बुधवार, 27 फ़रवरी 2008

पत्रकारों से सर पर मौत का कफन


 डॉ. महेश परिमल
साहस का दूसरा नाम है पत्रकारिता और इसे सार्थक करता है साहसी याने पत्रकार। ये समाज का एक ऐसा प्राणी है, जिसकी इज्जत तो सभी करते हैं, पर उसे अपनाना कोई नहीं चाहता। कहा जाता है कि जिस पत्रकार के जितने अधिक दुष्मन होंगे, वह अपने मिषन में उतना ही अधिक सफल माना जाता है। जिस पत्रकार के दोस्त अधिक होंगे, वह एक विफल पत्रकार साबित माना जाता है। आष्चर्य इस बात का है कि पत्रकारिता में इस बात का कहीं जिक्र ही नहीं है कि पत्रकारों पर किस तरह के हमले हो सकते हैं और उससे किस तरह से बचा जाए। एक और आष्चर्य की बात- कर्ज देने के लिए एक पाँव पर खड़ी तमाम बैंकें इन्हें कर्ज देने से कतराती हैं। पर आज यही पत्रकार सर पर कफन बाँधकर घर से निकलता है। कई बार ऐसा होता है कि खबर की खोज में निकला यह पत्रकार स्वयं ही एक खबर बनकर रह जाता है। यदि यह कहा जाए कि भारतीय पत्रकार अपने साहस की कीमत चुकाते हैं, तो गलत नहीं होगा। यही कारण है कि सन् 2006 में दुनिया भर में 110 पत्रकारों की हत्या हुई, जो अब तक सबसे अधिक है।
पत्रकारों की हत्या सबसे अधिक युध्द के समय होती है। संस्कृत में कहा गया है '' युध्दस्य कथा रम्या:'' याने युध्द कथाओं को पढ़ने में एक अनूठा ही आनंद आता है। पत्रकारिता के इतिहास में यदि थोड़ी-सी छूट ली जाए, तो यह कहा जा सकता है कि हनुमान जी सबसे पहले खोजी पत्रकार साबित हुए और संजय पहले ''वार करसपोंडेंड '' थे। हनुमान ने सीता माता की खोज की और संजय ने कुरुक्षेत्र से युध्द का ऑंखों देखा हाल घृतराष्ट्र का सुनाया। आज भी युध्द की रिपोर्टिंग इतनी सहज नहीं है, उस दौरान तो कौन दोस्त और कौन दुष्मन ? सभी परस्पर दुष्मन ही होते हैं। यूएनओ से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2006 में 110 पत्रकारों की हत्या तब हुई, जब वे अपना काम कर रहे थे। सबसे अधिक खतरा इन्हें ईराक में हुए युध्द के दौरान रहा। ईराक में अमेरिकी आक्रमण सन् 2003 से षुरू हुआ, तब से अभी तक लगभग 150 पत्रकारों ने अपनी जान गवाँ दी है। इसके अलावा पत्रकारों को धमकियाँ मिलना तो आम बात है। कभी पुिलिस मकहमे के अफसरों द्वारा, कभी आतंकवादियों द्वारा तो कभी राजनेताओं द्वारा। इनके द्वारा पत्रकारों का इस्तेमाल भी खूब किया जाता है। जब इनसे काम निकल जाता है, तो इन्हें ठिकाने भी लगा दिया जाता है।
हाल ही में पत्रकारिता पर एक उपन्यास आई है, जिसका नाम है 'षेष आखिरी पृष्ठ पर' इसके लेखक हैं, विलास गुप्ते। इस उपन्यास में एक पात्र कहता है ' ये पत्रकारिता चीज ही ऐसी होती है कि अपने जादू से आदमी को बकरा बना देती है। कुछ लोग इसके जाल में नहीं भी फँसते, हमारे जैसे तुरंत ही षिकार हो जाते हैं। ये एक पीड़ा है पत्रकार की, जो आज हमारे सामने कुछ ऐसे सवाल दाग रहा है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं। न अखबार के मालिक के पास और न ही उसका इस्तेमाल करने वाले राजनीतिज्ञों के पास। ख्यातिप्राप्त पत्रकार एम.वी. कामथ ने अपनी किताब ''बिहाइंड द बायलाइन'' में कई घटनाओं का उल्लेख किया है, जिसमें से एक यह है कि पत्रकारों के पुलिस से अच्छे संबंध होते हैं और अपराधियों के भी काफी करीबी होते हैं। यदि वे लंच पुलिस अधिकारियों के बीच लेते हैं, तो डीनर वे अपराधियों के बीच ले लेते हैं। दोनों वर्गों के बीच ये अच्छा तालमेल बिठा लेते हैं। एक बार अपराध की दुनिया के बादषाह को षक हुआ कि उनका जो माल पकड़ा गया है, उसमें हमारे बीच बैठने वाले पत्रकार का हाथ है। उसी ने पुलिस को माल आने की जानकारी दी है। बस फिर क्या था। एक बार षनि-रवि की पार्टी के बहाने उस पत्रकार को खंडाला ले जाया गया। वहाँ उसकी खूब आवभगत की गई और उसे ठिकाने लगा दिया गया। कामथ जी ने अपनी किताब के बहाने इस चकाचौंध भरी जिंदगियों को अपने षब्द दिए हैैं।

सन् 1939 से 1945 के बीच हुए द्वितीय विष्वयुध्द के दौरान 70 पत्रकार मारे गए। इसके बाद 1950 से 1953 के बीच हुए कोरियन युध्द में 17 पत्रकार मारे गए। पूरे 20 साल तक चलने वाले अमेरिका और वियतनाम के युध्द में 63 पत्रकार मारे गए। भारत के संदर्भ में देखें, तो पिछले वर्ष दो पत्रकारों की हत्या के अलावा 65 अन्य पत्रकारों पर या तो हमले हुए या फिर उन्हें धमकियाँ दी गईं। आष्चर्य इस बात का है कि धमकियाँ देने वालों में पुलिसकर्मियों, अपराधियों, कंपनी प्रमुखों से लेकर राजनीतिक मकसद के लिए लडत्र रहे आतंकवादी तक षामिल थे। फ्रांसिसी संगठन 'रिपोर्टर्स विद आउट बॉर्डर्स'' में इसका खुलासा किया गया है। रिपोर्ट में छत्ताीसगढ़ का एक उदाहरण भी दिया गया है, जहाँ माओवादियों से मुलाकात के कारण एक पत्रकार को जेल जाना पड़ा।
पहले की बात करें, तो जमीनी युध्द में सैनिकों की अलग ही पोषाक होती, जिससे उनकी पहचान स्पष्ट होती थी। सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्रकार अपने ऊपर होने वाले हमलों से बचने का प्रयास करते। अब तो दिन-रात युध्द हो रहे हैं। उस पर हवाई हमले भी होने लगे हैं। आकाष में विमान से बम फेंकने वाले विमान चालक को क्या पता कि उसका ये बम किस पर गिरता है। इस बम का षिकार तो एक मासूम भी हो सकता है और एक वृध्द भी। महिलाएँ भी इसका षिकार हो सकती हैैं। अब तो चारों ओर खतरे ही खतरे हैं। पत्रकार पर खतरे इसलिए अधिक हैं कि वह कई लोगों की सच्चाई से अच्छी तरह से वाकिफ होता है। यह सच्चाई बाहर न आने पाए, इसलिए लोग पत्रकारों के सामने इज्जत से पेष आते हैं, पर जब उनकी सच्चाई बाहर आने लगती है या उसकी सुगबुगाहट भी सफेदपोषों को मिलती है, तो उसका मुँह बंद करने के जतन षुरू हो जाते हैं। अचानक ही खबर मिलती है कि वह पत्रकार रात को डयूटी से लौटते हुए दुर्घटना का षिकार हो गया। सच्चाई की कलम वहीं टूट जाती है या फिर तोड़ दी जाती है।
आज पत्रकारिता के मायने बदल रहे हैं। आज के युवा मानते हैं कि थोड़ा-सा हैंडसम होना चाहिए और वक्तृत्व कला में माहिर होना चाहिए, बस हो गए टीवी रिपोर्टर। पर इन रिपोर्टरों की क्या हालत होती है, यह तो उनसे पूछो, जो हाल ही में गुजरात के फर्जी एनकाउंटर के आरोपी वंजारा के गाँव इलोल गए थे, जहाँ उन पर ग्रामीणों ने जमकर पत्थरबाजी की। इस घटना में कई टीवी रिपोर्टर जख्मी हुए। ऐष-अभि की षादी के समय अमिताभ बच्चन के बंगले के बाहर अमरसिंह के कमांडो ने मीडिया पर किस तरह से हमले किए। रात भर जागकर ये रिपोर्टर्स किस तरह से एक-एक बाइट के लिए मषक्कत करते रहे, ये तो वही जानते हैं। हमारे सामने तो ये केवल कुछ मिनट या सेकेंड के लिए ही खबर के रूप में सामने आते हैं, पर इतने के लिए कितनी मषक्कतों और दिक्कतों से इन्हें गुजरना पड़ता है, इसे आखिर कौन समझ सकता है?
इन खतरों को बताने का यह आषय कदापि नहीं है कि आज के युवाओं को पत्रकारिता करनी ही नहीं चाहिए। आज खतरे कहाँ नहीं हैं? बाढ़, सुनामी, भूकम्प, दुर्घटनाएँ, आगजनी, तूफान और भी न जाने खतरा किस ओर से कब आ जाए। आज तो कोई भी व्यवसाय ऐसा नहीं है, जिसमें जोखिम न हो, पर खतरों के बारे में पहले से जानकारी होने से उस मोर्चे पर आने वाली तमाम परेषानियों को समझते हुए उस व्यवसाय में जाना बुध्दिमानी है। हमारे देष में समय-समय पर बम विस्फोट भी होते रहते हैं, जिसमें सैकड़ों निर्दोष लोग मारे जाते हैं। कारगिल युध्द के समय मुम्बई का एक गुजराती पत्रकार हिम्मत करके सैनिकों के बीच रहकर रिपोर्टिंग की। सभी रिपोर्टरों की किस्मत ऐसी नहीं होती। तालिबानों के राक्षसी षासन के दौरान भारत के एक ऍंगरेजी सांघ्य दैनिक का मुस्लिम पत्रकार आतंकवादियों के चंगुल में फँस गया। संयोग से ये आतंकवादी अमिताभ बच्चन के प्रषंसक निकले। ये एक संयोग था कि उक्त पत्रकार ने अमिताभ बच्चन का साक्षात्कार एक बार लिया था, जिसकी जानकारी उसने तालिबानी आतंकवादियों को दी। इससे वे आतंकवादी खुष हो गए और उसे छोड़ दिया। अगर ऐसा न होता, तो उस पत्रक़ार की स्थिति भी डेनियल पर्ल की तरह होती और उसका सर भी घड़ से अलग हो जाता।
साहस और जोखिम का मिलाजुला नाम है पत्रकारिता। इसमें यदि बुध्दि चातुर्य का समावेष कर लिया जाए, तो समझो सोने में सुहागा। ठंडे कमरे में गरम-गरम साक्षात्कार लेना अलग बात है और बीहड़ में जाकर डाकुओं और अपराधियों से बात करना अलग बात है। अपराधी और पुलिस दोनों ही पत्रकारों पर विष्वास करते हैं। इसी विष्वास के कारण ही कई बार खतरे सामने आते हैं। वरना खबरची को खबर बनने में देर नहीं लगती।
 डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

आशाओं के पंखों से उड़ चलें मंजिल की ओर...



