डॉ. महेश परिमल
भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। इस बार यह कई कारणों से चर्चा में है। पहला तो इसमें सेलिब्रिटी का समावेश। दूसरा कई बड़े साहित्यकारों की उपेक्षा। इसके अलावा उसमें प्रवेश के लिए पास सिस्टम का होना। इन तीन कारणों से हिंदी सम्मेलन आम आदमी से दूर हो गया है। यही आम आदमी अपनी अभिव्यक्ति के लिए रोज हिंदी का प्रयोग करता है। मीडिया के लिए यह आयोजन अपनी टीआरपी बढ़ाने का अच्छा साधन बन पड़ा है। आयोजन स्थल के बाहर कई टीवी-रेडियो पत्रकार लोगों से इस आयोजन पर उनके विचार जानते रहते हैं। तरह-तरह के लोग अपने विभिन्न विचारों से लोगों को अवगत करा रहे थे। कुछ नाखुश भी थे। कुछ ने ऐसे आयोेजन को बार-बार करने का अाग्रह भी किया। पर एक बात यह उभर कर आई कि इतने बड़े आयोजन में हिंदी कहां है? वह भी भोपाल जैसे शहर में, जहां आम बोलचाल की भाषा हिंदी ही है। यदि यही कार्यक्रम दक्षिण भारत में होता, तो हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा मिलता। हिंदी के लिए चिंता हिंदी प्रदेश से कहीं अधिक अन्य प्रदेशों में होनी चाहिए। जहां हिंदी फिल्में तो बड़े चाव से देखी जाती हैं, परजानते हुए वे हिंदी बोलना पसंद नहीं करते। हिंदी के विद्वानों को इस स्थिति पर गहराई से िवचार करना चाहिए।
जापान से भोपाल आए एक हिंदी प्रेमी रेडियो पर कह रहे थे कि हिंदी को विश्व भाषा बनाने के पहले यदि इसे देश की भाषा बनाई जाए, तो ही बेहतर होगा। उनका यह कहना कतई गलत नहीं है। आज हिंदी अपने ही देश में दुत्कारी जाती है। हिंदी को मान-सम्मान मिले, इस दिशा में विदेशों में अथक प्रयास हो रहे हैं, पर अपने ही देश में हिंदी असुरक्षित है। वह सिसक रही है, अपनी ही हालत पर। हिंदी-अंग्रेजी शब्दों को मिलाकर आज जो खिचड़ी बोली जा रही है, वह उसका सही रूप प्रस्तुत करने में पूरी तरह से असमर्थ है। भारतीय हिंदी को अपनी मां कहते नहीं अघाते, पर आज वे ही दूसरे की मां की सेवा करने में लगे हैं। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में भारत की दूसरी भाषाओं के शब्दों को हिंदी में मिलाने की बात कहते हैं, पर हिंदी में कई ऐसे शब्द हैं, जो अपनी बात कहने में पूरी तरह से सक्षम हैं, उसके बाद भी उसके बजाए हम स्वयं अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। आज अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाला बच्चा यदि अंग्रेजी में कमजोर है, तो उसके लिए ट्यूशन की व्यवस्था कर दी जाती है, पर हिंदी में कमजोर होने पर इसकी चिंता नहीं की जाती। यह हमारी गुलामी मानसिकता का प्रतीक है। बच्चा अंग्रेजी में बात करे, तो हमें गर्व अनुभव होता है। पर उसके सबके सामने हिंदी में बोलने पर हम शर्मिंदगी महसूस होती है। आखिर इस स्थिति को क्या कहा जाए?
