शनिवार, 2 फ़रवरी 2008
यादों का वसंत
डा. महेश परिमल
बर्फ सी पिघलती याद ... सर्द रातों में सिहरती याद... रण में झुलसाती रेतीली याद... रिमझिम फुहारों सी भिगोती याद... अवनि और अंबर को मिलाने दूर क्षितिज में ले जाती याद... कोयल की कूक और भ्रमर के गुँजन में डूबती याद... याद ... याद ... और केवल याद ही याद...
यह यादों का वसंत है. इस बार यह एक अनोखा सौंदर्य लेकर आया है. अपने साथ संयोग के पलों का भीगा-भीगा अहसास और वियोग के पलों की तीव्र अगिन भी ले आया है. बीते हुए पलों की सुगंध वातावरण को सुवासित करे और मन का मयूर नृत्य करे, उसके पहले जरा थम जाओ ओ स्नेह की पंखुरियों कि आज यादों का वसंत हर एक डाली को मदमस्त बनाने आ रहा है. अपने यादों के झरोखों को थोड़ा सा खोल कर देखो..., देखो तो सही... वो देखो ... उस ओर से कंधे पर काम का धनुष और गले पर सुगंधी फूलों की माला पहनकर कामदेव आ रहा है और उसे पहचाना ? वो उसके नजदीक में ही उसके साथ दौड़ती आती वो परछाई ? हाँ, वह थोड़ी सी शरमाती, सकुचाती, अपनी मदिर मुस्कान से, नयनों की कटार से कामदेव को घायल करती उसकी वामांगी रति ही तो है. क्या वह उससे अलग रह सकती है भला ? वह दोनों साथ मिलकर सारे वातावरण को कामरूप बनाते हुए आज इस झरोखे में से होते हुए आ ही पहुँचे आपके हृदयप्रदेश में ! क्या कह रही है ये यादों की लहरें? काम और रति की वासंती कला में क्रीडा करती गतियाँ? आइए आज इनका यह संदेश हम यादों के साथ इस तरह बाँटे और जानें कि जब वे अपनी यादों को भी इनके साथ समेट लेते हैं, तो याद किन-किन रूपों में हमारे सामने आती है -
याद एक श्वास बनकर हृदय को स्पंदित कर रही है. याद एक सुगंध बनकर जीवन को सुवासित कर रही है. याद एक स्वप् बनकर दिल-दिमाग को आंदोलित कर रही है. याद एक तड़प बनकर ऑंखों को भीगो रही है. याद एक मुस्कान बनकर ओठों पर अधिकार जमा रही है. याद एक लहर बनकर मन को डूबो रही है. याद एक तूफान बन कर सुख-संतोष लूट रही है. याद एक अरमान बनकर अनोखी खुशी दे रही है.
यह यादों की बस्ती है. यहाँ कुछ देर ठहरने को मन व्याकुल हो रहा है, क्योंकि प्रकृति द्वारा प्राप्त यह सबसे रमणीय स्थल है. इन यादों की शुरुआत भी हृदय से होती है और इसकी मंजिल भी हृदय ही है. हृदय यादों की समाधि है. यहाँ यादें मुनि की तरह तपस्या कर रही है. यादों की कश्ती जब तूफान में फँसती है, तो एक नई परिभाषा जन्म लेती है. इन यादों की शहनाई सुनने को कान हमेशा उतावले होते हैं. ऑंखें यदि यादों में भीगती है, तो ओठ यादों में मुस्काते हैं. इन यादों में डूबकर मन का मयूर ऐसे नाचता है, मानो मन की वीणा झंकृत हो उठी हो. यादों में सत्य, शिव और सुंदर का समावेश है. यादों में ही छिपा हे, जीवन का सारांश. यादों की चुभन भी काँटों की मानिंद शरीर को घायल करती है. यादों को कभी समय-सीमा में नहीं बाँधा जा सकता, यह पूर्णतया मुक्त होती है. हृदय के तारों को छेड़कर स्वयं की उपस्थिति बताने में यादें कभी किसी भी तरह का संकोच नहीं करती.
यादों की पतवार जब जीवन की नाव को किनारे की तरफ खिंचती है, तब हृदय में एक ज्वार उठता है. इसी में समा जाता है, सब कुछ. याद स्नेह की वेदी की ओर बढ़ती एक ऐसी आहुति है, जो मन को पूरी तरह से प्रेरित कर रही है. मन कहता है कि ये यादों का दरिया सब को डूबा देता है, सब डूब जाने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता. उसे अधबीच ही रोककर यादें कह उठती हैं कि नहीं गलत सोच रहे हो, तुम. सब कुछ डूब जाने के बाद भी यदि कुछ शेष रहती है, तो वह है केवल यादें. बूँद के रूप में रेत में समाने वाली यादें कभी मरती नहीं. वह तो हमेशा जीवित रहती है. अमृतपान करती यादें जीवन जीने की प्रेरणा बनती हैं. यादों का उपवन कभी सूना नहीं रहता. उसमें कोंपल फूटती हें, वासंती हवाएँ बहती हैं, और पंछियों का कलरव गूँजता है. इंद्रधनुषी फूलों का साम्राज्य पूरे वातावरण को सौरभमय बनाता है.
यादों और कल्पनाओं में इतनी ताकत होती है कि वह पल भर के लिए हथेलियों की रेखाओं को भी बदल देती है. हरसिंगार के फूलों की तरह एक-एक पंखुरी से झरती याद कभी जीवन से अलग हो सकती है भला? उसमें तो वसंत का वासंती वातावरण कभी इसे भुला सकता है? नहीं,कभी नहीं और कदापि नहीं. तो आओ स्वागत करें, इन वासंती हवाओं का, सत्कार करो इन सुनहरी लहरों का, और खुद के भीतर समा लो इन यादों के वसंत को. ये यादों का वसंत आज आपके हृदय के द्वार पर पूरे उमंग और विश्वास के साथ आ खड़ा हुआ है.तो आओ वसंत, तुम्हारा स्वागत है.
डा. महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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