डा. महेश परिमल
ईश्वर ने सृष्टि की रचना पूरे मनोयोग से की, एक-एक वस्तु, एक-एक तिनके का भी ध्यान रखा. इस दौरान मानव का निर्माण करते समय उसने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसने एक स्वार्थी प्राणी की रचना की है. उस समय तो उसे अपनी इस रचना पर गर्व हुआ होगा, किंतु आज यदि उसे सबसे ज्यादा दु:ख और पछतावा होगा तो केवल इस बात का कि उसने मनुष्य को बनाया और उसे समस्त प्राणियों में श्रेष्ठता भी प्रदान की. स्वयं मनुष्य हो कर भी संपूर्ण मानव जगत के प्रति ऐसी विचारधारा रखने का एक मात्र कारण यही है कि मनुष्य पूरी तरह से स्वार्थी है. आखिर वह इतना स्वार्थी क्यों है? ईश्वर ने तो उसे कदापि स्वार्थी बनाया नहीं, पर कहाँ से आया, उसमें यह स्वार्थ? यह मानव का स्वार्थ नहीं तो और क्या है कि जब वह किसी कार्य में विफल हो जाता है, तो अपने आपको दोष न देकर सीधा ईश्वर को इसका कारण मानता है. जब उसके मन की साध पूरी नहीं होती तो वह समय को दोष देता है और कह देता है कि उसका तो भाग्य ही खराब है. विधाता ने उसे भाग्य ही ऐसा दिया है कि वह कुछ कर ही नहीं सकता.
ऐसे भाग्यवादी और निराशावादी मनुष्य जब छोटे-मोटे कार्यो में भी सफल हो जाते हैं, तो सारा श्रेय स्वयं को ही देते हैं. सफलता के क्षणों में वे ईश्वर को भूल जाते हैं और असफलता के क्षणों में केवल और केवल ईश्वर ही दोषी नंजर आता है. मनुष्य के पास बुध्दि है, विवेक है, सद् विचारों का प्रवाह है, चिंतन-मनन और अध्यात्म का पूरा प्रकाशपुंज है, फिर उसे इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए. आखिर क्यों हो गया है यह मानव इतना स्वार्थी? आइए इसकी पड़ताल करें.
मानव के स्वार्थ के पीछे की गहराई को देखें तो उसके भीतर की हताशा या निराशा है, जो उसे ऐसा बनने पर विवश करती है. मनुष्य को आत्मविश्वासी होना चाहिए किंतु अति आत्मविश्वासी कभी नहीं. आत्मविश्वास होने पर वह सफलता और विफलता दोनों ही स्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देता है, स्वयं को उसके नजदीक ले जाता है और अतिआत्मविश्वास की स्थिति में केवल असफलता में ही उसके करीब जाता है और वह भी केवल उसे दोष देने के लिए. इसलिए मनुष्य के पास केवल आत्मविश्वास होना चाहिए, जो उसके भीतर उत्साह भरे, उसे कुछ नया करने को प्रेरित करे और जो कुछ भी वह कर रहा है उसे अधिक अच्छी तरह से करने का सामर्थ्य प्रदान करे. अति आत्मविश्वास मनुष्य को हताशा के मार्ग में ले जाने का 'शार्टकट' है.
एक युवक दार्शनिक के पास गया और बोला-मुझे ईश्वर की रचना समझ में नहीं आती. जब जब मुझे लगता है कि मैं बहुत कुछ कर सकता हँ, तब-तब ईश्वर के द्वारा बनाया गया समय मेरे हाथ से रेत की तरह सरक जाता है और मैं कुछ भी नहीं कर पाता हूँ. आखिर ईश्वर ने ऐसा समय बनाया ही क्यों, जिसका मैं एक क्षण भी पकड़ नहीं पाता हूँ. दार्शनिक बोले-इस दुनिया में सबसे आसान काम कोई है, तो वह है, ईश्वर को दोष देना. यह सच है कि उसने संसार बनाया है, किंतु हम प्रत्येक कार्य उसके भरोसे नहीं छोड़ सकते. कुछ कार्य हमें हमारे हाथ में भी लेने होंगे. तभी हमारा आत्मविश्वास जीतेगा और हम सफलता के करीब होंगे.
ईश्वर हमें अवसर देते हैं. एक बार नहीं, बार-बार, किंतु इस अवसर को सफल या असफल बनाना ये हम पर भी निर्भर करता है. प्रत्येक क्षण एक संदेश लेकर आता है. वह यह कहता है कि मेरे भीतर एक अवसर छिपा हुआ है, तू इसे पकड़ ले. जो इसे पकड़ लेता है, वह कर्मपथ का सच्चा कर्मयोगी है और जो नहीं पकड़ पाता वह भाग्य को दोष देने वाला भाग्यवादी और निराशावादी है.
समय की छलनी से छनता हुआ एक पल मनुष्य के करीब आया और बोला- देख मैं तेरे पास आया हूँ, मेरा उपयोग कर, नहीं तो मैं चला जाऊँगा. मनुष्य ने बेपरवाही से उस क्षण से कहा- कोई बात नहीं, तू चला जाएगा, तो दूसरा पल आ जाएगा. अब पल ने मुस्कराते हुए कहा- अरे मूर्ख! तेरी बात सच है, दूसरा पल आ तो जाएगा, पर इस पल को कोई और पकड़ लेगा और तू पीछे रह जाएगा. समय का खेल ऑंखमिचौनी जैसा है. हम थोड़ी देर के लिए पल को थामे या न थामे, वह इसी उधेड़बुन में रहता है और इतने में कोई दूसरा व्यक्ति पल का लपककर चला भी जाता है. उस समय मानव के पास सिवाय पछतावे के कुछ भी नहीं रहता.
मानव जीवन भर स्पर्धा ही करता रहता है. कभी अपनों के साथ, कभी परायों के साथ, कभी जिंदगी के साथ, तो कभी मौत के साथ, पर देखा जाए, तो मानव की सच्ची स्पर्धा समय के साथ है. जो समय को नहीं जीत सकता, समय उसे हरा देता है. लेकिन हाँ, इस मामले में समय बहुत ईमानदार है. वह एक अवसर अवश्य देता है कि सामने वाला जीते. पर जब वह असफल होता है, तो वह उसे हराने में एक क्षण की भी देर नहीं करता. समय के इस महत्व को जानने वाला आत्मविश्वास से लबरेज होता है और न जानने वाला अतिआत्मविश्वासी और निराशावादी होता है. निर्णय हमें स्वयं करना है कि हमें अति आत्मविश्वासी बनकर स्वार्थ के मार्ग पर चलते हुए ईश्वर से दूर होना है या केवल आत्मविश्वासी बनकर ईश्वर के समीप रहना है?
ईश्वर कितना परोपकारी है, इस बात की सत्यता इसी से सिध्द होती है कि ईश्वर जानता था कि उसे अदृश्य रहना है उसके बाद भी उसने मनुष्य को ऑंखें दी. इसके अलावा मनुष्य के लिए जो मूल्यवान है, ऐसे अंग उसने दो-दो दिए हैं. दो ऑंख, दो कान, दो हाथ, दो पैर. यदि इसमें से एक अंग खराब हो जाए, तो दूसरे से काम चलाया जा सके यानि कि मनुष्य का जीवन सतत चलता रहे. कल्पना करें कि यदि ईश्वर ने इसी तरह जीभ, जननेंद्रिय, पेट, पाचनतंत्र भी यदि दो-दो दिए होते तो मनुष्य की क्या हालत होती? ईश्वर ने बहुत सोच विचार कर इस शरीर रचना का निर्माण किया है. इसलिए उसके द्वारा दिए गए इस शरीर का सही दिशा में उपयोग किया जाना चाहिए.
निरन्तर काम भी मनुष्य को थका देता है, किंतु पूरे मन से किया गया काम मनुष्य को नहीं थकाता, बल्कि उसमें दुगुना उत्साह भर देता है. जिसे अपने काम में मजा नहीं आता, वह कभी आराम के क्षणों में भी मजा नहीं ले सकता. जिसे अपने काम में मजा आता है, वह आराम का भी पूरा आनंद लेता है. मनुष्य के जीवन का सबसे श्रेष्ठ समय वह है जब उसके पास आराम करने की भी समय नहीं होती. समय की भाषा को जो नहीं समझ पाता, वास्तव में वही पिछड़ जाता है. समय की भाषा समझते हुए समय के साथ बदलते हुए ही समय के साथ चला जाता है. इसलिए कहा जाता है कि समय के साथ चलो और युग बदलो.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

युवाओं को भ्रमित करती छुट्टियाँ


यह दौर है परीक्षाओं का, परीक्षा याने साल भर छात्रों ने जो कुछ पढ़ा, उसका मूल्यांकन. अब यह शोध का विषय है कि मात्र तीन घंटे में छात्र अपनी प्रतिभा किस तरह से प्रदर्शित कर सकता है? परीक्षा के इस महायज्ञ के बाद दो माह की लम्बी छुट्टियों का दौर शुरू हो जाएगा. बच्चों के लिए यह खुशियों का मौसम है, पर इन दो-ढाई महीनों में छात्र खाली रहकर क्या-क्या नहीं करते, इसका अंदाजा मध्यमवर्गीय परिवार बखूबी जानता है.
उच्च वर्ग के बच्चों के लिए यह छुट्टियाँ एक वरदान हैं, क्योंकि इन दिनों के लिए सात समुंदर पार जाने के लिए योजना काफी पहले बन जाती है. निम्नवर्गीय बच्चे अपने माता-पिता के व्यवसाय में हाथ बँटाते दिख जाते हैं. दिक्कत मध्यमवर्गियों की है. वे क्या करें, कहाँ जाएँ? सबसे अधिक भ्रमित होते हैं युवा होते किशोर. पचास साल हो गए हमारी आजादी को. एक युवा प्रधानमंत्री हमने देखा, जिसने देश को इक्कीसवीं सदी में ले जाने का सपना अपनी ऑंखों में पाला था. वह सपना यौवन के द्वार तक पहुँचते-पहुँचते उसके साथ ही काल के गाल में समा गया. उसके बाद तो कई युवा नेता आए और गए, पर देश के युवाओं के लिए ऐसा कोई ठोस कार्य नहीं किया, जिसे उपलब्धि माना जाए.
दो-ढाई महीने कम नहीं होते, पर भीषण गर्मी को झेलते युवा किशोर यह समय ऐसे ही गुंजार देते हैं. ऐसी कोई युवा नीति नहीं बनी, जो इन्हें कोई रौशनी दे सके. इसके अभाव में घर पर रहकर ही आकाशीय मार्ग से आने वाली अपसंस्कृति अनजाने में ही उसके भीतर घर कर जाती है. उसी का परिणाम है कि आज अपराधों में ये युवा ही बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. चाहे वह राजस्थान में परचे लूटने का अपराध हो या फिर दिल्ली में डकैती-हत्या का अपराध. इन सबमें इन युवाओं की भागीदारी होने लगी है.

मुझे याद आ रहा है चीन के प्रसिद्ध विचारक माओ त्से तुंग ने अपने कार्यकाल में देश के सभी युवा इंजीनियर, डॉक्टर, वकील एवं छात्रों को एक वर्ष के लिए सुदूर गाँवों में भेजना अनिवार्य कर दिया था, तब इसकी खूब तीखी प्रतिक्रिया हुई थी. लोगों ने उन्हें क्या-क्या नहीं कहा. पर कुछ वर्षों बाद इसके परिणाम जब सामने आए तो सभी हतप्रभ रह गए. उन शिक्षितों का एक वर्ष गाँव में रहने से यह साबित हुआ कि ग्रामीण भी शिक्षित होने का महत्व समझने लगे. गाँवों-गाँवों में शिक्षा की लहर चल पड़ी. उसी का परिणाम है कि विश्व की सबसे अधिक आबादी वाला देश होकर भी उसने वैचारिक स्तर पर जो क्रांति की है, वह कम आबादी वाले देश जापान से किसी भी दृष्टि से कमतर नहीं है.
विदेशों में ग्रीष्मकालीन अवकाशों का समुचित सदुपयोग करने के लिए ढेर सारी स्वयंसेवी संस्थाएँ आगे आकर एक-से-एक कार्य करती हैं. हमारे देश में ऐसी संस्थाएँ कम नहीं हैं, पर अधिकांश राजनीति-प्रेरित एवं स्वार्थ-प्रेरित हैं. अब इनकी भूमिका ऐसी नहीं रही कि दिग्भ्रमित होती युवा पीढ़ी को कुछ अच्छा करने का संकेत दे. यही वजह है कि जल्द से जल्द बेशुमार दौलत इकट्ठा करने की धुन सवार हो गई है. इन युवाओं में हर कोई 'शार्टकट' के रास्ते तेजी से आगे बढ़ना चाहता है. उनकी इस धुन को हमारे राजनेता ही बढ़ाते हैं और अपनी वैभवशीलता के माध्यम से उन्हें ऐसा सुहावना सपना दे देते हैं कि वे एक मायावी दुनिया में रहना शुरू कर देते हैं. कुछ समय बाद इसे भी युवा बखूबी जानने-समझने लग जाते हैं कि ये मायावी दुनिया हमें उस अंधेरी खोह में ले जाएगी, जहाँ से वापसी संभव नहीं है. फिर भी वे इस मोह को छोड़ नहीं पाते हैं और जकड़ते ही चले जाते हैं दुराग्रह के बंधन में.
हमारे देश के इतने सारे कथित रूप से युवा नेता यदि 50 वर्षों में छुट्टियों के सदुपयोग के लिए कोई कारगर नीति विकसित नहीं कर पाए हैं तो इसे उन्हें काहिल कहने में संकोच नहीं होना चाहिए. हमारे देश के युवा तो काहिल कदापि नहीं हैं, पर उन्हें छुट्टी में ऐसी दवाएँ पिला दी गई हैं कि वे चकाचौंध से अधिक प्रभावित होकर अपनी सोच को सीमित कर रहे हैं. हमें चाहिए कि देश को यदि वास्तव में आगे बढ़ाने का सद्विचार हमारे राजनेता रखते हैं तो स्वार्थ एवं खरीद-फरोख्त की राजनीति से ऊपर उठकर कुछ क्षण देश को दें. युवा प्रतिभा का दुरुपयोग न करें. अन्यथा डॉ. हरगोविंद दास खुराना, अमर्त्य सेन, सी.वी. रमण जैसी बहुत-सी प्रतिभाएँ हैं, जिन्हें हमने पहले नहीं बहुत बाद में पहचाना है. पहचान पहले होती तो यह बेहतर होता. दूसरे देश हमारी प्रतिभा को पहचानें और सम्मानित करें तो यह हमारी कमजोरी है. केवल यह दूर हो जाए तो शायद एक हल्की-सी जुंबिश हो इस सोए हुए समाज में.
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

अधिक सोच आदमी को निराशा देती है


डॉ. महेश परिमल
दो मित्र अपने रोजमर्रा के कामों से उकता कर छुट्टियाँ मनाने के लिए किसी हिल स्टेशन पर गए। वहाँ रोज का ऑफिस वर्क नहीं था, रोज की छोटी-मोटी समस्याएँ नहीं थी। बॉस की झिड़कियाँ, पत्नी की फरमाइशें, बच्चों की जिद सबसे दूर वे दोनों छुट्टी का आनंद लेने के लिए यहाँ आए थे। दो-चार दिन यूँ ही मस्ती में गुजर गए। एक दिन शाम के समय जब एक मित्र प्रकृति का आनंद ले रहा था, पहाड़ के पीछे से डूबते सूरज को देख रहा था, बादलों की ऑंख-मिचौनी के बीच झाँकती सूरज की रश्मियों को प्यार से निहार रहा था, तो दूसरा मित्र इस अद्वितीय अवसर से अपने आपको दूर रखे हुए कमरे में बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। पहले मित्र ने आकर उसे बाहर के सुंदर प्राकृतिक दृश्य को देखने की बात कही, तो वह बोला अभी मैं ऑफिस की एक समस्या से घिरा हुआ हूँ, उसका हल मिले, तो इस दृश्य से अपने आपको जोड़ सकूँ। मित्र को यह सुनकर आश्चर्य भी हुआ और उसके इस व्यवहार परगुस्सा भी आया। आता भी क्यों नहीं, वे दोनो सारे दुनियादारी के झंझटों से खुद को दूर करते हुए, हजारों रुपये खर्च करके इतनी दूर मानसिक शांति की तलाश में आए थे, प्रकृति की गोद
में खुद को बैठाने आए थे, और वह था कि अभी भी उसी ऑफिस और उसके आसपास ही घूम रहा था। मित्र उसे हाथ पकड़ कर बाहर खींच लाया और बोला- पहले ये जाता हुआ सुंदर दृश्य देख लो, प्रकृति की सुंदरता को भरपूर निहार लो और उसके बाद जब तुम्हारा मन इस मनोरम दृश्य से भर जाए, तो रात को बिस्तर पर पड़े हुए भले ही सारी रात जागते हुए अपनी समस्या का हल खोजते रहना, कई घंटों तक सोचते रहना, पर ये पल जो अभी जा रहा है, उसे यूं ही अनदेखा न करो। उसे अपनी ऑंखों के माध्यम से ह्रदय में बसा लो। मित्र उसकी बात को सुनकर उसके चेहरे कोनिहारता ही रह गया। वह असमंजस की स्थिति में खड़ा रहा। उसे समझ न आया कि वह तत्क्षण क्या करे? अब मित्र झल्ला गया और बोला- तुम्हारी यही समस्या है, तुम सोचते बहुत हो और इसी सोच के साथ जीवन के कितने ही अनमोल क्षणों को यूँ ही व्यर्थ गँवा देते हो। यदि तुम यूँ ही समय- बेसमय सोचते ही रह जाओगे, तो मालूम नहीं जिंदगी के कितने ही सुंदर क्षणों से हाथ धो बैठोगे।
यह मात्र दो मित्रों के बीच का वार्तालाप नहीं है, ऐसे कई प्रकृति प्रेमी मिल जाएँगे, जिनके जीवन के प्रति ऐसे विचार होते हैं। देखा जाए, तो जीवन के प्रति ऐसे विचार होने भी चाहिए। हम हमेशा अपनी छोटी-मोटी समस्याओं में ऐसे खोए रहते हैं कि हमें प्रकृति से जुड़ने का मौका ही नहीं मिलता। जब मिलता है तो हम उसका फायदा उठाते हुए घर के एक कोने में खुद को कैद कर लेते हैं और कुछ सोचना शुरू कर देते हैं। इसके लिए हम समय भी नहीं देखते।
महान दार्शनिक ओशो का कहना है कि मनुष्य जो जीवन जीता है, उसे उसका क्षण-क्षण का जीवन रस निचोड़ लेना चाहिए। रोम-रोम में जीवन प्रस्फुटित होना चाहिए और संपूर्ण शरीर में उमंग, उल्लास और जोश होना चाहिए। मनुष्य को अपनी आत्मा की आवाज सुन कर केवल और केवल वर्तमान में ही जीना चाहिए और उसका एक=एक पल सुंदर बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। जो लोग अतीत की स्मृति में और भविष्य के विचारों में उलझे रहते हैं, उनका वर्तमान बोझ सदृश होता है, व्यक्ति जीवन जीता नहीं अपितु उसका भार वहन करता है। अधिक सोच उसकी विचारो की रीढ़ को खोखला बना देती है और वह खोखले विचारों के साथ निराशा का हर पल गुजारने का विवश होता है।
अधिक सोच व्यक्ति को निराशावादी बनाती है, उसे मृत्यु के निकट ले जाती है, उसमें असुरक्षा की भावना भरती है, उसे समय से पहले वृध्द बनाती है। इसलिए बुध्दिमान होने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि हर काम दिमाग से किया जाए, या हर समय दिमाग का उपयोग किया जाए, बुद्धिमान होने का वास्तविक अर्थ यही है कि दिमाग को कुछ समय आराम दिया जाए और जीवन में कुछ काम केवल और केवल दिल से किए जाए। जो लोग केवल अपने दिमाग का उपयोग करते हुए, हर पल सोच की व्यस्तता में घिरे हुए होते है, वे केवल जिंदा रहते है और जो लोग अपनी आत्मा की आवाज मानते हुए, दिमाग और दिल दोनों के बीच संतुलन बिठाते हुए अपनी सोच को कुछ समय विराम देते हुए केवल और केवल पलों में खुद को समर्पित कर देते हैं, वास्तव मेें वे ही जीवन जी पाते है। इसीलिए तो कहा गया है- यादा मत सोच, नहीं तो मर जाएगा।
जीवन जीने की कला यही है कि अपनी मौत से पहले मत मरो और दु:ख आने से पहले दु:खी मत हो, हाँ लेकिन सुख आने से पहले ही उसकी कल्पना में ही सुख का अनुभव करो, खिलखिलाहट के पहले ही अपने होठों पर मुस्कान खिला लो। सकारात्मक सोच का सफर काफी लम्बा होता है और नकारात्मक सोच का सफर शुरू होने के पहले ही तोड़ कर रख देता है। यह सब कुछ निर्भर है हमारे स्वयं के व्यवहार पर। इस व्यवहार में सोच की परत जितनी अधिक जमेगी, जीवन की खुशियाँ उतनी ही परतों के नीचे दबती चली जाएगी। निर्णय हमें करना है अधिक सोच-सोच कर जीवन को भार रूप बनाना है या कम से कमतर सोच के द्वारा जीवन को फूलों की पंखुड़ी सा हल्का और सुकोमल?
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