दरअसल बात यह है कि हमने अभी तक हिंदी को दिल से नहीं स्वीकारा। हम भले ही हिंदी के लिए कितनी भी वकालत कर ले, पर बच्चे को जब भी पढ़ाने का अवसर आएगा, तो उसे अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। भोपाल में आयोजित इस हिंदी महाकुंभ में शामिल होने वाले कितने लोग ऐसे हैं, जिनके बच्चे हिंदी माध्यम शाला में अध्ययन करते होंगे? सभी का यही तर्क होगा कि बिना अंग्रेजी के कुछ भी संभव नहीं है। आज जंगली घासों की तरह गली-मोहल्लों में ऊग आई न जानें कितनी अंग्रेजी माध्यम की स्कूलें खुल गई हैं, जहाँ बच्चा किसी को प्रणाम या नमस्कार नहीं कर सकता। अब तो उनकी पाठयपुस्तकों से राम, मोहन, सीता के नाम गुम होने लगे हैं। भारतीय संस्कृति पर यह हमला हो रहा है और हम खामोश हैं। हिंदी भाषा आज अपने ही घर में अजनबी हो गई है। उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा रहा है। हिंदी अब केवल हिंदी दिवस पर होने वाले आयोजनों में ही अपने सही रूप में दिखती है। सरकारी संरक्षण के अभाव में वह विकृत हो रही है। जिस दिन सरकार दृढ़ता से यह संकल्प ले लें कि हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा होगी, तो उसे राष्ट्रभाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, पर जरूरी यही है कि सरकार की नीयत में खोट न हो।
हमारे देश में ही हिंदी की स्थिति ठीक नहीं है। हमें अंग्रेजी की गुलामी की मानसिकता की जंजीरों को तोड़ना होगा, तभी कुछ बेहतर संभव हो पाएगा। हिंदी की एक शिक्षिका कहती हैं कि आज के बच्चों को हिंदी एक बोझ लगती है। हिंदी का कालखंड आता है, तो बच्चे कुछ परेशान से दिखते हैं। उनका कहना है कि यह भाषा जब हमें कुछ काम ही नहीं आएगी, तो हम इसे क्यों पढ़ें? उन्हें इस मानसिकता में लाने का काम उनके पालक ही कर रहे हैं। हिंदी की उपेक्षा की शुरुआत घर से ही होती है, उसके बाद शालाओं में उपेक्षित होती है। एक साधारण-सा मजदूर भी अपनी संतानों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना चाहता है। घर के सामने हिंदी माध्यम की शाला होने के बाद भी वह दो हजार रुपए की वेन लगवाता है, बच्चे को अंग्रेजी माध्यम की स्कूल में भेजने के लिए। इसके लिए वह अनथक परिश्रम भी करता है। वह जानता है कि हिंदी से न तो उसका और न ही उसके बच्चे का विकास हो पाएगा। आज हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है। इसे दूर करने का काम हमें ही करना है। आज हिंदी भाषी राज्यों की हिंदी माध्यम शालाओं में ताले लटकने के दिन आ गए हैं। लोग अँगरेजी माध्यम की स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने लगे हैं। मोटी फीस ही नहीं, बल्कि चंदे के नाम पर भी भारी-भरकम राशि देने को तैयार है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि मातृभाषा की मृत्यु नागरिकों की अस्मिता की मृत्यु है। हिंदी भाषा मात्र जीवित रहे, यही पर्याप्त नहीं, पर ये और अधिक समृद्ध बने, अधिक से अधिक प्राणवान बने, यह अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी भी भाषा के साथ अन्य प्रदेशों के नागरिकों और उनकी संस्कृति से ओतप्रोत होती है। इमर्सन कहते हैं कि जब कोई भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। ऐसी परिस्थिति में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देना ही उचित है। मातृभाषा से बच्चों में संस्कार का सिंचन होता है।
विदेशों में हिंदी को लेकर किसी तरह का पूर्वग्रह नहीं है। वहां हिंदी बोलने वालों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। मैंने अपने अमेरिका प्रवास में देखा कि यदि आप हिंदी जानते हैं और अंग्रेजी नहीं बोल पा रहे हैं, तो सामने वाले की पूरी कोिशश होगी कि वे आपकी बात को समझें और अपनी बात समझा सकें। मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब मैंने अमेरिका के अपने 20 दिनों के प्रवास में अंग्रेजी से कहीं अधिक हिंदी, गुजराती, बंगला, पंजाबी और छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करना पड़ा। अमेरिकियों को पता चल जाए कि आप अंग्रेजी नहीं जानते, तो वे बहुत ही सरल अंग्रेजी में अपनी बात कहते हैं, उनकी पूरी कोशिश होती है कि वे आपको किसी तरह से भ्रम में नहीं रखना चाहते। वैसे भी पूरे अमेरिका में कहीं भी जाएं, हिंदी बोलने वाले मिल ही जाते हैं। भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के संदर्भ में यही कहना है कि यहां आने वाले हिंदी की िकस तरह से सेवा करेंगे, यह किसी को नहीं पता। यहां आकर वे दर्शनीय स्थलों में घूमने के अधिक मजे ले रहे हैं, जिनके लिए विशेष व्यवस्था की गई है। सम्मेलन में कई ऐसे लोग मिले, जिनका उद्देश्य मेहमान बनकर अधिक से अधिक सरकारी सुविधाओं का उपभोग करना ही है। आयोजन में किस तरह की चर्चा हो रही है, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं। सम्मेलन में कई ऐसे पासधारी दिखाई दिए, जिनका हिंदी से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं है। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश के लिए कई वरिष्ठ साहित्यकारों को पूरी तरह से नकार भी दिया गया। इन्होंने अपनी बात एक पत्रवार्ता में भी रखी। संभव है इन्हें सरकार किसी खेमे का साहित्यकार मानती हो, पर इसका आशय यह तो नहीं हो जाता कि उनके अवदान को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया जाए। आखिर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने कुछ तो योगदान दिया ही होगा?
