षमता का जीता-जागता प्रमाण है। इन्हीं हालात ने आज गुजरात को अशांत कर दिया है। सरकार भले ही हार्दिक पटेल को दुश्मन नम्बर वन माने, पर उसे अनदेखा कर बहुत बड़ी गलती की है। सरकार उससे बात करने को ही तैयार नहीं है। पाटीदारों के कई आवेदन आए और रद्दी की टोकरी में चले गए। सरकार के पास उन आवेदनों को पढ़ने का समय ही नहीं है। सरकार ने यह नहीं सोचा कि जो इंसान अमदावाद में दस लाख और सूरत में सात लाख लोगों को इकट्ठा कर सकता है, उसमें कुछ तो दम होगा। क्या उनके मंत्रिमंडल में ऐसा कोई नेता है, जो इतनी भीड़ इकट्ठी कर सके। इस स्थिति में हार्दिक पटेल की उपेक्षा करना उचित होगा? सरकार यही नहीं समझ पाई। यही चूक उसके लिए गले की फांस बन गई।
सरकार को गुजरात के युवाओं की ताकत को समझने की आवश्यकता है। अगर सरकार प्रजा के साथ नहीं चल सकती, तो फिर उसका काम ही क्या है? जिस प्रजा ने सरकार को सत्ता सौंपी, यदि उसकी बात न मानी जाए, तो प्रजा विरोध तो करेगी ही। बिहार के चुनाव सामने हैं। प्रधानमंत्री अपने भाषण में गुजरात मॉडल जिक्र करते हैं, ऐसे में अब यदि वे गुजरात मॉडल की बात करें, तो कौन उनकी बात मानेगा? सरकार का पुलिस पर नियंत्रण नहीं रहा। यदि कहीं पुलिस शराब के अड्डे बंद करने जाती है, तो महज कुछ लोग ही उन्हें खदेड़ देते हैं, ऐसे में पुलिस की लाचारगी सामने आती है। वही पुलिस आम जनता के सामने इतनी अधिक हिंसक हो जाती है कि मानो देश में तानाशाही चल रही हो। तस्वीरों में पुलिस जिस तरीके से महिलाओं पर डंडे फटकारती दिखाई दे रही है, उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसका मानवीयता से कोई वास्ता नहीं है। उनका गुस्सा उनके चेहरे पर ही दिखाई देता है। अब यह समझ नहीं आता कि गुस्सा आम आदमी के प्रति है या सरकार के प्रति। अब यह भी माना जाने लगा कि एक सोची-समझी साजिश के तहत गुजरात को बदनाम करने की योजना तैयार की गई है। ताकि बिहार चुनाव पर भाजपा किसी भी तरह से जीत न पाए। यह भी कहा जा रहा है कि हार्दिक पटेल केजरीवाल के इशारे पर चल रहे हैं। पिछले दो महीनों से वह अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री के सम्पर्क में हैं। पर जो केजरीवाल अपनी दिल्ली ही नहीं संभाल पा रहे हों, वे किसी को क्या सुझाव दे सकते हैं। यह समझ से परे है। हां दूसरे आरोप में कुछ दम है।
सभी जानते हैं कि बिहार में बिना जाति की गोटी बिठाए चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए गुजरात के माध्यम से प्रधानमंत्री की छवि को खराब किया जा सके। ताकि आम जनता में यह संदेश जाए कि जिस सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री अपने ही राज्य में आरक्षण आंदोलन को दबा नहीं सकते, वे भला देश को कैसे और किस तरह चला पाएंगे? कुछ भी हो, इतना तो तय है कि गुजरात में पाटीदार आंदोलन को लेकर यदि सरकार कुछ सबक ले सके, तो बेहतर, अन्यथा आरक्षण की यह आग पूरे देश में फैलते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल
इस बार हमेशा सचेत रहने वाली गुजरात सरकार ऊंघती पकड़ी गई है। इससे सरकार को यह सबक लेना होगा कि राजनीति बंद कमरों में नहीं, बल्कि खुले मैदानों में होती है। अब तक सरकार स्वयं को बहुत ही सयानी समझ रही थी। अब उसे यह अहसास हो गया है कि उससे कहीं कोई चूक अवश्य हो गई है। अभी तो चूक का पता नहीं चल पाएगा, पर सरकार यदि शांति से विचार करे, तो उसे यह समझ में आ जाएगा कि जो नेता दस लाख से अधिक की भीड़ जमा कर सकता है, उसमें कहीं न कहीं तो नेतृत्व क्षमता होगी ही। उसकी बातें सुन ली जाती, तो शायद आज यह हालात नहीं होते। हार्दिक पटेल की उपेक्षा कर सरकार स्वयं ही उपेक्षित हो गई है। अब हालत यह है कि सांसद-विधायक अपनी प्रजा के पास जाने के लिए छटपटा रहे हैं। प्रधानमंत्री की शांति की अपील कोई काम की नहीं रही। पुलिस की बर्बरता सामने आ गई है। सरकार और पुलिस दोनों को ही संयम की आवश्यकता थी, पर दोनों ही इसमें विफल रहे।