एक चिंता बाघ की


- डॉ. महेश परिमल
देश में बाघों की घटती संख्या पर एक बार फिर चिंता की जाने लगी है। बाघ कम हो रहे हैं, यह सच है, पर बाघ कम क्यों हो रहे हैं, इस सच को कोई जानना नहीं चाहता। हमारे देश में बाघ के लिए चिंता होती है, बाघ की चिंता कोई नहीं करता। देश के अभयारण्यों के आसपास आबादी कितनी बढ़ रही है, अभयारण्य सिमटते जा रहे हैं, बाघ को जंगल का वातावरण नहीं मिल रहा है, उनकी प्रजनन शक्ति लगातार क्षीण हो रही है। ये सारी बातें भी तो उनकी संख्या में कमी का कारण है, तो फिर क्यों इस दिशा में गंभीर कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।यह अभी की बात नहीं है इसके पहले भी इस तरह की चिंताएं य की जा चुकी है कुछ वष पहले भी बाघॊं की घटती संखया पर अंतरराषटीय सममेलन हॊ चुका हैइसमें विश्व भर के पशुविद् एवं पर्यावरणविद् शामिल हुए. सभी ने एक स्वर में विश्व में बाघ की घटती संख्या पर चिंता व्यक्त की और विश्व की इस धरोहर की रक्षा के लिए जी-जान से जुट जाने का संकल्प लिया, पर इस तरह के संकल्पों से किसी क्रांति की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए. बाघों की तेजी से कम होती संख्या अन्य देशों को कुछ करने के लिए अवश्य प्रेरित कर सकती है, पर हमारे देश में चिंता के नाम पर एक हल्की-सी जुंबिश भी हो जाए तो बहुत है.
बाघों के महत्व पर प्रसिध्द पर्यावरणविद् जुगनू शारदेय का कहना था कि बाघ हमारी समूची जीवन प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. आज हम सांस ले रहे हैं तो बाघ के कारण, बाघ न होते तो हम अच्छे एवं सुखद जीवन की कल्पना नहीं कर सकते. पूरे विश्व के 60 प्रतिशत बाघ हमारे ही देश में हैं. इस पर भी इनकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है. हमारे देश में बाघ कम हो रहे हैं, उसकी चिंता विदेशी कर रहे हैं, पर हमें फुरसत नहीं है कि इस दिशा में थोड़ी-सी भी चिंता करें.
कंक्रीट के जंगल ने वैसे भी जंगलों को हमसे बहुत दूर कर दिया है. जंगल तो अब स्वप्न हो गया है. आज के बच्चों से पूछा जाए तो वे जंगल का अर्थ नहीं समझेंगे. उन्हें जंगल केवल किताबों में या फिर माता-पिता द्वारा सुनाई जाने वाली कहानियों में ही मिलेंगे. जंगल वाली भूमि में रहकर आज हम भले ही शहरी कहलाने में गर्व करते हों, पर देखा जाऐ तो कुछ जंगलीपन हममें आ गया है. शिकार और शिकारी ये दो पहलू हैं जीवन के. इंसान की दृष्टि से देखा जाए तो शिकार पहले शौक था, अब विशुध्द व्यवसाय बन गया है. पहले शिकारी का निशाना छोटे-छोटे जंगली जानवर हुआ करते थे, पर अब बड़े जानवर ही उनकी आधुनिक बंदूकों को निशाना बनने लगे हैं, ताकि उनका मांस अपनों के बीच परोसा जाऐ और हड्डियाँ विदेश निर्यात की जा सकें. चीन जैसे देशों में हिंस्र पशुओं की हड्डियों से पौरुष बढ़ाने वाली दवाएँ बनाई जाती हैं. वहाँ इस पर कोई प्रतिबंध नहीं है. इसलिए हमारे देश के हिंस्र पशुओं का मांस परोस कर हम अपनों को उपकृत करते हैं और नाखून-हड्डियाँ विदेश भेजकर अच्छी खासी रकम कमाते हैं. बाघों के शिकार के लिए अपने यहाँ भरपूर माहौल है. मात्र कुछ धन देकर जंगलों में सशस्त्र होकर प्रवेश पा जाते हैं और जी भरकर शिकार करते हैं. किसी ने प्रतिवाद किया तो उसे भी निशाना बनाने से नहीं चूकते. बरसों से सक्रिय जंगल माफिया ने इस देश में अपनी जड़ें फैलाई हैं और अरबों रुपए बटोरे हैं.
शिकार पर हमारे देश में भी प्रतिबंध है, पर आज तक किसी शिकार को कठोर सजा मिली हो, ऐसा सुनने में नहीं आया. मात्र कुछ हजार रुपए और कुछ माह की सजा. जिसे भी धन देकर कम किया जा सकता है. इस दृष्टि से जंगली जानवर इन शिकारियों से कहीं बेहतर हैं, वे भूख लगने पर ही शिकार करते हैं. ऐसा करना उनकी विवशता नहीं अधिकार है. प्रकृति अपना संतुलन ऐसे ही रखती है, पर इंसान ऐसा केवल अपनी व्यावसायिकता के लिए करता है.
हमारे देश से बाध लुप्त हो जाऐं या इंसान, किसी को कोई फर्क पड़े या न पड़े पर सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता. राजनीति की बिसात में रोज ही हाथी, ऊंट के साथ-साथ राजा, वजीर और पैदल मारे जाते हैं. राजनीति की इन चालों के पीछे शह और मात ही नहीं होती. स्वार्थ में लिपटी वे धारणाएँ होती हैं. जिसमें आम आदमी की हैसियत किसी जानवर से कम नहीं होती.
हम बाघों पर गंभीर मंत्रणा करते हैं. इस मंत्रणा में लाखों खर्च भी हो जाते हैं. फिर भी वन्यप्राणी संरक्षण के लिऐ धन की कमी बनी ही रहती है. तभी तो मेनका गाँधी को धन की व्यवस्था करने विदेश जाना पड़ रहा है. पर जरा प. बंगाल के उस गाँव की तरफ भी देखें, जिसे विधवा गाँव के नाम से जाना जाता है. गाँव से लगे अभयारण्य में बाघ इतनी अधिक संख्या में हो गऐ हैं कि अभयारण्य उन्हें छोटा पड़ने लगा है. वे गाँव पर हमला बोलने लगे हैं. एक-एक करके बाघ ने वहाँ के पुरुषों को अपना शिकार बना लिया है. गाँव की औरतें विधवा होते जा रही हैं. सरकारी अमला विवश है. बाघों को मारना कानूनन जुर्म है, इसे तो वह अच्छी तरह से समझता है. पर गाँव वालों की जिंदगी बचाना उसकार्र् कत्तव्य है, इसे शायद भूल गया है. उस गाँव में अभी जो सधवा हैं वे इसी आशंका में जी रही हैं कि न जाने कब कहाँ बाघ का एक पंजा ही उनके माथे का सिंदूर पोंछ दे और वे एक अभिशापित जीवन जीने के लिऐ विवश हो जाएँ.
बाघ पर ये हुए दो नजरिये. दोनों में एक बात सामान्य है, वह है सरकारी मशीनरी की नाकामयाबी. बहुत से कानून हैं, शायद कड़े भी हैं, पर वे इतने लचीले हैं कि क्षण भर में आरोपी कानून के लंबे हाथों से बहुत दूर चला जाता है, क्योंकि इस देश में अब औरत से लेकर बच्चों तक की तस्करी होने लगी है, जब इसे लेकर कड़े कानून नहीं बन पाए, आज तक किसी तस्कर को सजा हुई हो, ऐसा सुनने में नहीं आया, फिर भला जानवरों को मारकर उसकी खाल एवं हड्डियों की तस्करी करने वालों का भला कोई कानून क्या बिगाड़ लेगा?
दूसरी ओर सरकार पर दोष मढ़कर अपना पल्लू झाड़ना सभी को अच्छा लगता है, पर कभी हम अपने गरेबां में झांककर देखें तो पाएँंगे कि हमने केवल बातें बनाने का ही काम किया है. एक छोटा-सा प्रयास भी नहीं किया, न पेड़-पौधे लगाने की दिशा में, न ही जानवरों के अवैध शिकार की दिशा में. हम ही अपनेर् कत्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं हैं, तो फिर दूसरे कैसे हो सकते हैं? एक पौधा रोपकर उसकी देखभाल कर यदि आप उसे पेड़ बनाते हैं तो सरकार का आप 15 लाख रुपए बचाते हैं. इसे क्यों भूलते हैं आप. हमारे पूर्वजों ने न जाने कितने पौधे रोपे उसे बड़ा किया और करोड़ों की अघोषित संपत्ति इस देश को दे गऐ, क्या हम पूर्वजों के उस पराक्रम को सहेज कर नहीं रख सकते? पूर्वजों के कर्मों से हमने सुख भोगा, लहलहाती खुशियाँ बटोरीं तो क्या हम एक पौधा भी न लगाकर क्या बच्चों को देना चाहेंगे सपाट रेतीला रेगिस्तानी जीवन? बोलो...
- डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

अपवित्र होते शिक्षा मंदिर

डॉ. महेश परिमल
परीक्षाओं के इस मौसम में शिक्षा मंदिरों के बाहर एक पोस्टर मुँह चिढ़ाता है- 'नकल एक सामाजिक बुराई है.' जो छात्र प्रतिभाशाली हैं, उनके लिए यह सूक्ति ब्रह्म-वाक्य की तरह है. वे इसे शिरोधार्य भी करते हैं, पर ऐसे बहुत से छात्र एवं पालकगण हैं, जिनके लिये यह सूत्र-वाक्य एक गाली की तरह लगता है. पालकगण उस पोस्टर की तरफ देखना भी नहीं चाहते और जुट जाते हैं तन-मन-धन और प्राण से अपने चिरंजीव को नकल के माध्यम से पास कराने के इस महायज्ञ में....
नकल जैसी कुप्रवृत्ति ने इस देश की सामाजिक जड़ों को खोखला बनाने का शायद प्रण ही ले लिया है. इस कुप्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रही है हमारी शिक्षा पद्धति. इसकी धुरी में एक ओर तो हमारे राष्ट्रनिर्माता शिक्षक ही हैं. तो दूसरी तरफ हैं, वे पालकगण जो अपने पुत्रों को येन-केन-प्रकारेण आगे बढ़ता देखना चाहते हैं. छोटे रास्ते से आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ने इस देश को न जाने कितने वर्ष पीछे धकेल दिया है. इसका असर शिक्षा के क्षेत्र में अभी से दिखाई दे रहा है. संस्कारों से मिली शिक्षा से एक प्रतिभा सम्पन्न छात्र के लिए नकल की यह कुप्रवृत्ति खतरा साबित हो रही है, जब वह देख रहा है कि साल भर क्लास से 'गोल' रहने वाला फिसड्डी छात्र भी आज उसके मुकाबले खड़ा हो गया है, तो भीतर से उसकी छटपटाहट बढ़ जाती है. वह टूटने लगता है और लानत भेजता है उन संस्कारों को, जो उसे नकल को एक सामाजिक बुराई के रूप में दिखाते हैं.
मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब इस सामाजिक बुराई को दूर करने का कथित प्रयास हमारे राष्ट्र निर्माता करते हैं. परीक्षाओं के पहले छात्र के माध्यम से उनके पालकों से उनकी 'सेटिंग' हो जाती है और वे शिक्षा मंदिर में ही प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की मानसिक हत्या करने के महायज्ञ में जुट जाते हैं. आज परीक्षा ही एक ऐसा माध्यम बन गया है, जिसमें एक प्रतिभा सम्पन्न को छोड़कर शेष सभी को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है. आश्चर्य इस बात का है कि इस महाकार्य में पालकगणों का पूरा-पूरा सहयोग रहता है. शिक्षक यहाँ पर राष्ट्र निर्माता न होकर कथित रूप से 'प्रतिभा का हत्यारा' बन जाता है, क्योंकि उसके पास यही मौका है, जब वह अपने सारे चक्षुओं को बंद करके वह सब कुछ करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए. टयूशन के माध्यम से परीक्षा भवन तक किया जाने वाला अथक परिश्रम शिक्षक को 'लक्ष्मीपुत्र' बना ही देता है.
दूर कहीं प्रतिभाओं के सिसकने का स्वर सुनाई देता है. ईमानदारी से परचे हल करने वाला छात्र यह दृश्य देखकर आवेश से भर उठे तो स्वाभाविक ही है. ऐसे में यदि वह कुछ क्षणों के लिए अपने संस्कारों को भूलकर राष्ट्रनिर्माता पर ही प्रहार कर दे, तो वह छात्र एक झटके में असंस्कारित हो जायेगा. भविष्य में यदि दैवयोग से वह छात्र शिक्षा विभाग का अधिकारी बन बैठा तो परिस्थितियों के अनुसार वही शिक्षक अपनी पेंशन के लिए छात्र रूपी अधिकारी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए, तो क्या वह अधिकारी उस राष्ट्रनिर्माता से न्याय करेगा? तब कहाँ से बहेगी गुरु-शिष्य संबंधों की वह पवित्र नदी.... कोई बता सकता है?
ंजरा उन माता-पिता की ओर भी दृष्टि डाल लें, जो कई घंटों की प्रतीक्षा के बाद हाथ में भोजन का डिब्बा और फल लिए जेल के बाहर अपने चिरंजीव से मिलते हैं. माता-पिता के रूँआसे चेहरों के बीच वह दुलारा पुत्र जेल के भोजन की बुराई करता और माँ के हाथ के भोजन की प्रशंसा करता हुआ कैसा लगता है. झुर्रियों के पीछे का सच यही होता है कि यदि उस समय हमने इसे नकल का ककहरा न पढ़ाया होता तो शायद ये दिन न आते.
संभव है कई पालकों को नकल के अच्छे परिणाम भी मिले हों. बच्चे ने पालकों की इस सीख को आगे बढाकर नकल पर नए-नए प्रयोग कर ढेर सारी डिग्रियाँ बटोर ली हों, पर इतना तय है कि निश्चित ही वे माता-पिता भी दु:खी होंगे, अपनी उन कारगुजारियों के लिए. यह सभी जानते हैं कि बेईमानी की उम्र नहीं होती, लेकिन छोटी-सी उम्र में ही वह ऐसे सब्ज-बाग दिखा देती है कि इंसान उस बाग से निकलना ही नहीं चाहता.
दोष शिक्षा पद्धति का भी है. यदि वह शिक्षा पद्धति हमारी होती तो उसमें सुधार संभव भी था. पर हमें तो यह विरासत में मैकाले साहब ने दी है. मैं तो कायल हूँ मैकाले की दूरंदेशी का, आज से सौ वर्ष पूर्व उसने हमारे देश में शिक्षा के जो बीज बोये, उसे हमारे देश के अनेक विद्वान, शिक्षा शास्त्री, विचारक एवं समाजशास्त्री मिलकर भी नष्ट नहीं कर पाऐ. थोपी हुई शिक्षा का भार आज हर मासूम के कंधे पर लटका दिखाई देता है. ठंडे कमरों में गर्म बहस करने वाले अधिकारियों को यह कुछ भी दिखाई नहीं देता. शिक्षा नीतियाँ बनाने की जिम्मेदारी उन्हें दी जाती है, जिन्होंने विदेशी तरीके से शिक्षा प्राप्त की है. शिक्षाविदों की किसी समिति में गाँव के साधारण शिक्षक को रखते और उनके विचार सुनते, तब लगता कि शिक्षा रूपी आदेश गाँव तक पहुँचते-पहुँचते कैसे भोथरे हो जाते हैं. बस्तर जिले में कई शालाएँ ऐसी हैं, जहां बच्चे कथित रूप से आते हैं, परीक्षाएँ होती हैं, परिणाम निकलते हैं पर वास्तव में वहाँ न स्कूल हैं, न बच्चे और न ही शिक्षक, सब कागजों पर है. हाँ, पर शिक्षक अपना वेतन लेने हर महीने पहुँच जाते हैं. इसे आखिर क्या कहा जाए?
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि शिक्षा देना कर्तव्य नहीं, व्यापार हो गया है. शिक्षा के मंदिर विशुद्ध रूप से व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनकर रह गए हैं, जहाँ शिक्षा के नाम पर पालक 'लुटने' के लिऐ आते हैं और प्रतिष्ठान के लोग 'लूटने' का काम खुलकर करते हैं, जिनमें दम है वह रोक ले इन्हें. पहले कौन आगे बढ़ेगा, सरकार, प्रशासन, मैं या आप...?
- डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