हिंदी महज अभिव्यक्ति की ही भाषा नहीं है, बल्कि यह संस्कार देती है। विचारों का सिंचन करती है। हिंदी में वह लालित्य है, जो विचारों का सही मार्गदर्शन करती है। हिंदी में वह अपनापन है, जो किसी को भी अपना बना लेता है। अंग्रेजी में हम कितने भी गहरे अर्थों वाले शब्द ले आएँ, पर आंचल शब्द के करीब का भी शब्द वे नहीं ला पाएंगे। आंचल में जो गहराई है, वह ‘एंड आॅफ लेडिस क्लाथ’ में नहीं आ पाएगी। िववाह के तमाम संस्कार केवल वेडिंग में नहीं ही आ सकते। कपाल क्रिया का करीबी शब्द अंग्रेेजी में कभी नहीं मिल सकता। इस तरह से हिदी के हजारों शब्दों की सूची है, जिसका अंग्रेजी शब्द हो ही नहीं सकता। हां उसका सांकेतिक शब्द अवश्य मिल जाएंगे। रही बात दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध की, तो उसके लिए चिंतक के.सी. सारंगमठ का कहना है कि दक्षिण की हिंदी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में हिंदी का विरोध करने वाले कितने लोग हैं, जो हिंदी के प्रशंसक का चोला पहनकर हमारे साथ-साथ हैं।
डॉ. महेश परिमल
भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। इस बार यह कई कारणों से चर्चा में है। पहला तो इसमें सेलिब्रिटी का समावेश। दूसरा कई बड़े साहित्यकारों की उपेक्षा। इसके अलावा उसमें प्रवेश के लिए पास सिस्टम का होना। इन तीन कारणों से हिंदी सम्मेलन आम आदमी से दूर हो गया है। यही आम आदमी अपनी अभिव्यक्ति के लिए रोज हिंदी का प्रयोग करता है। मीडिया के लिए यह आयोजन अपनी टीआरपी बढ़ाने का अच्छा साधन बन पड़ा है। आयोजन स्थल के बाहर कई टीवी-रेडियो पत्रकार लोगों से इस आयोजन पर उनके विचार जानते रहते हैं। तरह-तरह के लोग अपने विभिन्न विचारों से लोगों को अवगत करा रहे थे। कुछ नाखुश भी थे। कुछ ने ऐसे आयोेजन को बार-बार करने का अाग्रह भी किया। पर एक बात यह उभर कर आई कि इतने बड़े आयोजन में हिंदी कहां है? वह भी भोपाल जैसे शहर में, जहां आम बोलचाल की भाषा हिंदी ही है। यदि यही कार्यक्रम दक्षिण भारत में होता, तो हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा मिलता। हिंदी के लिए चिंता हिंदी प्रदेश से कहीं अधिक अन्य प्रदेशों में होनी चाहिए। जहां हिंदी फिल्में तो बड़े चाव से देखी जाती हैं, परजानते हुए वे हिंदी बोलना पसंद नहीं करते। हिंदी के विद्वानों को इस स्थिति पर गहराई से िवचार करना चाहिए।
जापान से भोपाल आए एक हिंदी प्रेमी रेडियो पर कह रहे थे कि हिंदी को विश्व भाषा बनाने के पहले यदि इसे देश की भाषा बनाई जाए, तो ही बेहतर होगा। उनका यह कहना कतई गलत नहीं है। आज हिंदी अपने ही देश में दुत्कारी जाती है। हिंदी को मान-सम्मान मिले, इस दिशा में विदेशों में अथक प्रयास हो रहे हैं, पर अपने ही देश में हिंदी असुरक्षित है। वह सिसक रही है, अपनी ही हालत पर। हिंदी-अंग्रेजी शब्दों को मिलाकर आज जो खिचड़ी बोली जा रही है, वह उसका सही रूप प्रस्तुत करने में पूरी तरह से असमर्थ है। भारतीय हिंदी को अपनी मां कहते नहीं अघाते, पर आज वे ही दूसरे की मां की सेवा करने में लगे हैं। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में भारत की दूसरी भाषाओं के शब्दों को हिंदी में मिलाने की बात कहते हैं, पर हिंदी में कई ऐसे शब्द हैं, जो अपनी बात कहने में पूरी तरह से सक्षम हैं, उसके बाद भी उसके बजाए हम स्वयं अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। आज अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाला बच्चा यदि अंग्रेजी में कमजोर है, तो उसके लिए ट्यूशन की व्यवस्था कर दी जाती है, पर हिंदी में कमजोर होने पर इसकी चिंता नहीं की जाती। यह हमारी गुलामी मानसिकता का प्रतीक है। बच्चा अंग्रेजी में बात करे, तो हमें गर्व अनुभव होता है। पर उसके सबके सामने हिंदी में बोलने पर हम शर्मिंदगी महसूस होती है। आखिर इस स्थिति को क्या कहा जाए?