गुजरात में आरक्षण को लेकर चल रहे पाटीदारों के आंदोलन से यह बात तय हो गई है कि अब समझ ठंडे कमरे में गर्म बहस का नहीं रहा। अब तो खुले मैदान की राजनीति की जानी चाहिए। हार्दिक पटेल ने मैदान की राजनीति की है। आंदोलन के पहले चरण में उसकी विजय हुई है और सरकार ऊंघती हुई पकड़ी गई है। हार्दिक पटेल को अनदेखा करना महंगा पड़ा। भाजपा सरकार के पास मैदान में राजनीति करने का अनुभव नहीं है। वह ठंडे कमरों में गर्म बहस करती रही है। इस आंदोलन में सरकारी तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। पुलिस विभाग भी आंदोलन का सही आकलन करने में विफल रही। 25 की रैली को देखते हुए गलियों-चौराहों में पुलिस की चाक-चौबंद व्यवस्था थी। पुलिस की तैनाती ही काफी नहीं होती, विवेकशील पुलिस की तैनाती होनी चाहिए थी, जो नहीं हो पाई। यदि इस दौरान पुलिस ने दिमाग से काम लिया होता, तो शायद हालात इतने बेकाबू नहीं होते। दोपहर तीन बजे से ही यह पता चल गया था कि हालात बेकाबू हो सकते हैं। दोपहर बाद दुकानें बंद कराने वाली भीड़ के सामने पुलिस चुपचाप बैठी तमाशा देखती रही। आश्रम रोड पर भी पुलिस मूकदर्शक बनी बैठी रही। पुलिस को यह आदेश था कि सभी आंदोलनकारियों को शांति से आगे बढ़ने देना चाहिए। पर आगे चलकर संयम का अभाव पुलिस और पाटीदारों दोनों में ही दिखाई दिया। इसमें नेताओं को भी शामिल किया जा सकता है।
पूरे गुजरात में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जिन पाटीदारों का नाम सम्मान के साथ लिया जाता रहा हो, वही पाटीदार समाज आज एक विवादास्पद मामले को लेकर आंदोलन कर रहा है, इससे उनकी छवि खराब हुई है। ऐसा कोई भी देश नहीं बचा, जहां इन पाटीदारों ने ख्याति का झंडा न गाड़ा हो। 25 की शाम को हुए दंगे ने यह साबित कर दिया कि जो पालता है, वही बरबाद भी करता है। गुजरात का ऐसा कोई गांव नहीं है, जहां कोई पाटीदार न हो। भाजपा जिनके बल पर आगे बढ़ी है, उन्हीं की उपेक्षा कर उनकी मांगें न सुनकर, उन्हें अनदेखा कर जो गलती की है, उसका खामियाजा उसे भुगतना ही होगा। इस आंदोलन से एक बात विशेष रूप से सामने आई है, वह यह कि दोनों ही दंभ के शिकार हैं। सरकार यह मानती है कि आरक्षण न देकर हम पाटीदारों को मना लेंगे और पाटीदार यह मानते हैं कि आखिर सरकार हमारे ही दम पर चल रही है। इसे तो हम मनवाकर ही रहेंगे। इस दंभ ने ही आज गुजरात की हालत खराब कर दी है। इसमें सबसे अधिक पीसे गए हैं, रोज कमाने-खाने वाले। पाटीदार एक सम्पन्न जाति है, उनके पास अथाह सम्पत्ति है। यही नहीं उनके पास आत्मबल की कतई कमी नहीं है। अगर वे वास्तव में आरक्षण चाहते हैं, तो अपने साथियों को ही ऊपर उठाने का काम करें, तो सरकार भी उन पर नाज करेगी। आज वे ऐसा कर भी रहे हैं, पता नहीं आरक्षण पाकर वे कितने बाहुबलि हो जाएंगे।