घर-ऑफिस का पर्यावरण अधिक खतरनाक


 डॉ. महेश परिमल
आजकल लोग पर्यावरण की बात कर रहे हैं, वैज्ञानिक हमेशा मानव जाति को इस बात के लिए आगाह कर रहे हैं कि पर्यावरण को यदि षुध्द नहीं रखा गया, तो संपूर्ण मानव जाति खतरे में पड़ जाएगी। पर्यावरण की रक्षा के लिए सरकार भी करोड़ों रुपए खर्च कर रही है। जागरूक पालक बच्चों को षुरू से ही पर्यावरण की रक्षा का पाठ पढ़ा रहे हैं। अखबारों और टीवी पर भी इस आषय की ज्ञान की बातें हमेषा प्रकाषित-प्रसारित होती रहती हैं। हर कोई आज बाहर के बिगड़ते पर्यावरण के लिए चिंतित है, पर घर और ऑफिस में पसरने वाले पर्यावरण की चिंता किसी को नहीं है। आपका सोचना सही हो सकता है कि घर के अंदर किस तरह से पर्यावरण बिगड़ रहा है? तो आइए, जानें कि आज घर का ही पर्यावरण ही खतरे में है:-
घर में तीन साल का मासूम अक्सर बीमार रहता था, काफी दवाएँ कराई, पर कोई फायदा नहीं हो रहा था। हारकर एक दिन बच्चे के दादा अपने एक मित्र और अनुभवी चिकित्सक के पास बच्चे को ले गए। डॉक्टर ने बच्चे की जाँच की और छोटी से छोटी जानकारी ली। डॉक्टर के कई प्रष्न ऐसे थे, जिससे बूढ़ा व्यक्ति परेषान हो गया। पूरी तरह से संतुष्ट होकर उसने अपने मित्र से कहा कि बच्चे की बीमारी के लिए कोई और नहीं, बल्कि तुम ही दोष्ाी हो। बुजुर्ग अवाक् रह गया। डॉक्टर ने बच्चे की जाँच में पाया कि उसके फेफड़े में काफी धुऑं भर गया था। अब वह मासूम तो धूम्रपान करने से रहा। फिर उसके फेफड़े में धुऑं आया कहाँ से? अब जो मैं कह रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनें। होता यह था कि माता-पिता कामकाजी होने के कारण वे सुबह ही ऑफिस चले जाते थे, बच्चे को उसके दादा-दादी के हवाले कर जाते। अब दादा दिन भर बीड़ी या सिगरेट फूँकते रहते, इसकी गंध को दूर करने के लिए दादी दिन भर घर में सुगंधित अगरबत्ती जलाती रहती। उसी तरह रात को मच्छर भगाने के लिए क्वायल का इस्तेमाल किया जाता। इस तरह से बच्चे के आसपास 24 घंटे ही धुएँ वाला वातावरण रहता। यह एक दूसरे ही प्रकार का प्रदूष्ाण था, जिसमें बच्चा साँस ले रहा था। इससे बच्चे के फेफड़े में धुऑं भर गया। माता-पिता को इसकी जानकारी थी, पर दादा की पेंषन घर में आती थी, इसलिए वे कुछ कह नहीं पाते थे, और कभी-कभी तो इस बात को समझते हुए भी अनजान बन जाते या अनदेखा कर जाते।

एक और किस्सा :- एक साहब को अपना ऑफिस बिलकुल साफ-सुथरा रखने की आदत थी। यह एक अच्छी आदत है, ऐसा तो होना ही चाहिए। पर उनकी यह आदत ऑफिस के लोगों के लिए परेषानी का कारण बन गई। होता यह था कि साहब ने ऑफिस में बाहर से आने वाली हवा के सारे रास्ते बंद कर दिए। पूरे ऑफिस को ठंडा रखने के लिए एसी और रुम फ्रेषनर की व्यवस्था कर दी। इससे ऑफिस ठंडा और सुगंधित हो तो गया, पर एक महीने में ही सारे कर्मचारियों के चेहरे फिक्के पड़ गए। जो लोग पहले हर काम फुर्ती से करते थे, वही कर्मचारी अब और आलसी हो गए। काम प्रभावित होने लगा। ऑफिस के बॉस परेषान। क्या हो रहा है, कर्मचारियों को डाँटने-डपटने का भी कोई असर नहीं हो रहा था। हारकर बॉस ने अपने एक डॉक्टर मित्र से इसकी चर्चा की। डॉक्टर ने कार्यालय का निरीक्षण कर बॉस को सलाह दी थी, सबसे पहले तो इस रुम-फ्रेषनर को अलविदा कह दो और कार्यालय मे बाहर से हवा आने का प्रबंध करो। डॉक्टर ने अपने मित्र से कहा कि प्रकृति से दूर होकर हम कभी भी सुखी नहीं रह सकते। मानसिक रूप से यदि सुखी रहना है, तो प्रकृति से जुड़ना सीखो। बॉस ने मित्र की सलाह मानी और कुछ ही दिनों बाद इसके सकारात्मक परिणाम सामने आए।
ऐसे ही न जाने कितनी समस्याए¡ सामने आती हैं, जिसका हम समझदारी के साथ मुकाबला कर सकते हैं। अब जैसे कि आपको अपने घर में पुताई करवानी है, स्वजन कहते हैं कि पुराना रंग निकाल कर ही दूसरा रंग करवाओ। कारीगर इस काम में लग जाता है, उस वक्त सारा परिवार अस्त-व्यस्त हो जाता है। इस दौरान पुराना रंग दीवार से निकाला जाने लगता है। पुराना रंग निकलते हुए एक विषेष प्रकार रसायन लेड छोड़ता है। जो आपकी साँसों के माध्यम से षरीर के भीतर पहुँचकर नुकसान पहुँचाता है और हमें बीमार बनाता है। कई लोग अपने घर में तापमान नापने के लिए थर्मामीटर रखते हैं, यह भी एक आवष्यक वस्तु है। इसे रखना बुरा नहीं है, पर यदि यह आवष्यक वस्तु कहीं ऐसे स्थान पर रख दी गई हो, जहाँ बच्चों का हाथ आसानी से पहुँच जाता हो, तो वह खतरनाक साबित हो सकता है। यदि धोखे से बच्चे के हाथ से थर्मामीटर जमीन पर गिर गया, तो उसमें भरा हुआ पारा प्राणलेवा साबित हो सकता है। ऐसे ही कई लोग अपने घर को पूरी तरह से बंद रखते हैं। कई लोग तो इस तरह के घर बनाने भी लगे हैं, पर इस तरह के घर मानव को प्रकृति से पूरी तरह से दूर कर देते हैं। बाहर की प्रदूषित हवा से बचने के लिए जो लोग अपने घर बंद रखकर अन्य संसाधनों से हवा लेते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि वे बाहर की हवा के रास्तों को रोककर सबसे बड़ी भूल कर रहे हैं। इस तरह से एयरटाइट मकानों में रहना थोड़ी देर के लिए भले ही अच्छा लगता हो, पर सच तो यही है कि इस तरह की अप्राकृतिक हवा हमारे ही षरीर को नुकसान पहुँचा रही है।
अल्कोहल पर आधारित विदेषी परफ्यूम, एयर फ्रेषनर, मसाले से भरी अगरबत्ती, मच्छरमार अगरबत्ती, जीव-जंतुओं को मारने वाली तमाम दवाएँ, हेयर स्पे फर्नीचर पर लगाए जाने वाला पॉलिष और पुताई के दौरान इस्तेमाल किया जाने वाला टर्पेटाइन, ये सब अब कृत्रिम रसायनों से बनने लगे हैं। इससे षरीर को काफी नुकसान हो रहा है, पर इसे हम अभी समझने के लिए तैयार नहीं हैं। भविष्य में निष्चित रूप से ये हमें अपना असर दिखाएँगे, यह तय है।
कभी गाँव जाने पर वहाँ हम देखते हैं कि मच्छरों को भगाने के लिए नीम के सूखे पत्तों को जलाया जाता है, इसी तरह पूजा करने के लिए गुगल और लोभान का धुऑं किया जाता है, ये चीजें जलने के बाद भी षरीर को नुकसान नहीं पहुँचाती, बल्कि पर्यावरण को भी स्वच्छ करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी तरह घर में तुलसी का पौधा भी पर्यावरण को साफ रखने में सहायक होते हैं। अब तो बढ़ते कांक्रीट के जंगलों के बीच न तो नीम का पेड़ कहीं दिखाई देता है और न ही लोभान और गुगल वाली अगरबत्ती। बेचारा तुलसी का पवित्र पौधा भी ऑंगन में या घर की गैलेरी में एक गमले में पड़ा अपने आपको बचाने की कोषिष में लगा रहता है।
आपको यदि धूम्रपान का षौक है, तो आप अनजाने में घर के सदस्यों के स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं। आपको घर में कार्पेट रखने का षौक है, तो एक निष्चित समय बाद उसे ड्राइक्लिनिंग के लिए तो देते ही होंगे, साफ-सुथरा होने के बाद घर में आने वाले कार्पेट को देखकर आप रोमांचित भी होते होंगे, पर आप षायद यह भूल जाते हैं कि कार्पेट के ड्रायक्लिनिंग में जिस पर-क्लोरोथायलीन नामक रसायन का इस्तेमाल हुआ है, वह षरीर के लिए कितना हानिकारक है। आपके ये षौक केवल आपके लिए ही नहीं, घर के अन्य सदस्यों के स्वास्थ्य पर भी नुकसानदायक प्रभाव छोड़ते हैं।
इसके अलावा घर में ही होने वाले ध्वनि प्रदूषण की तरफ हमारा ध्यान नहीं जा रहा है। कभी हमारा ही टीवी इतना तेज होता है कि घर के सदस्य ही नहीं, बल्कि पास-पड़ोस के लोग भी परेषान हो जाते हैं। ये हल्का ध्वनि-प्रदूषण है, जो अभी तो नहीं, पर भविष्य में निष्चित ही हमारी संतानों को प्रभावित करेगा। षोर की यही स्थिति रही, तो आज हम भले ही अपनी संतानों की आवाज सुन रहे हों, पर यह तय है कि हमारी संतान अपनी संतानों की आवाज नहीं सुन पाएगी। केवल टीवी ही नहीें आजकल तो डीजे जैसे कानफाड़ षोर करने वाले संसाधन आ गए हैं, जिस पर आज के युवा थिरक रहे हैं। अधिक षोर इन्हें इतना भा गया है कि आज ये धीरे से कहे जाने वाले वाक्यों को अच्छी तरह से नहीं सुन पाते। इनके सामने जोर से ही कहना पड़ता है, याने ये पीढ़ी ऊँचा सुन रही है।
कई लोग प्रवास के दौरान सुगंधित टिष्यू पेपर का इस्तेमाल करते हैं, तो वे जान लें कि उसमें खुष्बू के लिए सिंथेटिक रसायन का उपयोग किया जाता है। ये रसायन भी षरीर के लिए हानिकारक है। हमारे बीच कई लोग ऐसे भी हैं, जिन्हें कुछ खुष्बुओं से एलर्जी होती है। इसका कारण यही है कि उन्हें ष्वसनतंत्र या फिर फेफड़ों में तकलीफ है। कृत्रिम सुगंध ही षरीर पर दूरगामी असर डालती है। प्रकृति प्रदत्त सुगंध कुछ और ही होती है। विदेषी परफ्यूम जहाँ अल्कोहल के साथ कृत्रिम रसायनों से बनते हैं, वहीं भारतीय इत्र चंदन के तेल और विविध प्रकार के फूलों के अर्क से बनते हैं। इसकी सुगंध का तो जवाब ही नहीं है। इस सुगंध से किसी को भी एलर्जी नहीं हो सकती। ऐसा मानना है द एनर्जी रिसर्च इंस्टीटयूट (ज्म्त्प्) के वैज्ञानिकों का। ये वैज्ञानिक यह भी कहते हैं कि आज हमारे देष में पर्यावरण को लेकर काफी जागरूकता आ गई है और इस दिषा में काफी काम भी हो रहा है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हमें इनडोर पॉलुषन पर भी ध्यान देना होगा। अभी इसे बहुत ही कम लोग समझ पा रहे हैं। अभी इस दिषा में बहुत कुछ करना है। तभी लोग समझ पाएँगे, घर में होने वाले प्रदूषण् को। बाहर के पर्यावरण को सुधारने के लिए पेड़-पौधे हैं, पर घर के पर्यावरण को सुधारने के लिए केवल मानव ही है, जो इस काम को कर सकता है।
 डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

आपको क्या चाहिए बुझा हुआ बचपन या अच्छी अंकसूची?