दरअसल बात यह है कि हमने अभी तक हिंदी को दिल से नहीं स्वीकारा। हम भले ही हिंदी के लिए कितनी भी वकालत कर ले, पर बच्चे को जब भी पढ़ाने का अवसर आएगा, तो उसे अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। भोपाल में आयोजित इस हिंदी महाकुंभ में शामिल होने वाले कितने लोग ऐसे हैं, जिनके बच्चे हिंदी माध्यम शाला में अध्ययन करते होंगे? सभी का यही तर्क होगा कि बिना अंग्रेजी के कुछ भी संभव नहीं है। आज जंगली घासों की तरह गली-मोहल्लों में ऊग आई न जानें कितनी अंग्रेजी माध्यम की स्कूलें खुल गई हैं, जहाँ बच्चा किसी को प्रणाम या नमस्कार नहीं कर सकता। अब तो उनकी पाठयपुस्तकों से राम, मोहन, सीता के नाम गुम होने लगे हैं। भारतीय संस्कृति पर यह हमला हो रहा है और हम खामोश हैं। हिंदी भाषा आज अपने ही घर में अजनबी हो गई है। उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा रहा है। हिंदी अब केवल हिंदी दिवस पर होने वाले आयोजनों में ही अपने सही रूप में दिखती है। सरकारी संरक्षण के अभाव में वह विकृत हो रही है। जिस दिन सरकार दृढ़ता से यह संकल्प ले लें कि हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा होगी, तो उसे राष्ट्रभाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, पर जरूरी यही है कि सरकार की नीयत में खोट न हो।
हमारे देश में ही हिंदी की स्थिति ठीक नहीं है। हमें अंग्रेजी की गुलामी की मानसिकता की जंजीरों को तोड़ना होगा, तभी कुछ बेहतर संभव हो पाएगा। हिंदी की एक शिक्षिका कहती हैं कि आज के बच्चों को हिंदी एक बोझ लगती है। हिंदी का कालखंड आता है, तो बच्चे कुछ परेशान से दिखते हैं। उनका कहना है कि यह भाषा जब हमें कुछ काम ही नहीं आएगी, तो हम इसे क्यों पढ़ें? उन्हें इस मानसिकता में लाने का काम उनके पालक ही कर रहे हैं। हिंदी की उपेक्षा की शुरुआत घर से ही होती है, उसके बाद शालाओं में उपेक्षित होती है। एक साधारण-सा मजदूर भी अपनी संतानों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना चाहता है। घर के सामने हिंदी माध्यम की शाला होने के बाद भी वह दो हजार रुपए की वेन लगवाता है, बच्चे को अंग्रेजी माध्यम की स्कूल में भेजने के लिए। इसके लिए वह अनथक परिश्रम भी करता है। वह जानता है कि हिंदी से न तो उसका और न ही उसके बच्चे का विकास हो पाएगा। आज हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है। इसे दूर करने का काम हमें ही करना है। आज हिंदी भाषी राज्यों की हिंदी माध्यम शालाओं में ताले लटकने के दिन आ गए हैं। लोग अँगरेजी माध्यम की स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने लगे हैं। मोटी फीस ही नहीं, बल्कि चंदे के नाम पर भी भारी-भरकम राशि देने को तैयार है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि मातृभाषा की मृत्यु नागरिकों की अस्मिता की मृत्यु है। हिंदी भाषा मात्र जीवित रहे, यही पर्याप्त नहीं, पर ये और अधिक समृद्ध बने, अधिक से अधिक प्राणवान बने, यह अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी भी भाषा के साथ अन्य प्रदेशों के नागरिकों और उनकी संस्कृति से ओतप्रोत होती है। इमर्सन कहते हैं कि जब कोई भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। ऐसी परिस्थिति में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देना ही उचित है। मातृभाषा से बच्चों में संस्कार का सिंचन होता है।