ये पाटीदार गुजरात के गौरव हैं। गुजरात में अपना उद्योग लगाने के लिए सरकार इनके लिए लाल जाजम बिछाती है। इन्हें तमाम सुविधाएं देने का वादा करती है। तब सब कुछ अच्छा लगता है। पर इन्हें आरक्षण देने के नाम पर सरकार इनसे बात ही नहीं करना चाहती। आखिर यह सरकार की दोमुंही नीति नहीं, तो और क्या है? अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन शुरू किया था, तब कई मंत्री उनसे मिलने जाते थे, पर जब पाटीदारों ने अपना आंदोलन शुरू किया, तो किसी ने उनसे बातचीत की पहल नहीं की, आखिर क्यों? क्या गुजरात सरकार के मंत्रियों को अपने केबिन में बैठे रहना ही पसंद है। यदि ऐसा है, तो वे कब सीख पाएंगे, जमीन की राजनीति? गुजरात ने पूरे 13 वर्षों बाद कर्फ्यू के दर्शन किए हैं। ये सरकार की ढीली नीति का परिणाम है। परिस्थितियों पर तुरंत काबू पाने में अक्षमता का जीता-जागता प्रमाण है। इन्हीं हालात ने आज गुजरात को अशांत कर दिया है। सरकार भले ही हार्दिक पटेल को दुश्मन नम्बर वन माने, पर उसे अनदेखा कर बहुत बड़ी गलती की है। सरकार उससे बात करने को ही तैयार नहीं है। पाटीदारों के कई आवेदन आए और रद्दी की टोकरी में चले गए। सरकार के पास उन आवेदनों को पढ़ने का समय ही नहीं है। सरकार ने यह नहीं सोचा कि जो इंसान अमदावाद में दस लाख और सूरत में सात लाख लोगों को इकट्ठा कर सकता है, उसमें कुछ तो दम होगा। क्या उनके मंत्रिमंडल में ऐसा कोई नेता है, जो इतनी भीड़ इकट्ठी कर सके। इस स्थिति में हार्दिक पटेल की उपेक्षा करना उचित होगा? सरकार यही नहीं समझ पाई। यही चूक उसके लिए गले की फांस बन गई।
सरकार को गुजरात के युवाओं की ताकत को समझने की आवश्यकता है। अगर सरकार प्रजा के साथ नहीं चल सकती, तो फिर उसका काम ही क्या है? जिस प्रजा ने सरकार को सत्ता सौंपी, यदि उसकी बात न मानी जाए, तो प्रजा विरोध तो करेगी ही। बिहार के चुनाव सामने हैं। प्रधानमंत्री अपने भाषण में गुजरात मॉडल जिक्र करते हैं, ऐसे में अब यदि वे गुजरात मॉडल की बात करें, तो कौन उनकी बात मानेगा? सरकार का पुलिस पर नियंत्रण नहीं रहा। यदि कहीं पुलिस शराब के अड्डे बंद करने जाती है, तो महज कुछ लोग ही उन्हें खदेड़ देते हैं, ऐसे में पुलिस की लाचारगी सामने आती है। वही पुलिस आम जनता के सामने इतनी अधिक हिंसक हो जाती है कि मानो देश में तानाशाही चल रही हो। तस्वीरों में पुलिस जिस तरीके से महिलाओं पर डंडे फटकारती दिखाई दे रही है, उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसका मानवीयता से कोई वास्ता नहीं है। उनका गुस्सा उनके चेहरे पर ही दिखाई देता है। अब यह समझ नहीं आता कि गुस्सा आम आदमी के प्रति है या सरकार के प्रति। अब यह भी माना जाने लगा कि एक सोची-समझी साजिश के तहत गुजरात को बदनाम करने की योजना तैयार की गई है। ताकि बिहार चुनाव पर भाजपा किसी भी तरह से जीत न पाए। यह भी कहा जा रहा है कि हार्दिक पटेल केजरीवाल के इशारे पर चल रहे हैं। पिछले दो महीनों से वह अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री के सम्पर्क में हैं। पर जो केजरीवाल अपनी दिल्ली ही नहीं संभाल पा रहे हों, वे किसी को क्या सुझाव दे सकते हैं। यह समझ से परे है। हां दूसरे आरोप में कुछ दम है।
सभी जानते हैं कि बिहार में बिना जाति की गोटी बिठाए चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए गुजरात के माध्यम से प्रधानमंत्री की छवि को खराब किया जा सके। ताकि आम जनता में यह संदेश जाए कि जिस सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री अपने ही राज्य में आरक्षण आंदोलन को दबा नहीं सकते, वे भला देश को कैसे और किस तरह चला पाएंगे? कुछ भी हो, इतना तो तय है कि गुजरात में पाटीदार आंदोलन को लेकर यदि सरकार कुछ सबक ले सके, तो बेहतर, अन्यथा आरक्षण की यह आग पूरे देश में फैलते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल
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