डा. महेश परिमल
इन दिनों परीक्षा के भूत से हर पालक परेशान है. प्रतिस्पर्धा के इस युग में सभी पालकों की यही चाहत होती है कि उनका बच्चा अच्छे अंक लाकर उनका नाम रोशन करे, जिससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ जाए. उसका भविष्य सँवर जाए. इन आसमान छूती मान्यताओं, झूठी प्रतिष्ठाओं और बच्चों पर लादी गई ढेर सारी अपेक्षाओं के बीच आज के पालक यह भूल गए हैं कि उन्हें क्या चाहिए? मैं उन पालकों से पूछना चाहता हूँ कि आपको हँसता-खेलता बच्चा चाहिए या उसकी मेधावी अंकसूची? आप क्या चाहते हैं कि बच्चा यदि अपनी सारी शरारतें भूलकर और अपना बचपन भूलकर यदि आपके सामने अपनी अच्छे अंक वाली अंकसूची लाकर रखता है, तो क्या आप उस अंक सूची को स्वीकार करेंगे? अच्छे अंक जीवन में मददगार होते हैं, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता, पर प्यार भरा बचपन भी भविष्य के लिए मददगार साबित होता है, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता. पालक यदि अपनी अपेक्षाओं का बोझ अपने बच्चों के सर पर लादना छोड़ दें, तो फिर तैयार हो जाएँ अपने बच्चे की अठखेलियों का. जहाँ उसका बचपन होगा, उसकी शरारतें होंगी, उसकी कल्पनाएँ होंगी और होगा आपका दुलार, प्यार और ढेर सारा स्नेह.
रोज की तरह उस रोज भी मंदिर के सामने से गुजरना हुआ, लेकिन यह क्या! उस दिन तो मंदिर में अपेक्षा से अधिक भीड़ दिखाई दी. इस भीड़ में युवा और किशोर चेहरे अधिक थे. समझ में नहीं आया कि बात क्या है. इन बच्चों और युवाओं में अचानक भक्ति-भाव कैसे जाग गया. क्या इन पर कोई मुसीबत आ पड़ी है. घर आया तो पता चला कि मेरा बेटा भी मंदिर गया हुआ था. तो क्या भक्ति-भाव का रेला घर तक आ पहुँचा है? मंदिर से आकर बेटे ने अपनी स्कूल डायरी में हस्ताक्षर करने को कहा. तब देखा कि ये तो उसके परीक्षा का टाइम-टेबल है. तब समझ में आया कि मंदिर में अचानक भीड़ क्यों बढ़ गई है.
सचमुच आज परीक्षा के बुखार से हर कोई तप रहा है. इससे बच्चे तो बच्चे, बल्कि पालक भी जूझ रहे हैं. हालत यह हो गई है कि जिस तरह वन डे क्रिकेट में अंतिम ओवर में जो एक तनाव होता है, वही तनाव आजकल बच्चों में देखा जा रहा है. हमारे देश की टीम जीत जाएगी, इसका विश्वास होने के बाद भी टीवी के सामने से हटने की इच्छा नहीं होती, उसी तरह बच्चा परीक्षा में पास हो जाएगा, इसका विश्वास होने के बाद भी उसे कई तरह की हिदायतें हर पल मिलती रहती हैं. बच्चों को चारों तरफ से 'पढ़ने बैठो, लिख-लिख कर याद करो, न आता हो, तो पूछ लो,' आदि सलाहें मिलती रहती हैं. इन बच्चों की दशा ऐसी होती है कि कुछ न पूछो. हर कोई उनसे पढ़ाई के बारे में ही बात करता है. घर से बाहर निकलते ही दस में से आठ लोग तो ऐसे ही मिलते हैं, जिनके पास परीक्षा में अच्छे अंक लाने के गुर होते हैं. अब यह बात अलग है कि उस गुर को उन्होंने कितना अपनाया और कितने अच्छे अंक प्राप्त किए, यह पूछने वाला अब कोई नहीं है.

हमारे देश में परीक्षा का हौवा दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. इसे हम सभी अच्छी तरह से समझते हैं कि मात्र तीन घंटे में कभी किसी की प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, फिर भी हम ही परीक्षा के इस हौवे को अपने से अलग नहीं कर पाए हैं. इसे दूर करने का भी कोई उपाय नहीं किया, बल्कि परीक्षा आते ही हम भी बच्चों के साथ इस भूत से लड़ने के लिए कमर कस लेते हैं. बच्चों के लिए उसके भोजन की खुराक का ध्यान रखना, उसके पाठयक्रम के लिए पुराने प्रश्न-प्रत्र की व्यवस्था करना, डाक्टर के पास उसका चेकअप कराना, उसके लिए बादाम लेकर रखना, घर में पढ़ाई का माहौल देना आदि कवायद करने में हमें कोई संकोच नहीं होता. इतना ध्यान केवल परीक्षा के समय ही रखा जाता है, यदि इन बातों का ध्यान शुरू से ही रखा जाता, तो आज यह नौबत ही नहीं आती.
परीक्षा के इस दौर में आजकल अखबारों में तनाव दूर करने के कई उपायों की जानकारी दी जा रही है. कभी किसी चिकित्सक की समझाइश होती है कि अमुक टेबलेट खाने से अच्छी नींद आती है या फिर तनाव दूर करने में सहायता मिलती है. कभी कोई मनोचिकित्सक अपनी बात बताते हैं. कभी मेधावी छात्र-छात्राएँ अपना अनुभव सुनाते हैं. इन सबके बाद भी बच्चों का तनाव दूर होता है, यह कहना नामुमकिन है. केवल पालक ही नहीं बल्कि शिक्षकों की ओर से भी कहा जाता है कि यदि उनके अंक कम आए, तो अगले वर्ष उन्हें पसंद का विषय चुनने में काफी परेशानी हो सकती है. यदि अच्छे से परिश्रम नहीं किया गया, तो संभव है वे अपने लक्ष्य की ओर न बढ़ पाएँ. इस तरह से बच्चे को एक स्ंप्रिग की तरह चारों तरफ से ख्ािंचा जाता है. यहाँ हम यह भूल जाते हैं कि स्ंप्रिग को जितनी तेजी से दबाया जाएगा, वह उतनी ही तेजी से उछल पड़ेगी.
हमने अपने जीवन में देखा होगा कि कई विद्यार्थी खूब मन लगाकर पढ़ते हैं, पर ऐन प्रश्न पत्र सामने आते ही सब कुछ भूल जाते हैं. कुछ ऐसे भी बच्चों को देखा होगा, जो पढ़ते तो कम हैं, पर उनके अंक हमेशा अच्छे आते हैं. अब सारी परीक्षाएँ परिणामलक्ष्यी बन गई हैं, फलस्वरूप रटने और बार-बार लिखने पर अधिक जोर दिया जाता है, जो ऐसा कर पाते हैं,उनके परिणाम भी अच्छे आते हैं. इसलिए टयूशन में पुराने पेपर को हल करने के लिए कहा जाता है. कई स्थानों पर तो एक ही प्रश्न को 50 बार लिखवाकर याद करवाया जाता है. इस तरह से विद्यार्थी करीब-करीब टूट जाते हैं. फिल्में न देखने, टीवी न देखने, बाहर घूमने न जाने, दोस्तों के साथ फोन पर अधिक बात न करने, इंटरनेट को हाथ न लगाने आदि हिदायतों के बीच विद्यार्थी उलझन में पड़ जाते हैं. वे चाहते हैं कि अब जितनी जल्दी हो सके, परीक्षा निबट जाए, तो ही अच्छा.
मनोचिकित्सक बार-बार कहते हैं कि परीक्षा के समय बच्चों को पढ़ाई से थोड़ी राहत दी जाए, इसका समर्थन कई शोध भी करते हैं, पर आज के बच्चे परीक्षा को लेकर इतने भयभीत हैं कि इन दिनों वे परीक्षा के सिवाय और कुछ सोच ही नहीं सकते, क्योंकि कई हिदायतें और प्रतिबंध उनका लगातार पीछा करते रहते हैं. स्पर्धा के इस युग में शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है. जो विद्यार्थी शांत मन से, पूरे मनोयोग से पढ़ाई करते हैं, वे परीक्षा में सफल हो जाते हैं, जबकि कई ऐसे भी होते हैं, जिन्हें धक्का मार मार कर आगे बढ़ाना पड़ता है.

आजकल गली-मोहल्लों में ढेर सारे कोचिंग क्लासेस खुल गए हैं. यहाँ पहुँचने वाले पालकों को पहले तो खूब आश्वासन दिया जाता है कि हमारे यहाँ पढ़ने वाले छात्र निश्चित रूप से 65-70 प्रतिशत अंक ले आएँगे. इस आश्वासन के बाद वहाँ पूरे साल की फ ीस ले ली जाती है, फिर छह माह बाद यह कहा जाता है कि छात्र ने हमारे कहे अनुसार मेहनत नहीं की, इसलिए उसके अंक कम आएँगे. अंत में होता यह है कि विद्यार्थी बड़ी मुश्किल से ही पास हो पाता है. कई पालक अव्यावसायिक शिक्षकों के मायाजाल में फँस जाते हैं. ये लोग सुबह तो कहीं नौकरी करते हैं और शाम को घर पर ही बच्चों को पढ़ाते हैं. इनका मुख्य उद्देश्य धन कमाना होता है. अक्सर होता यह है कि परीक्षा के दिनों में ये पढ़ाना छोड़ देते हैं और विद्यार्थी का भविष्य अंधकारमय बना देते हैं.
परीक्षा के इन दिनों में बच्चों को थोड़ी सी स्वतंत्रता भी देनी चाहिए, इसमें उन्हें घूमने देने या फिर स्वीमिंग के लिए भी समय देना चाहिए. इससे वे अपने आप को तरोताजा महसूस करेंगे, और अपनी पढ़ाई में मन लगाएँगे. पालक इन दिनों पहले स्वयं को व्यवस्थित करें और बच्चों को बताएँ कि परीक्षा की यह घड़ी उनके जीवन में बार-बार आएगी, इसका वे पूरी सजगता के साथ मुकाबला करेंगे, तो कभी विफल नहीं होंगे. उन्हें यह समझाया जाए कि विफलता ही सफलता की सीढ़ी है. विफलता हमें अधिक सतर्क बनाती है. इससे घबराना नहीं चाहिए. हर सफल व्यक्ति कभी न कभी विफल होता ही है. इसका आशय यह नहीं कि विफल व्यक्ति सब कुछ हार गया. इस तरह की हल्की-फुल्की शिक्षाओं और शरारतों के साथ यदि बच्चे को परीक्षा के लिए तैयार किया जाए, तो वह तनावमुक्त होकर परीक्षा में शामिल होगा और अच्छा प्रदर्शन करेगा, यह तय है.
डा. महेश परिमल