विदेशों में हिंदी को लेकर किसी तरह का पूर्वग्रह नहीं है। वहां हिंदी बोलने वालों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। मैंने अपने अमेरिका प्रवास में देखा कि यदि आप हिंदी जानते हैं और अंग्रेजी नहीं बोल पा रहे हैं, तो सामने वाले की पूरी कोिशश होगी कि वे आपकी बात को समझें और अपनी बात समझा सकें। मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब मैंने अमेरिका के अपने 20 दिनों के प्रवास में अंग्रेजी से कहीं अधिक हिंदी, गुजराती, बंगला, पंजाबी और छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करना पड़ा। अमेरिकियों को पता चल जाए कि आप अंग्रेजी नहीं जानते, तो वे बहुत ही सरल अंग्रेजी में अपनी बात कहते हैं, उनकी पूरी कोशिश होती है कि वे आपको किसी तरह से भ्रम में नहीं रखना चाहते। वैसे भी पूरे अमेरिका में कहीं भी जाएं, हिंदी बोलने वाले मिल ही जाते हैं। भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के संदर्भ में यही कहना है कि यहां आने वाले हिंदी की िकस तरह से सेवा करेंगे, यह किसी को नहीं पता। यहां आकर वे दर्शनीय स्थलों में घूमने के अधिक मजे ले रहे हैं, जिनके लिए विशेष व्यवस्था की गई है। सम्मेलन में कई ऐसे लोग मिले, जिनका उद्देश्य मेहमान बनकर अधिक से अधिक सरकारी सुविधाओं का उपभोग करना ही है। आयोजन में किस तरह की चर्चा हो रही है, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं। सम्मेलन में कई ऐसे पासधारी दिखाई दिए, जिनका हिंदी से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं है। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश के लिए कई वरिष्ठ साहित्यकारों को पूरी तरह से नकार भी दिया गया। इन्होंने अपनी बात एक पत्रवार्ता में भी रखी। संभव है इन्हें सरकार किसी खेमे का साहित्यकार मानती हो, पर इसका आशय यह तो नहीं हो जाता कि उनके अवदान को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया जाए। आखिर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने कुछ तो योगदान दिया ही होगा?
हिंदी महज अभिव्यक्ति की ही भाषा नहीं है, बल्कि यह संस्कार देती है। विचारों का सिंचन करती है। हिंदी में वह लालित्य है, जो विचारों का सही मार्गदर्शन करती है। हिंदी में वह अपनापन है, जो किसी को भी अपना बना लेता है। अंग्रेजी में हम कितने भी गहरे अर्थों वाले शब्द ले आएँ, पर आंचल शब्द के करीब का भी शब्द वे नहीं ला पाएंगे। आंचल में जो गहराई है, वह ‘एंड आॅफ लेडिस क्लाथ’ में नहीं आ पाएगी। िववाह के तमाम संस्कार केवल वेडिंग में नहीं ही आ सकते। कपाल क्रिया का करीबी शब्द अंग्रेेजी में कभी नहीं मिल सकता। इस तरह से हिदी के हजारों शब्दों की सूची है, जिसका अंग्रेजी शब्द हो ही नहीं सकता। हां उसका सांकेतिक शब्द अवश्य मिल जाएंगे। रही बात दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध की, तो उसके लिए चिंतक के.सी. सारंगमठ का कहना है कि दक्षिण की हिंदी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में हिंदी का विरोध करने वाले कितने लोग हैं, जो हिंदी के प्रशंसक का चोला पहनकर हमारे साथ-साथ हैं।
डॉ. महेश परिमल
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