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

आ गया गिरते विचारों का पतझड़


डा. महेश परिमल
प्रकृति ने एक बार फिर करवट बदली है. अब उसने राग पतझड़ शुरू कर दिया है. जो प्रकृति के संगीत से जुडे हैं, उनके लिए यह समझना आसान हो सकता है कि राग पतझड़ का संगीत में कोई अस्तित्व भले ही न हो पर जीवन में अवश्य है. यह सभी के जीवन में अपना प्रभाव दिखाता है. इसका अपना महत्व है. ये वह राग है, जो विदाई के समय छेड़ा जाता है. विदाई व्यक्ति की नहीें, उसके बुरे कर्मों की, बुरे विचारों की. ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनके जीवन में ये राग सदैव बजता ही रहा है. पर कई ऐसे भी होते हैं, जो इसमें जीवन का आशय ढूँढ़ते हैं. इसमें आधा सफल होने वाले इंसान ही रह पाते हैं और जो इसमें जीवन का पूरा आशय ढूँढ़ लेते हैं, वे महात्मा बन जाते हैं.
दिन की धूप तीखी होती जा रही है. हवाएँ तेज चलने लगी हैं, पत्तों की सरसराहट भीकुछ परर्िवत्तन का आभास देती है. बंद खिडक़ी के पास सोने से हवा की सायँ-सायँ ध्वनि भी कुछ नएपन का संकेत देने लगी है. इन सबका आशय यही है कि प्रकृति अपना बाना बदलने लगी है. मानवी भाषा में कहा जा सकता है कि प्रकृति अपना चोला बदलने लगी है, पर प्रकृति के इस परर्िवत्तन पर यदि थोड़ा-सा ध्यान दिया जाए, तो हम समझेंगे कि यह प्रकृति के विश्राम का क्षण है. कुछ नया करने के पहले इंसान भी कुछ सोचता है. प्रकृति भी इस प्रयास में है, क्योंकि उसके पास अब भी हमें देने के लिए बहुत कुछ है. अब यह मानव पर निर्भर है कि वह क्या ले, कितना ले?
कभी सूर्योदय से पहले निहारा है प्रकृति को आपने? एक बार बस एक बार बिस्तर का मोह छोड़कर उठ तो जाओ और निकल पड़ो, घर से बाहर. फिर देखो इसकी अद्भुत छटा. चिड़ियों की चहचहाट, मंद-मंद बहता समीर,आकाश की लालिमा मानों सूरज ने घूँघट ओढ़ रखा हो. किसी बाग-बगीचे में कसरत करते युवा, बतियाते या तेज चलते बुंजुर्ग, दौड़ते-भागते शोर करते बच्चे. इनमें से हर कोई यही चाहता है कि आज प्रकृति के साथ जी भर कर खेल लो, क्या पता कल यही हमसे रुठ जाए. कभी इनसे बात करके देखो, कितना उत्साह है इनमें. भविष्य के सपने कैसे झाँकते हैं इनकी बातों में. ऑंखों में तेज, होठों पर मुस्कान, मानो जीवन का संगीत यहीं से फूट रहा हो.
पतझड़ याने पत्तों का झड़ना. उन पुराने पत्तों का शाखा से नाता तोड़ना, जो अब पीले होकर कुम्हलाने लगे थे. इनमें जीनव रस नहीं था. पूरे साल भर इन्होंने पेड़ का साथ दिया. अब वे अपनी भूमिका समाप्त कर चल पड़े भूमिपुत्र बनकर भूमि में खाद बनने. यहाँ भी उन्होंने अपनी उदारता से पल्ला नहीं झाडा, वे भूमि पर जाकर भी उसे उर्वरा बनाने में लग जाएँगे. ऐसा महान संकल्प लेकर वे आए और हमें छोटा-सा संदेश देकर चले गए. हम इनसे तो कुछ सीख नहीं पाए, पर इन्हें नेस्तनाबूद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. खैर यह प्रकृति की उदारता है कि अभी तक उसने मानव से कुछ प्रतिफल नहीं माँगा है. जब वक्त अाएगा, तब मानव अपना सर्वस्व अर्पित कर देगा, तो भी उसके ऋण से मुक्त नहीं हो पाएगा.
पतझड़ एक विचार है, समय का, परर्िवत्तन का, जीवन का, संघर्ष का. वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता कहते हैं पतझड़ के इस समय पेड़ों के भीतर एक वलय बन जाती है. अर्थात् उसने अपने जीवन का एक वर्ष पूरा कर लिया. इसी वलय को गिनकर ही पेड़ की उम्र का पता लगाया जाता है. जितनी वलय-उतने वर्ष. जब पेड़ से पूरे पत्ते उससे नाता तोड़ देते हैं, तब पेड़ कितना कुरूप दिखाई देता है. लोग उसकी ओर देखकर आहें भरते हैं कि कभी यह भी हरियाला था. इसके पत्तों की सरसराहट कितनी भली लगती थी. इसकी छाँव में हमने खूब मौज-मस्ती की है. पर अब इसमें वह बात कहाँ? अब तो निर्वस्त्र हो गया है.
पेड़ पर इस तरह के कटाक्ष करने वालों, थोड़ा ठहर जाओ. अभी यह पेड़ अपने बाहरी विश्राम के क्षणों में है. इसने तुम्हें सीख देने के लिए अपने पत्तों को अपने से दूर किया है. आज आपके सामने यह निर्वस्त्र दिखाई दे गया तो आपने ंजरा भी देर नहीं की. अभी तो आपने इसका बाहरी स्वरूप ही देखा है. कुछ दिन बाद ही इसमें नए पत्तों की कोंपल फूटेगी, तब देखना. कोमल, नरम, मुलायम पत्तों की बहार. ये आते रहेंगे पूरी मस्ती के साथ, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कब यह पेड़ पूरी तरह से हरियाली से ढँक गया.
अब भी पतझड़ आ रहा है, पर वह है, मानव के गिरते विचारों का पतझड़. विचार ऐसे जिसमें देश, मान-अभिमान, प्रतिष्ठा, परोपकार, गर्व आदि कुछ नहीं. यदि है, तो केवल स्वार्थ, धन-लिप्सा, मक्कारी, धूर्तता, बेईमानी, झूठ-फरेब, लूट-खसोट आदि कूट-कूटकर भरी है. इन कुसंगियों के बीच रहकर वह कुछ भी कर रहा है. कंफन बेचना तो इसके लिए छोटी-सी बात है. अब तो वह कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता. अब पेड़ तो हैं नहीं, इसलिए इस पतझड़ में मनुष्य के विचार गिरने लगे हैं. विचारों का गिरना लगातार जारी है. अब तो इसे पतझड़ की भी प्रतीक्षा नहीं होती. प्रकृति से दूर होने के कारण उसके स्वभाव को भी भूल गया है. इस मौसम के बाद पेड़ों की रंगत ही बदल जाती है. पर इंसान की नहीं बदलती. उसने अपने आपको पुराने विचारों के साथ इस तरह जकड़ लिया है कि नए विचारों का प्रवेश ही बंद हो गया है. जब तक पुराने विचारों का खात्मा नहीं होगा, तब तक नए विचार आएँगे, यह सोचना भी ंगलत है. निर्माण सदैव विध्वंस के रास्ते आता है. इसे सभी समझते हैं. पर पुराना हटाना नहीं चाहते, तो नए विचार कैसे आएँगे?
पतझड़ में संदेश है, नई ऊर्जा का. जो प्राणों का संचार करती है. हृदय में उमंग और उत्साह भरती है. प्रकृति का गुनगुनाना जानने-समझने के लिए अब हमें शहर से दूर जाना पड़ता है. उसके लिए कभी समय निकाल ही लेंगे, पर पुराने और गंदे विचारों को भीतर से निकालने का कोई उपाय हमसे नहीं होता. हमें प्रकृति का स्वभाव समझना होगा, उसके संदेश को हृदय में उतारना होगा. तभी हम समझ पाएँगे कि कुछ ही दिनों बाद आने वाली झुलसाती गर्मी में भी किस तरह हरा-भरा रहा जा सकता है. अशोक के वृक्ष की तरह. हमें विचारों से भी हरियाला बनना है, तो प्रकृति से सीखना ही होगा. तब नहीं आ पाएगा हमारे ऑंगन में गिरते विचारों का पतझड़.
डा. महेश परिमल

बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

राजनीति की धूप में झुलसती छाँव



डॉ. महेश परिमल
हाल ही में एक ही जाति की दो विरोधाभासी खबरों ने ध्यान आकृश्ट किया।पहली खबर तो यही थी कि उत्तर प्रदेष की मुख्यमंत्री ने अपनी 52 करोड़ रुपए की सम्पत्ति की घोशणा की।दूसरी खबर यह है कि पटना के एक्जीबिषन रोड पर स्थित पंजाब नेषनल बैंक में आज भी हमारे पहले राश्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का खाता है, जिसमें मात्र 1,432 रुपए ही जमा थे।राजेंद्र प्रसाद की मृत्यु के 44 वर्श बाद बैंक ने उनके बचत खाता क्रमांक 3098 को अभी तक बंद नहीं किया है।इन 44 वर्शों में उनके परिवार ने भी इस खाते से किसी प्रकार का लेन-देन नहीं किया है।स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद का यह खाता ही उनकी प्रामाणिकता और सार्वजनिक पारदर्षिता को स्पश्ट करता है।उल्लेखनीय है कि इन दिनों राश्ट्रपति का वेतन एक लाख रुपए करने के आवेदन पर संसद में चर्चा चल रही है।ये आज और कल की राजनीति का एक नमूना है, जहाँ एक ओर देष सेवा और त्याग है, तो दूसरी तरफ है केवल लूट।
आज राजनीति कितनी फलदार हो गई है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राजनीति से जुड़ा छोटे से छोटा कार्र्यकत्ता भी लाखों की सम्पत्ति का मालिक है।अब मायावती को ही ले लो, एक दषक पहले ही दिल्ली कार्पोरेषन की एक स्कूल की षिक्षिका के रूप में अपनी जिंदगी की षुरुआत करने वाली ये आज घोशित रूप से 52 करोड़ रुपए की सम्पत्ति की मालिक है।षिक्षिका रहते हुए उन पर दलित नेता कांषीराम का वरद हस्त प्राप्त हुआ, फिर तो जिंदगी मानों दौड़ने लगी और देखते ही देखते दलितों की मसीहा बन गई।2004 में मायावती ने जब लोकसभा का चुनाव लड़ा, तब उन्होंने चुनाव आयोग के सामने अपनी कुल सम्पत्ति 11 करोड़ रुपए घोशित की थी।अभी जब उत्तर प्रदेष विधान परिशद के चुनाव के नामांकन के समय उन्होंने अपनी कुल सम्पत्ति 52.5 करोड़ रुपए की सम्पत्ति की घोशणा की।इस तरह से सत्ता में न रहते हुए भी उनकी सम्पत्ति में कुल 41.5 करोड़ का जंगी इजाफा हुआ।इस इजाफे पर उनका कहना था कि इसके लिए केंद्र की एनडीए सरकार जवाबदार है।इसे स्पश्ट करते हुए उन्होंने कहा कि केंद्र के इषारे पर जब उनके दिल्ली स्थित निवास पर सीबीआई ने छापा मारा, तो सीबीआई को मेरे घर से कुछ नहीं मिला।इस छापे के बाद पार्टी के कार्र्यकत्ताओं को लगा कि मेरे पास कुछ भी नहीं है।इससे सबने मुझे धन तोहफे के रूप में देना षुरू किया।इन कार्र्यकत्ताओं का कहना था कि इस रकम का उपयोग वे दिल्ली में बंगला बनाने या फिर निजी काम के लिए कर सकती हैं।मायावती का यह खुलासा किसी के गले नहीं उतर रहा है।
2004 में जब मायावती ने लोकसभा के चुनाव के लिए षपथपत्र दाखिल किया, तब उन्होंने बताया था कि उनके पास दिल्ली के पॉष इलाके इंद्रपुरी में चार फ्लैट हैं, जिनकी कीमत सवा करोड़ थी, अब उन्होंने सरदार पटेल मार्ग पर एक खुद का बंगला होने की घोशणा की है, इसकी कीमत 18 करोड़ रुपए ऑंकी गई है।वास्तविकता यह है कि एक ही बंगले की कीमत 50 करोड़ रुपए है।मायावती के पास दिल्ली में तीन कामर्षियल प्रापर्टी भी है।जिसकी कीमत करीब 18.8 करोड़ रुपए है।मायावती ने अपनी जितनी सम्पत्ति की घोशणा चुनाव आयोग के सामने जाहिर की है, उतनी ही सम्पत्ति आयकर के सामने भी की है।जब आयकर विभाग ने इस पर अपनी जाँच की, तब उन्हें कुल सम्पत्ति 52 करोड़ रुपए से अधिक की लगी और विभाग की ओर से मायावती को नोटिस भेजा गया।नोटिस के जवाब में मायावती ने आयकर विभाग को लिखा कि जो अतिरिक्त सम्पत्ति है, उसका भी आयकर देने पर सहमति जताई।
हमारे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इतने किस्मतवाले नहीं हैं कि कार्र्यकत्ताओं के दान से करोड़पति हो जाएँ।सन 2004 के चुनाव के समय उनके पास केवल 59 लाख रुपए की सम्पत्ति थी।वाजपेयी जी के जूनियर लालकृश्ण आडवाणी के पास उस समय 2.1 करोड़ रुपए की सम्पत्ति थी।महाराश्ट्र के रसूखदार मंत्री षरद पवार को धन कुबेर कहा जाता है, पर उनके पास भी कानूनन रूप से मात्र 3.6 करोड़ रुपए की ही सम्पत्ति है।इसी तरह रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के पास 23.7 लाख रुपए और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के पास 37 लाख रुपए की सम्पत्ति है।हरियाणा के पूव मुख्यमंत्री ओमप्रकाष चौटाला ने चुनाव आयोग के सामने अपनी कुल सम्पत्ति 4.80 करोड़ और पत्नी की 1.20 करोड़, इस तरह से कुल 6 करोड़ रुपए की सम्पत्ति की घोशणा की थी।जब 4 मई 2006 को सीबीआई ने चौटाला के 24 स्थानों पर छापा मारा, तो वहाँ कुल 1,467 करोड़ रुपए की सम्पत्ति का खुलासा हुआ।उत्तर प्रदेष के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने हाल ही में विधान सभा के चुनाव के समय खुद के पास मात्र 3 करोड़ रुपए की सम्पत्ति होने का खुलासा चुनाव आयोग के सामने किया।इनके पास कुल 100 करोड़ की सम्पत्ति होने का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।इसकी जाँच सीबीआई कर रही है।पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल जब सत्ता में नहीं थे, तब काँग्रेस के मुख्यमंत्री केप्टन अमरेंद्र सिंह ने उन पर अधिक सम्पत्ति होने का मुकदमा चलाया था।इस मामले की जाँच पंजाब विजीलेंस ब्यूरो द्वारा की गई थी।इस जाँच में पाया गया कि बादल के परिवार के पास 4,326 करोड़ रुपए की सम्पत्ति थी।इसी तरह तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि के पास 26.5 करोड़ रुपए की और भूतपूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने 24.6 करोड़ की सम्पत्ति होने की घोशणा की है।इस तरह से देखा जाए तो हमारे प्रधानमंत्री के पास केवल चार करोड़ रुपए की ही सम्पत्ति है।उनकी यह सादगी भी हमारे राजनेताओं को किसी प्रकार की सीख नहीं दे पा रही है।
राजनीति में एक तरफ धनकुबेरों की बड़ी जमात है, तो दूसरी तरफ इन्हें धनपति बनाने वाले और अपना कीमती वोट देने वाले करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है।यही कारण हे कि हमारे देष में धनपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, इसका सर्वेक्षण तो हो रहा है, पर कितने परिवार गरीबी से जूझ रहे हैं, इसका सर्वेक्षण होता भी है या नहीं? यदि होता भी होगा, तो इससे क्या फर्क पड़ता है।एक आम आदमी अपनों के बीच ही कुछ विषेशताओं के साथ चुपके से खास बन जाता है और खास बनने के बाद बड़ी तेजी से प्रगति करते हुए धनकुबेरों की जमात में षामिल हो जाता है।यही नहीं अपनी सात पीढ़ियों के लिए भी इंतजाम कर जाता है।दूसरी तरफ राजेंद्र प्रसाद जैसे लोग भी इसी राजनीति में रहे, जो जाते-जाते अपने खाते में एक छोटी सी रकम ही छोड़ गए।क्या इससे नहीं लगता कि आज की राजनीति की धूप में ईमानदारी की छाँव झुलस रही है?
 डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

परीक्षा बच्चों की कसौटी पालकों की


डा. महेश परिमल
रोज की तरह उस रोज भी मंदिर के सामने से गुजरना हुआ, लेकिन यह क्या! उस दिन तो मंदिर में अपेक्षा से अधिक भीड़ दिखाई दी. इस भीड़ में युवा और किशोर चेहरे अधिक थे. समझ में नहीं आया कि बात क्या है. इन बच्चों और युवाओं में अचानक भक्ति-भाव कैसे जाग गया. क्या इन पर कोई मुसीबत आ पड़ी है. घर आया तो पता चला कि मेरा बेटा भी मंदिर गया हुआ था. तो क्या भक्ति-भाव का रेला घर तक आ पहुँचा है? मंदिर से आकर बेटे ने अपनी स्कूल डायरी में हस्ताक्षर करने को कहा. तब देखा कि ये तो उसके परीक्षा का टाइम-टेबल है. तब समझ में आया कि मंदिर में अचानक भीड़ क्यों बढ़ गई है.
सचमुच आज परीक्षा के बुखार से हर कोई तप रहा है. इससे बच्चे तो बच्चे, बल्कि पालक भी जूझ रहे हैं. हालत यह हो गई है कि जिस तरह वन डे क्रिकेट में अंतिम ओवर में जो एक तनाव होता है, वही तनाव आजकल बच्चों में देखा जा रहा है. हमारे देश की टीम जीत जाएगी, इसका विश्वास होने के बाद भी टीवी के सामने से हटने की इच्छा नहीं होती, उसी तरह बच्चा परीक्षा में पास हो जाएगा, इसका विश्वास होने के बाद भी उसे कई तरह की हिदायतें हर पल मिलती रहती हैं. बच्चों को चारों तरफ से 'पढ़ने बैठो, लिख-लिख कर याद करो, न आता हो, तो पूछ लो,' आदि सलाहें मिलती रहती हैं. इन बच्चों की दशा ऐसी होती है कि कुछ न पूछो. हर कोई उनसे पढ़ाई के बारे में ही बात करता है. घर से बाहर निकलते ही दस में से आठ लोग तो ऐसे ही मिलते हैं, जिनके पास परीक्षा में अच्छे अंक लाने के गुर होते हैं. अब यह बात अलग है कि उस गुर को उन्होंने कितना अपनाया और कितने अच्छे अंक प्राप्त किए, यह पूछने वाला अब कोई नहीं है.
हमारे देश में परीक्षा का हौवा दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है. इसे हम सभी अच्छी तरह से समझते हैं कि मात्र तीन घंटे में कभी किसी की प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, फिर भी हम ही परीक्षा के इस हौवे को अपने से अलग नहीं कर पाए हैं. इसे दूर करने का भी कोई उपाय नहीं किया, बल्कि परीक्षा आते ही हम भी बच्चों के साथ इस भूत से लड़ने के लिए कमर कस लेते हैं. बच्चों के लिए उसके भोजन की खुराक का ध्यान रखना, उसके पाठयक्रम के लिए पुराने प्रश्न-प्रत्र की व्यवस्था करना, डाक्टर के पास उसका चेकअप कराना, उसके लिए बादाम लेकर रखना, घर में पढ़ाई का माहौल देना आदि कवायद करने में हमें कोई संकोच नहीं होता. इतना ध्यान केवल परीक्षा के समय ही रखा जाता है, यदि इन बातों का ध्यान शुरू से ही रखा जाता, तो आज यह नौबत ही नहीं आती.
परीक्षा के इस दौर में आजकल अखबारों में तनाव दूर करने के कई उपायों की जानकारी दी जा रही है. कभी किसी चिकित्सक की समझाइश होती है कि अमुक टेबलेट खाने से अच्छी नींद आती है या फिर तनाव दूर करने में सहायता मिलती है. कभी कोई मनोचिकित्सक अपनी बात बताते हैं. कभी मेधावी छात्र-छात्राएँ अपना अनुभव सुनाते हैं. इन सबके बाद भी बच्चों का तनाव दूर होता है, यह कहना नामुमकिन है. केवल पालक ही नहीं बल्कि शिक्षकों की ओर से भी कहा जाता है कि यदि उनके अंक कम आए, तो अगले वर्ष उन्हें पसंद का विषय चुनने में काफी परेशानी हो सकती है. यदि अच्छे से परिश्रम नहीं किया गया, तो संभव है वे अपने लक्ष्य की ओर न बढ़ पाएँ. इस तरह से बच्चे को एक स्ंप्रिग की तरह चारों तरफ से ख्ािंचा जाता है. यहाँ हम यह भूल जाते हैं कि स्ंप्रिग को जितनी तेजी से दबाया जाएगा, वह उतनी ही तेजी से उछल पड़ेगी.
हमने अपने जीवन में देखा होगा कि कई विद्यार्थी खूब मन लगाकर पढ़ते हैं, पर ऐन प्रश्न पत्र सामने आते ही सब कुछ भूल जाते हैं. कुछ ऐसे भी बच्चों को देखा होगा, जो पढ़ते तो कम हैं, पर उनके अंक हमेशा अच्छे आते हैं. अब सारी परीक्षाएँ परिणामलक्ष्यी बन गई हैं, फलस्वरूप रटने और बार-बार लिखने पर अधिक जोर दिया जाता है, जो ऐसा कर पाते हैं,उनके परिणाम भी अच्छे आते हैं. इसलिए टयूशन में पुराने पेपर को हल करने के लिए कहा जाता है. कई स्थानों पर तो एक ही प्रश्न को 50 बार लिखवाकर याद करवाया जाता है. इस तरह से विद्यार्थी करीब-करीब टूट जाते हैं. फिल्में न देखने, टीवी न देखने, बाहर घूमने न जाने, दोस्तों के साथ फोन पर अधिक बात न करने, इंटरनेट को हाथ न लगाने आदि हिदायतों के बीच विद्यार्थी उलझन में पड़ जाते हैं. वे चाहते हैं कि अब जितनी जल्दी हो सके, परीक्षा निबट जाए, तो ही अच्छा.
मनोचिकित्सक बार-बार कहते हैं कि परीक्षा के समय बच्चों को पढ़ाई से थोड़ी राहत दी जाए, इसका समर्थन कई शोध भी करते हैं, पर आज के बच्चे परीक्षा को लेकर इतने भयभीत हैं कि इन दिनों वे परीक्षा के सिवाय और कुछ सोच ही नहीं सकते, क्योंकि कई हिदायतें और प्रतिबंध उनका लगातार पीछा करते रहते हैं. स्पर्धा के इस युग में शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है. जो विद्यार्थी शांत मन से, पूरे मनोयोग से पढ़ाई करते हैं, वे परीक्षा में सफल हो जाते हैं, जबकि कई ऐसे भी होते हैं, जिन्हें धक्का मार मार कर आगे बढ़ाना पड़ता है.
आजकल गली-मोहल्लों में ढेर सारे कोचिंग क्लासेस खुल गए हैं. यहाँ पहुँचने वाले पालकों को पहले तो खूब आश्वासन दिया जाता है कि हमारे यहाँ पढ़ने वाले छात्र निश्चित रूप से 65-70 प्रतिशत अंक ले आएँगे. इस आश्वासन के बाद वहाँ पूरे साल की फ ीस ले ली जाती है, फिर छह माह बाद यह कहा जाता है कि छात्र ने हमारे कहे अनुसार मेहनत नहीं की, इसलिए उसके अंक कम आएँगे. अंत में होता यह है कि विद्यार्थी बड़ी मुश्किल से ही पास हो पाता है. कई पालक अव्यावसायिक शिक्षकों के मायाजाल में फँस जाते हैं. ये लोग सुबह तो कहीं नौकरी करते हैं और शाम को घर पर ही बच्चों को पढ़ाते हैं. इनका मुख्य उद्देश्य धन कमाना होता है. अक्सर होता यह है कि परीक्षा के दिनों में ये पढ़ाना छोड़ देते हैं और विद्यार्थी का भविष्य अंधकारमय बना देते हैं.
परीक्षा के इन दिनों में बच्चों को थोड़ी सी स्वतंत्रता भी देनी चाहिए, इसमें उन्हें घूमने देने या फिर स्वीमिंग के लिए भी समय देना चाहिए. इससे वे अपने आप को तरोताजा महसूस करेंगे, और अपनी पढ़ाई में मन लगाएँगे. पालक इन दिनों पहले स्वयं को व्यवस्थित करें और बच्चों को बताएँ कि परीक्षा की यह घड़ी उनके जीवन में बार-बार आएगी, इसका वे पूरी सजगता के साथ मुकाबला करेंगे, तो कभी विफल नहीं होंगे. उन्हें यह समझाया जाए कि विफलता ही सफलता की सीढ़ी है. विफलता हमें अधिक सतर्क बनाती है. इससे घबराना नहीं चाहिए. हर सफल व्यक्ति कभी न कभी विफल होता ही है. इसका आशय यह नहीं कि विफल व्यक्ति सब कुछ हार गया. इस तरह की हल्की-फुल्की शिक्षाओं और शरारतों के साथ यदि बच्चे को परीक्षा के लिए तैयार किया जाए, तो वह तनावमुक्त होकर परीक्षा में शामिल होगा और अच्छा प्रदर्शन करेगा, यह तय है.
डा. महेश परिमल

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

रिश्ते कभी बोझ नहीं होते


डा. महेश परिमल
हम रोज ही मौतों के बारे में पढ़ते-सुनते हैं. पर हमें कितनों की मौत याद रहती है? सोचा कभी आपने? वैसे तो मौत सबके लिए एक भयावह त्रासदी के रूप में सामने आती है. पर किसी अपनों की मौत हमें भीतर तक हिला देती है, इसके अलावा कई मौतें हम पर कोई भी असर नहीं छोड़ती. क्या वजह है इसकी? वास्तव में जब तक हम जीवन को अपनी जिम्मेदारी समझकर जीते हैं, तब तक यह जीवन हमें बहुत ही प्यारा लगता है. लेकिन जिस क्षण से जीवन हमें बोझ लगता है, तब यह समझ लो कि जीवन से हमें शिकायत है.
हम जिसे बोझ समझते हैं, वस्तुत: वह हमारी जिम्मेदारी है. हममें से कई ऐसे लोग हैं, जो ंजिंदगी को बोझ समझते हैं, और 'कट रही है' या 'घिसट रही है' जैसे जुमले जिंदगी इस्तेमाल में लाते हैं. इन लोगों के लिए जीवन भले ही एक बोझ हो, पर ऐसे निराशावादियों को कौन समझाए कि इस जीवन को ईश्वर ने आपको कुछ करने के लिए ही दिया है. आप अपना कर्त्तव्य भूलकर जीवन को अपने स्वार्थ के लिए जीना चाहते हैं, यह भला कहाँ की समझदारी है? समझदारी तो तब है, जब आप जीवन की हर मुश्किलों का सामना डटकर करें. ऐसी मिसाल पेश करें कि दूसरों को प्रेरणा मिले.
अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने बड़े भैया को उनके साठवें जन्म दिन पर बधाई दी और कहा कि आज मैंने आपके जिगरी दोस्त को ईद की बधाई भी दी. तब भैया ने जो कुछ भी कहा, उससे मैं विचलित हो गया. उनका मानना था कि वह दोस्त पहले मुझे दीवाली पर ग्रीटिंग भेजता था, तो मैं भी उसे ईद की मुबारकबाद देता था. पर अब उसने भेजना बंद कर दिया, तो मैंने भी सब कुछ बंद कर दिया. आखिर कहाँ तक सँभाला जाए रिश्तों के इस बोझ को! मैं हतप्रभ था, भैया को रिश्ते कब से बोझ लगने लगे. रिश्ते तो बोझ तब बनते हैं, जब हम उसे निभाने में कोताही बरतने लगते हैं. याने उस रिश्ते को लेकर हम ही गलतफहमी में होते हैं.
एक किस्सा याद आ गया. एक बार एक यात्री चढ़ाई चढ़ रहा था. उसके पास सामान कुछ अधिक ही था. उस सामान को उठाने मे उसे मुश्किल हो रही थी. अचानक सामने एक किशोरी आई, उसकी पीठ पर एक बच्चा बँधा हुआ था. किशोरी ने यात्री की परेशानी को समझा, कहने लगी-साब, मैं आपका सामान उठा लेती हूँ. यात्री सहमत हो गया. कुछ चढ़ाई पार करने के बाद यात्री हाँफने लगा, किशोरी भी थक गई. तब यात्री ने उस किशोरी से कहा- बेटी, तुम पीठ पर यह बोझ क्यों उठाई हुई हो? तुम इसे उतार दो, तो नहीं थकोगी. तब उस किशोरी ने जवाब दिया- यह बोझ नहीं, मेरा भाई है. बोझ तो आपका यह सामान है. किशोरी की बात सुनकर यात्री दंग रह गया. ंजिंदगी का पूरा फलसफा एक झटके में समझ में आ गया. एक किशोरी से उसे बता दिया कि
ंजिंदगी को कभी बोझ नहीं समझना चाहिए. बोझ वह है, जिसे हम उठाना नहीं चाहते और अनिच्छा से उसे उठा रहे हैं. वैसे देखा जाए तो अनिच्छा से किया गया कार्य कभी सफलता नहीं दिलाता. अनिच्छा याने जिस काम को करने की हमारी इच्छा ही न हो और हम उसे किए जा रहे हों, तो तय है कि काम पूरा नहीं होगा. आजकल सही मार्ग दर्शन के अभाव में लोग इसी तरह का जीवन जीने के लिए विवश हेैं. उत्साह के साथ प्रारंभ किया गया काम बेहतर तो होता ही है, पर उत्साह काम के अंतिम क्षणों तक हो, तभी वह काम शिद्दत के साथ पूरा होगा. उत्साह में काम करने की शक्ति होतीे है. यही शक्ति ही हमें अपने अंजाम तक पहुँचाती है.
मानव एक सामाजिक प्राणी है. वह अपनों के बीच रहता है. इनमें कभी बेगानापन नहीं होता. जिस लम्हा इंसान इंसान के साथ बेगानापन समझे, तभी से उसके भीतर रिश्तों को लेकर एक भारीपन आ जाता है. यही भारीपन ही आगे चलकर बोझ बन जाता है. माँ के लिए गर्भ में पलने वाला मासूम कभी बोझ नहीं होता. माँ का हृदय इतना विशाल होता है कि वह उस नन्हे को बोझ समझ ही नहीं सकती. कई माँ होती है, जिसे वह मासूम प्यारा नहीं होता, लेकिन उसे भी वह तभी अपने से दूर करती है, जब वह गर्भ में अपनी आयु पूरी कर लेता है, अर्थात् उसे जन्म देकर ही उससे अपना नाता तोड़ लेती है. रिश्ते कभी बोझ नहीं हो सकते. रिश्ते तभी बोझ हो जाते हैं, जब हमारा स्वार्थ रिश्तों से बड़ा हो जाता है. स्वार्थ के सधने तक रिश्तों को महत्व देने वाले यह भूल जाते हैं कि यही व्यवहार यदि सामने वाला कभी उनसे करे, तो क्या होगा?
समाज में इन दिनों स्वार्थ का घेरा लगातार बढ़ रहा है. इस घेरे में बँधकर मानव ही मानव का दुश्मन हो गया है. इस स्थिति में बदलाव तभी संभव है, जब मानव यह सोच ले कि जीवन क्षणभंगुर है. वैसे देखा जाए, तो आज पूरी पृथ्वी सत्य पर ही टिकी हुई है. असत्य से कुछ नहीं होने वाला. इंसान लगातार झूठ के सहारे चल भी नहीं सकता. सत्य ही उसे स्थायित्व देता है. अतएव यह समझ लेना चाहिए कि सत्य ही सब कुछ है. असत्य की आयु बहुत छोटी होती है. सत्य जीवंत है, शाश्वत है. इस संसार में बोझ कुछ भी नहीं है. बोझ यदि कुछ है,तो वह है स्वार्थ,र् ईष्या, लालच, और क्रोध. हमें इसी पर विजय पाना है. यही है शाश्वत सत्य.
अब यदि इसे ही उस मासूम की दृष्टि से देखें, तो स्पष्ट होगा कि जब उस मासूम के लिए उसका भाई बोझ नहीं है, तो उस नन्हे मासूम के लिए वह बच्ची किसी माँ से कम नहीं है. उस छोटे से बच्चे के मन में एक अमिट छाप छोड़ देगा, बहन का वह त्याग. बड़ा होकर वह अपनी इस बहन के लिए सब कुछ करने के लिए एक पाँव पर खड़ा होगा. यही है शाश्वत रिश्ता. ऐसे ही रिश्ते में बँधे हैं हम सब. पर कौन समझता है, इन रिश्तों को?
डा. महेश परिमल

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

यादों का वसंत


डा. महेश परिमल
बर्फ सी पिघलती याद ... सर्द रातों में सिहरती याद... रण में झुलसाती रेतीली याद... रिमझिम फुहारों सी भिगोती याद... अवनि और अंबर को मिलाने दूर क्षितिज में ले जाती याद... कोयल की कूक और भ्रमर के गुँजन में डूबती याद... याद ... याद ... और केवल याद ही याद...
यह यादों का वसंत है. इस बार यह एक अनोखा सौंदर्य लेकर आया है. अपने साथ संयोग के पलों का भीगा-भीगा अहसास और वियोग के पलों की तीव्र अगिन भी ले आया है. बीते हुए पलों की सुगंध वातावरण को सुवासित करे और मन का मयूर नृत्य करे, उसके पहले जरा थम जाओ ओ स्नेह की पंखुरियों कि आज यादों का वसंत हर एक डाली को मदमस्त बनाने आ रहा है. अपने यादों के झरोखों को थोड़ा सा खोल कर देखो..., देखो तो सही... वो देखो ... उस ओर से कंधे पर काम का धनुष और गले पर सुगंधी फूलों की माला पहनकर कामदेव आ रहा है और उसे पहचाना ? वो उसके नजदीक में ही उसके साथ दौड़ती आती वो परछाई ? हाँ, वह थोड़ी सी शरमाती, सकुचाती, अपनी मदिर मुस्कान से, नयनों की कटार से कामदेव को घायल करती उसकी वामांगी रति ही तो है. क्या वह उससे अलग रह सकती है भला ? वह दोनों साथ मिलकर सारे वातावरण को कामरूप बनाते हुए आज इस झरोखे में से होते हुए आ ही पहुँचे आपके हृदयप्रदेश में ! क्या कह रही है ये यादों की लहरें? काम और रति की वासंती कला में क्रीडा करती गतियाँ? आइए आज इनका यह संदेश हम यादों के साथ इस तरह बाँटे और जानें कि जब वे अपनी यादों को भी इनके साथ समेट लेते हैं, तो याद किन-किन रूपों में हमारे सामने आती है -
याद एक श्वास बनकर हृदय को स्पंदित कर रही है. याद एक सुगंध बनकर जीवन को सुवासित कर रही है. याद एक स्वप् बनकर दिल-दिमाग को आंदोलित कर रही है. याद एक तड़प बनकर ऑंखों को भीगो रही है. याद एक मुस्कान बनकर ओठों पर अधिकार जमा रही है. याद एक लहर बनकर मन को डूबो रही है. याद एक तूफान बन कर सुख-संतोष लूट रही है. याद एक अरमान बनकर अनोखी खुशी दे रही है.

यह यादों की बस्ती है. यहाँ कुछ देर ठहरने को मन व्याकुल हो रहा है, क्योंकि प्रकृति द्वारा प्राप्त यह सबसे रमणीय स्थल है. इन यादों की शुरुआत भी हृदय से होती है और इसकी मंजिल भी हृदय ही है. हृदय यादों की समाधि है. यहाँ यादें मुनि की तरह तपस्या कर रही है. यादों की कश्ती जब तूफान में फँसती है, तो एक नई परिभाषा जन्म लेती है. इन यादों की शहनाई सुनने को कान हमेशा उतावले होते हैं. ऑंखें यदि यादों में भीगती है, तो ओठ यादों में मुस्काते हैं. इन यादों में डूबकर मन का मयूर ऐसे नाचता है, मानो मन की वीणा झंकृत हो उठी हो. यादों में सत्य, शिव और सुंदर का समावेश है. यादों में ही छिपा हे, जीवन का सारांश. यादों की चुभन भी काँटों की मानिंद शरीर को घायल करती है. यादों को कभी समय-सीमा में नहीं बाँधा जा सकता, यह पूर्णतया मुक्त होती है. हृदय के तारों को छेड़कर स्वयं की उपस्थिति बताने में यादें कभी किसी भी तरह का संकोच नहीं करती.
यादों की पतवार जब जीवन की नाव को किनारे की तरफ खिंचती है, तब हृदय में एक ज्वार उठता है. इसी में समा जाता है, सब कुछ. याद स्नेह की वेदी की ओर बढ़ती एक ऐसी आहुति है, जो मन को पूरी तरह से प्रेरित कर रही है. मन कहता है कि ये यादों का दरिया सब को डूबा देता है, सब डूब जाने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता. उसे अधबीच ही रोककर यादें कह उठती हैं कि नहीं गलत सोच रहे हो, तुम. सब कुछ डूब जाने के बाद भी यदि कुछ शेष रहती है, तो वह है केवल यादें. बूँद के रूप में रेत में समाने वाली यादें कभी मरती नहीं. वह तो हमेशा जीवित रहती है. अमृतपान करती यादें जीवन जीने की प्रेरणा बनती हैं. यादों का उपवन कभी सूना नहीं रहता. उसमें कोंपल फूटती हें, वासंती हवाएँ बहती हैं, और पंछियों का कलरव गूँजता है. इंद्रधनुषी फूलों का साम्राज्य पूरे वातावरण को सौरभमय बनाता है.
यादों और कल्पनाओं में इतनी ताकत होती है कि वह पल भर के लिए हथेलियों की रेखाओं को भी बदल देती है. हरसिंगार के फूलों की तरह एक-एक पंखुरी से झरती याद कभी जीवन से अलग हो सकती है भला? उसमें तो वसंत का वासंती वातावरण कभी इसे भुला सकता है? नहीं,कभी नहीं और कदापि नहीं. तो आओ स्वागत करें, इन वासंती हवाओं का, सत्कार करो इन सुनहरी लहरों का, और खुद के भीतर समा लो इन यादों के वसंत को. ये यादों का वसंत आज आपके हृदय के द्वार पर पूरे उमंग और विश्वास के साथ आ खड़ा हुआ है.तो आओ वसंत, तुम्हारा स्वागत है.
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

रीमेक से झाँकती सच्चाई


डॉ. महेश परिमल
आजकल रीमेक का जमाना है, हर तरफ केवल रीमेक की ही चर्चा है। चाहे वे फिल्मी गाने हों या फिर फिल्में ही क्यों न हों, लोग रीमेक की बातें करते हैं। इस पर अलग-अलग तरह के बयान भी रोज आने लगे हैं, इन बयानों से विवाद भी बढ़ने लगा है। आश्चर्य इस बात का है कि बयानवीर अपना बयान रोज ही बदल रहे हैं, इससे विवादों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। इतना कुछ होने के बाद भी न तो फिल्में बनना कम हो रही हैं और न ही फिल्मी गीतों के रीमेक पर रोक लग रही है। रीमेक होना चाहिए या नहीं, यह तो एक अलग ही विचार का बिंदु हो सकता है, लेकिन आजकल रीमेक के नाम पर जो कुछ भी बयान आ रहे हैं, वे इतने अधिक चौंकाने वाले और विवादास्पद हैं कि तरस आता है इन बयानवीरों पर।
अभी पिछले दिनों ही स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने कहा था कि रमेश सिप्पी की सुपरहिट फिल्म शोले का रीमेक नहीं बनना चाहिए। दूसरी ओर रेखा के प्रशंसकों ने भी एक शगूफा छोड़ा, जिसमें कहा गया है कि ऐश्वर्या कभी भी रेखा की तरह उमराव जान नहीं बन सकती। फिल्म देखकर लोगों का यह कहना था कि ऐश्वर्या उमराव जान तो बन सकती है, पर उमराव जान 'अदा' तो केवल रेखा ही बन सकती है। इन सबके बीच लता जी की ही छोटी बहन आशा भोंसले ने रीमेक के संबंध में एक अलग ही राय दी। उनका कहना है कि रीमेक क्यों नहीं बने, अवश्य ही बनना चाहिए। शोले में पंचम याने राहुल देव बर्मन का गाया गीत 'महबूबा-महबूबा' को कोई दूसरा गाकर बिगाड़ दे, उससे अच्छा यही है कि उस गीत को मैं ही गाऊँ। फिल्म सर्जक यदि प्रतिभावान है, तो वह एक ही कहानी पर दो-तीन फिल्में तो बना ही सकता है। वह सफल भी हो सकती है। महबूब खान की विश्व प्रसिध्द फिल्म 'मदर इंडिया' उन्हीं ही बनाई फिल्म 'औरत' का ही रीमेक थी। औरत यदि हिट हुई, तो मदर इंडिया सुपरहिट। इस फिल्म की एक खासियत यह थी कि सन् 1940 में बनी औरत में जमींदार की भूमिका कन्हैया लाल ने निभाई थी, उसके बाद जब यही फिल्म मदर इंडिया के नाम से बनाई गई, तो महबूब खान ने जमींदार की भूमिका के लिए कन्हैया लाल को ही चुना। इसी तरह मुगले आजम और अनारकली की कहानी करीब-करीब एक होने के बाद भी दोनों ही फिल्में हिट रहीं।
राजकपूर और नरगिस की हिट फिल्म 'चोरी-चोरी' के गाने बहुत ही मशहूर हुए थे, आज भी संगीत स्पर्धा में युवा इस फिल्म के गीतों को गाने में अपनी शान समझते हैं। एक अँगरेजी फिल्म 'इट हेपंड इन वन नाइट' का हिंदी रुपांतरण ही थी फिल्म चोरी-चोरी। इसी फिल्म का रीमेक महेश भट्ट ने बनाया 'दिल है कि मानता नहीं', यह फिल्म भी हिट रही। किसी भी फिल्मकार को किसी भी कहानी पर फिल्म बनाने का अधिकार है। हर कोई अपने ही ढंग से अपनी कहानी कहता है। अब शरतचंद्र चटर्जी की देवदास को ही ले लिया जाए। उनके उपन्यास पर तीन बार इसी नाम से फिल्म बन चुकी है, तीनों ही बार फिल्म हिट रही। पहली बार कुंदन लाल सहगल को लोगों ने सराहा, दूसरी बार दिलीप कुमार को लोगों ने हाथों-हाथ लिया और तीसरी बार शाहरुख खान को लोगों ने शीर्ष पर पहुँचा दिया। याने कि तीनों बार इस नाम की फिल्म सुपर-डुपर हिट रही। कहानी में निर्माताओं ने अपने हिसाब से बदलाव अवश्य लाया, जो समय की माँग थी। कहते हैं कि देवदास में संजय लीला भंसाली ने अपने बचपन की न जाने कितनी ही घटनाओं को चित्रित किया है, पिता और पुत्र के बीच के वैचारिक द्वंद्व को फिल्म में उतारा है। शरत बाबू यदि आज जीवित होते, तो भंसाली के देवदास को शायद ही स्वीकार कर पाते।
डॉन की रीमेक बनी और रीलीज भी हो गई। इस फिल्म को फिर से बनाने के पीछे यही उद्देश्य है कि यह फिल्म आज की पीढ़ी को ध्यान में रखकर बनाई गई है। पुराने लोगों को यह फिल्म इसलिए अच्छी नहीं लगेगी, क्योंकि इसके पीछे उनके दिलो-दिमाग में पुरानी डॉन ही हावी होगी। हाँ आज के युवाओं को यह फिल्म अच्छी लग सकती है, क्योंकि उसे आधुनिकता के मसाले का छौंक दिया गया है। डॉन में पुरानी फिल्म के तीन गाने लिए गए हैं, लेकिन इसमें 'खई के पान बनारस वाला' गीत के बारे में यह बता दिया जाए कि यह गीत मूल रूप से देवानंद की फिल्म बनारसी बाबू के लिए लिखा गया था, लेकिन उस गाने के लटकों-झटकों को देव साहब स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, इसीलिए यह गीत बनारसी बाबू में नहीं लिया गया। पर जब डॉन बन चुकी थी, तब फिल्म की ट्रायल देखकर पंडित जी याने मनोज कुमार ने कहा कि इंटरवल के बाद फिल्म बहुत ही फास्ट हो जाती है, इसलिए एक गीत होना चाहिए और फिल्म में खई के पान बनारस वाला गीत डाला गया। इस गीत के कारण ही उत्तर भारत में यह फिल्म खूब चली। शादी समारोहों में यह गीत अनिवार्य रूप से बजने लगा था।


अब आते हैं रामगोपाल वर्मा के शोले पर। यह फिल्म बनने के पहले से ही विवादास्पद हो गई। अभी इसकी शूटिंग शुरू ही नहीं हुई थी कि इसके नाम और अधिकार को लेकर मामला अदालत तक पहुँच गया। अब काफी कुछ बदलाव के साथ इसकी शूटिंग शुरू कर दी गई है। इस पर भी रोज नए-नए बयान जारी हो रहे हैं। इस पर सबसे अच्छी बात यही रही कि गब्बर सिंह की भूमिका अमिताभ जी को पहले से ही प्रिय थी। फिल्म परवाना और गहरी चल में विलेन का रोल करने वाले अमिताभ यदि उस समय यह रोल कर लेते, तो आज वे सफल नायक के बजाए सफल विलेन के रूप में अधिक जाने जाते, पर उस रोल के लिए तो शायद अमजद खान ही बने थे, अपने गर्दिश के दिनों में इस भूमिका को करते हुए उन्होंने अपनी प्रतिभा ही नहीं, बल्कि अपनी जान भी उस किरदार में डाल दी थी। उसके बाद वे इस सदी के सबसे बड़े विलेन बन गए। केवल यही एक फिल्म उनके जीवन की अन्य फिल्मों पर भारी पड़ती है।
कुछ भी हो यदि हमारे फिल्मकारों में हिम्मत है, तो उन्हें मौलिक विषयों पर फिल्मों का निर्माण करना चाहिए। वही घिसी-पिटी पुरानी फिल्मों और विदेशी फिल्मों की नकल करते हुए आखिर वे कब तक दर्शकों के साथ धोखा करते रहेंगे। फिल्म को फिल्म ही रहने दिया जाए, इसे रीमेक का नाम न दिया जाए, तो ही बेहतर होगा। हिट फिल्मों का पुनर्निमाण यह बताता है कि फिल्मकार उसे दोहराना चाहता है। उसमें यदि हिम्मत हो, तो पुरानी फ्लाप फिल्मों का रीमेक बनाए, क्योंक फिल्म फ्लाप क्यों हुई, यह तो सभी बताते हैं, पर फिल्म हिट क्यों हुई, इस पर कोई टिप्पणी देना नहीं चाहता। कई बार अच्छे फिल्मकारों की बेहतर अभिनेताओं वाली फिल्म भी धराशायी हो जाती है और कई बार नए फिल्मकार की एकदम ताजा अभिनेताओं को साथ लेकर बनाई गई फिल्म हिट हो जाती है। कौन-सी फिल्म हिट होगी, यह पहले से कोई कह नहीं सकता। अच्छे-अच्छे समीक्षकों की राय कई बार टाँय-टाँय फिस्स हो जाती है। कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि यह फिल्म निश्चित रूप से हिट होगी। अभिनय के नाम पर कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीतना अलग बात है और अभिनय के कारण ही लोकप्रियता प्राप्त करना अलग बात है। ओमपुरी को अमिताभ बच्चन से अधिक राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं, पर कितने लोग इसे जानते हैं? सत्यजित राय की अधिकांश फिल्मों को पुरस्कार मिले हैं, तब क्यों नहीं, उनकी फिल्मों का रीमेक बनता? सभी जानते हैं कि उनकी फिल्मों को पुरस्कार नहीं चाहिए, उन्हें तो दर्शकों का प्यार चाहिए, दर्शकों का प्यार याने बॉक्स आफिस द्वारा फिल्म को अच्छी करार देना। हर फिल्मकार की चाहत यही होती है कि उनकी फिल्म बॉक्स ऑफिस हिट हो जाए, पर कितनों की चाहत को दर्शकों का प्यार मिलता है? अंत में यही कि फिल्मों को रीमेक का नाम न दिया जाए, उसे एक संपूर्ण और उद्देश्यपरक फिल्म बनाकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाए, फिर देखो, दर्शक उसे किस तरह से हाथो-हाथ लेते हैं।
डॉ. महेश परिमल

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